Source
अमर उजाला ब्यूरो

जानकारों ने बताया कि इस पर अंकुश न लगाया गया तो स्थिति भयावह हो सकती है। उधर चिकित्सा विशेषज्ञों का दावा है कि भूजल को नुकसान पहुंचाने के साथ फसल तैयार करने में लगे लोग भी मेंथा के दुष्प्रभाव से कई गंभीर रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं। इस वर्ष जिले में करीब 875 हेक्टेयर में मेंथा की खेती की जा रही है। दिसंबर से फरवरी के मध्य इसका रोपण किया जाता है। मार्च से मई के मध्य फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इन दिनों जिले में मेंथा ऑयल बनाने का काम जोरों पर है। उन्होंने बताया कि मेंता के दामों में प्रतिवर्ष होने वाले उतार-चढ़ाव को देखते हुए इसे आमदनी का अच्छा जरिया माना जाता है।
रोग भी पनप रहे
जिला चिकित्सालय के टीबी रोग विभाग के डा. एके मिश्रा का मानना है कि मेंथा फसल को तैयार करने में लगे कृषकों व मजदूरों में सांस की बीमारी बहुतायत में होती है। साथ ही ऐसे लोगों में टीवी होने की आशंका भी बढ़ जाती है। मेंथा के खेतों में काम करने वालों को आंखों की भी परेशानी भी हो सकती है।
‘मेंथा की बढ़ती खेती भू-जल स्तर के लिए गंभीर खतरा बन रही है। इसकी सिंचाई में बेतहाशा पानी की जरूरत होती है। हालात अगर ऐसे ही रहे तो वह दिन–दूर नहीं जब हम लोगों को भी पानी की एक-एक बूंद के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा।’ (आरके सक्सेना, सेवानिवृत्त अवर अभियंता लघु सिंचाई विभाग)
‘सीतापुर जिले में फिलहाल भूजल को लेकर कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसानों को चाहिए कि एक बार यदि वह अधिक पानी वाली फसल लेते हैं, तो दूसरी बार कम पानी वाली फसल बोये, ताकि संतुलन बना रहे। ऐसा न होने पर भविष्य में पानी का संकट गहरा सकता है।’ (राजिव जैन, सहायक अभियंता, लघु सिंचाई)