गंगा केवल एक नदी का नाम नहीं

Submitted by Hindi on Mon, 12/02/2013 - 10:13
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काव्य संचय- (कविता नदी)
मैं जब-जब इसके घाटों पर खड़ा होता हूं
मुझे मां की आंखों की याद आती है

मेरे लिए यह सिर्फ एक नदी नहीं
मां है
मेरे थके तलुए सहलाती हुई
और मेरी फटी बिवाई में मोम भरती हुई

मां
इसका पानी
अपने घर में अमृत की तरह संजोकर रखती है
और पीढ़ियों तक सींचती है इससे
अपने घर की जड़ों को

मां को इस नदी के घाटों पर स्वर्ग दिखता है
उसकी अंतिम ख्वाहिश
इसके घाटों पर मरना है
मगर मैं उसे कैसे बताऊं कि
यह उसके स्वप्नों की गंगा नहीं
कि अब इसके घाटों पर कोई चिड़िया भी पर नहीं मारती
कि अब इसका पानी जहर होता जा रहा है।

हम अपने अमृत को जहर में बदल रहे हैं
अब हमारे लिए यह जीवनदायिनी,
कालप्रवाहिनी, कर्मनाशा नदी
मां नहीं
सिर्फ कूड़ा बहाने वाली गंदी नाली है
जिसमें हमारे शहर की गंदगी
जली-फुंकी लाशें
और हमारे आत्मीयों की अस्थियां
बेरोक-टोक बहाई जाती है।

यह कौन हमारी गंगा में जहर घोल रहा है?
यह कौन मेरे ताजमहल को धुएं में बदल रहा है?
और मेरे पेड़ को उसकी जड़ों से उखाड़ रहा है?

मैं
अपनी गंगा को गंदगी से
और अपने ताजमहल को
जानलेवा धुएं से बचाना चाहता हूं
मैं
अपने पेड़ को
लंबी उम्र देना चाहता हूं...।