आज से लगभग चालीस पहले, 1970 के दशक के आखिरी सालों में केन्द्रीय भूजल परिषद, भारत सरकार ने बेतवा नदी-तंत्र के प्रारंभिक इलाकों के भूजल संसाधनों की संभाव्य उपलब्धता रिपोर्ट प्रकाशित की थी। ज्ञातव्य है कि इस नदी-घाटी का गहन अध्ययन, भारत और ब्रिटेन की सरकार के मध्य हुए समझौते के अन्तर्गत हुआ था। रिपोर्ट, उसी समझौते का परिणाम था। इस अध्ययन में दोनों देशों के विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। वैज्ञानिकों के बीच, इस रिपोर्ट को, तकनीकी नजरिए से केन्द्रीय भूजल परिषद की बेहतरीन रिपोर्ट के तौर पर जाना जाता है।
बेतवा नदी-तंत्र के प्रारंभिक हिस्सों का कुल रकबा 20600 वर्ग किलोमीटर है। यह रकबा मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में स्थित है। गंगा कछार का हिस्सा है। यह सम्पूर्ण इलाका चट्टानी है। उसके लगभग 13650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बेसाल्ट, लगभग 3900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विन्ध्यन युग का बलुआपत्थर और लगभग 3050 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बुन्देलखंड ग्रेनाइट पाया जाता है। मौसम विभाग के सन 1926 से लेकर सन 1975 तक के आंकड़ों के अनुसार इलाके की औसत बरसात 1138 मिलीमीटर है। इस इलाके में हर छठवें साल सूखा पड़ता है। इन जानकारियों का विस्त्रत विवरण रिर्पोर्ट में दर्ज है।
बेतवा नदी-तंत्र की उपर्युक्त अध्ययन रिपोर्ट में विज्ञान और इंजीनियरिंग की सभी ज्ञात विधाओं और तकनीकों का उपयोग कर उथले और गहरे एक्वीफरों की क्षमता ज्ञात की गई थी। इसके लिए पूरे इलाके में गहरे नलकूप खोदे गए थे। विभिन्न गहराईयों पर स्थित चट्टानों की परतों के गुण और उनमें मिलने वाले भूजल की मात्रा को ज्ञात किया गया था। भूजल स्तर की घट-बढ़ जानने के लिए अवलोकन कुए स्थापित किए गए थे। इसके अलावा मौसम विज्ञान, सतही जल विज्ञान, मिट्टी की नमी, पानी की गुणवत्ता इत्यादि को ज्ञात कर उनका सघन अध्ययन किया गया था। नदियों का प्रवाह मापा गया था। इसके साथ ही गणितीय माडल को विकसित कर उसका भी अध्ययन किया गया था। अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि बेतवा नदी घाटी के प्रारंभिक क्षेत्र के उथले एक्वीफरों की सालाना भूजल पुनःभरण क्षमता 872 मिलियन क्यूबिक मीटर और भूजल की सुरक्षित सालाना भूजल निकासी 690 मिलियन क्यूबिक मीटर संभावित है। रिपोर्ट की अन्य महत्वपूर्ण सिफारिश थी कि गहरे एक्वीफरों के पानी का उपयोग केवल पेयजल योजनाओं के लिए किया जाए। अर्थात सिंचाई के लिए उनसे पानी नहीं निकाला जावे।
उपर्युक्त रिपोर्ट में दर्ज विवरणों के आधार पर ज्ञात होता है कि 1980 के पूर्व बेतवा नदी घाटी के प्रारंभिक भाग में गैरमानसूनी सीजन में भूजल की कुदरती निकासी और दोहन की स्थिति निम्नानुसार थी-
97 मिलियन क्यूबिक मीटर भूजल (सुरक्षित निकासी का लगभग 14 प्रतिशत) का कुओं द्वारा उठाव।
90 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी (सुरक्षित निकासी का लगभग 13 प्रतिशत) का नदियों से सीधा उठाव।
460 मिलियन क्यूबिक मीटर (सुरक्षित निकासी का लगभग 67 प्रतिशत) पानी की नदियों में प्रवाह के तौर पर कुदरती निकासी।
43 मिलियन क्यूबिक मीटर (सुरक्षित निकासी का लगभग 6 प्रतिशत) एक्वीफर में बाकी।
उपर्युक्त आंकड़ांे से जाहिर है कि 1980 के पहले बेतवा नदी घाटी के प्रारंभिक भाग में गैरमानसूनी सीजन में उथले एक्वीफरों से भूजल की कुदरती निकासी 550 मिलियन क्यूबिक मीटर (460़90 अर्थात लगभग 80 प्रतिशत) थी। मानवीय प्रयासों से कृत्रिम दोहन मात्र 97 मिलियन क्यूबिक मीटर (सुरक्षित निकासी का लगभग 14 प्रतिशत) प्रति वर्ष था। कुदरती निकासी की तुलना में कृत्रिम दोहन का प्रतिशत लगभग 17 था। इस सम्बन्ध तथा उथले एक्वीफरों में बाकी पानी के बचे रहने के कारण कुए सूखने से बचे हुए थे।
ज्ञातव्य है कि यह अध्ययन 1970 के दशक के आखिरी सालों में किया गया था। उन दिनों तक भारत में हरित क्रान्ति का आगाज हो चुका था। कम पानी चाहने वाली परम्परागत खेती, धीरे-धीरे हाशिए पर जा रही थी और आधुनिक खेती अपनी स्वीकार्यता बढ़ा रही थी। इस स्वीकार्यता के कारण, खेती में पानी की मांग के साथ-साथ उन्नत बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा था। बांध आधारित सतही सिंचाई के लिए अनुपयुक्त इलाकों में भूजल आधारित सिंचाई गति पकड रही थी। यही सब बेतवा नदी घाटी के चट्टानी इलाकों में भी हो रहा था। पानी की चाह बढ़ रही थी।
हरित क्रान्ति का बेतवा रिपोर्ट पर प्रभाव साफ नजर आता है। उस प्रभाव के कारण रिपोर्ट में कहा गया था कि कछार में बाकी बचे भूजल जिसकी मात्रा 43 मिलियन क्यूबिक मीटर है, का आने वाले दिनों में उपयोग किया जाए। इस पानी की मदद से 22500 नई उथली भूजल संरचनायें (कुआ या उथला नलकूप) बना कर 27000 हैक्टर क्षेत्र में अतिरिक्त सिंचाई क्षमता निर्मित की जा सकती है। लगता है, ऐसा अनुशंशिंत करते समय भूजल की गिरावट तथा छोटी नदियों तथा उथले कुओं पर गहराने वाले संकट ध्यान नही दिया गया या अनजाने में उसकी अनदेखी हुई।
बेतवा नदी घाटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, कछार में रिपोर्ट की सिफारिशों की अनदेखी हुई। भूजल का खूब दोहन हुआ। उसके कारण नदी तंत्र और भूजल का रिश्ता संकटग्रस्त हुआ। नदियों से पानी का उठाव संकटग्रस्त हुआ। इसी कारण बेतवा कछार जल संकट को भोग रहा है।
बेतवा नदी घाटी के प्रारंभिक भाग की रिपोर्ट में कुछ ऐसे सबक हैं जिन पर तकनीकी लोगों सहित योजना प्रबन्धकों का ध्यान नहीं गया। उनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है -
1980 के पहले बेतवा कछार की नदियों में सूखे महिनों में हर साल 460 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी बहता था। अनुशंशित था कि उसमें से 90 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को सीधे उठा कर सिंचाई के लिए काम में लिया जाए। लगता है यह अनुशंशा उचित है। यदि इस अनुशंशा पर अमल किया जाता तो हर साल नदी तंत्र में प्रवाह कम होने के बावजूद 370 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी बेस-फ्लो के रुप में उपलब्ध रहता। पानी की उस उपलब्धता के कारण बेतवा कछार की अधिकांश नदियों में गैर-मानसूनी प्रवाह की वह दुर्गति नहीं होती जो आज हम देख रहे हैं। अर्थात यदि उस अनुशंशा पर अमल होता तो अधिकांश नदियाँ जिन्दा रहतीं और कछार के भूजल भंडार अप्रभावित रहते। यह अनुशंशा, नए कुए या नलकूप बनाकर भूजल दोहन को बढ़ाने की तुलना में काफी बेहतर है।
रिपोर्ट में बाकी 43 मिलियन क्यूबिक मीटर की मदद से 22500 नई भूजल संरचनाओं के बनाने का उल्लेख है। यह अनुशंशा भले ही सिंचाई सुविधा का विस्तार कर दे पर उसके असर से बेतवा कछार के उथले कुओं और नदियों का सूखना प्रारंभ होता। अनदेखी का परिणाम सामने है। आवश्यकता है गहरे नलकूपों का खनन बन्द हो। भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा तय हो और गैर-मानसूनी प्रवाह की पुरानी स्थिति को हासिल करने के लिए भूजल की समानुपातिक रीचार्ज योजनाओं पर काम हो। क्षेत्र में बरसात की कमी नहीं है।