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परिषद साक्ष्य धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप
अपनी पीठ पर धरती को धारण किये
जैसे दिनों-दिन कम होता जाता है
पूर्णिमा के बाद चाँद
कम होती जा रही हैं उम्मीदें
आदमी पर आदमी का भरोसा
कम होता जा रहा है
यह घूमती हुई पृथ्वी
डायनासॉर-से खुले हुए
जबड़े ने आ गई है
पेड़ स्तब्ध हैं, हवा शांत
देह पसीने से तर
कौन-सा पहर है यह रात्रि का
क्या सबने हथियार डाल दिये हैं
यह दुनिया
एक बुझी हुई आग है
जिसे हम बार-बार कुरेदते हैं
कि कहीं कोई चिनगारी बाकी हो
मगर रास्ते शांत हैं
कहीं कोई आता दिखता नहीं
बस, एक उजड़ा हुआ नगर कराहता है
ओ मेरी धरती
मेरी आस्था
कौन रहेगा दुर्दिनों में आगे
कौन देगा अमंगल में साथ
समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप
पीछे खिसक रहा है कच्छप
अपनी पीठ पर धरती को धारण किये
जैसे दिनों-दिन कम होता जाता है
पूर्णिमा के बाद चाँद
कम होती जा रही हैं उम्मीदें
आदमी पर आदमी का भरोसा
कम होता जा रहा है
यह घूमती हुई पृथ्वी
डायनासॉर-से खुले हुए
जबड़े ने आ गई है
पेड़ स्तब्ध हैं, हवा शांत
देह पसीने से तर
कौन-सा पहर है यह रात्रि का
क्या सबने हथियार डाल दिये हैं
यह दुनिया
एक बुझी हुई आग है
जिसे हम बार-बार कुरेदते हैं
कि कहीं कोई चिनगारी बाकी हो
मगर रास्ते शांत हैं
कहीं कोई आता दिखता नहीं
बस, एक उजड़ा हुआ नगर कराहता है
ओ मेरी धरती
मेरी आस्था
कौन रहेगा दुर्दिनों में आगे
कौन देगा अमंगल में साथ
समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप