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पंचायतनामा सप्ताहिक पत्रिका, 2 जून 2014
भले ही आज भारत जल संसाधन की दृष्टि से दुनिया के शीर्ष संपन्न देशों में शुमार हो, लेकिन आने वाले दिनों के लिए यहां व्यापक पैमाने पर जल प्रबंधन की जरूरत पड़ेगी। खास कर ग्रामीण इलाके के लोगों व स्थानीय निकायों को जलछाजन व वर्षाजल संचय आदि जैसे प्रयोग करने होंगे। आइये, इस पर्यावरण दिवस पर इस दिशा में पहल करने का संकल्प लिया जाये।
पिछले साल एफएओ (फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ द यूनाइटेड नेशंस) द्वारा प्रस्तुत अध्ययन स्मॉल होल्डर एंड सस्टेनेबल वेल्स - ए रेट्रोस्पेक्ट : पार्टिसपेटरी ग्राउंडवाटर मैनेजमेंट इन आंध्रप्रदेश (नवंबर 2013) के अनुसार अध्ययन में यह बात उभर कर सामने आयी कि भारत की कुल गरीब आबादी का 69 प्रतिशत सिंचाई की सुविधा से वंचित इलाकों में रहता है, जबकि सिंचाई की सुविधा से संपन्न इलाकों में गरीबों की संख्या महज दो फीसदी है। यानी जब देश की दो तिहाई आबादी आज भी गांवों में रह रही है और उसमें भी अधिसंख्य खेती पर ही निर्भर हैं, तो वहां के लोगों के लिए पानी ही पूंजी का काम करती है।
यानी अगर पानी का बेहतर साधन है, सिंचाई व्यवस्था अच्छी है, तो खेती से अच्छी आय लोग अर्जित करते हैं और उनकी गरीबी खत्म हो जाती है। यह रिपोर्ट यूं तो हर आदमी के लिए महत्वपूर्ण व आंखें खोलने वाली है, लेकिन किसानों व गांव में रहने वाले लोगों के लिए यह रिपोर्ट विशेष ध्यान देने लायक है। पंचायतनामा ने अपने विभिन्न अंकों में इस तरह की कई खबरें प्रकाशित की है, जिसमें बताया गया है कि कैसे क्षेत्र विशेष में पानी का प्रबंधन किया गया और उसके बाद कृषि सुधरी, जिससे उससे जुड़े रोजगार भी उपलब्ध हुए और लोगों की गरीबी दूर हुई।
इस पुस्तक में कहा गया है कि साल 1951-1990 के बीच भूमिगत जल के दोहन में इस्तेमाल होने वाले साधनों की संख्या में नाटकीय ढंग से इजाफा हुआ। खुदाई करके बनाये जाने वाले कुओं की संख्या 3 लाख 86 हजार से बढ़कर 90 लाख 49 हजार हो गयी, जबकि कम गहराई वाले ट्यूबवेल की संख्या तीन हजार से बढ़कर 40 लाख 75 हजार के पार चली गयी। सार्वजनिक ट्यूबवेल (ज्यादा गहराई वाले) की संख्या 2400 से बढ़कर 63600 हो गयी। ठीक इसी तरह इलेक्ट्रिक पंपसेट 21 हजार से बढ़कर 80 लाख 23 हजार हो गये और डीजल पंपसेट्स की संख्या 66 हजार से बढ़कर 40 लाख 35 हजार पर पहुंच गयी।
इतने बड़े स्तर पर भूजल के दोहन से भी स्वाभाविक रूप से चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं। आने वाले दिनों में ये चुनौतियां और गहरी होंगी। इसलिए क्यों नहीं गांव-गांव, पंचायत-पंचायत के स्तर पर भूजल के स्तर को बढ़ाने के लिए व्यापक स्तर पर पहल हो।
विशेषज्ञों के अनुसार, भले ही वर्तमान में भारत पानी के मामले में नौ शीर्ष संपन्न देशों की सूची में शुमार हो, लेकिन इसे 2050 तक सालाना 900 क्यूबिक लीटर पानी के इस्तेमाल की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए पानी के प्रबंधन की जरूरत पड़ेगी। वर्तमान में विश्व की सिंचाई सुविधा संपन्न खेतिहर भूमि का 20 फीसदी हिस्सा भारत में है। इसका 62 फीसदी यानी तकरीबन 6 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भूगर्भी जल से सिंचित है।
अध्ययन यह भी बताता है कि भूमिगत जल के दोहन के साधनों के उत्तरोत्तर विकास के साथ भारत में सुखाड़ की विकरालता को कम करने में मदद मिली है। साल 1965-66 में अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा, जबकि साल 1987-88 में मात्र दो फीसदी। जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आयी। इसमें भूमिगत जल के दोहन के साधनों की वृद्धि का बड़ा योगदान है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि अगर खेती को लाभदायक बनाना है तो वर्षा जल का संचय करना होगा।
पिछले साल एफएओ (फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ द यूनाइटेड नेशंस) द्वारा प्रस्तुत अध्ययन स्मॉल होल्डर एंड सस्टेनेबल वेल्स - ए रेट्रोस्पेक्ट : पार्टिसपेटरी ग्राउंडवाटर मैनेजमेंट इन आंध्रप्रदेश (नवंबर 2013) के अनुसार अध्ययन में यह बात उभर कर सामने आयी कि भारत की कुल गरीब आबादी का 69 प्रतिशत सिंचाई की सुविधा से वंचित इलाकों में रहता है, जबकि सिंचाई की सुविधा से संपन्न इलाकों में गरीबों की संख्या महज दो फीसदी है। यानी जब देश की दो तिहाई आबादी आज भी गांवों में रह रही है और उसमें भी अधिसंख्य खेती पर ही निर्भर हैं, तो वहां के लोगों के लिए पानी ही पूंजी का काम करती है।
यानी अगर पानी का बेहतर साधन है, सिंचाई व्यवस्था अच्छी है, तो खेती से अच्छी आय लोग अर्जित करते हैं और उनकी गरीबी खत्म हो जाती है। यह रिपोर्ट यूं तो हर आदमी के लिए महत्वपूर्ण व आंखें खोलने वाली है, लेकिन किसानों व गांव में रहने वाले लोगों के लिए यह रिपोर्ट विशेष ध्यान देने लायक है। पंचायतनामा ने अपने विभिन्न अंकों में इस तरह की कई खबरें प्रकाशित की है, जिसमें बताया गया है कि कैसे क्षेत्र विशेष में पानी का प्रबंधन किया गया और उसके बाद कृषि सुधरी, जिससे उससे जुड़े रोजगार भी उपलब्ध हुए और लोगों की गरीबी दूर हुई।
बड़े पैमाने पर हो रहा जल दोहन
इस पुस्तक में कहा गया है कि साल 1951-1990 के बीच भूमिगत जल के दोहन में इस्तेमाल होने वाले साधनों की संख्या में नाटकीय ढंग से इजाफा हुआ। खुदाई करके बनाये जाने वाले कुओं की संख्या 3 लाख 86 हजार से बढ़कर 90 लाख 49 हजार हो गयी, जबकि कम गहराई वाले ट्यूबवेल की संख्या तीन हजार से बढ़कर 40 लाख 75 हजार के पार चली गयी। सार्वजनिक ट्यूबवेल (ज्यादा गहराई वाले) की संख्या 2400 से बढ़कर 63600 हो गयी। ठीक इसी तरह इलेक्ट्रिक पंपसेट 21 हजार से बढ़कर 80 लाख 23 हजार हो गये और डीजल पंपसेट्स की संख्या 66 हजार से बढ़कर 40 लाख 35 हजार पर पहुंच गयी।
इतने बड़े स्तर पर भूजल के दोहन से भी स्वाभाविक रूप से चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं। आने वाले दिनों में ये चुनौतियां और गहरी होंगी। इसलिए क्यों नहीं गांव-गांव, पंचायत-पंचायत के स्तर पर भूजल के स्तर को बढ़ाने के लिए व्यापक स्तर पर पहल हो।
भूमिगत जल दोहन से सुधरी कृषि
विशेषज्ञों के अनुसार, भले ही वर्तमान में भारत पानी के मामले में नौ शीर्ष संपन्न देशों की सूची में शुमार हो, लेकिन इसे 2050 तक सालाना 900 क्यूबिक लीटर पानी के इस्तेमाल की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए पानी के प्रबंधन की जरूरत पड़ेगी। वर्तमान में विश्व की सिंचाई सुविधा संपन्न खेतिहर भूमि का 20 फीसदी हिस्सा भारत में है। इसका 62 फीसदी यानी तकरीबन 6 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भूगर्भी जल से सिंचित है।
अध्ययन यह भी बताता है कि भूमिगत जल के दोहन के साधनों के उत्तरोत्तर विकास के साथ भारत में सुखाड़ की विकरालता को कम करने में मदद मिली है। साल 1965-66 में अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा, जबकि साल 1987-88 में मात्र दो फीसदी। जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आयी। इसमें भूमिगत जल के दोहन के साधनों की वृद्धि का बड़ा योगदान है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि अगर खेती को लाभदायक बनाना है तो वर्षा जल का संचय करना होगा।