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दैनिक जागरण, 06 मई, 2017
न्यूयार्क, आईएएनएस : दुनिया के महासागरों के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा पिछले बीस-तीस वर्षों से लगातार घट रही है। एक नए अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है। इस अध्ययन के लिये शोधकर्ताओं ने पिछले पचास सालों में महासागर सम्बन्धी आँकड़ों का अध्ययन किया और इस क्रम में दीर्घावधि के रुझानों का विश्लेषण किया। महासागरों में तापमान बढ़ने के साथ ही ऑक्सीजन का स्तर अस्सी के दशक से ही गिरना शुरू हो गया था। जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक समुद्र में ऑक्सीजन का खास गुण होता है। इसकी मात्रा प्राकृतिक जलवायु में परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। शोध टीम का नेतृत्व करने वाले टाका इको ने कहा, हमारे अध्ययन का एक खास पहलू यह है कि वैश्विक स्तर पर ऑक्सीजन में आ रही गिरावट की दर इसी मामले में प्राकृतिक रुझान से अधिक है।
समुद्र में ऑक्सीजन में कमी के खतरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं। इसका सबसे गहरा असर समुद्री जीवों पर पड़ेगा। वैज्ञानिक पहले से कहते रहे हैं कि तापमान बढ़ने से समुद्र में ऑक्सीजन की मात्रा घटेगी, लेकिन नए अध्ययन ने यह साफ किया है कि ऑक्सीजन घटने की रफ्तार उससे कहीं अधिक है जितना कि सोचा गया था। इटो ने कहा कि ऑक्सीजन में आ रही कमी पूर्व में व्यक्त किए अनुमान से दो या तीन गुना अधिक है।
उल्कापिंडों के प्रहार से सक्रिय हो जाते हैं ज्वालामुखी
लंदन प्रेट्र : पृथ्वी पर बड़े-बड़ उल्कापिंडों के प्रहार से न सिर्फ क्रेटर बनते हैं बल्कि ज्वालामुखी भी विस्फोटक ढंग से फूटने लगते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ज्वालामुखीय गतिविधि जमीन की गहराई से पदार्थों को ऊपर लाकर पृथ्वी की सतह और जलवायु को बदलती रहती है।
आयरलैंड में डब्लिन स्थित ट्रिनिटी कॉलेज के भू-रसायनशास्त्रियों के नेतृत्व में अन्तरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने केनेडा में ओंटारियो में एक बड़े क्रेटर में मौजूद चट्टानों का अध्ययन किया था। इस क्षेत्र में 1.85 अरब वर्ष में एक बड़ा उल्कापिंड गिरा था। इससे यहाँ एक गहरी घाटी बनी। इस 1.5 किलोमीटर लम्बी घाटी में आज भी चट्टान के अनोखे टुकड़ों की रूप में ज्वालामुखीय गतिविधि के प्रमाण मौजूद हैं। इन टुकड़ों का आकार केकड़े के पंजों जैसा है। इस तरह के आकार तब बनते हैं जब पिघली हुई चट्टान के भीतर गैस के बुलबुले फैलने लगते हैं। इससे चट्टान में भयंकर विस्फोट होता है। ट्रिनिटी कॉलेज के प्रोफेसर बाल्ज काम्बर का कहना है कि आरम्भिक काल में पृथ्वी पर बड़े उल्कापिंडीय प्रहारों का प्रभाव अनुमानों से कहीं ज्यादा था। शुरुआती दिनों में उल्कापिंडों की बमबारी का पृथ्वी की सतह पर विनाशकारी प्रभाव जरूर पड़ा लेकिन इसने ग्रह के गर्भ से पदार्थों को ऊपर लाकर पृथ्वी की संरचना को आकार देने में भी मदद की।