श्रीपति भट कडाकोलि कर्नाटक के उत्तर कन्नड जिले के सिरसा गाँव के किसान हैं। भट परिवार के पास कुल 15 एकड़ जमीन है जिसमें से 4 एकड़ पर सुपारी और एक एकड़ में नारियल की फसल है। सन् 1999 तक उन्हें पानी की कोई समस्या महसूस नहीं हुई। लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे दिक्कत शुरु हुई जो कि 2002 आते-आते बढ़ गई। इनके खेतों में स्थित एक बड़ा कुंआ भी सूख गया। इलायची के पौधों की फसल पानी पर 5000 रुपये खर्च करने के बावजूद सूख गई और जिस खेत में प्रति एकड़ 20 क्विंटल सुपारी का उत्पादन होता था, वह घटकर चार एकड़ में सिर्फ 32 क्विंटल रह गया।
हारकर बोरवेल करवाने का निश्चय किया, लेकिन 225 फुट तक खुदाई करवाने के बावजूद पानी नहीं निकला। इसके बाद उन्होंने भूगर्भशास्त्री और विशेषज्ञ की मदद से सर्वे करवाया जिसने बताया कि इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी भूजल नहीं है। इस समय तक भट परिवार खेती में नुकसान और खर्चों की वजह से 7-8 लाख का घाटा सह चुका था। अतएव उन्हें अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ी, खेत पर काम कर रहे कुछ मजदूरों की छुट्टी की गई तथा अधिकतर गायें बेच दी गईं। उनकी आखिरी उम्मीद सिर्फ मानसून के समय की एक फसल ही रह गई थी। भट परिवार अपनी पूरी जमीन और अन्य सम्पत्ति बेचने का विचार करने लगे थे क्योंकि लगातार तीन भीषण गर्मियों और पानी की कमी ने उन्हें लगभग तोड़कर रख दिया था।
इस बीच उन्होंने कन्नड़ पत्रिका “आदिके पत्रिके” में वर्षाजल संरक्षण और इसकी सफलता के बारे में एक पूरी श्रृंखला पढ़ी, लेकिन हालातों की वजह से किसी प्रयोग की हिम्मत और किसी तकनीक पर भरोसा नहीं हो रहा था। लेकिन अपनी पुश्तैनी जमीन को बचाने के इरादे से उन्होंने अपने जीवन का आखिरी दाँव भी आजमाने की ठान ली। पहाड़ी का वनक्षेत्र कहने भर को ही जंगल था, क्योंकि वहाँ गिने-चुने छितराये हुए पेड़ ही मौजूद थे, तथा मानसून के दौरान बारिश का पानी भारी मात्रा में फालतू बह जाता था।
पहाड़ी से लगा खेत का दो एकड़ का एक टुकड़ा श्रीपति परिवार के लिये चावल के कटोरे जैसा था। इसीलिए उन्हें इस खेत से काफी लगाव है। जब उन्होंने वर्षाजल संरक्षण की शुरुआत की तब पाया कि उनके इस खेत के तालाब को भरने के लिये पर्याप्त पानी नहीं आ रहा, इसलिये उन्होंने एक योजना बनाई, और जंगल के पानी को बेकार जाने से रोकने के लिये लगभग एक किलोमीटर लम्बी पतली नहर खोदी, ताकि पहाड़ी से नीचे आने वाला पानी सीधे तालाब में आए। इससे यह छोटा तालाब दोबारा जी उठा और मानसून के दौरान लबालब भर गया।
भट के धान के खेतों के ऊपरी हिस्से में एक मिट्टी का तालाब बना है। उसे दिखाते हुए वे कहते हैं, कि इस तालाब से रिस-रिसकर पानी नीचे खेतों तक आता है। पहले तो यह दिसम्बर तक सूख जाता था। पानी की कमी की वजह से खेत का आधा एकड़ हिस्सा खेती लायक नहीं रहता था। श्रीपति कहते हैं ‘5 साल पहले तक इस खेत में एक छोटा सा पोखरनुमा गढ्ढा था जिसमें बारिश का पानी इकट्ठा हो जाता था, पर भी वह कभी-कभी सूख जाता था। पर आज इस टैंक का पानी कभी सूखता नहीं है। हालांकि इस साल बारिश कम हुई है, लेकिन हमारे खेतों के लिये यह पर्याप्त है। अब हमें पानी की कोई कमी नहीं होती।’ लेकिन यह हुआ कैसे?
इस पर श्रीपति कहते हैं कि ‘खेत में तालाब बारिश के पानी को सहेजने वाला जादू है, लेकिन इस जादू को दिखाने वाला जादूगर उधर पहाड़ में बैठा है। बरसाती पानी को सोखने वाले गड्ढ़ों (कंटूर जैसी संरचना) की एक श्रृंखला हमने ऊपर के पहाड़ी पर बना रखी है।‘ और उसकी मिट्टी भी बेकार न जाए इसके लिये हमने ढलान के बहाव पर वनक्षेत्र में ही एक छोटी बाँधनुमा संरचना तैयार की, जिसमें लगभग 25,000 लीटर पानी तो सहेजा ही जाता है साथ ही कटाव की मिट्टी भी रोक ली जाती है। इसके बाद पानी रिसते हुए नीचे आता है। खेत के इस टैंक से लगभग 50 मीटर ऊपर ही एक टपक तालाब है और इन दोनों के बीच एक छोटी खाई जैसी संरचना है, जिसे वनभूमि और खेत की सीमा को अलग करने के लिये खोदा गया है। खाई के दोनों सिरों पर मिट्टी की दीवार बनाई गई है ताकि पानी बेकार न बहे और इसकी वजह से धरती में पानी रोकने का एक और संसाधन तैयार हो गया है।
धीरे-धीरे पहाड़ी के जंगल में पानी रुकने की मात्रा बढ़ी, नतीजा हुआ कि पानी लगातार और ज्यादा रिसने लगा। गढ्ढे मार्च-अप्रैल तक पानी से लबालब रहने लगे। पानी की वजह से मोर और हिरन आदि की तादाद भी इलाके में बढ़ने लगे। जल्दी ही गड्ढों ने तालाब का रूप ले लिया, जब इनमें सालभर पानी रहने लगा तो खुदाई करके थोड़ा और चौड़ा बना दिया गया, ताकि ज्यादा पानी सहेजा जा सके। अब यहां खेत और आसपास के क्षेत्र में मात्र 7-8 फुट की खुदाई पर ही पानी निकल आता है। पिछले दो साल से श्रीपति अपने धान के खेतों में पाइप के जरिये ही सिंचाई कर रहे हैं, जबकि उनके मुताबिक वह इस साल “बहते हुए पानी से सिंचाई” के बिना भी अच्छी फसल लेने में कामयाब हो जायेंगे।
वन विभाग के रवैये में बदलाव –
भट परिवार के सदस्यों ने पानी को रोकने के लिये आसपास खाईयाँ बनाना शुरु किया। छोटी-छोटी खाईयां एक मीटर गहरी और 4-5 मीटर चौड़ी थीं जिसमें आसानी से 5,000 लीटर पानी एक बार में एकत्रित किया जा सकता था। वन विभाग के निचले स्तर के कर्मचारियों ने इस खुदाई पर आपत्ति की और किसानों से इन खाईयों को भरने को कहा। इस पर उन्होंने उच्च अधिकारियों से इस सम्बन्ध में चर्चा करने की इच्छा जताई। बातचीत के बाद विवाद सुलझा और वन विभाग ने भी ऐसी खाईयों (खंतियों) की उपयोगिता समझी। दो साल के भीतर ही विभाग का रवैया एकदम बदल गया।
जल संरक्षण के लिए गड्ढे खोदने का काम 2002 में शुरु किया गया और लगातार 2-3 साल तक यह काम किया गया। लगभग दस एकड़ के क्षेत्र में इसे लागू किया गया। लगभग पचास मानव श्रम दिवस और अधिक से अधिक प्रति खाई 8,000 रुपये के खर्च पर यह काम किया गया। आज पहाड़ी तथा आसपास के खेतों में एक भी जलस्रोत ऐसा नहीं है जो कभी सूखता हो।
इस तरह से बारिश का लाखों लीटर पानी धरती की गोद में उतार दिया गया। इससे आसपास की पहाड़ियाँ भी हरी-भरी हो गईं। इसके बाद उन्होंने सुपारी के अपने खेत में कुँआ खोदा और वह भी सफल रहा। अगले ही साल के मानसून में भट परिवार ने छत से उतरने वाले बारिश के पानी को कुँए में उतारना शुरु किया और नतीजे तुरन्त हासिल हुए, दिवाकर कहते हैं, “अब इस कुएं का पानी कभी खत्म हो ही नहीं सकता”।
उनका सुपारी उत्पादन अब पुनः 2001 के स्तर तक पहुँच गया है। दिवाकर भट छोटे-छोटे तालाबों के खत्म होते जाने को लेकर चिंतित हैं। इन तालाबों को स्थानीय भाषा में “कोला” कहा जाता है, उनका कहना है कि यदि परम्परागत कोला सभी जगह हों तो सुपारी की फसल में लगने वाले सिंचाई के पानी में बहुत कमी आ सकती है।
भट परिवार ने पिछले तीन साल में हुई वर्षा का पूरा हिसाब-किताब रखा है। हालांकि उनका गाँव सिरसी कस्बे से 12 किलोमीटर ही दूर है, लेकिन श्रीपति बताते हैं कि “सिरसी में वार्षिक औसतन बारिश 2500 मिमी होती है, जबकि हमारे गाँव में यह औसत 2000 से 2200 मिमी है, लेकिन हमें कोई चिन्ता नहीं है। यदि आप धरती की गोद में पानी की एक बाल्टी भरकर रख सकते हैं तब कभी भी उसमें से आधी बाल्टी ले सकते हैं”।
काश कि भारत के और हिस्सों के लोग भी धरती की गोद में पानी उतारने का यह जादू अपनाते! (सप्रेस/इंडिया वाटर पोर्टल)
श्रीपति भट से आप फोन न. (08384) 279247; 094821 91544 पर बात कर सकते हैं।