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कुरुक्षेत्र, जनवरी 2009
दिनों-दिन मानव की ज्यादा बलवती होती विकास की चाह, अंतरिक्ष तक पहुँचते आदमी के कदम, रोजाना ही नये-नये आविष्कारों की भरमार। यह सब सुनने में कितना अच्छा लगता है, कितना सुखद। पर क्या हमने कभी यह भी जानने की कोशिश की है कि, चारो तरफ होती यह प्रगति किस कीमत पर हो रही है? लगभग चालीस लाख साल पहले आदमी की उत्पति धरती पर हुई। इसके बाद से ही मानव जाति की नयी-नयी आवश्यकताओं तथा सुख-सुविधा के लिए धरती, प्रकृति और पर्यावरण हर जगह पर मनुष्यों की निर्भरता बढ़ती गई। जनसंख्या में होती निरन्तर वृद्धि इस निर्भरता तथा संसाधनों के असीमित दोहन को बढ़ाने में और मददगार बनीं। आज प्रदूषण के बढ़ते प्रभावों का ही परिणाम है कि समुद्र का जल-स्तर लगातार बढ़ रहा है। जैव-विविधता में हो रही कमी क्या कहती है? मानसून की अनिश्चितता तथा तापमान में वृद्धि का क्या इशारा है? ये साधारण सवाल नहीं है। आज ये अनिवार्य हो गया है कि हम अपने पर्यावरण की रक्षा, उसकी स्वच्छता पर ध्यान दें तथा इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाएँ।
पर्यावरण ऐसी सह समस्या है जो कि सब पर प्रभाव डालेगी। कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी परेशानी है जो देश की सीमाओं को नहीं मानती है।जवलायु परिवर्तन पर अभी हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में विश्व के सभी देशों से इस बारे में ध्यान देने की अपील की गई है। करीब दो दशक पहले से ही वैज्ञानिक हमें पर्यावरण के बारे में मसलन ग्लोबल वार्मिंग और ओजोन परत के क्षरण आदि खतरों से आगाह करते रहे हैं। कई वैश्विक नीतियों के बावजूद हम आज भी इस पर कोई संतोषजनक अंकुश लगा पाने में सफल नहीं हो सके हैं। ये खतरे हर देश, हर व्यक्ति, हर प्राणी सभी के सामने हैं। अतः जरूरत है कि हम पर्यावरण के प्रति जागरूक रहें तथा ईमानदारी से इसके संरक्षण के लिए कदम उठाएँ।
अमेरिका जैसे विकसित देश एक तरफ तो पर्यावरणीय जागरुकता के अतीत में मील का पत्थर कहे जाने वाले ‘क्योटो समझौते’ से स्वयं को अलग रखते हैं तो दूसरी ओर अपने देश के उद्योगों से खतरनाक रसायनों के प्रयोग न करने की अपील करते हैं।
‘क्योटो सन्धि’ को 178 देशों ने अपनी स्वीकृति दी थी। सन्धि में यह प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र अपने द्वारा उत्सर्जित की जा रही खतरनाक गैसों के स्तर को 1990 के स्तर से कम के कम पाँच फीसदी कम करेंगे। यह कार्य वर्ष 2008-2012 के दौरान होना था। यदि हमने इस सन्धि के प्रति पूरी ईमानदारी व सजगता दिखाई होती तो आज पर्यावरण संकट इतना भयावह नहीं होता।
पर्यावरण सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र की समिति इण्टरगवर्नमेण्ट चैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने सख्त चेतावनी दी है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत जैसे कई देशों को सूखे, बाढ़, तूफान जैसी कई आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसी साल के मध्य में अभी इस रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले कुछ दशकों में समुद्र के जल-स्तर में 89 से.मी. की बढ़ोत्तरी होगी। इस कारण इण्डोनेशिया को लगभग दो हजार द्वीपों से हाथ धोना पड़ेगा। फिजी जैसे देशों के जलमग्न होने की भी बात चेतावनी में कही गई है। इस रिपोर्ट ने कहा है कि यदि हमने पर्यावरण के लिए प्रतिकूल गतिविधियाँ कम नहीं की तो स्थिति काफी भयावह होगी।
पिछले पचास वर्षों में अण्टार्कटिका में पेंग्विनों की संख्या आधी रह गई है। ग्लेशियरों की मोटाई पिछले 30-40 सालों में 40 प्रतिशत कम हो गई है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार भी हमारी धरती का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। भूजल स्तर में गिरावट, कई बीमारियाँ, सुनामी आदि जैसी समस्याएँ दिनों-दिन दस्तक दे रही हैं। दिन प्रतिदिन नये अनुसन्धान व अध्ययन यही बताते हैं कि हमें अब अनिवार्य रूप से इस समस्या की तरफ ध्यान देना होगा।
वैश्विक रूप से हो रहे लगातार उत्खननों के कारण धरती लगातार खोखली होती जा रही है। 19वीं शताब्दी की समाप्ति तथा 20वीं सदी की शुरुआत से ही बहुमूल्य खनिजों ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इनमें मुख्य रूप से पेट्रोलियम पदार्थ, प्राकृतिक गैसें, ताम्बा, एल्युमीनियम आदि तत्व प्रमुख थे।
आज पेट्रोलियम पदार्थों ने तो हमारे जीवन में गहरी पैठ बना ली है। ऊर्जा की जरूरत को पूर्ण करते इन तत्वों की पूर्ति हमें पृथ्वी से होती है। इनको उपयोग में लाने के लिए कई रासायनिक क्रियाएँ की जाती हैं। इसी प्रकार गाड़ियों के द्वारा होने वाले प्रदूषण, कारखानों की धुँआ उगलती चिमनियाँ, उद्योगों से निकलता खतरनाक रसायनों से भरा जल सभी कुछ प्रदूषण को बढ़ाने में सहायक है।
पर्यावरण सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र की समिति इण्टरगवर्नमेण्ट चैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने सख्त चेतावनी दी है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत जैसे कई देशों को सूखे, बाढ़, तूफान जैसी कई आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही आने वाले कुछ दशकों में समुद्र के जल-स्तर में 89 से.मी. की बढ़ोत्तरी होगी। इस कारण इण्डोनेशिया को लगभग दो हजार द्वीपों से हाथ धोना पड़ेगा।बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण तथा पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई से वैश्विक तापमान में वृद्धि हुईं। इसके चलते ग्लेशियर पिघलते हैं जिससे समुद्र का जल-स्तर खतरनाक ढंग से बढ़ रहा है। अभी हाल ही की बात है जब अण्टार्कटिका में एक बहुत बड़ा हिमखण्ड मात्र 35 दिनों में ही टूटकर समुद्र में समाहित हो गया। समुद्री जल-स्तर में वृद्धि के कारण अनिश्चित व ज्यादा वर्षा तो होती है इसका सबसे बड़ा खतरा दुनिया भर के तटीय शहरों को भी होता है।
सऊदी अरब में हुई बेमौसम बरसात व बर्फबारी पर्यावरण के गिरते स्वास्थ्य की तरफ इशारा करते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने पहले से ही हमारे देश भारत की पहचान उन 27 देशों में की है जिनको समुद्र के बढ़ते जल-स्तर से सबसे ज्यादा खतरा है। जैव-विविधता के मुद्दे पर विश्व में छठा स्थान रखने वाले देश भारत के लिए यह और भी ज्यादा शोचनीय है।
आज जबकि पूरे विश्व में यह संकट हो तो यह जरूरी हो गया है कि हम इस दिशा में कदम उठाएँ। पर्यावरण के बारे में वैश्विक रूप से प्रयास हुए। इनमें ‘क्योटो सन्धि’ तथा रियो व जोहांसबर्ग में सेमीनारों का आयोजन किया गया। कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में अमेरिका को जल्द ही पीछे छोड़ देने वाले देश चीन ने मार्च माह से (पिछले वर्ष) ‘स्वच्छता विकास प्रणाली कोष’ शुरू करने का फैसला किया। इस कोष के लिए 64 लाख अमेरिकी डॉलर का कर्ज विश्व बैंक ने भी दिया है। विश्व बैंक यूरोप को भी ऐसा ही कर्ज देगा।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून नवम्बर 2007 में लातिन अमेरिका तथा यूरोप के दौरे पर अण्टार्कटिका व अमेजन के वर्षा वनों का भी जायजा लेंगे। इस दौरान वे मानवों से पर्यावरण को हो रहे नुकसान का भी अन्दाजा लेंगे। दरअसल बान ने जलवायु परिवर्तन व आ रहे बदलाव के प्रति लड़ाई को अपनी प्राथमिकताओं में लिया है। इसी विषय पर भारत सरकार ने भी समझदारी से तथा ईमानदारी से ध्यान दिया है।
भारत ने वर्ष 2002 में ही ‘क्योटो समझौते’ को अपनाया। सरकार का पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय देश में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), अन्तरराष्ट्रीय समन्वित पर्वत विकास केन्द्र, दक्षिण एशिया सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम के लिए केन्द्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है। कई प्रजातियाँ मसलन एपोसाइनेर्स वर्ग जो कि महाराष्ट्र से 50 वर्ष बाद तथा एरीकेसी वर्ग के पौधे सिक्किम से 30 वर्ष बाद संग्रहीत किए गए।
भारत का कुल वन क्षेत्र जो कि 6,74,333 वर्ग कि.मी. का है। यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20.64 प्रतिशत है। सरकारी प्रयासों से इसमें 2765 वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र की वृद्धि वर्ष 2001 की तुलना में हुई। भारत ने अपनी वन नीति की घोषणा 1894 से ही कर दी थी। दसवीं पंचवर्षीय योजना में एक नई योजना जिसे ‘समन्वित वन सुरक्षा योजना’ कहते हैं भी लागू की गई है। वन्य जीव संरक्षण के लिए नई कार्य योजना (2002-2016) लाई गई है। भारत में संरक्षित क्षेत्र में इस समय 94 राष्ट्रीय उद्यान व 501 अभयारण्य हैं। वन्य जीव संरक्षण के तहत प्रोजेक्ट टाइगर (1973) व हाथी परियोजना (1992) से चल रही हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं को भी ‘ग्रीनिंग इण्डिया’ के लिए अनुदान सहायता दी जाती है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड जो कि 1974 में स्थापित किया गया। यह निश्चित, सकारात्मक नीति के तहत कार्य करता है तथा प्रदूषण व सम्बन्धित मसलों पर केन्द्र सरकार को सलाह देता है। इस संस्था ने उन 72 प्रदूषित नगरों की सूची बनाई है जो कि राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानदण्डों का उल्लंघन कर रहे हैं।
राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (एनएएमपी) के अन्तर्गत 4 वायु प्रदूषकों में, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, स्थगित विविक्त पदार्थ तथा अन्तःश्वसनीय स्थगित विविक्त पदार्थों की निगरानी की योजना है। इसके अतिरिक्त देश के समस्त स्थानों पर नये वाहनों के लिए भारत-II मानक अप्रैल, 2005 से लागू है। जल संरक्षण की यदि बात करें तो अनेक योजनाओं के तहत देश की 34 नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
उपरोक्त योजनाओं का क्या हमें अपेक्षित लाभ मिल रहा है? यह बात काफी जरूरी है। दिल्ली में यमुना, लखनऊ में गोमती नदी के प्रदूषण के बारे में आए दिन हम कुछ न कुछ समाचारपत्रों में देखते हैं। यदि गंगा को ही लें तो ऋषिकेश से इलाहाबाद तक अपनी यात्रा में ही इसमें 132 गन्दे नाले आकर गिरते हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें बच्चों की कविता ‘मछली जल की रानी है’ पर सुधार करने की जरूरत पड़ेगी।
गन्दे जल के कारण जलचरों की मौतों पर हम सभी बातें करते हैं पर यहाँ जरूरत सही ढंग से कुछ सार्थक करने की भी है, सिर्फ सोचने की ही नहीं। हालाँकि सरकार कई योजनाएँ जैसे कश्मीर में डल झील तथा अन्य 35 झीलों के लिए योजनाएँ भी चला रही है।
देश की 1580 औद्योगिक इकाइयाँ खतरनाक रसायनों से होने वाली दुर्घटना की आशंका वाली हैं। इससे निबटने के लिए अब तक 1107 स्थलीय तथा 138 गैर-स्थलीय योजनाएँ तैयार की जा चुकी हैं। इन खतरनाक रसायनों को प्रयोग में लाने वाली इन औद्योगिक इकाइयों को अनिवार्य रूप से बीमा पॉलिसी लेनी होती है।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम, पारिस्थितिकी विकास बल तथा संयुक्त वन प्रबन्धन प्रकोष्ठ (जेएफएम) की स्थापना की है। यह सभी वन संवर्धन, कठिन परिस्थितियों में कार्य करने तथा वन सुरक्षा के लिए कार्य करते हैं। पर्यावरण सम्बन्धी सूचनाओं के लिए भारत ने पर्यावरण सूचना प्रणाली भी तैयार की है।
ओजोन परत के संरक्षण व बचाव के लिए भारत ने ‘माण्ट्रियल सन्धि’ प्रस्ताव को लागू करने के लिए आवश्यक कदम उठाए हैं। भारत 1992 में इसमें शामिल हुआ। सरकार ओजोन परत को नष्ट होने से बचाने के लिए प्रयासरत है। सरकार ओजोन परत के लिए खतरनाक पदार्थों को नष्ट करने वाली परियोजनाओं के लिए कस्टम शुल्क/उत्पादन शुल्क की छूट देती है। इसके अतिरिक्त भारत पर्यावरण परिवर्तन के बारे में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का सदस्य भी है।
हमारी सरकार इस बात पर भी जोर दे रही है कि लोगों को पर्यावरण के बारे में जागरूक बनाया जाए। इसके लिए सरकार द्वारा पर्यावरण-शिक्षा, जागरुकता और प्रशिक्षण के लिए योजना भी चलायी गई है। इस सम्बन्ध में अहमदाबाद, चेन्नई, बंगलोर, समेत कुल 9 जगहों पर अत्यन्त विकसित केन्द्रों की स्थापना की गई है।
पर्यावरण हमारे सामने एक ज्वलन्त समस्या बन गई है। यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक समान रूप से खतरनाक होती जा रही है। अमेरिका जैसे विकसित उपभोक्तावादी देश जो इसके लिए काफी ज्यादा जिम्मेदार हैं, उनकी इस बात को भूल कहें या गलती? अफगानिस्तान, ईराक जैसे देशों में विस्फोट व बमों का रोज फटना क्या पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम मानवों के विकास की कीमत बेजुबान प्राणी तथा हरी-भरी वनस्पतियाँ अपनी जान देकर क्यों दें? क्या यह सही होगा? नहीं, बिल्कुल नहीं। अतः जरूरत है कि हम सभी इस बारे में कुछ ठोस कदम उठाएँ। कुछ सार्थक व सकारात्मक करें जो कि पर्यावरण के संरक्षण, पोषण व संवर्धन में सहायक हो।
पर्यावरण ऐसी सह समस्या है जो कि सब पर प्रभाव डालेगी। कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी परेशानी है जो देश की सीमाओं को नहीं मानती है। अतः हम सबको मिलकर इस खतरे से निपटने के लिए साझें प्रयासों की जरूरत होगी ताकि हम अपनी अगली पीढ़ियों को विरासत में एक साफ, स्वच्छ पर्यावरण दे सकें।
(लेखक पर्यावरण विषय के विशेषज्ञ तथा स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : rahuldhardvivedi@gmail.com
पर्यावरण ऐसी सह समस्या है जो कि सब पर प्रभाव डालेगी। कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी परेशानी है जो देश की सीमाओं को नहीं मानती है।जवलायु परिवर्तन पर अभी हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में विश्व के सभी देशों से इस बारे में ध्यान देने की अपील की गई है। करीब दो दशक पहले से ही वैज्ञानिक हमें पर्यावरण के बारे में मसलन ग्लोबल वार्मिंग और ओजोन परत के क्षरण आदि खतरों से आगाह करते रहे हैं। कई वैश्विक नीतियों के बावजूद हम आज भी इस पर कोई संतोषजनक अंकुश लगा पाने में सफल नहीं हो सके हैं। ये खतरे हर देश, हर व्यक्ति, हर प्राणी सभी के सामने हैं। अतः जरूरत है कि हम पर्यावरण के प्रति जागरूक रहें तथा ईमानदारी से इसके संरक्षण के लिए कदम उठाएँ।
अमेरिका जैसे विकसित देश एक तरफ तो पर्यावरणीय जागरुकता के अतीत में मील का पत्थर कहे जाने वाले ‘क्योटो समझौते’ से स्वयं को अलग रखते हैं तो दूसरी ओर अपने देश के उद्योगों से खतरनाक रसायनों के प्रयोग न करने की अपील करते हैं।
‘क्योटो सन्धि’ को 178 देशों ने अपनी स्वीकृति दी थी। सन्धि में यह प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र अपने द्वारा उत्सर्जित की जा रही खतरनाक गैसों के स्तर को 1990 के स्तर से कम के कम पाँच फीसदी कम करेंगे। यह कार्य वर्ष 2008-2012 के दौरान होना था। यदि हमने इस सन्धि के प्रति पूरी ईमानदारी व सजगता दिखाई होती तो आज पर्यावरण संकट इतना भयावह नहीं होता।
पर्यावरण सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र की समिति इण्टरगवर्नमेण्ट चैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने सख्त चेतावनी दी है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत जैसे कई देशों को सूखे, बाढ़, तूफान जैसी कई आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसी साल के मध्य में अभी इस रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले कुछ दशकों में समुद्र के जल-स्तर में 89 से.मी. की बढ़ोत्तरी होगी। इस कारण इण्डोनेशिया को लगभग दो हजार द्वीपों से हाथ धोना पड़ेगा। फिजी जैसे देशों के जलमग्न होने की भी बात चेतावनी में कही गई है। इस रिपोर्ट ने कहा है कि यदि हमने पर्यावरण के लिए प्रतिकूल गतिविधियाँ कम नहीं की तो स्थिति काफी भयावह होगी।
पिछले पचास वर्षों में अण्टार्कटिका में पेंग्विनों की संख्या आधी रह गई है। ग्लेशियरों की मोटाई पिछले 30-40 सालों में 40 प्रतिशत कम हो गई है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार भी हमारी धरती का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। भूजल स्तर में गिरावट, कई बीमारियाँ, सुनामी आदि जैसी समस्याएँ दिनों-दिन दस्तक दे रही हैं। दिन प्रतिदिन नये अनुसन्धान व अध्ययन यही बताते हैं कि हमें अब अनिवार्य रूप से इस समस्या की तरफ ध्यान देना होगा।
वैश्विक रूप से हो रहे लगातार उत्खननों के कारण धरती लगातार खोखली होती जा रही है। 19वीं शताब्दी की समाप्ति तथा 20वीं सदी की शुरुआत से ही बहुमूल्य खनिजों ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इनमें मुख्य रूप से पेट्रोलियम पदार्थ, प्राकृतिक गैसें, ताम्बा, एल्युमीनियम आदि तत्व प्रमुख थे।
आज पेट्रोलियम पदार्थों ने तो हमारे जीवन में गहरी पैठ बना ली है। ऊर्जा की जरूरत को पूर्ण करते इन तत्वों की पूर्ति हमें पृथ्वी से होती है। इनको उपयोग में लाने के लिए कई रासायनिक क्रियाएँ की जाती हैं। इसी प्रकार गाड़ियों के द्वारा होने वाले प्रदूषण, कारखानों की धुँआ उगलती चिमनियाँ, उद्योगों से निकलता खतरनाक रसायनों से भरा जल सभी कुछ प्रदूषण को बढ़ाने में सहायक है।
पर्यावरण सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र की समिति इण्टरगवर्नमेण्ट चैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने सख्त चेतावनी दी है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत जैसे कई देशों को सूखे, बाढ़, तूफान जैसी कई आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही आने वाले कुछ दशकों में समुद्र के जल-स्तर में 89 से.मी. की बढ़ोत्तरी होगी। इस कारण इण्डोनेशिया को लगभग दो हजार द्वीपों से हाथ धोना पड़ेगा।बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण तथा पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई से वैश्विक तापमान में वृद्धि हुईं। इसके चलते ग्लेशियर पिघलते हैं जिससे समुद्र का जल-स्तर खतरनाक ढंग से बढ़ रहा है। अभी हाल ही की बात है जब अण्टार्कटिका में एक बहुत बड़ा हिमखण्ड मात्र 35 दिनों में ही टूटकर समुद्र में समाहित हो गया। समुद्री जल-स्तर में वृद्धि के कारण अनिश्चित व ज्यादा वर्षा तो होती है इसका सबसे बड़ा खतरा दुनिया भर के तटीय शहरों को भी होता है।
सऊदी अरब में हुई बेमौसम बरसात व बर्फबारी पर्यावरण के गिरते स्वास्थ्य की तरफ इशारा करते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने पहले से ही हमारे देश भारत की पहचान उन 27 देशों में की है जिनको समुद्र के बढ़ते जल-स्तर से सबसे ज्यादा खतरा है। जैव-विविधता के मुद्दे पर विश्व में छठा स्थान रखने वाले देश भारत के लिए यह और भी ज्यादा शोचनीय है।
आज जबकि पूरे विश्व में यह संकट हो तो यह जरूरी हो गया है कि हम इस दिशा में कदम उठाएँ। पर्यावरण के बारे में वैश्विक रूप से प्रयास हुए। इनमें ‘क्योटो सन्धि’ तथा रियो व जोहांसबर्ग में सेमीनारों का आयोजन किया गया। कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में अमेरिका को जल्द ही पीछे छोड़ देने वाले देश चीन ने मार्च माह से (पिछले वर्ष) ‘स्वच्छता विकास प्रणाली कोष’ शुरू करने का फैसला किया। इस कोष के लिए 64 लाख अमेरिकी डॉलर का कर्ज विश्व बैंक ने भी दिया है। विश्व बैंक यूरोप को भी ऐसा ही कर्ज देगा।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून नवम्बर 2007 में लातिन अमेरिका तथा यूरोप के दौरे पर अण्टार्कटिका व अमेजन के वर्षा वनों का भी जायजा लेंगे। इस दौरान वे मानवों से पर्यावरण को हो रहे नुकसान का भी अन्दाजा लेंगे। दरअसल बान ने जलवायु परिवर्तन व आ रहे बदलाव के प्रति लड़ाई को अपनी प्राथमिकताओं में लिया है। इसी विषय पर भारत सरकार ने भी समझदारी से तथा ईमानदारी से ध्यान दिया है।
भारत ने वर्ष 2002 में ही ‘क्योटो समझौते’ को अपनाया। सरकार का पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय देश में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), अन्तरराष्ट्रीय समन्वित पर्वत विकास केन्द्र, दक्षिण एशिया सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम के लिए केन्द्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है। कई प्रजातियाँ मसलन एपोसाइनेर्स वर्ग जो कि महाराष्ट्र से 50 वर्ष बाद तथा एरीकेसी वर्ग के पौधे सिक्किम से 30 वर्ष बाद संग्रहीत किए गए।
भारत का कुल वन क्षेत्र जो कि 6,74,333 वर्ग कि.मी. का है। यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20.64 प्रतिशत है। सरकारी प्रयासों से इसमें 2765 वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र की वृद्धि वर्ष 2001 की तुलना में हुई। भारत ने अपनी वन नीति की घोषणा 1894 से ही कर दी थी। दसवीं पंचवर्षीय योजना में एक नई योजना जिसे ‘समन्वित वन सुरक्षा योजना’ कहते हैं भी लागू की गई है। वन्य जीव संरक्षण के लिए नई कार्य योजना (2002-2016) लाई गई है। भारत में संरक्षित क्षेत्र में इस समय 94 राष्ट्रीय उद्यान व 501 अभयारण्य हैं। वन्य जीव संरक्षण के तहत प्रोजेक्ट टाइगर (1973) व हाथी परियोजना (1992) से चल रही हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं को भी ‘ग्रीनिंग इण्डिया’ के लिए अनुदान सहायता दी जाती है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड जो कि 1974 में स्थापित किया गया। यह निश्चित, सकारात्मक नीति के तहत कार्य करता है तथा प्रदूषण व सम्बन्धित मसलों पर केन्द्र सरकार को सलाह देता है। इस संस्था ने उन 72 प्रदूषित नगरों की सूची बनाई है जो कि राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानदण्डों का उल्लंघन कर रहे हैं।
राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (एनएएमपी) के अन्तर्गत 4 वायु प्रदूषकों में, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, स्थगित विविक्त पदार्थ तथा अन्तःश्वसनीय स्थगित विविक्त पदार्थों की निगरानी की योजना है। इसके अतिरिक्त देश के समस्त स्थानों पर नये वाहनों के लिए भारत-II मानक अप्रैल, 2005 से लागू है। जल संरक्षण की यदि बात करें तो अनेक योजनाओं के तहत देश की 34 नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
उपरोक्त योजनाओं का क्या हमें अपेक्षित लाभ मिल रहा है? यह बात काफी जरूरी है। दिल्ली में यमुना, लखनऊ में गोमती नदी के प्रदूषण के बारे में आए दिन हम कुछ न कुछ समाचारपत्रों में देखते हैं। यदि गंगा को ही लें तो ऋषिकेश से इलाहाबाद तक अपनी यात्रा में ही इसमें 132 गन्दे नाले आकर गिरते हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें बच्चों की कविता ‘मछली जल की रानी है’ पर सुधार करने की जरूरत पड़ेगी।
गन्दे जल के कारण जलचरों की मौतों पर हम सभी बातें करते हैं पर यहाँ जरूरत सही ढंग से कुछ सार्थक करने की भी है, सिर्फ सोचने की ही नहीं। हालाँकि सरकार कई योजनाएँ जैसे कश्मीर में डल झील तथा अन्य 35 झीलों के लिए योजनाएँ भी चला रही है।
देश की 1580 औद्योगिक इकाइयाँ खतरनाक रसायनों से होने वाली दुर्घटना की आशंका वाली हैं। इससे निबटने के लिए अब तक 1107 स्थलीय तथा 138 गैर-स्थलीय योजनाएँ तैयार की जा चुकी हैं। इन खतरनाक रसायनों को प्रयोग में लाने वाली इन औद्योगिक इकाइयों को अनिवार्य रूप से बीमा पॉलिसी लेनी होती है।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय वनारोपण कार्यक्रम, पारिस्थितिकी विकास बल तथा संयुक्त वन प्रबन्धन प्रकोष्ठ (जेएफएम) की स्थापना की है। यह सभी वन संवर्धन, कठिन परिस्थितियों में कार्य करने तथा वन सुरक्षा के लिए कार्य करते हैं। पर्यावरण सम्बन्धी सूचनाओं के लिए भारत ने पर्यावरण सूचना प्रणाली भी तैयार की है।
ओजोन परत के संरक्षण व बचाव के लिए भारत ने ‘माण्ट्रियल सन्धि’ प्रस्ताव को लागू करने के लिए आवश्यक कदम उठाए हैं। भारत 1992 में इसमें शामिल हुआ। सरकार ओजोन परत को नष्ट होने से बचाने के लिए प्रयासरत है। सरकार ओजोन परत के लिए खतरनाक पदार्थों को नष्ट करने वाली परियोजनाओं के लिए कस्टम शुल्क/उत्पादन शुल्क की छूट देती है। इसके अतिरिक्त भारत पर्यावरण परिवर्तन के बारे में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का सदस्य भी है।
हमारी सरकार इस बात पर भी जोर दे रही है कि लोगों को पर्यावरण के बारे में जागरूक बनाया जाए। इसके लिए सरकार द्वारा पर्यावरण-शिक्षा, जागरुकता और प्रशिक्षण के लिए योजना भी चलायी गई है। इस सम्बन्ध में अहमदाबाद, चेन्नई, बंगलोर, समेत कुल 9 जगहों पर अत्यन्त विकसित केन्द्रों की स्थापना की गई है।
पर्यावरण हमारे सामने एक ज्वलन्त समस्या बन गई है। यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक समान रूप से खतरनाक होती जा रही है। अमेरिका जैसे विकसित उपभोक्तावादी देश जो इसके लिए काफी ज्यादा जिम्मेदार हैं, उनकी इस बात को भूल कहें या गलती? अफगानिस्तान, ईराक जैसे देशों में विस्फोट व बमों का रोज फटना क्या पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं?
और सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम मानवों के विकास की कीमत बेजुबान प्राणी तथा हरी-भरी वनस्पतियाँ अपनी जान देकर क्यों दें? क्या यह सही होगा? नहीं, बिल्कुल नहीं। अतः जरूरत है कि हम सभी इस बारे में कुछ ठोस कदम उठाएँ। कुछ सार्थक व सकारात्मक करें जो कि पर्यावरण के संरक्षण, पोषण व संवर्धन में सहायक हो।
पर्यावरण ऐसी सह समस्या है जो कि सब पर प्रभाव डालेगी। कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी परेशानी है जो देश की सीमाओं को नहीं मानती है। अतः हम सबको मिलकर इस खतरे से निपटने के लिए साझें प्रयासों की जरूरत होगी ताकि हम अपनी अगली पीढ़ियों को विरासत में एक साफ, स्वच्छ पर्यावरण दे सकें।
(लेखक पर्यावरण विषय के विशेषज्ञ तथा स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : rahuldhardvivedi@gmail.com