एक रात घाट पर

Submitted by admin on Mon, 10/28/2013 - 16:20
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काव्य संचय- (कविता नदी)
सूर्य डूब रहा है।

भारी है पश्चिम स्थान
सूर्य डूब रहा है।

धीरे-धीरे शाखों के बीच
पत्तों के बीच
जल और धरती आसमान के बीच
एक-एक आदमी के बीच
भर रहा है अंधकार
सारा संसार अंधकार की कसी गिरह।

ठंडक बढ़ रही है धीरे-धीरे
गर्दन सिहराती
उठती है हवा कभी-कभी
जल के तल को झुकाती उठाती,
मलकती है नदी।

तुम इतने पास हो मेरे
कि रोम से बस छू रहे हैं रोम,
मैंने देखा तुम्हें
घने अंधकार में भी, हर देह का होता है
अपना आलोक।

कितना अच्छा है रात-भर जगकर
सूर्य को उगते हुए देखना
देखना अंधकार की खुलती गिरह।

कोई अंधा बूढ़ा
टो रहा है उस लड़के की देह
जिसे बचपन में छू-छूकर देखा था उसने
और हाथ फिर ठिठके हैं जाकर
वहीं
उन्हीं ऊँचाइयों तक
छाती तक।

खिलखिलाता है जवान लड़का
और उठाकर ले जाता है काँपते हाथों को
ऊपर बहुत ऊपर
माथे पर, केशों पर-
ललकती ऊँगलियाँ थम-थमकर छूती हैं
पलकें ललाट।

सहसा किन्हीं चक्कों में

तुम जवान हो गए हो बहुत-बहुत
लेकिन तुम्हारे गाल भरे तो नहीं हैं
तुम्हारी आँखें धँसी क्यों हैं
चेहरा इतना ठंडा क्यों है?