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महाराष्ट्र के परभणी-लातूर सहित विदर्भ के इलाके के कई जिलों में बीते तीन सालों से अकाल पड़ रहा है। कई जगह तो फसलें सूखने की कगार पर है। इससे निपटने के लिये ही महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी योजना लागू कर देवास मॉडल के तालाबों को अपनाने की मुहिम शुरू की है। सूखे इलाकों में अब यहाँ का कृषि विभाग, जन प्रतिनिधि तथा प्रशासन, किसानों को तालाब की सलाह दे रहे हैं। अब यहाँ गाँव–गाँव किसान इस जतन में जुटे हैं कि इस बार बारिश के पानी को किसी भी कीमत पर अपने यहाँ से व्यर्थ बहने नहीं देंगे। अकालग्रस्त महाराष्ट्र के परभणी और लातूर जिले के गाँव–गाँव में इन दिनों देवास मॉडल आधारित तालाब बनाए जा रहे हैं। इनके लिये वहाँ एक विशेष अभियान भी चलाया जा रहा है। बीते दो महीने में ही यहाँ करीब सत्रह सौ तालाबों ने आकार लेना शुरू कर दिया है। अकेले लातूर जिले में ही अब तक साढ़े ग्यारह सौ से ज्यादा तालाब बनकर तैयार हो चुके हैं। यहाँ के किसान इससे बेहद उत्साहित हैं। इनके खेतों में तालाब बनाने से पहले इन्हें देवास के रेवासागर अभियान के तहत बने तालाब दिखाए गए थे।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र के परभणी-लातूर सहित विदर्भ के इलाके के कई जिलों में बीते तीन सालों से अकाल पड़ रहा है। यहाँ कई किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं और जनवरी के महीने से ही यहाँ पानी का बड़ा संकट है। मार्च आते–आते तो हालत बहुत गम्भीर हो गए हैं। कई जगह तो फसलें सूखने की कगार पर है।
इससे निपटने के लिये ही महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी योजना लागू कर देवास मॉडल के तालाबों को अपनाने की मुहिम शुरू की है। सूखे इलाकों में अब यहाँ का कृषि विभाग, जन प्रतिनिधि तथा प्रशासन, किसानों को तालाब की सलाह दे रहे हैं। अब यहाँ गाँव–गाँव किसान इस जतन में जुटे हैं कि इस बार बारिश के पानी को किसी भी कीमत पर अपने यहाँ से व्यर्थ बहने नहीं देंगे। उसे हर सम्भव सहेजेंगे। अब वे पानी की कीमत पहचान चुके हैं। उन्हें उम्मीद है कि इससे जमीनी पानी का स्तर भी बढ़ जाएगा। देवास मॉडल को महाराष्ट्र में भी अपनाए जाने से देवास के कृषि अधिकारी भी बेहद उत्साहित हैं। वे इसे देवास में हुए प्रयासों की सफलता बताते हैं।
परभणी के डिप्टी कलेक्टर महेश कुमार बड्दकर बताते हैं कि देवास से रेवासागर देखकर आये किसान खासे उत्साहित थे। किसानों की माँग पर ही हमने क्षेत्र में तालाब की योजना बनाई है। इसमें अब तक परभणी में ही पाँच सौ से ज्यादा तालाब आकार ले रहे हैं, जो इस महीने के अन्त तक पूरे हो जाएँगे। यह बारिश के पानी को सहेजने और जलस्तर बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है। इसी तरह लातूर के कृषि अधिकारी श्री मौरे भी बताते हैं कि उनके यहाँ अब तक 1120 तालाब बन चुके हैं। इसके लिये किसानों को सरकार वित्तीय मदद भी दे रही है।

पानी की कमी के चलते कई किसानों ने तो खेत ही खाली छोड़ दिये हैं। अच्छी–खासी खेती होने के बाद भी किसान यहाँ कर्जे के बोझ तले दबते ही जा रहे हैं। साल-दर-साल के सूखे ने उनकी हालत और भी कमजोर कर दी है। कई किसान परिवारों में तो रोटी और पीने के पानी तक का संकट पैदा हो गया है। अनियमित और लगातार कम होती जा रही बारिश की वजह से मेहनतकश किसान भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि लातूर जिले में बीते साल इन्हीं कारणों से बड़ी तादाद में किसानों ने आत्महत्याएँ भी की थीं।
अपने खेत पर तालाब बनवा रहे यशवंत राव कशिद्कर ने बताया कि पानी का मोल अब हमारी समझ में आ रहा है। हमने देवास में बने रेवासागर तालाबों के बारे में बहुत सुना पढ़ा था। हमारी इन्हें देखने की बहुत दिनों से इच्छा थी। पर सच में, इनके बारे में जितना सुना था, कम ही था। खेतों पर इस तरह नीले पानी के खजानों को देखकर मन खुश हो गया। हम भी लातूर में इसे अपना रहे हैं। देवास के किसानों ने हमें इसके तकनीकी, उत्पादन, निर्माण प्रक्रिया, पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक बदलाव, मत्स्य पालन और इसके फायदे आदि पर विस्तार से बताया।
मध्य प्रदेश में मालवा को पानीदार बनाने में देवास जिले के इन तालाबों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है। अब इन्हें जलतीर्थ के रूप में पहचाना जाता है और दूर-दूर से लोग इन्हें देखने–परखने और इनके फायदे से रूबरू होने यहाँ आते रहते हैं। कई किसानों ने यहाँ से देखकर जाने के बाद अपने–अपने क्षेत्र में भी ऐसे तालाब बनवाएँ हैं।
बीते दिनों लातूर के किसानों ने भी देवास जिले के टोंकखुर्द, हरनावदा, गोरवा और धतुरिया आदि गाँवों का दौरा किया। करीब एक सौ से अधिक किसान यहाँ इस तरह पानीदार खेत देखकर बहुत खुश हुए। इसके फायदों को देखते हुए उन्होंने भी अब लातूर में इसे अपनाने का मन बना लिया है। इस बारिश में अब महाराष्ट्र के खेतों पर भी पानी के ये खजाने हिलोरें लेते नजर आएँगे।

देवास शहर के लिये ही ट्रेन की बोगियों से पानी आ रहा था तो इलाके के करीब 60 फीसदी ट्यूबवेल पूरी तरह सूख चुके थे। उन्होंने गाँवों में जाकर खेतों का जायजा लिया तो इंजीनियरिंग के छात्र उमराव को यह समझते देर नहीं लगी कि यह स्थिति (बिन पानी, सब सून) पानी की कमी से ही बन रही है। यदि किसी तरह इन खेतों तक पानी पहुँच सके तो शायद हालात बदल सकते हैं।
उमराव महज सरकारी योजनाओं के भरोसे बैठने वाले शख्स नहीं थे। उन्होंने पानी के लिये काम करने वाले लोगों और संगठनों से पानी के गणित को समझा और जिले में ‘भागीरथ कृषक अभियान’ मुहिम चलाई। भागीरथ कभी अपने परिवार के उद्धार के लिये गंगा को जमीन पर लाये होंगे पर एक उमराव ने अपनी कोशिशों से इस इलाके में महज डेढ़ साल में हजारों किसानों को भागीरथ बनाकर खेत–खेत पानी की गंगा ऐसी पहुँचाई कि अब क्षेत्र में पानी की कोई कमी नहीं रह गई है। इसके बाद तो मध्य प्रदेश सरकार ने अनुदान देकर बलराम तालाब योजना के नाम से पूरे प्रदेश में लागू किया।
इन तालाबों के लिये यहाँ के किसानों ने अपने–अपने खेतों पर ही तालाब बनाना शुरू किये। छोटे किसानों ने छोटे और बड़े किसानों ने बड़े। इस तरह तालाब बनने शुरू हुए तब किसी को इसका इल्म तक नहीं था कि एक दिन ये तालाब इस इलाके की दशा ही बदल देंगे। पानी ने इस क्षेत्र की चमक बढ़ा दी है। किसानों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है।
अब यहाँ के 40 हजार हेक्टेयर जमीन पर इसी से सिंचाई हो रही है। किसानों की उपज बढ़ी और वे समृद्ध तो हुए ही हैं, अब यहाँ के किशोर बच्चे भी पढ़ाई के साथ–साथ खेती पर ध्यान देने लगे हैं। पहले पानी नहीं होने से इनका खेती से मोहभंग हो रहा था। तालाबों के आसपास पक्षियों और प्रवासी पक्षियों की चहचहाहट गूँजती है और गाँव अब सचमुच के गाँव नजर आने लगे हैं।
कुछ महीनों पहले लातूर से किसानों का एक दल भी देवास के गाँवों में पहुँचा था और यहाँ उन्होंने तालाबों को बारीकी से देखा–परखा था। किसान रघुनाथ सिंह तोमर ने बताया कि जिन नए तौर-तरीके से खेती की जा रही है, उससे लागत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अब स्थिति यहाँ तक आ गई है कि यदि किसान के खेत में 10 हजार रुपए की फसल होती है तो 8 हजार रुपए उसकी लागत पर ही खर्च हो रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा खर्च पानी पर होता है। इस तरह पूरे साल मेहनत करने के बाद भी किसान गरीब-का-गरीब ही बना रह जाता है। पहले खेतों के आसपास बड़े–छोटे पेड़–पौधे हुआ करते थे। वे मिट्टी के कटाव को रोकते थे और जमीन तक पानी भी पहुँचाते थे लेकिन अब पेड़–पौधे ही कहाँ बचे। इससे पानी बारिश के साथ ही खत्म हो जाता है और भूजल भी लगातार नीचे जा रहा है। अब हम फिर से इसे लौटने के लिये खेतों के आसपास शीशम, नीम और चन्दन के पेड़ लगा रहे हैं। ये तीन से चार साल में बड़े हो जाते हैं तथा खेती के लिये जरूरी जैविक सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं। ये खेत के आसपास की मिट्टी की उर्वरा क्षमता को भी बढ़ाते हैं। इसके साथ तालाब पर ज्यादा जोर है ताकि कम बारिश में भी खेती के लिये पर्याप्त पानी मिल सके।

रेवासागर तालाबों को साकार करने वाले तत्कालीन जिला कलेक्टर उमाकांत उमराव भी इनकी सार्थकता से अभिभूत हैं। वे देशभर में घूमकर किसानों को इनके फायदे बताते रहे हैं। बीते दिनों उन्होंने उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाके बांदा, महोबा, चित्रकूट और हमीरपुर में तालाबों के लिये अधिकारियों के साथ कार्यशाला की। वे कहते हैं कि पानी को सहेजना और उसका विवेकपूर्ण उपयोग हम सबकी साझा जिम्मेदारी है और यह सबके हित में भी है।