• यह नदी मध्य प्रदेश में भोपाल के दक्षिण पश्चिम से निकलती है। निकलने के पश्चात भोपाल, ग्वालियर, झाँसी, औरय्या और जालौन से होती हुई हमीरपुर के निकट यह यमुना नदी में मिल जाती है।
• इस नदी की कुल लम्बाई 480 किमी. है।
विंध्याचल पर्वत से भोपाल नगर के पास से बेतवा नदी का निकास हुआ है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कुल 480 किलोमीटर की यात्रा करके यह नदी उत्तर प्रदेश के हमीरपुर नगर के निकट यमुना नदी में मिल जाती है।
• इस नदी की कुल लम्बाई 480 किमी. है।
विंध्याचल पर्वत से भोपाल नगर के पास से बेतवा नदी का निकास हुआ है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कुल 480 किलोमीटर की यात्रा करके यह नदी उत्तर प्रदेश के हमीरपुर नगर के निकट यमुना नदी में मिल जाती है।
Hindi Title
बेतवा नदी
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
बेतवा भारत के मध्य प्रदेश राज्य में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना की सहायक नदी है। यह मध्य-प्रदेश में भोपाल से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झाँसी, जालौल आदि जिलों में होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं किन्तु झाँसी के निकट यह काँप के मैदान में धीमे-धीमें बहती है। इसकी सम्पूर्ण लम्बाई 480 किलोमीटर है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सांची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं।
अन्य स्रोतों से
जगदीश प्रसाद रावत
एक कवि ने नदियों के बारे में कहा है कि-
शुचि सोन केन बेतवा निर्मल जल धोता कटि सिर वक्ष स्थल,
पद रज को फिर श्रद्धापूर्वक धोता गंगा, यमुना का जल।
वनमालिन सुन्दर सुमनों से तुव रूप सँवारे ले विराम।
बेतवा प्राचीन नदियों में से एक मानी गयी है। बेतवा नदी घाटी की नागर सभ्यता लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी है। एक समय निश्चित ही बंगला की तरह इधर भी जरूर बेंत (संस्कृत में वेत्र) पैदा होता होगा, तभी तो नदी का नाम वेत्रवती पड़ा होगा। बेतवा तथा धसान बुन्देलखण्ड के पठार की प्रमुख नदियाँ हैं जिसमें बेतवा उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमा रेखा बनाती है। इसे बुन्देलखण्ड की गंगा भी कहा जाता है। इसका जन्म रायसेन जिले के कुमरा गाँव के समीप विन्ध्याचल पर्वत से होता है। यह अपने उद्गम से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा की ओर बहती है। इतना ही नहीं बेतवा नदी पूर्वी मालवा के बहुत से हिस्सों का पानी लेकर अपने पथ पर प्रवाहित होती है। इसकी सहायक नदियाँ बीना और धसान दाहिनी ओर से और बायीं ओर से सिंध इसमें मिलती हैं। सिन्ध गुना जिले को दो समान भागों में बाँटती हुई बहती है। बेतवा की सहायक बीना नदी सागर जिले की पश्चिमी सीमा के पास राहतगढ़ कस्बे के समीप भालकुण्ड नामक 38 मीटर गहरा जलप्रपात बनाती है। गुना के बाद बेतवा की दिशा उत्तर से उत्तर-पूर्व हो जाती है। यह नदी मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश की सीमा बनाती हुई माताटीला बाँध के नीचे झरर घाट तक बहती है। उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर झाँसी में बेतवा 17 किलोमीटर तक प्रवाहमान रहती है। जालौन जिले के दक्षिणी सीमा पर सलाघाट स्थान पर बेतवा नदी का विहंगम दृश्य दर्शनीय है।
इसका जलग्रहण क्षेत्र प्रायः पूर्वी मालवा है। इसी क्षेत्र का यह जल ग्रहण करते हुए उत्तर की ओर गमन करती है। 380 किमी की जीवन यात्रा में यह विदिशा, सागर, गुना, झाँसी एवं टीकमगढ़ जिले की उत्तरी-पश्चिमी सीमा के समीप से बहती हुई हमीरपुर के पास यमुना नदी में अपनी इहलीला समाप्त कर देती है।
संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी और कालिदास ने मेघदूत में इसका उल्लेख किया है। बेतवा का प्राचीन नाम बेत्रवती है। महाकवि कालिदास ने इसे बेत्रवती सम्बोधन करते हुए लिखा है कि-
तेषां दिक्षु प्रथित विदिसा लक्षणां राजधानीम्
गत्वा सद्यः फलं विकलं कामुकत्वस्य लब्धवा।
तीरोपान्तस्तनितसुभगं पस्यसि स्वादु दस्मात्,
संभ्रु भंगमुखमिव पदो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।
हे मेघकुम्भ! विदिशा नामक राजधानी में पहुँचकर शीघ्र ही रमण विलास का सुख प्राप्त करोगे, क्योंकि यहाँ बेत्रवती नदी बह रही है। उसके तट के उपांग भाग में गर्जनपूर्वक मनहरण हरके उसका चंचल तरंगशाली सुस्वादु जल प्रेयसी के भ्रुभंग मुख के समान पान करोगे।
बेतवा के उद्गम स्थान पर विभिन्न दिशाओं से तीन नाले एक साथ मिलते हैं। हालाँकि यह नाले गर्मी में सूख जाते हैं। 1 मीटर व्यास का एक गड्ढा यहां सदाबहार पानी से भरा रहता है। एक जो इसका मूल उद्गम है। बेत्रवती के नाम के पीछे एक मान्यता यह भी हो सकती है कि इस स्थान पर पहले कभी बेत (संस्कृत नाम) पैदा हुआ है, यहाँ बेत के सघन वन होंगे। इसीलिए इसका नाम बेत्रवती पड़ा है। बेतवा की तुलना पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने जर्मन की राइन नदी से की है।
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार- ‘सिंह द्वीप नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र से शत्रुता का बदला लेने के लिए कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर वरुण की स्त्री वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके पास आयी और बोली- मै वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आयी हूँ। स्वयं भोगार्थ अभिलिषित आयी हुई स्त्री को पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिये।’ राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली तब वेत्रवती के पेट से यथा समय 12 सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जो वृत्रासुर नाम से जाना गया। जिसने देवराज इन्द्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।
कभी नहीं सूखी है न सूखेगी बेत्रवती की धार,
ये कलिगंगा भगीरथी बुन्देलखण्ड का अनुपम प्यार।
युगों-युगों से भोले-भाले, ऋषि-मुनि भक्त अनन्य हुए, विदिशा और ओरछा जिसके तट पर बसकर धन्य हुए।
बेतवा नदी के किनारे प्रसिद्ध स्थान विदिशा (साँची), झाँसी, ओरछा, गुना और चिरगाँव बसे हुए हैं। साँची में विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप है, जहाँ विश्वभर के बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भक्त यहाँ आराधना, साधना और दर्शन लाभ के लिए आते हैं। सांची के पुरावशेषों की खोज सर्वप्रथम 1818 में जनरल टेलर ने की थी। साँची को काकणाय, काकणाद वोट, वोटश्री पर्वत भी कहा जाता है। मौर्य सम्राट अशोक की पत्नी श्रीदेवी विदिशा की निवासी थीं, जिनकी इच्छा के मुताबिक यहाँ सम्राट अशोक ने एक स्तूप विहार और एकाश्म स्तम्भ का निर्माण कराया था। साँची में बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान के पुरावशेष भी हैं।
शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती ने विदिशा पर शासन किया था। जिसकी राजधानी कुशावती थी। मौर्य सम्राट अशोक ने विदिशा के महाश्रेष्ठि की पुत्री श्रीदेवी से विवाह किया था, जिससे उसे पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए थे। अशोक ने साँची (विदिशा), भरहुत (सतना) एवं कसरावद (निमाड़) में स्तूप तथा रूपनाथ (जबलपुर), वंसनगर, पवाया, एरण, रामगढ़ (अम्बिकापुर) में स्तम्भ स्थापित कराये थे। हिन्द-यूनानी एण्टायलकीड्स के दूत हेलियाडोरस ने विदिशा में एक विष्णु स्तम्भ स्थापित कराया था जिसमें उसने स्वयं को ‘परम भागवत’ कहा है। पुष्यमित्र शुंग ने सांची के स्तूप का विस्तार कराया था। सातवाहन वंश एवं भारशिव वंश के राजाओं ने विदिशा पर राज किया।
ओड़छो वृन्दावन सो गांव,
गोवर्धन सुखसील पहरिया जहाँ चरत तृन गाय,
जिनकी पद-रज उड़त शीश पर मुक्ति मुक्त है जाय।
सप्तधार मिल बहत बेतवा, यमुना जल उनमान,
नारी नर सब होत कृतारथ, कर-करके असनान।
जो थल तुण्यारण्य बखानो, ब्रह्म वेदन गायौ,
सो थल दियो नृपति मधुकर कौं,
श्री स्वामी हरिदास बतायौ।
-महाराजा मधुकर शाह
ओरछा बुन्देली शासकों के वैभव का प्रमुख केन्द्र रहा है यहाँ जहाँगीर महल, लक्ष्मीनारायण मंदिर, बुन्देलकालीन छतरियाँ, तुंगारण्य, कवि केशव का निवास स्थान, महात्मा गांधी भस्मि विसर्जन स्थल, चन्द्रशेखर आजाद गुफा, रायप्रवीण महल, शीश महल, दीवाने आम, पालकी महल, छारद्वारी एवं बजरिया के हनुमान मंदिर आदि अन्य स्थान देखने योग्य हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने ओरछा का गुणगान इन शब्दों में किया है-
कहाँ आज यह अतुल ओरछा, हाय! धूलि में धाम मिले।
चुने-चुनाये चिन्ह मिले कुछ, सुने-सुनाये नाम मिले।
फिर भी आना व्यर्थ हुआ क्या तुंगारण्य? यहाँ तुझमें?
नेत्ररंजनी वेत्रवती पर हमें हमारे राम मिले।
ओरछा के अन्य दर्शनीय स्थलों में जहाँगीर महल-जिसे जहाँगीर ने अपने विश्राम के लिए ओरछा के दुर्ग में एक सुन्दर महल बनवाया था जिसे जहाँगीर महल कहते हैं। यह बेतवा के मनोरम तट पर स्थित एक भव्य और ऐतिहासिक महल है।
बेतवा नदी के द्वीप में राजा वीर सिंह जूदेव ने एक विशाल महल बनवाया था जो अत्यधिक सुन्दर और कलात्मक है।
मानिकपुर झाँसी रेल-मार्ग पर बेतवा नदी पर बुन्देलवंशीय राजाओं ने यह महल बनवाया था। जो राजाओं के शौर्य, पराक्रम और वीरतापूर्ण गौरव गाथाओं का गुणगान कर रहा है। ओरछा महल के भीतर अनेक प्राचीन मन्दिर हैं जिनमें चतुर्भुज मंदिर, रामराजा मन्दिर और लक्ष्मीनारायण मन्दिर बुन्देला नरेशों की कलाप्रियता के प्रतिमान हैं।
बेतवा को पुराणों में ‘कलौ गंगा बेत्रवती भागीरथी’ कहा गया है। आचार्य क्षितीन्द्र मोहन सेन ‘हमारी बुन्देलखण्ड की यात्रा’ नामक लेख में कहते हैं कि- ‘बेत्रवती ने अपने चंचल प्रवाहों से सारे बुन्देलखण्ड को सिक्त कर रखा है।’
ओरछा सात मील के परकोटे पर बसा पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर है। जो सोलहवीं शताब्दी में बुन्देला राजाओं की राजधानी था।
बेतवा का कंचना घाट नाम इस कारण पड़ा क्योंकि इस घाट पर स्त्रियों के स्नान करने पर उनके स्वर्ण आभूषणों के क्षरण से प्रतिदिन लगभग सवा मन सोना घिसकर बह जाता था।
ओरछा के रामराजा मन्दिर में आज भी बाल भोग लगता है और भोग के रूप में पान का बीड़ा, इत्र का फाहा एवं मिष्टान्न भक्तों को प्रदान किया जाता है। राम को राजा मानकर प्रतिदिन प्रातः एवं संध्याकाल में शासकीय तौर पर उन्हें तोपों से सलामी दी जाती है तथा पुलिस इस मंदिर में हमेशा तैनात रहती है। यहाँ राम वनवासी रूप में न होकर राजा के रूप में अपने दरबार में विराजमान हैं। इसलिए यह रामराजा मंदिर कहलाता है। राजा के रूप में देश में राम के मंदिर बहुत कम हैं।
वास्तव में यह स्थान मंदिर के वास्तु शास्त्र के आधार पर निर्मित नहीं है। यह गणेश कुँवरि रानी का महल था जो एक जनश्रुति के आधार पर मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया। ऐसी मान्यता है कि रामराजा सरकार को गणेश कुँवरि अयोध्या की सरयू नदी की जलराशि के मध्य से पुष्य नक्षत्र में पैदल चलकर अपनी गोद में लेकर ओरछा आयी थीं।
रामलला रानी के साथ तीन शर्तों के आधार पर आये थे। पहली शर्त पुष्य नक्षत्र में लेकर चलने की थी। दूसरी शर्त-अगर रानी उन्हें किसी स्थान पर रख देंगी तो वे फिर वहाँ से उठेंगे नहीं और अन्तिम शर्त थी ओरछा में आने के बाद वहाँ के राजा राम ही होंगे। दूसरी शर्त के आधार पर रानी ने रामलला को मंदिर के बजाय भूलवश अपने महल में रख दिया था। अतः वे वहीं प्रतिस्थापित हो गये।
ऐसी जनश्रुति है कि अकबर बादशाह मधुकर शाह से प्रेरित होकर माथे पर तिलक लगाते थे तथा वे मधुकर शाह को गुरुवत मानते थे। ऐसी मान्यता भी है कि हरदौल मरणोपरान्त अपनी बहन कुन्जावती की पुत्री के विवाह में बारातियों से मिले थे और भात भी खाया था। इसी स्मृति स्वरूप बुन्देलखण्ड में विवाह के अवसरों पर हरदौल को खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा भी बरकरार है। हरदौल यहाँ जन-जन के देवता माने जाते हैं। जिनकी मढ़ियाँ गाँव-गाँव में हैं। विवाहोपरान्त इन मढ़ियों में दूल्हा-दूल्हन के हाथे लगते हैं और लोग मन्नतें मानते हैं। ओरछा के रामराजा मंदिर परिसर में हरदौल विषपान स्थल है। जिसे बुन्देलखण्डवासी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यहीं पर हरदौल बैठका, पालकी महल, सावन-भादों स्तम्भ, कटोरा, फूलबाग चौक आदि भी दर्शनीय हैं।
इस नगर से बेतवा और उर्वशी नदियाँ प्रवाहित होती हैं। चंदेरी समुद्र तल से 1700 फुट की ऊँचाई पर स्थित अशोक नगर जिला से 50 किलोमीटर दूर है। महाभारत के हैहयवंशी शिशुपाल चेदि नरेश ने इसे बसाया था। इसी कारण शायद यह चंदेरी कहलाया होगा। इस ऐतिहासिक नगर ने प्राचीनकाल में अनेक आक्रमण झेले, जैसे-महमूद गजनवी, नसरुद्दीन खिलजी के सेनापति अमिलमुल, फिरोजशाह तुगलक, सिकन्दर और बाबर आदि। यहाँ की साड़ियाँ और जरी की कारीगरी का कार्य जग-जाहिर है।
उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले से 33 किलोमीटर की दूरी पर बेतवा के तट पर विन्ध्याचल की दक्षिण-पश्चिम पर्वत श्रृँखला पर देवगढ़ स्थित है। इसका प्राचीन नाम लुअच्छागिरि है। पहले प्रतिहारों और बाद में चंदेलों ने इस पर शासन किया। देवगढ़ में ही बेतवा के किनारे 19 मान स्तम्भ और दीवालों पर उत्कीर्ण 200 अभिलेख हैं। जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष यहाँ बहुतायत में विद्यमान हैं। गुप्तकालीन दशावतार मंदिर भी दर्शनीय हैं। यहाँ बहुतायत में विद्यमान हैं। गुप्तकालीन दशावतार मंदिर भी दर्शनीय हैं यहाँ 41 जैन मंदिर हैं। यहाँ प्रतिहार, कल्चुरि और चंदेलों के शासनकाल की प्रतिमाएँ और अभिलेख बिखरे पड़े हैं। पुरातत्व की दृष्टि से देवगढ़ जग प्रसिद्ध है। बिखरी हुई मूर्तियों को संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। बेतवा तट पर तीसरा स्थान रणछोड़ जी है। यह स्थल धौर्रा से लगभग 5 किलोमीटर दूर है। रणछोड़ जी मंदिर में विष्णु और लक्ष्मी की प्रतिमाएं हैं। यहाँ हनुमान जी की भव्य मुर्ति भी है। लेकिन यह मंदिर शिखरहीन है। इस मंदिर के अतिरिक्त यहाँ और भी मंदिरों के पुरावशेष हैं जो हमारी समृद्धि का कहानी कहते हैं। देवगढ़ पुरातत्वविदों का एक महत्वपूर्ण कला केंद्र है। पुरातत्व सम्पदा से सम्पन्न है देवगढ़। इसे बेतवा नदी का आइसलैण्ड कहा जाता है।
बुन्देलखण्ड के पठारी प्रदेश की प्रमुख नदी बेतवा है जो मालवा का जल अपने साथ प्रवाहित कर नरहर कगार को देवगढ़ के पास काटकर एक सुन्दर गुफा का निर्माण करती है। इस पठार प्रदेश से सिंध, केन, पहुज और धसान नदियाँ प्रवाहित होती है।
15 जनवरी 1941 की मधुकर पत्रिका के एक लेख पं. बनारसी दास चतुर्वेदी लिखते हैं कि- ‘बेतवा यमुना की सखी है, बहन है। इसलिए यमुना मैया के सपूत हम चौबों के लिए बेतवा मौसी हुई। वह आगे कहते हैं कि बेत्रवती के तीन रूप अपनी जीवन यात्रा में हैं। उसके मायके में यानी भोपाल में उसके उद्गम स्थान पर चिरगाँव के निकट बाँध पर संयत जीवन बिताते हुए और ओरछा में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में जब-जब हमने बेतवा को देखा है उसके विचित्र प्रभाव से हम प्रभावित हुए हैं। वे कहते हैं कि बेतवा की यह जन्मभूमि वस्तुतः हमारे जैसे श्रांत पथिक के लिए एक अद्भुत, आनन्ददायक सुखकर भूमि थी।’ बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी का अद्भुत वर्णन किया है-
मज्जन मालवविलासिनी कुचतट स्फालन
जर्ज्जरितोर्मि मालयाजवालव गाहनावतारित,
जय कुन्जर सिंदूर सन्ध्यामान सलिलया
उन्मद कलहंस कुल-कोलाहल मुखरित कूलया।
विदिशा के चारों तरफ बहती बेत्रवती नदी में स्नान के समय विलासिनियों के कुचतट के स्फालन (हिलने) से उसकी तरंग श्रेणी चूर्ण-विचूर्ण हो जाती थी और रक्षकों द्वारा स्नानार्थ आनीत विजाता स्त्रियों के अग्रभाग में लिप्त सिंदूर के फैलने से सांध्य आकाश की भाँति उसका पानी लाल हो जाया करता था और उसका तट देश उन्मत कलहंस मण्डली के कोलाहल से सदा मुखरित रहता था।
एक कवि ने नदियों के बारे में कहा है कि-
शुचि सोन केन बेतवा निर्मल जल धोता कटि सिर वक्ष स्थल,
पद रज को फिर श्रद्धापूर्वक धोता गंगा, यमुना का जल।
वनमालिन सुन्दर सुमनों से तुव रूप सँवारे ले विराम।
बेतवा प्राचीन नदियों में से एक मानी गयी है। बेतवा नदी घाटी की नागर सभ्यता लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी है। एक समय निश्चित ही बंगला की तरह इधर भी जरूर बेंत (संस्कृत में वेत्र) पैदा होता होगा, तभी तो नदी का नाम वेत्रवती पड़ा होगा। बेतवा तथा धसान बुन्देलखण्ड के पठार की प्रमुख नदियाँ हैं जिसमें बेतवा उत्तर प्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमा रेखा बनाती है। इसे बुन्देलखण्ड की गंगा भी कहा जाता है। इसका जन्म रायसेन जिले के कुमरा गाँव के समीप विन्ध्याचल पर्वत से होता है। यह अपने उद्गम से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा की ओर बहती है। इतना ही नहीं बेतवा नदी पूर्वी मालवा के बहुत से हिस्सों का पानी लेकर अपने पथ पर प्रवाहित होती है। इसकी सहायक नदियाँ बीना और धसान दाहिनी ओर से और बायीं ओर से सिंध इसमें मिलती हैं। सिन्ध गुना जिले को दो समान भागों में बाँटती हुई बहती है। बेतवा की सहायक बीना नदी सागर जिले की पश्चिमी सीमा के पास राहतगढ़ कस्बे के समीप भालकुण्ड नामक 38 मीटर गहरा जलप्रपात बनाती है। गुना के बाद बेतवा की दिशा उत्तर से उत्तर-पूर्व हो जाती है। यह नदी मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश की सीमा बनाती हुई माताटीला बाँध के नीचे झरर घाट तक बहती है। उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर झाँसी में बेतवा 17 किलोमीटर तक प्रवाहमान रहती है। जालौन जिले के दक्षिणी सीमा पर सलाघाट स्थान पर बेतवा नदी का विहंगम दृश्य दर्शनीय है।
इसका जलग्रहण क्षेत्र प्रायः पूर्वी मालवा है। इसी क्षेत्र का यह जल ग्रहण करते हुए उत्तर की ओर गमन करती है। 380 किमी की जीवन यात्रा में यह विदिशा, सागर, गुना, झाँसी एवं टीकमगढ़ जिले की उत्तरी-पश्चिमी सीमा के समीप से बहती हुई हमीरपुर के पास यमुना नदी में अपनी इहलीला समाप्त कर देती है।
संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी और कालिदास ने मेघदूत में इसका उल्लेख किया है। बेतवा का प्राचीन नाम बेत्रवती है। महाकवि कालिदास ने इसे बेत्रवती सम्बोधन करते हुए लिखा है कि-
तेषां दिक्षु प्रथित विदिसा लक्षणां राजधानीम्
गत्वा सद्यः फलं विकलं कामुकत्वस्य लब्धवा।
तीरोपान्तस्तनितसुभगं पस्यसि स्वादु दस्मात्,
संभ्रु भंगमुखमिव पदो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।
हे मेघकुम्भ! विदिशा नामक राजधानी में पहुँचकर शीघ्र ही रमण विलास का सुख प्राप्त करोगे, क्योंकि यहाँ बेत्रवती नदी बह रही है। उसके तट के उपांग भाग में गर्जनपूर्वक मनहरण हरके उसका चंचल तरंगशाली सुस्वादु जल प्रेयसी के भ्रुभंग मुख के समान पान करोगे।
बेतवा के उद्गम स्थान पर विभिन्न दिशाओं से तीन नाले एक साथ मिलते हैं। हालाँकि यह नाले गर्मी में सूख जाते हैं। 1 मीटर व्यास का एक गड्ढा यहां सदाबहार पानी से भरा रहता है। एक जो इसका मूल उद्गम है। बेत्रवती के नाम के पीछे एक मान्यता यह भी हो सकती है कि इस स्थान पर पहले कभी बेत (संस्कृत नाम) पैदा हुआ है, यहाँ बेत के सघन वन होंगे। इसीलिए इसका नाम बेत्रवती पड़ा है। बेतवा की तुलना पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने जर्मन की राइन नदी से की है।
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार- ‘सिंह द्वीप नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र से शत्रुता का बदला लेने के लिए कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर वरुण की स्त्री वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके पास आयी और बोली- मै वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आयी हूँ। स्वयं भोगार्थ अभिलिषित आयी हुई स्त्री को पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिये।’ राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली तब वेत्रवती के पेट से यथा समय 12 सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जो वृत्रासुर नाम से जाना गया। जिसने देवराज इन्द्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।
कभी नहीं सूखी है न सूखेगी बेत्रवती की धार,
ये कलिगंगा भगीरथी बुन्देलखण्ड का अनुपम प्यार।
युगों-युगों से भोले-भाले, ऋषि-मुनि भक्त अनन्य हुए, विदिशा और ओरछा जिसके तट पर बसकर धन्य हुए।
जगदीश्वर
बेतवा नदी के किनारे प्रसिद्ध स्थान विदिशा (साँची), झाँसी, ओरछा, गुना और चिरगाँव बसे हुए हैं। साँची में विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप है, जहाँ विश्वभर के बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भक्त यहाँ आराधना, साधना और दर्शन लाभ के लिए आते हैं। सांची के पुरावशेषों की खोज सर्वप्रथम 1818 में जनरल टेलर ने की थी। साँची को काकणाय, काकणाद वोट, वोटश्री पर्वत भी कहा जाता है। मौर्य सम्राट अशोक की पत्नी श्रीदेवी विदिशा की निवासी थीं, जिनकी इच्छा के मुताबिक यहाँ सम्राट अशोक ने एक स्तूप विहार और एकाश्म स्तम्भ का निर्माण कराया था। साँची में बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान के पुरावशेष भी हैं।
शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती ने विदिशा पर शासन किया था। जिसकी राजधानी कुशावती थी। मौर्य सम्राट अशोक ने विदिशा के महाश्रेष्ठि की पुत्री श्रीदेवी से विवाह किया था, जिससे उसे पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए थे। अशोक ने साँची (विदिशा), भरहुत (सतना) एवं कसरावद (निमाड़) में स्तूप तथा रूपनाथ (जबलपुर), वंसनगर, पवाया, एरण, रामगढ़ (अम्बिकापुर) में स्तम्भ स्थापित कराये थे। हिन्द-यूनानी एण्टायलकीड्स के दूत हेलियाडोरस ने विदिशा में एक विष्णु स्तम्भ स्थापित कराया था जिसमें उसने स्वयं को ‘परम भागवत’ कहा है। पुष्यमित्र शुंग ने सांची के स्तूप का विस्तार कराया था। सातवाहन वंश एवं भारशिव वंश के राजाओं ने विदिशा पर राज किया।
ओरछा
ओड़छो वृन्दावन सो गांव,
गोवर्धन सुखसील पहरिया जहाँ चरत तृन गाय,
जिनकी पद-रज उड़त शीश पर मुक्ति मुक्त है जाय।
सप्तधार मिल बहत बेतवा, यमुना जल उनमान,
नारी नर सब होत कृतारथ, कर-करके असनान।
जो थल तुण्यारण्य बखानो, ब्रह्म वेदन गायौ,
सो थल दियो नृपति मधुकर कौं,
श्री स्वामी हरिदास बतायौ।
-महाराजा मधुकर शाह
ओरछा बुन्देली शासकों के वैभव का प्रमुख केन्द्र रहा है यहाँ जहाँगीर महल, लक्ष्मीनारायण मंदिर, बुन्देलकालीन छतरियाँ, तुंगारण्य, कवि केशव का निवास स्थान, महात्मा गांधी भस्मि विसर्जन स्थल, चन्द्रशेखर आजाद गुफा, रायप्रवीण महल, शीश महल, दीवाने आम, पालकी महल, छारद्वारी एवं बजरिया के हनुमान मंदिर आदि अन्य स्थान देखने योग्य हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने ओरछा का गुणगान इन शब्दों में किया है-
कहाँ आज यह अतुल ओरछा, हाय! धूलि में धाम मिले।
चुने-चुनाये चिन्ह मिले कुछ, सुने-सुनाये नाम मिले।
फिर भी आना व्यर्थ हुआ क्या तुंगारण्य? यहाँ तुझमें?
नेत्ररंजनी वेत्रवती पर हमें हमारे राम मिले।
ओरछा के अन्य दर्शनीय स्थलों में जहाँगीर महल-जिसे जहाँगीर ने अपने विश्राम के लिए ओरछा के दुर्ग में एक सुन्दर महल बनवाया था जिसे जहाँगीर महल कहते हैं। यह बेतवा के मनोरम तट पर स्थित एक भव्य और ऐतिहासिक महल है।
राजमन्दिर
बेतवा नदी के द्वीप में राजा वीर सिंह जूदेव ने एक विशाल महल बनवाया था जो अत्यधिक सुन्दर और कलात्मक है।
ओरछा दुर्ग
मानिकपुर झाँसी रेल-मार्ग पर बेतवा नदी पर बुन्देलवंशीय राजाओं ने यह महल बनवाया था। जो राजाओं के शौर्य, पराक्रम और वीरतापूर्ण गौरव गाथाओं का गुणगान कर रहा है। ओरछा महल के भीतर अनेक प्राचीन मन्दिर हैं जिनमें चतुर्भुज मंदिर, रामराजा मन्दिर और लक्ष्मीनारायण मन्दिर बुन्देला नरेशों की कलाप्रियता के प्रतिमान हैं।
बेतवा को पुराणों में ‘कलौ गंगा बेत्रवती भागीरथी’ कहा गया है। आचार्य क्षितीन्द्र मोहन सेन ‘हमारी बुन्देलखण्ड की यात्रा’ नामक लेख में कहते हैं कि- ‘बेत्रवती ने अपने चंचल प्रवाहों से सारे बुन्देलखण्ड को सिक्त कर रखा है।’
ओरछा सात मील के परकोटे पर बसा पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर है। जो सोलहवीं शताब्दी में बुन्देला राजाओं की राजधानी था।
कंचना घाट
बेतवा का कंचना घाट नाम इस कारण पड़ा क्योंकि इस घाट पर स्त्रियों के स्नान करने पर उनके स्वर्ण आभूषणों के क्षरण से प्रतिदिन लगभग सवा मन सोना घिसकर बह जाता था।
ओरछा के रामराजा मन्दिर में आज भी बाल भोग लगता है और भोग के रूप में पान का बीड़ा, इत्र का फाहा एवं मिष्टान्न भक्तों को प्रदान किया जाता है। राम को राजा मानकर प्रतिदिन प्रातः एवं संध्याकाल में शासकीय तौर पर उन्हें तोपों से सलामी दी जाती है तथा पुलिस इस मंदिर में हमेशा तैनात रहती है। यहाँ राम वनवासी रूप में न होकर राजा के रूप में अपने दरबार में विराजमान हैं। इसलिए यह रामराजा मंदिर कहलाता है। राजा के रूप में देश में राम के मंदिर बहुत कम हैं।
वास्तव में यह स्थान मंदिर के वास्तु शास्त्र के आधार पर निर्मित नहीं है। यह गणेश कुँवरि रानी का महल था जो एक जनश्रुति के आधार पर मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया। ऐसी मान्यता है कि रामराजा सरकार को गणेश कुँवरि अयोध्या की सरयू नदी की जलराशि के मध्य से पुष्य नक्षत्र में पैदल चलकर अपनी गोद में लेकर ओरछा आयी थीं।
रामलला रानी के साथ तीन शर्तों के आधार पर आये थे। पहली शर्त पुष्य नक्षत्र में लेकर चलने की थी। दूसरी शर्त-अगर रानी उन्हें किसी स्थान पर रख देंगी तो वे फिर वहाँ से उठेंगे नहीं और अन्तिम शर्त थी ओरछा में आने के बाद वहाँ के राजा राम ही होंगे। दूसरी शर्त के आधार पर रानी ने रामलला को मंदिर के बजाय भूलवश अपने महल में रख दिया था। अतः वे वहीं प्रतिस्थापित हो गये।
ऐसी जनश्रुति है कि अकबर बादशाह मधुकर शाह से प्रेरित होकर माथे पर तिलक लगाते थे तथा वे मधुकर शाह को गुरुवत मानते थे। ऐसी मान्यता भी है कि हरदौल मरणोपरान्त अपनी बहन कुन्जावती की पुत्री के विवाह में बारातियों से मिले थे और भात भी खाया था। इसी स्मृति स्वरूप बुन्देलखण्ड में विवाह के अवसरों पर हरदौल को खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा भी बरकरार है। हरदौल यहाँ जन-जन के देवता माने जाते हैं। जिनकी मढ़ियाँ गाँव-गाँव में हैं। विवाहोपरान्त इन मढ़ियों में दूल्हा-दूल्हन के हाथे लगते हैं और लोग मन्नतें मानते हैं। ओरछा के रामराजा मंदिर परिसर में हरदौल विषपान स्थल है। जिसे बुन्देलखण्डवासी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यहीं पर हरदौल बैठका, पालकी महल, सावन-भादों स्तम्भ, कटोरा, फूलबाग चौक आदि भी दर्शनीय हैं।
चंदेरी
इस नगर से बेतवा और उर्वशी नदियाँ प्रवाहित होती हैं। चंदेरी समुद्र तल से 1700 फुट की ऊँचाई पर स्थित अशोक नगर जिला से 50 किलोमीटर दूर है। महाभारत के हैहयवंशी शिशुपाल चेदि नरेश ने इसे बसाया था। इसी कारण शायद यह चंदेरी कहलाया होगा। इस ऐतिहासिक नगर ने प्राचीनकाल में अनेक आक्रमण झेले, जैसे-महमूद गजनवी, नसरुद्दीन खिलजी के सेनापति अमिलमुल, फिरोजशाह तुगलक, सिकन्दर और बाबर आदि। यहाँ की साड़ियाँ और जरी की कारीगरी का कार्य जग-जाहिर है।
देवगढ़
उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले से 33 किलोमीटर की दूरी पर बेतवा के तट पर विन्ध्याचल की दक्षिण-पश्चिम पर्वत श्रृँखला पर देवगढ़ स्थित है। इसका प्राचीन नाम लुअच्छागिरि है। पहले प्रतिहारों और बाद में चंदेलों ने इस पर शासन किया। देवगढ़ में ही बेतवा के किनारे 19 मान स्तम्भ और दीवालों पर उत्कीर्ण 200 अभिलेख हैं। जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष यहाँ बहुतायत में विद्यमान हैं। गुप्तकालीन दशावतार मंदिर भी दर्शनीय हैं। यहाँ बहुतायत में विद्यमान हैं। गुप्तकालीन दशावतार मंदिर भी दर्शनीय हैं यहाँ 41 जैन मंदिर हैं। यहाँ प्रतिहार, कल्चुरि और चंदेलों के शासनकाल की प्रतिमाएँ और अभिलेख बिखरे पड़े हैं। पुरातत्व की दृष्टि से देवगढ़ जग प्रसिद्ध है। बिखरी हुई मूर्तियों को संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। बेतवा तट पर तीसरा स्थान रणछोड़ जी है। यह स्थल धौर्रा से लगभग 5 किलोमीटर दूर है। रणछोड़ जी मंदिर में विष्णु और लक्ष्मी की प्रतिमाएं हैं। यहाँ हनुमान जी की भव्य मुर्ति भी है। लेकिन यह मंदिर शिखरहीन है। इस मंदिर के अतिरिक्त यहाँ और भी मंदिरों के पुरावशेष हैं जो हमारी समृद्धि का कहानी कहते हैं। देवगढ़ पुरातत्वविदों का एक महत्वपूर्ण कला केंद्र है। पुरातत्व सम्पदा से सम्पन्न है देवगढ़। इसे बेतवा नदी का आइसलैण्ड कहा जाता है।
बुन्देलखण्ड के पठारी प्रदेश की प्रमुख नदी बेतवा है जो मालवा का जल अपने साथ प्रवाहित कर नरहर कगार को देवगढ़ के पास काटकर एक सुन्दर गुफा का निर्माण करती है। इस पठार प्रदेश से सिंध, केन, पहुज और धसान नदियाँ प्रवाहित होती है।
15 जनवरी 1941 की मधुकर पत्रिका के एक लेख पं. बनारसी दास चतुर्वेदी लिखते हैं कि- ‘बेतवा यमुना की सखी है, बहन है। इसलिए यमुना मैया के सपूत हम चौबों के लिए बेतवा मौसी हुई। वह आगे कहते हैं कि बेत्रवती के तीन रूप अपनी जीवन यात्रा में हैं। उसके मायके में यानी भोपाल में उसके उद्गम स्थान पर चिरगाँव के निकट बाँध पर संयत जीवन बिताते हुए और ओरछा में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में जब-जब हमने बेतवा को देखा है उसके विचित्र प्रभाव से हम प्रभावित हुए हैं। वे कहते हैं कि बेतवा की यह जन्मभूमि वस्तुतः हमारे जैसे श्रांत पथिक के लिए एक अद्भुत, आनन्ददायक सुखकर भूमि थी।’ बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी का अद्भुत वर्णन किया है-
मज्जन मालवविलासिनी कुचतट स्फालन
जर्ज्जरितोर्मि मालयाजवालव गाहनावतारित,
जय कुन्जर सिंदूर सन्ध्यामान सलिलया
उन्मद कलहंस कुल-कोलाहल मुखरित कूलया।
विदिशा के चारों तरफ बहती बेत्रवती नदी में स्नान के समय विलासिनियों के कुचतट के स्फालन (हिलने) से उसकी तरंग श्रेणी चूर्ण-विचूर्ण हो जाती थी और रक्षकों द्वारा स्नानार्थ आनीत विजाता स्त्रियों के अग्रभाग में लिप्त सिंदूर के फैलने से सांध्य आकाश की भाँति उसका पानी लाल हो जाया करता था और उसका तट देश उन्मत कलहंस मण्डली के कोलाहल से सदा मुखरित रहता था।
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