मध्य प्रदेश से निकलकर महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात को लाभान्वित करने वाली नर्मदा नदी की कुल लम्बाई 1312 किलोमीटर और उसके कछार का क्षेत्रफल लगभग 98796 वर्ग किलोमीटर है। उसके कछार का बहुत थोड़ा हिस्सा (710 वर्ग किलोमीटर) छत्तीसगढ़ में स्थित है। नर्मदा नदी के कछार में अनेक बाँध बने हैं। कुछ उसकी सहायक नदियों पर तो कुछ उसकी मुख्य धारा पर।
मुख्य धारा पर बने प्रमुख बाँध हैं बरगी, नर्मदासागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर और सरदार सरोवर। नर्मदा ट्रिब्यूनल ने मध्य प्रदेश को 18.25 मिलियन एकड़ फीट पानी आवंटित किया है। नर्मदा के कुल पानी में से गुजरात को 9.00, राजस्थान को 0.5 और महाराष्ट्र को 0.25 मिलियन एकड़ फीट पानी आवंटित हुआ है। इस आवंटन की समीक्षा 2024 में होगी।
पिछले कुछ सालों से नर्मदा का प्रवाह घट रहा है। मार्च के दूसरे पखवाड़े में ही बड़वानी के राजघाट में उसकी धार टूट गई है। होशंगाबाद और देवास जिले के नेमावर में नर्मदा की धार की हालत पतली है। इन स्थानों पर लोग नर्मदा को पैदल पार कर रहे हैं। नर्मदा की सहायक नदियों की हालत बहुत अधिक खराब हैं।
इस साल लगभग सभी सहायक नदियाँ सूख चुकी हैं। तवा, बारना और बरगी बाँधों के कमाण्ड क्षेत्र में बहने वाली सहायक नदियों की भी अविरलता खत्म हो चुकी है। बिना देर किये अब नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह के घटने और उसकी सहायक नदियों के सूखने के कारणों को समझने की आवश्यकता है। यही इस लेख का उद्देश्य है।
प्रवाह की हालत इतनी खराब है कि नर्मदा और तवा के संगम (बांद्राभान) पर सम्पन्न होने वाला पाँचवाँ नदी महोत्सव, इस साल तवा नदी की रेत पर केन्द्रीय मंत्री और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की मौजूदगी में सम्पन्न हुआ है।
नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के सूखने की कहानी को समग्रता में समझने के लिये इतिहास में लौटना होगा। विदित है कि हरित क्रान्ति के पहले नर्मदा घाटी के प्रारम्भिक इलाके में जल संचय की हवेली परम्परा अस्तित्व में थी। कहा जाता है कि इसकी शुरुआत जबलपुर के उत्तर-पश्चिम के मैदानी इलाके से हुई थी। उसके बाद उस पद्धति को नरसिंहपुर जिले में अपनाया गया। अपने स्वर्ण युग में इसका विस्तार लगभग 1.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में था। इस पद्धति का विकास इलाके के मिजाज के हिसाब से हुआ था।
इस पद्धति में खेत में एक से तीन मीटर ऊँची मेढ़ बनाकर बरसात का पानी रोका जाता है। बरसात का पानी खेत में चार माह तक भरा रहता था। खेतों में चार माह तक पानी के भरे रहने का अर्थ है- मौसम की बेरुखी से मुक्त भरपूर भूजल रीचार्ज। ऐसा रीचार्ज जिस पर बरसात के चरित्र तथा मात्रा और वर्षा-दिवसों की घट-बढ़ का कोई असर नहीं पड़ता। गहरी काली मिट्टी में भी रीचार्ज कारगर होता था। इस पद्धति के कारण नर्मदा घाटी में भूजल का अधिकतम रीचार्ज होता था।
सोयाबीन खरीफ की फसल है। खेत में पानी भरा रहे तो सड़ जाती है। 1960 के बाद सोयाबीन की फसल लेने का प्रचलन बढ़ा। सरकार ने उसे प्रोत्साहित किया। लोगों ने उसे पीला सोना कहना प्रारम्भ किया। सोयाबीन के अच्छे भाव मिलने के कारण किसानों ने खेत की मेढ़ें (Field Bunds) तोड़ दीं। हर तरफ सोयाबीन छा गई।
कछार में बरसाती पानी का जमाव खत्म हो गया। भूजल रीचार्ज पर काली मिट्टी का असर शुरू हो गया। काली मिट्टी के प्रभाव के अलावा, भूजल रीचार्ज की मात्रा पर बरसात की मात्रा, उसके चरित्र, वितरण तथा वर्षा-दिवसों की घट-बढ़ का प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हुआ। नर्मदा नदी में प्रवाह घटने का यह पहला कारण है।
सन 1960 के बाद से खेती की तकनीक में भी अन्तर आया। कम पानी चाहने वाले परम्परागत देशज बीज हटे। नए उन्नत बीज आये। सिंचित खेती का चलन बढ़ा। अधिक पानी चाहने वाली फसलें मुख्य धारा में आईं। उत्पादन बढ़ा। आय बढ़ी। सूखी खेती हाशिए पर चली गई। पानी उपलब्ध कराने के लिये नर्मदा कछार के बहुत बड़े हिस्से में भूजल दोहन को वरीयता मिली। सरकार और वित्तीय संस्थानों ने किसानों को भरपूर मदद दी।
पहले चरण में किसानों ने कुएँ और उथले (लगभग 45 मीटर गहरे) नलकूप बनवाए। खेती में पानी की बढ़ती माँग के कारण कुओं के स्थान पर धीरे-धीरे गहरे नलकूपों का प्रचलन बढ़ा। होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर और रायसेन के कुछ इलाकों को तवा, बरगी और बारना की सिंचाई नहरों से पानी मिलता है।
नहरी पानी से होने वाले रिटर्न-फ्लो के फायदों के बावजूद होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर और रायसेन जिलों में भूजल दोहन का स्तर क्रमशः 20.22 प्रतिशत, 64.93 प्रतिशत, 46.52 प्रतिशत और 48.63 प्रतिशत हो गया। भूजल के बढ़ते उपयोग ने बरसात बाद के भूजल स्तर को कम किया। कम होते भूजल स्तर ने सहायक नदियों को सुखाया। उनके योगदान को कम किया। नर्मदा के प्रवाह के घटने का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है।
नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर अनेक बाँध बने। अनेक बाँध बनने की प्रक्रिया या पाइप लाइन में हैं। बरगी बाँध का निर्माण नर्मदा की मुख्य धारा पर है। उसने नर्मदा द्वारा 415 किलोमीटर की यात्रा के दौरान अर्जित समूचे प्रवाह को अपने जलाशय में कैद कर लिया। बरगी बाँध के बाद नर्मदा नदी का पुनर्जन्म हुआ। प्रवाह का एकबार पुनः बनना प्रारम्भ हुआ।
बरगी और नर्मदा सागर बाँध के बीच के 417 किलोमीटर लम्बे मार्ग की सहायक नदियों का योगदान प्रारम्भ हुआ पर तवा और बारना बाँध के बनने के बाद वह योगदान काफी हद तक घट गया। छोटी नदियों पर बनने वाले अनगिनत स्टॉपडैमों और बोरी-बन्धानों ने भी प्रवाह कम करने में अपनी भूमिका निभाई।
बरगी से 417 किलोमीटर दूर, नर्मदा की मुख्य धारा पर दूसरा बाँध (नर्मदा सागर) बनाया गया। इस बाँध ने नर्मदा के प्रवाह को एक बार फिर घटाया। 417 किलोमीटर में उपजे प्रवाह को अपने जलाशय में कैद कर लिया। नर्मदा सागर के बाद ओंकारेश्वर, उसके बाद महेश्वर और उसके बाद सरदार सरोवर बाँध बने हैं। उन सभी का बैक-वाटर एक दूसरे से मिलता है।
बाँधों की यह परस्पर सम्बद्ध शृंखला है। बाँधों की इस शृंखला ने नर्मदा के प्रवाह को अपने जलाशयों में कैद कर लिया है। सरदार सरोवर के बाद, नर्मदा का बाकी मार्ग लगभग 52 किलोमीटर है। उस मार्ग में नर्मदा फिर अविरल होने की कोशिश करती है। इन उल्लेखों का अर्थ है कि नर्मदा अब पूरी तरह नदी नहीं है। वह कहीं नदी तो कहीं जलाशय है।
नर्मदा का प्रवाह मुख्य रूप से दो बार जिन्दा होता है। पहली बार बरगी जलाशय को छोड़ने के बाद और दूसरी बार सरदार सरोवर को छोड़ने के बाद जिन्दा होता है। अर्थात नर्मदा के मुक्त प्रवाह की यात्रा दो चरणों में पूरी होती है। पहली यात्रा बरगी से नर्मदा सागर तक और दूसरी यात्रा सरदार सरोवर से खंभात की खाड़ी तक। उसकी मुक्त यात्रा का कुछ हिस्सा अमरकंटक से बरगी के बैक-वाटर तक भी है। बाकी के रास्ते में नर्मदा का, बतौर नदी, अस्तित्व नहीं है। उस रास्ते में तकनीकी रूप से वह नदी नहीं है। वह जलाशयों में कैद या ठहरा हुआ पानी है। एक तथ्य और, बदली परिस्थितियों में नर्मदा की अनेक सहायक नदियाँ अब जलाशयों में संचित पानी की मात्रा बढ़ाती हैं। नर्मदा नदी में प्रवाह घटने का यह तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण है।
पिछले कुछ सालों में नर्मदा के पानी का उपयोग इन्दौर, देवास, पीथमपुर, भोपाल, जबलपुर जैसे महानगरों और नर्मदा घाटी के अनेक कस्बों के लिये होने लगा है। गौरतलब है कि नर्मदा नदी, अपनी यात्रा के दौरान कछार से जितना प्रवाह जुटाती है, उसका अच्छा-खासा हिस्सा पेयजल योजनाओं द्वारा उठा लिया जाता है। इस कारण नर्मदा नदी के प्रवाह में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पाती। रेत के अवैज्ञानिक खनन ने प्रवाह की बढ़ती लय को बिगाड़ा। बायोडायवर्सिटी को खत्म किया। नर्मदा नदी में प्रवाह घटने का यह चौथा कारण है।
पिछले कुछ सालों से नर्मदा के कछार में गर्मी के मौसम में फसल लेने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। गन्ने के रकबे में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इन फसलों के कारण बहुत बड़ी मात्रा में भूजल का दोहन हो रहा है और कछार का भूजल बहुत तेजी से नीचे जा रहा है। इस गिरावट को किसान भी अनुभव कर रहा है। मीडिया के भी संज्ञान में है। जल स्तर के कम होने के कारण, उसे, सिंचाई पम्पों को अधिक गहराई पर उतारना पड़ रहा है। कुछ स्थानों पर हो रही पम्पिग नदियों के प्रवाह के कुछ हिस्से को खींच रही है। इस कारण भी नर्मदा का प्रवाह कम हो रहा है। नर्मदा में प्रवाह घटने का यह पाँचवाँ कारण है।
पिछले तीन-चार सालों में सोयाबीन से नर्मदा घाटी के पूर्वी भाग के किसानों का मोहभंग हुआ है। उसके स्थान पर किसानों ने खरीफ के मौसम में धान लेना प्रारम्भ किया है। धान के कारण बरसात के मौसम में खेतों में पानी भरा जा रहा है। यह बदलाव, बरसात के मौसम में हो रहे भूजल रीचार्ज के लिये किसी हद तक मुफीद है। कुछ लोगों को यह बदलाव आशा की किरण लग सकता है लेकिन यह बदलाव, किसी हद तक, मानसूनी प्रवाह के लिये ही मुफीद है। गर्मी तक, प्रवाह को जिन्दा रखने के लिये नहीं।
सभी जानते हैं कि बरसात के मौसम में नर्मदा तथा उसकी सहायक नदियों में कभी-कभी बाढ़ आती है। नदियों में प्रवाह का टोटा बरसात के बाद प्रारम्भ होता है। सहायक नदियों का सूखना अक्टूबर से प्रारम्भ हो जाता है। दिसम्बर-जनवरी आते-आते अधिकांश सहायक नदियाँ सूख जाती हैं। रबी की सिंचाई के साथ नर्मदा का प्रवाह कम होने लगता है।
इसका सीधा-सीधा मतलब है कि नर्मदा के प्रवाह के कम होने तथा उसकी सहायक नदियों के प्रवाह कम होने का असली कारण है- रबी और गर्मी के मौसम में हो रहा भूजल दोहन। उसी दोहन का इलाज आवश्यक है। यही हकीकत है। यही पूरी नर्मदा घाटी में गहराते जल संकट की असली वजह है पर नर्मदा घाटी विकास अथॉरिटी का मानना है कि नर्मदा नदी तंत्र में उपलब्ध पानी का स्रोत पहाड़ और साल के वृक्ष हैं। बाँधों से नदियों के प्रवाह पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इस कारण नर्मदा-गम्भीर, नर्मदा-पार्वती और नर्मदा-कालीसिंध जैसी नदी जोड़ परियोजनाओं को क्रियान्वित किया जा सकता है।
यदि प्राधिकरण के फैसले के अनुसार 29 बड़े, 135 मध्यम और 2000 छोटे बाँध बने तो कालान्तर में नर्मदा कछार की सभी नदियाँ मौसमी रह जाएँगी। कालान्त में सभी जलाशय गाद से पट जाएँगे। संचित पानी बायोडायवर्सिटी के लिये खतरा बनेगा। इसलिये कहा जा सकता है कि यह सोच नर्मदा नदी और उसकी घाटी में पानी के टिकाऊ विकास का सुरक्षित मार्ग नहीं है। इस मार्ग को सम्भवतः डूबते सूरज की रोशनी से उजाला बटोरने की कसरत ही कहा जा सकता है।
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