भारत की सर्वाधिक महिमामयी नदी ‘गंगा’ आकाश, धरती, पाताल तीनों लोकों में प्रवाहित होती है। आकाश गंगा या स्वर्ग गंगा, त्रिपथगा, पाताल गंगा, हेमवती, भागीरथी, जाहन्वी, मंदाकिनी, अलकनंदा आदि अनेकानेक नामों से पुकारी जाने वाली गंगा हिमालय के उत्तरी भाग गंगोत्री से निकलकर नारायण पर्वत के पार्श्व से ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग, विंध्याचल, वाराणसी, पाटिलीपुत्र, मंदरगिरी, भागलपुर, अंगदेश व बंगदेश को सिंचित करती हुई गंगासागर में समाहित हो जाती हैं। वेद-पुराणों में कई नामों से गंगा का विशद् वर्णन उपलब्ध है। सागर के साठ हजार पुत्रों को तारने वाले इस गंगा जल में कभी कीड़े नहीं पड़ते और यह कभी बासी या दूषित नहीं होती। रूपकुंड के समीप मंदाकिनी नाम से इसका उद्गम एक बर्फीले झरने से हुआ है जो शनैःशनैः गर्जन-तर्जन करती हुई अलकनंदा और नंद प्रयाग में समा गई है। केल गंगा, विनायक के समीप से निकल कर पिंडार गंगा में देवल को महिमा मंडित करती है। समस्त प्रयागों में देवल का स्थान सर्वोपरि है। यहां शिवजी का सुन्दर मंदिर दर्शनीय है। देवल के लिए अल्मोड़ा औऱ कर्ण प्रयाग से पहुंचना सुगम है। गंगा देव प्रयाग से भागीरथी नाम से जानी जाती है। रुद्र प्रयाग में मंदाकिनी (गंगा) और अलकनंदा (गंगा) का संगम दर्शनीय है। जहां अलकनंदा में माना के पास सरस्वती समाहित होती हैं, उसे केशव प्रयाग कहा जाता है।
भारत में गंगा को “गंगा मैया” के नाम से जाना जाता है। वह पवित्र पावनी मानी जाती है। इसके तट पर वैदिक ऋचाओं से गुजरति आश्रम पनपे व आर्यों के बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हुए। व्यास और बाल्मीकी के महाकाव्यों से, कालिदास और तुलसी की कविताओं से अनुप्राणित गंगा से पौराणिक साहित्य भी भंडार की तरह जुड़ा है।
कहा जाता है कि गंगा देवसरिता थी। उसके पिता हिमवान से देवताओं ने आवश्यकतावश मांग लिया था। एक बार उनके अधोवस्त्र उठने से जब राजार्षि महाभिष कामुक हो उठे तो पितामह ब्रह्मा ने दोनों को ही मृत्युलोक में जलधारण करने का शाप दे दिया।
कालान्तर में राजर्षि महाभिष, कुरू-कुल के सम्राट शांतनु हुए और गंगा हुई उनकी पत्नी। उनके गर्भ से आठ वसुओं का जन्म हुआ। सात वसुओं को मुक्ति देने के बाद अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार जब आठवें वसु का वध करने जा रही थीं कि राजा शांतनु के रोकने पर गंगा तुरंत वहां से चली गई। आठवां वसु ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।
भागीरथी ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, प्रयाग काशी और पटना होते हुए गंगा वहां जा पहुंची जहां सगर के साठ हजार पुत्रों की राख पड़ी हुई थी। सगर पुत्रों को गंगा के स्पर्श से ही स्वर्गधाम प्राप्त हो गया।
गंगा के किनारे अनेक तीर्थ हैं- गंगोत्री, जहां भागीरथी का उद्गम हुआ, बदरीनाथ, जहां नर-नारायण की तपस्या हुई। देव-प्रयाग, जिस स्थल पर भागीरथी और अलकनंदा दोनों के संगम से गंगा बनी। ऋषिकेश, जिस स्थान पर वह पिता श्री हिमवान से अनुमति लेकर पधारी तथा हरिद्वार जिसे गंगा का द्वार कहा जाता है। तदुपरांत गंगा का तीर्थ है-कनखल, जिस स्थान पर सती ने दक्ष यज्ञ में आत्मदाह किया और शिव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर डाला था, गढ़मुक्तेश्वर और सोरों, जिन स्थलों पर स्नान करने से मुक्ति मिलती है, प्रयाग जहां गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम होता है, काशी जो शिव भगवान की पुत्री है। गंगा सागर, सागर के पुत्रों का उद्धार करने वाली तीर्थ स्थली है।
गंगा के अनेक रूप हैं, अनेक कथाएं हैं। पुराणों ने गंगा को मोक्षदायिनी बताया है। गंगा त्रिपथगा भी है। स्वर्ग में अलकनंदा, पृथ्वी पर भागीरथी या जाहन्वी तथा पाताल में अधो गंगा (पाताल गंगा) के नाम से जानी जाती है।
पौराणिक प्रतीक कथाओं के साथ इतिहास भी जुड़ा हुआ है जैसे कि शांतनु एक धान्य होता है, आश्विन में उसे वर्षा का जल चाहिए। ऐसा जल ‘गांगेय जल’ कहलाता है। शांतनु और गांगेय जल के मिलन को विवाह कहते हैं। यही रूपक रचा जाकर मरतों के इतिहास में मिल गया। उसी प्रकार सागर के साठ हजार पुत्रों का तात्पर्य है सगर की जनता की संख्या जो अकाल में भूखी-प्यासी मर गई होगी। तब सागर से भागीरथ तथा अभियंत्रण के कठोर परिश्रम से पर्वतों को काट कर गंगा समतल पर लाई गई होगी। गंगा के उद्गम पर कुछ ऐसी जड़ी-बूटियां हैं जिनके स्पर्श करने से गंगा का पानी कभी सड़ता नहीं है और न कभी उसमें कीड़े पड़ते हैं।
शंकर की जटाओं से मतलब है हिमालय की चोटियां जो वर्षा के जल से लबालब हैं। उसी अभियंत्रण कला से हिमशिखरों पर अनेक सुंदर और सुदृढ़ सरोवरों का निर्माण हुआ। शिलाओं पर शिला रखकर उनके प्रवाह को भूमि के समतल मैदान की ओर मोड़ा गया। हिमालय की अधिकांश नदियों के उद्गम स्थल ऐसे ही सरोवर हैं जैसे रूप कुण्ड से ‘मंदाकिनी’, अनामकुंड से ‘धौली’ गंगा, हेमकुण्ड से ‘लक्ष्मण गंगा’ ‘गांधी’ सरोवर से ‘मंदाकिनी’ तथा सहस्त्र ताल से पिलग धारा तथा भिलंग नदियां जो प्रायः भागीरथी की सहायक नदियां ही हैं।
एक पौराणिक संदर्भ में कहा गया है कि शिव की जटाओं से मुक्त हो गंगा सात धाराओं में पृथ्वी पर उतरी, जिनमें तीन पूर्व की ओर और तीन पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी के पीछे-पीछे आई। मार्ग तय करती हुई जब यह जन्हु ऋषि के आश्रम में पहुंची तो अपने वेग में उसे बहा ले गई। तब देवता, गंधर्वों ने ऋषि की वंदना की और गंगा के अहम् के लिए क्षमा मांगी, ऋषि को अपनी जंघा चीरकर गंगा को मुक्त करना पड़ा। गंगा इसीलिए जान्हवी नाम से पुकारी जाती है।
प्रसिद्ध धार्मिक नगरी काशी (अब वाराणसी) गंगा के तट पर ही सुशोभित है। कशा यानी चमकने वाला से इसका नाम काशी रखा गया होगा, क्योंकि ‘वरुणा’ और ‘असी’ नामक दो नदियों के आधार पर ही आज इसे वाराणसी संज्ञा प्रदान की गई है। बनारस भी शायद उसी का बिगड़ा रूप है।
4,800 फुट की ऊंचाई पर भटवारी में शेषनाग का छोटा सा भग्नावस्था में मंदिर है। उनके चरणों से एक छोटी सी नदी नवला निकलती है और यहीं गंगा में विलय हो जाती है। इस स्थान को भास्करपुरी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि सूर्य ने शिव की उपासना यहीं की थी।
श्री कंठ शिखर से क्षीर गंगा का निकास बताया जाता है। दक्षिण दिशा में हेमकूट पर्वत के पास उत्तरवाहिनी केदारगंगा भगीरथी में मिलती है जहां से भगीरथी रौद्र रूप लिए तीन धाराओं में बहकर ब्रह्मकुंड में गिर जाती है। यहां प्रवाह काफी तीव्र और उन्मत्त है। ब्रह्मकुंड के पास ही सूर्य कुंड और गौरी कुंड हैं यहां पर शिवजी ने भगीरथी को अपनी जटाओं में बांध लिया था। गौरी कुंड में जिस शिला पर भगीरथी गिरती है, उस शिला को शिवलिंग की मान्यता है। कहते हैं कि भगीरथी की गति कितनी ही तीव्र हो जाये यह शिला यहीं रहती है, उस पर चढ़कर ही जल आगे बढ़ता है।
महाभारत में इसे त्रिपयागामिनी, बाल्मीकि रामायण में त्रिपथगा और रघुवंश और शाकुन्तल में जिस्नोता कहा गया है। विष्णु-धर्मोत्तरपुराण में गंगा को त्रलोवय व्यापिनी कहा गया है। शिवस्वरोदय में इड़ा नदी को गंगा कहा गया है। पुराणों में गंगा को लोकमाता कहा गया है।
बाल्मीकी रामायण के अनुसार गंगा की उत्पत्ति हिमालय की पत्नी मैना से बतायी गई है। गंगा उमा से ज्येष्ठ थी। पूर्वजों के उद्धार के लिए भगीरथ ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए अत्यधिक कठोर तप किया। ब्रह्माजी ने भगीरथ को शंकरजी की आराधना के लिए कहा, क्योंकि गंगा के वेग को शंकरजी ही धारण कर सकते थे। एक वर्ष तक गंगा शंकरजी की जटाओं में ही भटकती रही। अन्त में शंकर ने एक जटा से गंगा धारा को छोड़ा। देव नदी गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम गयी और उन्होंने सागर पुत्रों का उद्धार किया।
देवी भागवत पुराण के अनुसार गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती तीनों विष्णु की पत्नियां थीं। आपसी कलह के कारण सरस्वती और गंगा को पृथ्वी पर नदी के रूप में आना पड़ा।
श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि से तीन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बांया चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर चला गया, वहां ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के पाद प्रच्छालन के बाद उनके कमण्डल में जो जलधारा स्थित थी वह उनके चरण-स्पर्श से पवित्र होकर ध्रुवलोक में गिरी और चार भागों में विभक्त हो गयी।
मंदाकिनी नदी के सिरे पर 11,750 फुट की ऊंचाई पर गढ़वाल जिले में बसा पावन केदारनाथ सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर प्रमुख पर्यटक स्थल है। लगभग 2 कि.मी. लम्बी व आधा कि.मी. चौड़ी यह बर्फ की घाटी ऊंचे पर्वतों से घिरी रंगभूमि पशु-पक्षी विहार जैसा लगता है। यहां पर हिमगिरी के भव्य दृश्य रोमांचित कर देते हैं।
बद्रीनाथ की तरह केदारनाथ का मौसम भी वर्ष भर ठण्डा रहता है। शीत ऋतु में तो अनवरत हिमपात रहता है। मई-जून, सितम्बर-अक्तूबर के महीने ही यहां पर्यटन के अनुकूल हैं। गौरी कुण्ड पहुंचने के बाद आगे 14 कि.मी. की दूरी पैदल पार करनी पड़ती है।
गोविन्दघाट से आगे देवों की वाटिका के अन्दर पुष्पवती नामक नदी बहती है। हिमानियों से अनेक फूटी हुई धाराओं और झरनों से पुष्पवती के जल की अभिवृद्धि होती है जो घंघरिया में लक्ष्मण गंगा में जाकर समाहित हो जाती है। लक्ष्मण गंगा, घंघरिया से 5 कि.मी. ऊपर लोकपाल झील से निकली है।
भारतीय संस्कृति की गंगा का जन्म कैसे भी हुआ हो, पर मनुष्य की पहली बस्ती उसकी तट पर आबाद हुई। पामीर के पठारों में गौरवर्णीय सुनहरे बालों वाली आर्य जाति का इष्ट देवता था वरुण। इस जाति की विशेषता थी अमूर्त का चिंतन और खोज। अग्निहोत्र के प्रचलन वाली इस जाति के अनुयायी नरबलि की पद्धति को अपनाते थे। उनके नेता राजा पुरूरवा ने गंगा संगम पर एक बस्ती बसायी जिसे प्रतिष्ठान का नाम दिया उसी के समय में एक और गंधर्व नामक दोनों शाखाएं मीलकर एक हो गई। तभी भारतीय संस्कृति की नींव पड़ी। एलों ने नरबलि छोड़कर अग्निहोत्र को अपना लिया। गंगा की पावन धारा में स्नान कर वह पवित्र हो गये। ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ से संघर्ष करने वाले विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला का विवाह चन्द्रवंशी राजा दुष्यंत से हुआ और उनके पुत्र भरत ने पहली बार इस देश को भारत नाम देकर एक सूत्र में बांधा। सूर्यवंशी भगीरथ ने गंगा के आदि और अंत की खोज की थी। गंगा के तट काशी में जैन तीर्थकंर पार्श्वनाथ का प्रादुर्भाव हुआ तो वहीं सारनाथ में तथागत बुद्ध ने पहला उपदेश दिया। पाटलिपुत्र में नंद साम्राज्य का उदय हुआ तो चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना एवं सम्राट चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का निर्माण किया। सम्राट अशोक ने इसी पाटलिपुत्र में अहिंसा और प्रेम के आदेश प्रसारित किए। फिर मौर्यों के बाद आए शुंग तथा तब अश्वमेध यज्ञ होने लगे। शास्त्र और स्मृतियां रची गईं। रामायण और महाभारत इसी काल में पूर्ण हुए। महाभाष्यकार पतंजलि भी इसी समय हुए नागों के भारशिव राजवंश ने गंगा को अपना राज्य चिन्ह बनाया। दस अश्वमेध यज्ञ किये। दशाश्वमेध घाट इसकी स्मृति का ही प्रतीक है। समुद्रगुप्त की दिग्विजय और चन्द्रगुप्त के पराक्रम के साथ सम्राट हर्षवर्धन ने संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की। गंगा के तट पर ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने फिर से इन प्रदेशों को जीत कर गंगा को अपना राज चिन्ह बनाया। अबुलफजल, इब्नेबतूता और बर्नियर महर्षि चरक, बाणभट्ट प्रभृति विशेषज्ञ विद्वजनों को भी गंगा तट पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गंगा के अंचल में ही आयुर्वेद का जन्म हुआ। शेरशाह ने माल बंदोबस्त का क्रम गंगा के किनारे पर ही चलाया। महानगर कोलकाता गंगा के किनारे ही विकसित हुआ। राजा राममोहनराय से लेकर दयानंद सरस्वती तक के नए सुधार आंदोलन यहीं पर शुरू हुए।
उत्तर भारत के बड़े भाग को सिंचित करने वाली गंगा यदि न होती तो प्राकृतिक दृष्टि से यह प्रदेश एक विशाल मरूस्थल हुआ होता। राम की सरयू, कृष्ण की यमुना, रति देव की चम्बल, गजग्राह की सोन, नेपाल की कोसी, गण्डक तथा तिब्बत से आने वाली ब्रह्मपुत्र सभी को अपने में समेटती हुई और अलकनंदा, जाहन्वी, भागीरथी, हुगली, पदमा, मेघना आदि विभिन्न नामों से जानी जाने वाली गंगा अंत में सुंदरवन के पास बंगाल की खाड़ी में समा जाती हैं।
पृथ्वी पर आकर उसे स्वर्ग बनाने वाली गंगा को भारतवासी अपनी मां की तरह पूजते हैं और प्यार करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है-
कीरति, मणिति, मेलि सोई।
सुरसरि सम सब कर हितु होई।।
गंगा नदी 2,523 किलोमीटर की अपनी लम्बी यात्रा के दौरान ऐसे कई बड़े शहरों से होकर गुजरती है, जहां की आबादी का घनत्व बहुत अधिक है और यहां बेशुमार कारखाने व फैक्टरियां हैं, जो गंगा में बढ़ते रहे प्रदूषण का कारण है। वैसे गंगा प्रदूषण मुक्त अभियान से काफी कुछ आशाएं भी बलवती हो रही है।
चक्षुभद्रा सरिता ब्रह्मलोक से चलकर गन्धमादन के शिखरों पर गिरती हुई पूर्व दिशा में चली गयी है। अलकनंदा अनेक पर्वत-शिखरों को लांघती हुई, हेमकूट से गिरती हुई, दक्षिण में भारतवर्ष चली आयी। चक्षु नदी माल्यवान शिखर से गिरकर केतुमालवर्ष के मध्य से होकर पश्चिम में चली गई। भद्रा नदी गिरि शिखरों से गिरकर उत्तर कुरूपर्ष के मध्य से होकर, उत्तर दिशा में चली गयी।
विंध्यगिरि के उत्तर भाग में इन्हें भगीरथी गंगा कहते हैं और दक्षिण में गौतमी गंगा (गोदावरी) कहते हैं।
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भारत में गंगा को “गंगा मैया” के नाम से जाना जाता है। वह पवित्र पावनी मानी जाती है। इसके तट पर वैदिक ऋचाओं से गुजरति आश्रम पनपे व आर्यों के बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हुए। व्यास और बाल्मीकी के महाकाव्यों से, कालिदास और तुलसी की कविताओं से अनुप्राणित गंगा से पौराणिक साहित्य भी भंडार की तरह जुड़ा है।
कहा जाता है कि गंगा देवसरिता थी। उसके पिता हिमवान से देवताओं ने आवश्यकतावश मांग लिया था। एक बार उनके अधोवस्त्र उठने से जब राजार्षि महाभिष कामुक हो उठे तो पितामह ब्रह्मा ने दोनों को ही मृत्युलोक में जलधारण करने का शाप दे दिया।
कालान्तर में राजर्षि महाभिष, कुरू-कुल के सम्राट शांतनु हुए और गंगा हुई उनकी पत्नी। उनके गर्भ से आठ वसुओं का जन्म हुआ। सात वसुओं को मुक्ति देने के बाद अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार जब आठवें वसु का वध करने जा रही थीं कि राजा शांतनु के रोकने पर गंगा तुरंत वहां से चली गई। आठवां वसु ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।
भागीरथी ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, प्रयाग काशी और पटना होते हुए गंगा वहां जा पहुंची जहां सगर के साठ हजार पुत्रों की राख पड़ी हुई थी। सगर पुत्रों को गंगा के स्पर्श से ही स्वर्गधाम प्राप्त हो गया।
गंगा के किनारे अनेक तीर्थ हैं- गंगोत्री, जहां भागीरथी का उद्गम हुआ, बदरीनाथ, जहां नर-नारायण की तपस्या हुई। देव-प्रयाग, जिस स्थल पर भागीरथी और अलकनंदा दोनों के संगम से गंगा बनी। ऋषिकेश, जिस स्थान पर वह पिता श्री हिमवान से अनुमति लेकर पधारी तथा हरिद्वार जिसे गंगा का द्वार कहा जाता है। तदुपरांत गंगा का तीर्थ है-कनखल, जिस स्थान पर सती ने दक्ष यज्ञ में आत्मदाह किया और शिव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर डाला था, गढ़मुक्तेश्वर और सोरों, जिन स्थलों पर स्नान करने से मुक्ति मिलती है, प्रयाग जहां गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम होता है, काशी जो शिव भगवान की पुत्री है। गंगा सागर, सागर के पुत्रों का उद्धार करने वाली तीर्थ स्थली है।
गंगा के अनेक रूप हैं, अनेक कथाएं हैं। पुराणों ने गंगा को मोक्षदायिनी बताया है। गंगा त्रिपथगा भी है। स्वर्ग में अलकनंदा, पृथ्वी पर भागीरथी या जाहन्वी तथा पाताल में अधो गंगा (पाताल गंगा) के नाम से जानी जाती है।
पौराणिक प्रतीक कथाओं के साथ इतिहास भी जुड़ा हुआ है जैसे कि शांतनु एक धान्य होता है, आश्विन में उसे वर्षा का जल चाहिए। ऐसा जल ‘गांगेय जल’ कहलाता है। शांतनु और गांगेय जल के मिलन को विवाह कहते हैं। यही रूपक रचा जाकर मरतों के इतिहास में मिल गया। उसी प्रकार सागर के साठ हजार पुत्रों का तात्पर्य है सगर की जनता की संख्या जो अकाल में भूखी-प्यासी मर गई होगी। तब सागर से भागीरथ तथा अभियंत्रण के कठोर परिश्रम से पर्वतों को काट कर गंगा समतल पर लाई गई होगी। गंगा के उद्गम पर कुछ ऐसी जड़ी-बूटियां हैं जिनके स्पर्श करने से गंगा का पानी कभी सड़ता नहीं है और न कभी उसमें कीड़े पड़ते हैं।
शंकर की जटाओं से मतलब है हिमालय की चोटियां जो वर्षा के जल से लबालब हैं। उसी अभियंत्रण कला से हिमशिखरों पर अनेक सुंदर और सुदृढ़ सरोवरों का निर्माण हुआ। शिलाओं पर शिला रखकर उनके प्रवाह को भूमि के समतल मैदान की ओर मोड़ा गया। हिमालय की अधिकांश नदियों के उद्गम स्थल ऐसे ही सरोवर हैं जैसे रूप कुण्ड से ‘मंदाकिनी’, अनामकुंड से ‘धौली’ गंगा, हेमकुण्ड से ‘लक्ष्मण गंगा’ ‘गांधी’ सरोवर से ‘मंदाकिनी’ तथा सहस्त्र ताल से पिलग धारा तथा भिलंग नदियां जो प्रायः भागीरथी की सहायक नदियां ही हैं।
एक पौराणिक संदर्भ में कहा गया है कि शिव की जटाओं से मुक्त हो गंगा सात धाराओं में पृथ्वी पर उतरी, जिनमें तीन पूर्व की ओर और तीन पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी के पीछे-पीछे आई। मार्ग तय करती हुई जब यह जन्हु ऋषि के आश्रम में पहुंची तो अपने वेग में उसे बहा ले गई। तब देवता, गंधर्वों ने ऋषि की वंदना की और गंगा के अहम् के लिए क्षमा मांगी, ऋषि को अपनी जंघा चीरकर गंगा को मुक्त करना पड़ा। गंगा इसीलिए जान्हवी नाम से पुकारी जाती है।
प्रसिद्ध धार्मिक नगरी काशी (अब वाराणसी) गंगा के तट पर ही सुशोभित है। कशा यानी चमकने वाला से इसका नाम काशी रखा गया होगा, क्योंकि ‘वरुणा’ और ‘असी’ नामक दो नदियों के आधार पर ही आज इसे वाराणसी संज्ञा प्रदान की गई है। बनारस भी शायद उसी का बिगड़ा रूप है।
4,800 फुट की ऊंचाई पर भटवारी में शेषनाग का छोटा सा भग्नावस्था में मंदिर है। उनके चरणों से एक छोटी सी नदी नवला निकलती है और यहीं गंगा में विलय हो जाती है। इस स्थान को भास्करपुरी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि सूर्य ने शिव की उपासना यहीं की थी।
श्री कंठ शिखर से क्षीर गंगा का निकास बताया जाता है। दक्षिण दिशा में हेमकूट पर्वत के पास उत्तरवाहिनी केदारगंगा भगीरथी में मिलती है जहां से भगीरथी रौद्र रूप लिए तीन धाराओं में बहकर ब्रह्मकुंड में गिर जाती है। यहां प्रवाह काफी तीव्र और उन्मत्त है। ब्रह्मकुंड के पास ही सूर्य कुंड और गौरी कुंड हैं यहां पर शिवजी ने भगीरथी को अपनी जटाओं में बांध लिया था। गौरी कुंड में जिस शिला पर भगीरथी गिरती है, उस शिला को शिवलिंग की मान्यता है। कहते हैं कि भगीरथी की गति कितनी ही तीव्र हो जाये यह शिला यहीं रहती है, उस पर चढ़कर ही जल आगे बढ़ता है।
महाभारत में इसे त्रिपयागामिनी, बाल्मीकि रामायण में त्रिपथगा और रघुवंश और शाकुन्तल में जिस्नोता कहा गया है। विष्णु-धर्मोत्तरपुराण में गंगा को त्रलोवय व्यापिनी कहा गया है। शिवस्वरोदय में इड़ा नदी को गंगा कहा गया है। पुराणों में गंगा को लोकमाता कहा गया है।
बाल्मीकी रामायण के अनुसार गंगा की उत्पत्ति हिमालय की पत्नी मैना से बतायी गई है। गंगा उमा से ज्येष्ठ थी। पूर्वजों के उद्धार के लिए भगीरथ ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए अत्यधिक कठोर तप किया। ब्रह्माजी ने भगीरथ को शंकरजी की आराधना के लिए कहा, क्योंकि गंगा के वेग को शंकरजी ही धारण कर सकते थे। एक वर्ष तक गंगा शंकरजी की जटाओं में ही भटकती रही। अन्त में शंकर ने एक जटा से गंगा धारा को छोड़ा। देव नदी गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम गयी और उन्होंने सागर पुत्रों का उद्धार किया।
देवी भागवत पुराण के अनुसार गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती तीनों विष्णु की पत्नियां थीं। आपसी कलह के कारण सरस्वती और गंगा को पृथ्वी पर नदी के रूप में आना पड़ा।
श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि से तीन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बांया चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर चला गया, वहां ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के पाद प्रच्छालन के बाद उनके कमण्डल में जो जलधारा स्थित थी वह उनके चरण-स्पर्श से पवित्र होकर ध्रुवलोक में गिरी और चार भागों में विभक्त हो गयी।
मंदाकिनी नदी के सिरे पर 11,750 फुट की ऊंचाई पर गढ़वाल जिले में बसा पावन केदारनाथ सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर प्रमुख पर्यटक स्थल है। लगभग 2 कि.मी. लम्बी व आधा कि.मी. चौड़ी यह बर्फ की घाटी ऊंचे पर्वतों से घिरी रंगभूमि पशु-पक्षी विहार जैसा लगता है। यहां पर हिमगिरी के भव्य दृश्य रोमांचित कर देते हैं।
बद्रीनाथ की तरह केदारनाथ का मौसम भी वर्ष भर ठण्डा रहता है। शीत ऋतु में तो अनवरत हिमपात रहता है। मई-जून, सितम्बर-अक्तूबर के महीने ही यहां पर्यटन के अनुकूल हैं। गौरी कुण्ड पहुंचने के बाद आगे 14 कि.मी. की दूरी पैदल पार करनी पड़ती है।
गोविन्दघाट से आगे देवों की वाटिका के अन्दर पुष्पवती नामक नदी बहती है। हिमानियों से अनेक फूटी हुई धाराओं और झरनों से पुष्पवती के जल की अभिवृद्धि होती है जो घंघरिया में लक्ष्मण गंगा में जाकर समाहित हो जाती है। लक्ष्मण गंगा, घंघरिया से 5 कि.मी. ऊपर लोकपाल झील से निकली है।
भारतीय संस्कृति की गंगा का जन्म कैसे भी हुआ हो, पर मनुष्य की पहली बस्ती उसकी तट पर आबाद हुई। पामीर के पठारों में गौरवर्णीय सुनहरे बालों वाली आर्य जाति का इष्ट देवता था वरुण। इस जाति की विशेषता थी अमूर्त का चिंतन और खोज। अग्निहोत्र के प्रचलन वाली इस जाति के अनुयायी नरबलि की पद्धति को अपनाते थे। उनके नेता राजा पुरूरवा ने गंगा संगम पर एक बस्ती बसायी जिसे प्रतिष्ठान का नाम दिया उसी के समय में एक और गंधर्व नामक दोनों शाखाएं मीलकर एक हो गई। तभी भारतीय संस्कृति की नींव पड़ी। एलों ने नरबलि छोड़कर अग्निहोत्र को अपना लिया। गंगा की पावन धारा में स्नान कर वह पवित्र हो गये। ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ से संघर्ष करने वाले विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला का विवाह चन्द्रवंशी राजा दुष्यंत से हुआ और उनके पुत्र भरत ने पहली बार इस देश को भारत नाम देकर एक सूत्र में बांधा। सूर्यवंशी भगीरथ ने गंगा के आदि और अंत की खोज की थी। गंगा के तट काशी में जैन तीर्थकंर पार्श्वनाथ का प्रादुर्भाव हुआ तो वहीं सारनाथ में तथागत बुद्ध ने पहला उपदेश दिया। पाटलिपुत्र में नंद साम्राज्य का उदय हुआ तो चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना एवं सम्राट चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का निर्माण किया। सम्राट अशोक ने इसी पाटलिपुत्र में अहिंसा और प्रेम के आदेश प्रसारित किए। फिर मौर्यों के बाद आए शुंग तथा तब अश्वमेध यज्ञ होने लगे। शास्त्र और स्मृतियां रची गईं। रामायण और महाभारत इसी काल में पूर्ण हुए। महाभाष्यकार पतंजलि भी इसी समय हुए नागों के भारशिव राजवंश ने गंगा को अपना राज्य चिन्ह बनाया। दस अश्वमेध यज्ञ किये। दशाश्वमेध घाट इसकी स्मृति का ही प्रतीक है। समुद्रगुप्त की दिग्विजय और चन्द्रगुप्त के पराक्रम के साथ सम्राट हर्षवर्धन ने संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की। गंगा के तट पर ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने फिर से इन प्रदेशों को जीत कर गंगा को अपना राज चिन्ह बनाया। अबुलफजल, इब्नेबतूता और बर्नियर महर्षि चरक, बाणभट्ट प्रभृति विशेषज्ञ विद्वजनों को भी गंगा तट पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गंगा के अंचल में ही आयुर्वेद का जन्म हुआ। शेरशाह ने माल बंदोबस्त का क्रम गंगा के किनारे पर ही चलाया। महानगर कोलकाता गंगा के किनारे ही विकसित हुआ। राजा राममोहनराय से लेकर दयानंद सरस्वती तक के नए सुधार आंदोलन यहीं पर शुरू हुए।
उत्तर भारत के बड़े भाग को सिंचित करने वाली गंगा यदि न होती तो प्राकृतिक दृष्टि से यह प्रदेश एक विशाल मरूस्थल हुआ होता। राम की सरयू, कृष्ण की यमुना, रति देव की चम्बल, गजग्राह की सोन, नेपाल की कोसी, गण्डक तथा तिब्बत से आने वाली ब्रह्मपुत्र सभी को अपने में समेटती हुई और अलकनंदा, जाहन्वी, भागीरथी, हुगली, पदमा, मेघना आदि विभिन्न नामों से जानी जाने वाली गंगा अंत में सुंदरवन के पास बंगाल की खाड़ी में समा जाती हैं।
पृथ्वी पर आकर उसे स्वर्ग बनाने वाली गंगा को भारतवासी अपनी मां की तरह पूजते हैं और प्यार करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है-
कीरति, मणिति, मेलि सोई।
सुरसरि सम सब कर हितु होई।।
गंगा नदी 2,523 किलोमीटर की अपनी लम्बी यात्रा के दौरान ऐसे कई बड़े शहरों से होकर गुजरती है, जहां की आबादी का घनत्व बहुत अधिक है और यहां बेशुमार कारखाने व फैक्टरियां हैं, जो गंगा में बढ़ते रहे प्रदूषण का कारण है। वैसे गंगा प्रदूषण मुक्त अभियान से काफी कुछ आशाएं भी बलवती हो रही है।
चक्षुभद्रा सरिता ब्रह्मलोक से चलकर गन्धमादन के शिखरों पर गिरती हुई पूर्व दिशा में चली गयी है। अलकनंदा अनेक पर्वत-शिखरों को लांघती हुई, हेमकूट से गिरती हुई, दक्षिण में भारतवर्ष चली आयी। चक्षु नदी माल्यवान शिखर से गिरकर केतुमालवर्ष के मध्य से होकर पश्चिम में चली गई। भद्रा नदी गिरि शिखरों से गिरकर उत्तर कुरूपर्ष के मध्य से होकर, उत्तर दिशा में चली गयी।
विंध्यगिरि के उत्तर भाग में इन्हें भगीरथी गंगा कहते हैं और दक्षिण में गौतमी गंगा (गोदावरी) कहते हैं।
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Hindi Title
गंगा -
देवनदी, मंदाकिनी, भगीरथी, विश्नुपगा, देवपगा, ध्रुवनंदा, सुरसरिता, देवनदी, जाह्नवी, त्रिपथगा, देवनदी, मंदाकिनी, भगीरथी, विष्णुपदी, ध्रुवनंदा, सुरसरिता, त्रिपथगा, देवगंगा, सुरापगा, विपथगा, स्वर्गापगा, आपगा, सुरधनी, विवुधनदी, विवुधा, पुण्यतीया, नदीश्वरी, भीष्मसूअन्य स्रोतों से
संदर्भ
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