चुनौतियों के बीच भारत का मजबूत रुख

Submitted by Hindi on Mon, 01/25/2016 - 14:47
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योजना, दिसम्बर 2015

भारतीय संस्कृति के अनुरूप व पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के शब्दों में कहें तो हमारी जीवन पद्धति युगानुकूल के साथ देशानुकूल होना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग का एकमात्र कारण हम अपनी प्राचीन मनीषा के विचारों के अनुरूप नहीं चले। हमने भी पाश्चात्य पूँजीवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए प्रकृति को निठुर मानकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया।

भारत को जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के क्षेत्र में चीन का साथ छोड़कर अपने हितों पर ध्यान केंद्रित कर व्यक्तिगत स्तर पर लक्ष्य बनाना होगा क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव भारत पर चीन के विकास से ज्यादा भारी पड़ रहे हैं। मानसून की अनियमितता, के कारण फसल बर्बादी जिससे किसान की आत्महत्या व्यापक पैमाने पर हो रही है। अभी हाल ही में दाल समस्या और डेंगू के कहर का कारण यही है।

भारत में पिछले कुछ वर्षों की समस्या को गौर से देखें तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा है। जैसे अगस्त 2010 को लेह शहर में बादल फटने के कारण तबाह हो गया था। इस कहर में 200 लोग मरे थे, एक घंटे के अंदर 250 मिलीमीटर की बारिश हुई थी, जून 2013 में उत्तराखण्ड में बारिश से महात्रासदी, सितंबर 2014 में जम्मू-कश्मीर ने 60 वर्षों की सबसे भयानक बाढ़ के अभिशाप को झेला जिसमें छह लाख लोग प्रभावित हुए और लगभग 200 से ज्यादा लोग मरे।

भारत एक कृषि प्रधान देश है यह कोई रहस्य की बात नहीं है। देश की दो तिहाई आबादी कृषि पर निर्भर है और खाद्यान्न उपलब्ध कराने के कारण इस पर नकारात्मक प्रभाव समूची मानव जाति को प्रभावित करेगा ऐसा तय है। भारत की अधिकांश कृषि मानसून पर निर्भर है, जिसके कारण मानसून देश का असली वित्त मंत्री है। मानसून का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है। तापमान वृद्धि के कारण मानसून बेहद अस्थिर, मनमौजी और प्राकृतिक रूप से संचालित हो रहा है जिसका आकलन करना और स्पष्ट व्याख्या करना मुश्किल है। अप्रत्याशित मौसम के अनेक समाचार देश के विभिन्न भागों से मिल रहे हैं। रबी की कटाई के समय बेमौसम बारिश और आँधी तूफान से तैयार फसल की क्षति हुई। फसल की बर्बादी से त्रस्त लगभग हजारों किसानों ने आत्महत्या कर ली। इससे पहले देश के कई भागों में ओलावृष्टि से बहुत नुकसान हुआ था।

देश में वर्तमान दलहन की फसल पूरी तरह से मानसूनी बारिश पर निर्भर है, सूखे के कारण दलहन के उत्पादन में कमी आई जिसके चलते दाल का दाम 200 रुपये से अधिक हो गया था। दाल भारत की व्यापक आबादी की पौष्टिकता का आधार है अत: जलवायु परिवर्तन के कारण देश में कुपोषण की संभावना भी है। फरवरी और मार्च में हुई बेमौसम बारिश ने वातावरण में मच्छरों के प्रजनन के लिये अधिक अनुकूल कर दिया जिससे डेंगू मच्छर का प्रकोप इस वर्ष ज्यादा दिनों तक रहा।

दुनिया के तमाम देशों द्वारा स्थापित जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने अनुमान लगाया है कि बाढ़, चक्रवात तथा सूखे की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार जो भीषण बाढ़ अब तक 100 वर्षों में एक बार आती थी वैसी बाढ़ हर दस वर्षों में आने की संभावना है। पूरे वर्ष में होने वाली वर्षा लगभग पूर्ववत रहेगी। परंतु इसका वितरण बढ़ता जाएगा। वर्षा के बाद लंबा सूखा पड़ सकता है।

उत्तर भारत में गेहूँ उपजाने वाले इलाके में किए गए स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो. डेविड वी. लोबेल एवं एडम सिब्ली व अन्तरराष्ट्रीय मक्का व गेहूँ उन्नयन केंद्र के जे. इवान ओर्टिज मोनेसटेरियो के अध्ययन के मुताबिक, तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूँ की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु परिवर्तन का न केवल हमारे स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा, बल्कि गरीब क्षेत्रों के प्रमुख खाद्यान्नों के उत्पादन में भी कमी आएगी और कुपोषण बढ़ेगा। साल 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूँ के उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आने की आशंका जताई जा रही है।

सूर्य से आने वाली किरणों का लगभग 40 प्रतिशत भाग पृथ्वी तक पहुँचने से पहले ही आकाश में वापस लौट जाता है। 15 प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी तक लगभग 45 प्रतिशत ही पहुँचता है। यह किरणें गर्मी के रूप में पृथ्वी से परिवर्तित होती हैं। वायुमंडल में पाई जाने वाली कुछ गैसें लघु तरंगी सौर विकिरणों को पृथ्वी के धरातल तक आने देती है, परंतु पृथ्वी से निकलने वाली दीर्घ विकिरणों को अवशोषित कर लेती है, जिसके कारण वायुमंडल में पृथ्वी का औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के इर्द-गिर्द बना रहता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया के द्वारा गैसें ऊपर वायुमंडल में एक ऐसी परत बना लेती है, जिसका असर वातावरण में सर्दी व गर्मी से बचाने के लिये बनाई ग्रीन हाउस की परत के समान ही होता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को ही हरित गृह प्रभाव कहा जाता है। हरित गृह प्रभाव के लिये कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, जल वाष्प, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व ओजोन गैसें उत्तरदायी हैं। इनमें कार्बन डाइऑक्साइड प्रमुख गैस है। कार्बन चक्र के माध्यम से इसे नियंत्रित किया जा सकता है, परंतु कुछ वर्षों से इसकी मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है, साथ ही वायुमंडल में मिथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन की भी निरंतर वृद्धि हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि से वायुमंडल में विकिरणों की क्षमता में लगातार वृद्धि हो रही है वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की लगातार इसी प्रकार वृद्धि होती रही तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाएगा। तापमान में वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है।

गौरतलब है कि ऐतिहासिक तौर पर अमेरिका दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार है और सालाना उत्सर्जन में प्रथम स्थान पर चीन, दूसरे स्थान पर अमेरिका है। इन दोनों देशों की स्थिति को देखकर यही लगता है कि यह देश ग्लोबल वर्मिंग के लिये गंभीर नहीं हैं। जैसे चीन ने संकेत दिए हैं कि वह उत्सर्जन में बढ़ोतरी करता रहेगा लेकिन उत्पादन सन 2030 तक अधिकतम स्तर तक ले जाएगा। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण के अनुसार अमेरिका में सिर्फ एयरकंडीशन पर जितनी बिजली खर्च होती है, उससे पूरे अफ्रीका की बिजली जरूरतों का समाधान हो सकता है। 18 डिग्री सेल्सियस पर भी अमेरिका में एसी का इस्तेमाल होता है। अमेरिका ने कार्बन उत्सर्जन घटाने की नीति नहीं बनाई है। भारत 2030 तक 35 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन घटाने की नीति पर बढ़ चला है, जबकि अमेरिका में 2030 तक ऊर्जा खपत 20 प्रतिशत तक और बढ़ेगी। जहाँ भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा को 40 प्रतिशत तक बढ़ाने की दृढ़ इच्छा जाहिर की वहीं अमेरिका ने 2030 तक सिर्फ 30 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य तय किया है।

गत वर्ष पेरु की राजधानी लीमा में 12 दिनों के इस शिखर सम्मेलन में जब 190 देशों के प्रतिनिधि जमा हुए थे इसका उद्देश्य नई संधि के लिये मसौदा तैयार करना था, ताकि पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश हस्ताक्षर कर सकें, लेकिन यह रस्म अदायगी बन कर रह गया, जबकि डेली मेल रिपोर्ट के अनुसार इस दौरान लीमा में 50,000 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ।

ग्लोबल वार्मिंग की समस्या व उसका प्रभाव भविष्य में और भी व्यापक हो जाने की संभावना है और भारत जैसे देश में इसके नुकसान का सबसे बड़ा खामियाजा गरीब उठाते हैं। 1992 में रियो डि जेनेरिया अर्थसमिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलन के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। पेरिस शिखर सम्मेलन से कुछ आशा संपूर्ण मानव सभ्यता को है।

चीन और अमेरिका के गैर जिम्मेदाराना रवैयों के बीच इस दिशा में भारत का प्रयास सराहनीय है। भारत का इनटेंडेड नेशनली डिटरमिंट कांट्रिब्यूशन (आईएनडीसी) महत्वाकांक्षी और संतुलित है। इसमें जहाँ एक ओर 33 से 35 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन घटाने का संकल्प जताया गया, वहीं नवीकरणीय ऊर्जा को 40 प्रतिशत तक बढ़ाने की दृढ़ इच्छा भी जाहिर की गई है। वनीकरण को बढ़ाना और नवीकरणीय ऊर्जा को महत्त्व देना हमारी प्रतिबद्धता को जताता है। योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार भारत 33 से 35 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य में दो तिहाई उत्सर्जन में कटौती ऊर्जा के किफायती उपयोग से कर सकता है और बाकी नवीकरणीय से प्राप्त कर लेगा।

ग्लोबल वार्मिंग शिखर सम्मेलनों में बेसिक देश भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन विकासशील देशों का पक्ष रखते नजर आते हैं और यहाँ पर एक विवाद सामने आता है कि विकसित देशों का मानना है कि देश वर्तमान उत्सर्जन के आधार पर कटौती करें जबकि बेसिक देशों का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग को इस स्थिति में लाने में जिसका जितना योगदान है उतना उत्सर्जन में कटौती करें।


शायद इसी का ध्यान करके भारतीय मनीषा में विकेंद्रीयकरण, स्वदेशी, अर्थायाम व एकात्ममानवाद जैसे विचार सामने आए। हमारे यहाँ समग्र दृष्टि के कारण प्रकृति को मानव के अस्तित्व से जोड़कर देखा गया। मनुष्य को प्रकृति का सहचर माना गया है और इसे मानव जीवन के अंग के रूप में देखा जाता है। इसलिए कभी भी प्रकृति का अध्ययन अलग से नहीं किया गया। प्रकृति के जीवन पद्धति से जुड़ाव के कारण इसकी छाप हमारे जीवन मूल्यों में दिखाई देती है।

यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि क्या भारत को चीन के साथ चलना चाहिए। यह ध्यान देने योग्य बात है कि चीन अपनी वर्तमान विकास दर पर ही विकास करता रहा तो वह 2030 में जहाँ पर होगा वहाँ पर यदि भारत अपनी वर्तमान विकास दर से विकास करता है तो भी पहुँचने में 2040 लग जाएँगे। जबकि बाढ़, सूखा, असमय बारिश के कारण फसल बर्बादी और तापमान में वृद्धि के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारी और इन सबके कारण आत्महत्या, प्राकृतिक आपदा आदि का दृश्य लगता है कि भारत की नीयत बन गई है। लगातार कम उपज की पैदावार, कुछ माह पूर्व डेंगू का प्रकोप व दाल समस्या का कारण यही था। इसलिए भारत को अपनी नीति तो बनानी होगी क्योंकि हमारी और चीन की स्थिति में अंतर है और भारत के पास प्राचीन जीवन पद्धति और प्रकृति के प्रति अपने नजरिए को विश्व पटल पर एक मार्गदर्शक की भूमिका के रूप में रखना होगा। हम पर्यावरण को पहुँचा रहे भारी नुकसान की चिंता किए बिना एक तरफा ढंग से होने वाले आर्थिक विकास पर जोर नहीं दे सकते।

भूमंडलीकरण के प्रभाव से प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज, ग्राम, जिला, प्रदेश देश की अपनी जीवन पद्धति व संस्कृति का लगातार क्षरण हो रहा है। संपूर्ण विश्व की सांस्कृतिक विविधता आज प्रदर्शन प्रभाव के अधीन हो गई है। जिसका प्रभाव दिखना शुरू हो गया है। उदाहरण के लिये एक गाँव की भोजन संस्कृति में दाल शामिल है इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र की जलवायु, भौगोलिक संरचना दलहन के अनुकूल होगी। दूसरी बात लगातार दलहन की खेती के कारण इनकी कृषि तकनीक भी दलहन की अन्य फसलों की अपेक्षा अच्छी होगी। तीसरी बात इस गाँव के मानव की शारीरिक क्षमता में दलहन का बहुत बड़ा योगदान होगा। चौथी बात यहाँ का बायोमास भी दलहन के अनुकूल होगा। अब अगर दुनिया के अन्य देशों की तरह यह गाँव भी दलहन खाना छोड़ दे तो इसका असर पहले तो अन्य फसलों या व्यवसाय की लागत को बढ़ा देगा, दूसरी तरफ मानव की शारीरिक क्षमता में कमी, तीसरी बात भोजन पर निर्भरता बढ़ी, चौथी बात ग्लोबल वार्मिंग। प्रख्यात गाँधीवादी अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा के अनुसार ‘अगर हम सीमित इलाके के भीतर हर वो चीज पैदा करें, जो हमें चाहिए तो हम इस स्थिति में होंगे कि उत्पादन की पद्धति का प्रबंधन कर सकते हैं। अगर हम अपनी जरूरतें धरती के दूसरे छोर से पूरी करते हैं तो ऐसी जगहों पर उत्पादन की स्थितियों की गारंटी करना हमारे लिये नामुमकिन हो जाएगा।’

ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण उत्पादन प्रणाली का देशज संस्कृति के अनुकूल न होना व देशज आवश्यकता के कई गुना अधिक उत्पादन करना है। प्रकृति का प्राकृतिक गुण है कि वह अपने अवशेषों को अवशोषित कर लेती है, परंतु इसकी भी अपनी एक सामर्थ्य सीमा है। अगर हमारी उत्पादन प्रणाली इस बात पर केंद्रित होगी तो हम कभी भी देशज आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं करेंगे और प्रकृति भी उस उत्पादन प्रणाली का सहयोग करती जाएगी। यानी सतत विकास होता रहेगा।

परंतु आज के बाजारीकरण में यह संभव नहीं है। जब कोई व्यक्ति उद्योग लगाता है तो यही सोच कर लगाता है कि उसका बाजार यहाँ पर पर्याप्त है और कच्चा माल भी यहाँ पर उपलब्ध है, तब वह स्वत: निवेश करता है। परंतु उद्योग का उद्देश्य तो लाभ कमाना है अत: लाभ की हर अगली किस्त प्रेरित निवेश का कार्य करती है, और व्यवसायी प्रतिदिन बाजार की तलाश में रहता है। यह तलाश क्षेत्र की सीमा पर करते हुए राष्ट्र की सीमा के बाहर फैले शेष विश्व तक विज्ञापन के माध्यम से पहुँच गई है। यह जहाँ गई है वहाँ की संस्कृति को नष्ट किया है। और कई क्षेत्रों के विकास की संभावना को ही नष्ट कर दिया है। शायद विकल्प केवल विकेंद्रीकरण है।

शायद इसी का ध्यान करके भारतीय मनीषा में विकेंद्रीयकरण, स्वदेशी, अर्थायाम व एकात्ममानवाद जैसे विचार सामने आए। हमारे यहाँ समग्र दृष्टि के कारण प्रकृति को मानव के अस्तित्व से जोड़कर देखा गया। मनुष्य को प्रकृति का सहचर माना गया है और इसे मानव जीवन के अंग के रूप में देखा जाता है। इसलिए कभी भी प्रकृति का अध्ययन अलग से नहीं किया गया। प्रकृति के जीवन पद्धति से जुड़ाव के कारण इसकी छाप हमारे जीवन मूल्यों में दिखाई देती है।

आज के बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वामियों और देश में बढ़ती दरिद्रता को चिंताजनक बताते हुए बद्रीसाह टुलधरिया ने 1920 में लिखी अपनी पुस्तक ‘दैशिक-शास्त्र’ में व्यक्ति के जीवन को अर्थायामी होने की बात कही तथा कहा कि अर्थ का अभाव जिस प्रकार व्यक्ति की मौलिक आवश्यकता की पूर्ति न होने के कारण चोरी व अन्य अपराध के लिये प्रेरित करता है उसी प्रकार अर्थ का प्रभाव भी व्यक्ति को चारित्रिक विलासी बनाता है। अत: अर्थ का प्रभाव व अभाव दोनों व्यक्ति को अधर्मी बनाता है।

अर्थायाम, प्रकृति सहचरता और विकेंद्रीकरण की छाप गाँधी जी के स्वदेशी मॉडल में दिखाई देती है। महात्मा गाँधी ने 14 फरवरी 1916 को मद्रास में एक सम्मेलन में अपने भाषण में स्वदेशी की परिभाषा दी थी। ‘स्वदेशी वह भावना है, जिससे कि हम आसपास के परिवेश से ही अपनी अधिकतम आवश्यकताएँ पूरी करते हैं और उनसे ही अधिकाधिक व्यवहार संबंध रखते हैं तथा स्वयं को उनका सहज अभिन्न अंग समझते हैं न कि दूरस्थ लोगों और वस्तुओं से स्वयं को जोड़ने लगते हैं। आर्थिक क्षेत्र में हम आसपास के लोगों तथा स्वदेशी परंपरा और कौशल द्वारा उत्पादित वस्तुओं का ही उपयोग करेंगे और उन्हें ही सक्षम तथा श्रेष्ठ बनाएँगे।’

भारतीय संस्कृति के अनुरूप व पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के शब्दों में कहें तो हमारी जीवन पद्धति युगानुकूल के साथ देशानुकूल होना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग का एकमात्र कारण हम अपनी प्राचीन मनीषा के विचारों के अनुरूप नहीं चले। हमने भी पाश्चात्य पूँजीवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए प्रकृति को निठुर मानकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया। जब हमारे प्राचीन विद्वानों ने अपने अनुभवगम्य अध्ययन के आधार पर विश्व में अपने को विश्वगुरु का स्थान दिया था, आज संपूर्ण विश्व को उस ज्ञान की आवश्यकता है।

दिसंबर में पेरिस में आयोजित ग्लोबल वार्मिंग पर सम्मेलन से सारी दुनिया ने उम्मीदें लगा रखी हैं। जो भी धरती पर विविधता भरे जीवन की रक्षा के प्रति संवेदनशील है। वह यही चाहेगा कि यह उम्मीदें पूरी हों और इस सम्मेलन को अपने उद्देश्य में सफलता मिले। परंतु विभिन्न देशों के विरोधाभासी हित इस सम्मेलन के किसी समझौते पर पहुँचने में बाधक हैं।

लेखक अरुंधति वशिष्ठ अनुसंधान पीठ (इलाहाबाद) से जुड़े हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग से शोध भी कर रहे हैं। तमाम पत्र पत्रिकाओं में पर्यावरण और आर्थिक मुद्दों पर लगातार लिखते रहे हैं। ईमेल - ajeetpsc@gmail.com