विकास के जिस मॉडल पर आज तक बेतहाशा सड़के खुदती रही विद्युत परियोजनाएं भारी विस्फोटों के साथ सुरंगे खोद कर संवदेनशील पर्वत माला को झकझोरती रही और नदियों के अविरल प्रवाह को जहाँ-तहाँ रोककर गांव के लोगों के लिए कृत्रिम जलाभाव पैदा किया गया और कभी इन्हीं जलाशयों को अचानक खोलकर लोगों की जमीनें एवं आबादियां बहा दी गई। अब भविष्य में ऐसा विकास का मॉडल उत्तराखंड में नहीं चलेगा। इस आवाज़ को इस रिपोर्ट के माध्यम से यहां के लोगों ने बुलंद किया है। उत्तराखंड में 16-17 जून को आई आपदा की जानकारी इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया के द्वारा प्रचारित की जाती रही है। इसके अलावा कई लेखकों व प्रख्यात पर्यावरणविदों ने भी आपदा के कारणों व भविष्य के प्रभावों पर सबका ध्यान आकर्षित किया। इसी को ध्यान में रखते हुए 23-26 सितम्बर 2013 को उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, ऊखीमठ, गोपेश्वर, कर्णप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार के प्रभावित गांव व क्षेत्र का अध्ययन एक टीम द्वारा किया गया है। इस टीम में प्राकृतिक संसाधनों पर विशेषज्ञों का एक दल जिसमें उड़ीसा स्थित अग्रगामी से श्रीमती विद्यादास, गुजरात में कार्यरत दिशा संस्था की सुश्री पाउलोमी मिस्त्री, और कर्नाटक संस्था इन्वायरमेंट प्रोटेक्शन ग्रुप के श्री लियो सलडान और दिल्ली से ब्रतिन्दी जेना शामिल थी।
टीम द्वारा यहां के प्रभावित समुदायों के बारे में जानने के लिए व्यक्तिगत तथा सामुहिक स्तर पर बैठकों का आयोजन किया गया था। लगातार भारी वर्षा के कारण अध्ययन टीम के लिए यह संभव नहीं था कि द्रुत गति से प्रभावित ग्रामीणों के पास पहुँचा जा सके और उन गाँवों के जोड़ने वाले सारे पुल एवं सड़के ध्वस्त हो चुके थे। भ्रमण के दौरान आपदा प्रभावित समुदाय के सदस्यों, पत्रकारों, विभिन्न निर्माणाधीन बांध स्थलों पर स्थानीय लोगों के साथ बातचीत की गई है। इस आपदा ने उत्तराखंड हिमालय की संवेदनशीलता पर पुनः लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। टीम द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को लेकर देहरादून में हिमालय सेवा संघ नई दिल्ली, उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान, उत्तराखंड जन कारवां ने देहरादून में 26 नवंबर को एक बैठक आयोजित की है। बैठक में रिपोर्ट के अलग-अलग अध्यायों में आपदा प्रभावित इलाकों की गहरी समस्याओं को प्रतिभागियों द्वारा शामिल करवाया गया है। इस बैठक में प्रसिद्ध गाँधी विचारक सुश्री राधा बहन, प्रो. विरेन्द्र पैन्यूली, डा. अरविन्द दरमोड़ा, लक्ष्मण सिंह नेगी, ब्रतिन्दी जेना, तरुण जोशी, ईश्वर जोशी, जब्बर सिंह, प्रेम पंचोली, अरण्य रंजन, इन्दर सिंह नेगी, दुर्गा कंसवाल, डा. रामभूषण सिंह, रमेंश मुमुक्ष, जय शंकर, मदन मोहन डोभाल, सुरेश भाई, बंसत पाण्डे, देवेन्द्र दत्त आदि कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।
रिपोर्ट की प्रस्तावना में हिमालयी सुनामी के बारे में बताया गया है। इसके दूसरे अध्याय में आपदा के परिणाम में सुनामी से हुए परिवर्तनों को रेखांकित किया है। इस त्रासदी में मौत एवं महाविनाश का तांडव किस तरह से हुआ है इसके साथ ही राहत और बचाव के कार्य में व्यवस्था की उदासनीता एवं फिजूलखर्ची और सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में बताया गया है। रिपोर्ट के अंतिम अध्याय में इस हिमालयी सुनामी पर उत्तराखंड की आवाज को सुझाव के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि इस आपदा से सबक लेकर उत्तराखंड में विकास की अवधारणा को बदलना होगा। विकास के जिस मॉडल पर आज तक बेतहाशा सड़के खुदती रही विद्युत परियोजनाएं भारी विस्फोटों के साथ सुरंगे खोद कर संवदेनशील पर्वत माला को झकझोरती रही और नदियों के अविरल प्रवाह को जहाँ-तहाँ रोककर गांव के लोगों के लिए कृत्रिम जलाभाव पैदा किया गया और कभी इन्हीं जलाशयों को अचानक खोलकर लोगों की जमीनें एवं आबादियां बहा दी गई। अब भविष्य में ऐसा विकास का मॉडल उत्तराखंड में नहीं चलेगा। इस आवाज़ को इस रिपोर्ट के माध्यम से यहां के लोगों ने बुलंद किया है और इससे 40 वर्ष पूर्व भी यहां के सर्वोदय कार्यकर्ताओं की आवाज को महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन ने पर्वतीय विकास की सही दिशा के रूप में प्रसारित किया था, जिसे वर्तमान परिप्रेक्ष में इसी जमात की नई पीढ़ी के द्वारा हिमालय लोक नीति के रूप में सरकार के सामने प्रस्तुत किया था। आज पुनः आपदा के संदर्भ में नए आयामों के साथ सरकार और जनता के सामने लाया गया है।
इस टीम की अध्ययन रिपोर्ट में आपदा प्रबंधन, राहत और बचाव कार्य में हुई अनियमितता पर सवाल खड़े किए गए हैं। जिसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में आपदा के लिए संवेदनशील उत्तराखंड में विकास के नाम पर भारी अनदेखी हुई है। यदि उत्तराखंड सरकार के पास मजबूत जलवायु एक्शन प्लान होता तो इस बार की आपदा के पूर्वानुमानों को ध्यान में रखा जा सकता था और लोगों को बचाया भी जा सकता था। आपदा के बारे में वैज्ञानिकों और मौसम विभाग की सूचनाओं के प्रति लापरवाही बरती गई है। जिसके कारण लगभग 1 लाख पर्यटक चारों धाम में फंसे रहे हैं, जिन्हें या तो भूखा रहना पड़ा या अल्प भोजन पर जीवन गुजारना पड़ा है। उत्तराखंड सरकार के पास पर्यटकों की संख्या का केवल अनुमान मात्र ही था। बताया जाता है कि पिछले पांच दशकों में आपदा का यह दिन सबसे अधिक नमी वाला दिन था।
केदारनाथ में अधिकांश तबाही हिमखंडों के पिघलने से चौराबारी ताल में भारी मात्रा में एकत्रित जल प्रवाह के कारण हुई है। इसके चलते इस तबाही में केदारनाथ में जमा हुए लोगों में भगदड़ मच गई और हजारों लोगों की जिंदगी चली गई है। आपदा के उपरांत केदारनाथ एवं इसके आस-पास का उपग्रह द्वारा लिए गए चित्रों के विश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि देश के प्राकृतिक आपदा मानचित्र का पुर्नरीक्षण करके नए सिरे से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए।
इस आपदा ने 20 हजार हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि तथा 10 हजार से अधिक लोगों की जिंदगी को मलबे में तब्दील कर दिया। इसके कारण इन नदी क्षेत्रों के आस-पास बसे हुए गांव के आवागमन के सभी साधन नष्ट हुए हैं। नदी किनारों के गाँवों का अस्तित्व मिटने लगा है। कई गांव के निवासियों को अपनी सुरक्षा के लिए अन्यत्र पलायन करना पड़ा है।
उत्तराखंड समेत देश- विदेश के कई स्थानों से आए पर्यटकों व श्रद्धालुओं के परिवार वाले अपने लापता परिजनों को वापस घर लौटने की आस लगाए बैठे हैं। कई लोगों के शव अब तक बरामद नहीं हो सके हैं और कितने लोग कहाँ से थे, उसकी अंतिम सूची नहीं बन पाई है।
अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के उच्चायुक्त जेम्स बीमन ने अध्ययन दल को बताया है कि उन्हें जानकारी नहीं हो सकी है कि इस आपदा में ब्रिटिश नागरिक कुल कितने उत्तराखंड में थे। क्योंकि 100 से अधिक ब्रिटिश परिवारों ने इस संबंध में उच्चायोग से संपर्क करके बताया है कि इस आपदा के बाद उनके लोगों का कोई पता नहीं है। यही स्थिति नेपाली लोगों की भी है।
आपदा से पूर्व गौरीकुण्ड में खच्चरों की अनुमानित संख्या 8000 थी आपदा के बाद मृत लोगों के शवों की तलाश तो जारी है लेकिन पशुओं की मृत्यु संख्या क्या है, और जो बचे हैं उनकी स्थिति क्या है, अधिकांश पशु बुरी तरह जख्मी भी हुए हैं जो इलाज और चारा-पानी के अभाव में मरे हैं।
राहत कार्य में सरकार की ओर से बहुत देरी हुई है। 16-17 जून को आई आपदा के बाद 21 जून को देर शाम तक 12 युवा अधिकारियों को नोडल अधिकारी के रूप में आदेश दिए जा सके थे, जो 22 जून की रात्रि और 23 जून की सुबह तक प्रभावित क्षेत्र में पहुँच पाए थे। सवाल यह है कि आखिर यह देर क्यों हुई है? इससे कोई भी समझ सकता है कि सामान्य दिनों में जनता के कामकाज में कितनी देरी होती होगी?
उत्तराखंड में सन 2010, 011, 012, 013 में लगातार बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना और इससे पहले भूकंप जैसी विनाश की कई घटनाएं हो रही है फिर भी राज्य के पास पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन नीति क्यों नहीं है? मुवाअजा राशि में बढ़ोतरी हुई है लेकिन सही पात्र व्यक्ति तक पहुँचना अभी बाकी है। उत्तराखंड सरकार द्वारा पुर्ननिर्माण के लिए प्रस्तावित 13800 करोड़ में से 6687 करोड़ की राशि स्वीकृत है। इसके आगे भी केन्द्र सरकार विभिन्न स्रोतों से राज्य को आपदा से निपटने के लिए सहायता दे रही है। इतनी सहायता के बाद भी उत्तराखंड सरकार रोना-धोना कर रही है। उत्तराखंड राज्य के लोगों ने पृथक राज्य के लिए अभूतपूर्व संघर्ष किया है। लोगों की मांग रही है कि जल, जंगल, जमीन पर गाँवों का अधिकार मिले। इसी बात को लेकर चिपको, रक्षासूत्र, नदी बचाओ, सरला बहन द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष हिमालयी लोक नीति ने राज्य एवं देश का ध्यान आकर्षित किया है। इसके बावजूद सरकारों की अपनी मनमर्जी ने हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों को उजाड़ने वाली परियोजनाओं को महत्व दिया है। जिसके परिणाम आपदा को बार-बार न्यौता मिल रहा है। सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजना, सड़कों के चौड़ीकरण से निकलने वाले मलवे ने पहाड़ों के गांव को अस्थिर बना दिया है। नदियों के उद्गम संवेदनशील हो गए हैं। अब मानव जनित घटना को रोकना ही श्रेयस्कर होगा।
प्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. खड़ग सिंह वाल्दिया का कहना है कि राज्य में संवेदनशील फॉल्ट लाइनों को ध्यान में न रखकर सड़कें बनायी जा रही हैं। यही कार्य जल विद्युत परियाजनाओं के निर्माण में हो रहा है। अधिकांश जल विद्युत परियोजनाएं भूकंप व बाढ़ के लिए संवेदनशील फॉल्ट लाइनों के ऊपर अस्थिर चट्टानों पर बन रही हैं। उनका मानना है कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को केवल रबर स्टैम्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आपदा से निपटने के लिए सत्ता एवं विपक्ष के नेताओं को समुदाय, सामाजिक संगठन, अभियान और आन्दोलनों के साथ संवाद करने की नई राजनीतिक संस्कृति बनानी चाहिए। यह अखबारों में छपी खबरों को भी संज्ञान में लेकर राज्य की जिम्मेदारी बनती है। जिसका सर्वथा अभाव क्यों है? माननीय उच्चतम न्यायालय ने केद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि वह एक विशेषज्ञ समिति का गठन करे जो यह सुनिश्चित करें कि उत्तराखंड के सभी निर्मित अथवा निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण जून माह में राज्य में आए आकस्मिक बाढ़ में क्या योगदान रहा है? इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश जारी किया कि भागीरथी और अलकनन्दा नदियों पर हाल ही में प्रस्तावित 24 जल विद्युत परियोजनाओं की जाँच की जाए। जिनका विरोध पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा विशेषज्ञों द्वारा अभी जारी है। उच्चतम न्यायालय ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा उत्तराखंड सरकार को यह भी हिदायत दी है कि वह उत्तराखंड में किसी भी नए जल विद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति जारी नहीं करेंगे। इस आपदा में बाँधों की क्या भूमिका रही इसे पता करने के लिए विशेषज्ञ दल में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों, भारतीय वन्य जीव संस्थान, केन्द्रीय विद्युत अथॉरिटी, केन्द्रीय जल आयोग और अन्य विशेषज्ञों को शामिल किया जाय-ऐसा न्यायालय का आदेश था। इन आदेशों को उत्तराखंड की सरकार भूल गई है। हर रोज नई-नई परियोजना के उद्घाटन हो रहे है और अब सिर्फ बजट बांटना शेष बचा है। जबकि उत्तराखंड के सामाजिक पर्यावरण से जुड़े संगठन आपदा से निपटने के लिए राज-समाज मिलकर काम करने की दिशा में दबाव बना रहे हैं।
हिमालय दक्षिण एशिया का जल मीनार है। अतः यहां की जल, जंगल, जमीन के साथ संवेदनशील होकर व्यवहार करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड में चिपको, नदी बचाओ, रक्षासूत्र, जन कारवां और सिविल सोसायटी, सरला बहन के द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष में हिमालय लोक नीति राज्य एवं केन्द्र कि सामने प्रस्तुत की गई है। इसको ध्यान में रखकर हिमालय के लिए एक समग्र एवं मजबूत हिमालय नीति बनवाने की पहल की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य के लिए उपरोक्त रिपोर्टों, अध्ययनों व हिमालय लोक नीति के अनुसार निम्नानुसार कदम बढ़ाने की आवश्यकता है -
1. हिमालय भारत को उत्तर दिशा की ओर से सुरक्षित रखता है। अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही यहाँ विकास का कार्य करना चाहिए। इसलिए हिमालय का मात्र व्यावसायिक दोहन के लिए विकास का कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए खनिजों के लिए खनन का कार्य, बड़े-बड़े जल विद्युत परियोजनाएं जो यहाँ के पर्यावरण के साथ-साथ लोगों के जीवन को भी क्षति पहुँचाएगा। विकास की नई योजनाएं चाहे वह वन संसाधनों के दोहन के लिए बनाई गई हो अथवा लोगों के परंपरागत कौशल को प्रभावित करने वाला हो।
2. हिमालय का दुनिया में विशेष स्थान है। अतः यहां पर पंचतारा आकर्षित आधुनिक महानगरीय शैली की तरह बड़े-बड़े सुविधाओं वाले भवनों के निर्माण करने से बचना होगा। इसके स्थान पर हमें चाहिए कि यहाँ पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुसार ही छोटे अथवा मध्यम आकार का घर बनाएं जिससे कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव न पड़े।
3. इसलिए यहाँ की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय स्थिति को देखते हुए निर्माण की रूपरेखा एवं योजना के क्रियान्वयन के लिए हिमालयी मॉडल तैयार करना होगा। यह मॉडल ऐसा होना चाहिए जो एक ओर आधुनिक समुदाय की सभी मूलभूत आवश्यकताओं को सुनिश्चित करे जैसे कि भवन, सड़के, विद्युत वितरण लाइन्स, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य सेवा से जुड़े भवनों आदि बनाने से पहले हमें यहं की प्रकृति की संवेदनशीलता, भौगोलिक स्थिति और हिमालय की प्राथमिक एवं अनंत भूमिकाओं को ध्यान में रखकर विकास करना होगा।
4. हिमालयी राज्यों खास करके उत्तराखंड, हिमांचल, अरूणांचल, असम आदि में जल विद्युत उत्पादन हेतु प्रस्तावित परियोजनाओं तथा वर्तमान परियोजनाएं जो सुरंग पर आधारित हो उन्हें तत्काल प्रभाव से बंद कर देना चाहिए। विद्युत उत्पादन के अन्य वैकल्पिक अपरंपरागत ऊर्जा स्रोत जैसे कि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा घराट (पानी मिल) आधारित लघु जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कि हिमालयी क्षेत्रों में बसे लोगों को ऊर्जा मिले इसके लिए प्रत्येक हिमालय राज्य को छोटी व लघु जल विद्युत परियोजना के लिए अपना ग्रिड बनाना चाहिए।
5. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए और नदी के पानी का 30 प्रतिशत से ज्यादा भाग को बदलना नहीं चाहिए।
6. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के टरबाइन में जमी हुई नदी की गाद को तत्काल निकालने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि नदी के निचले क्षेत्र की उर्वरक कृषि भूमि पर इसका दुष्प्रभाव न हो।
7. किसी भी परियोजना को स्वीकृत करने से पहले उसे यह अनुमति लेना आवश्यक होगा कि परियोजना, प्रभावित समुदाय को विश्वास में लेकर बनाया गया है अथवा नहीं परियोजना के दुष्प्रभाव के आंकलन के लिए विश्वसनीय संस्थाओं के सहयोग से वैज्ञानिक अध्ययन कराया गया हो तथा इसमें स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों को सम्मिलित किया गया हो। परियोजना का लाभ-हानि विश्लेषण केवल आर्थिक आधार पर नहीं हो, बल्कि इसमें सामाजिक एवं पर्यावरणीय कीमत को भी शामिल करनी चाहिए। कुल मिलाकर जब तक स्थानीय समुदाय परियोजना के लिए सहमति नहीं दे तब तक सरकार उस परियोजना के लिए मंजूरी नहीं देगी। प्रायः भोले भाले ग्रामीण लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कंपनियों तथा भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध कागजात तैयार कर ली जाती है। इससे बचने के कड़े नियम का प्रावधान होना चाहिए जिससे कि आरोपियों को कठोर सजा मिल सके। यदि किसी कारणवश परियोजना संचालक एवं स्थानीय लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न हो जाएं तो ऐसी स्थिति में सरकार का निर्णय सर्वप्रथम स्थानीय समुदाय के हित में होना चाहिए।
8. लघु विद्युत परियोजनाएं जो किसी धारा अथवा छोटी धारा के ऊपर बनाई जा रही हैं और लगातार जल प्रवाह में कोई व्यवधान उत्पन्न करता हो तथा स्थानीय सहयोग से बनाई जा रही हो-ऐसे परियोजनाओं के लिए तकनीकी सहयोग एवं आर्थिक मदद राज्य सरकार द्वारा होना चाहिए। ऐसे परियोजनाओं से उत्पादित विद्युत को गाँव में स्थानीय लोगों द्वारा लघु उद्योगों के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध कराना चाहिए जिससे कि बेरोजगारी कम हो सके तथा लोगों का पलायन भी रूक सके।
9. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत (सौर, पवन, गोबर गैस) का विकास प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए और इसे ऊर्जा का प्रमुख श्रोत बनाना चाहिए।
10. 1960 के दशक में उत्तराखंड में लगभग 200 लघु जल विद्युत इकाईयां थीं जो बड़े-बड़े सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के आने के बाद सभी के सभी बंद हो चुके हैं। ये सभी इकाईयां पर्यावरण एवं स्थानीय लोगों के लिए हानिकारक भी नहीं थी। ऐसे बंद पड़े इकाइयों का जल्द से जल्द सुधारकर इनका उपयोग ग्रामीण लघु उद्योगों के लिए की जानी चाहिए। इस तरह के लघु जल विद्युत ईकाइयां संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में बनवाना चाहिए जिससे यहाँ के लोगों की ऊर्जा से संबंधित जरूरत पूरी हो सके।
11. हिमालय में विकास के कार्यों को निजी कंपनियों अथवा ठेकेदारों को नहीं देना चाहिए क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने की होती है। इसके बदले विकास के कार्यों को ग्रामीण स्तर की संस्थाएं जैसे ग्राम सभा अथवा ग्राम पंचायत अथवा क्षेत्र व जिला पंचायत के द्वारा कराना चाहिए।
12. नदियों और अन्य जल श्रोतों के प्राकृतिक एवं उनमुक्त जल बहाव को किसी भी हालत में अवरोध नहीं करना चाहिए।
13. जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार स्थानीय लोगों का होना चाहिए। स्थानीय समुदाय के स्पष्ट अनुमति के बिना पानी का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं होना चाहिए। स्थानीय समुदाय को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने जल स्रोतों की प्रबंधन के पूर्ण रूप से अपने हाथों में लेकर करे। उन्हें पानी के उपयोग हेतु नियम बनाने का अधिकार हो और इस नियम का पालन सभी लोगों द्वारा की जाए।
14. जल संरक्षण के लिए प्राकृतिक उपाय, जैसे चौड़ीपत्ती वाले पेड़ों का रोपण करना, विभिन्न विधियों द्वारा वर्षा जल संग्रह करना और इस तरह के फसल उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए जो कम से कम पानी का उपयोग करता हो। हिमालय के लिए किसी भी प्रकार के विकास की नीति में जल संरक्षण प्रमुख मुद्दा हो।
15. चाहे कारण कुछ भी हो, किसी भी नदी के जल बहाव को नहीं रोकना चाहिए यह अच्छा होगा कि प्रत्येक नदी के अलग नीति बनानी चाहिए।
16. किसी भी भवन के लिए जिसका कुल क्षेत्रफल 200 वर्ग मीटर से ज्यादा हो, वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
17. जंगल के लिए उपयुक्त प्रबंधन के लिए यह अति आवश्यक हो गया है कि ब्रिटिश काल से लागू वन अधिनियम को समाप्त कर दिया जाए। वन के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों को सौंपी जाए।
18. गाँव एवं इसमें रहने वाले लोगों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए, जंगल का कुछ हिस्सा खास करके सामुदायिक वन संसाधन (सी. एफ. आर.) को ग्रामवासियों के उपयोग के लिए दे देना चाहिए। हिमालय में बसने वाले प्रत्येक गाँवों के लिए अनिवार्य रूप से उनको अपना वन विकसित करना होगा।
19. जंगल एवं जैव विविधता के संरक्षण एवं विस्तार के लिए कठोर कदम उठाना चाहिए।
20. जंगल को आग से सुरक्षित रखने के लिए हमें चौड़ीपत्ती वाली विभिन्न प्रजाति के पेड़ों का वनीकरण करना होगा क्योंकि ऐसे पेड़ों वाले जंगलों में आग लगने पर आसानी से काबू की जा सकती है।
21. कृषि, फलदार पेड़ लगाने का कार्य, वनीकरण आदि को हिमालय में बसने वाले लोगों के जीविका के लिए उत्तम श्रोत माना गया है। अतः किसी भी प्रकार के विकास योजना में ये सभी कार्य मूलभूत आधार के रूप में होना चाहिए।
22. जडी-बूटी और संगन्ध पेड़-पौधों तथा फलदार पेड़ों के रोपण को बढ़ावा देना चाहिए।
23. कृषि उत्पाद के गुणात्मक सुधार की कार्य-योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए। स्थानीय लोगों को ‘वेल्यू एडिसन‘ की कार्य योजनाओं में सम्मिलित कर उन्हें प्रगतिशील उद्यमी बनने में सहायता करनी चाहिए।
24. आपदा प्रबंधन के लिए मजबूत आपदा प्रबंधन मैन्यूअल ग्राम स्तर से बनाई जाए।
25. सरकार को आपदा से निपटने के लिए वित्तीय नीति बनानी चाहिए इसके लिए गांव से लेकर राज्य स्तर तक प्रभावितों को समय पर आर्थिक सहयोग दिलाने के लिए खासकर बैंको की जबावदेही सुनिश्चित करनी चाहिए।
26. आपदा प्रभावितों को वनाधिकार अधिनियम 2006 के अनुसार खाली पड़ी वन भूमि को कृषि एवं आवासीय भवन निर्माण के लिए उपलब्ध करवाना चाहिए।
1. महिलाओं को अपने परंपरागत एवं स्वतंत्र रोज़गार के अवसर का अधिकार मिलना चाहिए।
2. महिलाओं के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले महिला संस्थान और अन्य संगठनों को स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को भी ध्यान में रखकर योजनाऐं बनानी चाहिए।
3. समुदाय आधारित पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। दुगर्म पर्यटन स्थलों को सड़क मार्ग के अपेक्षा रज्जू मार्ग (रोप-वे) द्वारा जोड़ना चाहिए। ग्रीन टैक्नोलोजी का इस्तेमाल कर सड़क का निर्माण करना चाहिए। हिमालय जैसे अति संवदेनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य में डायनामाईट का उपयोग नहीं करना चाहिए और मलबा को घाटी के ढाल पर जमा नहीं करना चाहिए। ठोस अवशिष्ट एवं मलबा का उपयुक्त विधि द्वारा प्रबंधन करना चाहिए। बड़े स्तर पर निर्माण कार्य योजना में अवशिष्ट प्रबंधन एवं वृक्षारोपण का कार्य करना अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना चाहिए।
4. आधुनिक संचार एवं सूचना तकनीकी का विकास इसके अधिकतम स्तर तक यहाँ करना चाहिए।
5. जब हम कहते हैं कि कृषि का विकास, फल उत्पादन, वनीकरण आदि जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन है तब इसका मतलब यह है कि सबके लिए उर्वरक जमीन हो/जमीन की उर्वरकता किसान के हाथों में है।
6. फल उत्पादन एवं वनीकरण के लिए अपेक्षाकृत कम उपजाऊ वाले जमीन से भी अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। अतः जमीन की उर्वराशक्ति की स्थिति की जाँच कराना आवश्यक है। अच्छी ज़मीन पर खेती कार्य की जाए परंतु किसी भी हालत में 30 डिग्री से अधिक ढाल वाली जमीन पर खेती न की जाए।
7. भूगर्भ विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि हिमालय हिन्दुस्तान और एशिया प्लेट के संधिस्थान पर स्थित है जो आपस में टकराकर कई छोटे-छोटे प्लेटों में टूट गए हैं और ये सभी प्लेटें एक दूसरे के ऊपर निरंतर गतिमान हैं। हमें इन भूगर्भीय हलचलों के अध्ययन के आधार पर ही इस क्षेत्र की भू उपयोग के बारे में समझना होगा। बड़े-बड़े जलाशयों एवं बहुमंजिला भवनों का निर्माण कार्य इस क्षेत्र के लिए आपदाओं को निमंत्रण देने जैसा होगा। हिमालय की एक निश्चित ऊँचाई के बाद के क्षेत्रों को अति संवेदनशील क्षेत्र घोषित करना होगा। इन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के मानवीय गतिविधियाँ चाहे वह पर्यटन ही क्यों न हो पूर्णतः प्रतिबंधित करना होगा। इन दुर्गम स्थानों को सड़क मार्ग से न जोड़कर, रज्जू मार्ग (रोप-वे) एवं उड़न खटोला जैसे विकल्प पर विचार करना होगा। नदियों एवं धाराओं से उत्पादित जल विद्युत का उपयोग इन उड़न खटोलों को चलाने में करना चाहिए।
टीम द्वारा यहां के प्रभावित समुदायों के बारे में जानने के लिए व्यक्तिगत तथा सामुहिक स्तर पर बैठकों का आयोजन किया गया था। लगातार भारी वर्षा के कारण अध्ययन टीम के लिए यह संभव नहीं था कि द्रुत गति से प्रभावित ग्रामीणों के पास पहुँचा जा सके और उन गाँवों के जोड़ने वाले सारे पुल एवं सड़के ध्वस्त हो चुके थे। भ्रमण के दौरान आपदा प्रभावित समुदाय के सदस्यों, पत्रकारों, विभिन्न निर्माणाधीन बांध स्थलों पर स्थानीय लोगों के साथ बातचीत की गई है। इस आपदा ने उत्तराखंड हिमालय की संवेदनशीलता पर पुनः लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। टीम द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को लेकर देहरादून में हिमालय सेवा संघ नई दिल्ली, उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान, उत्तराखंड जन कारवां ने देहरादून में 26 नवंबर को एक बैठक आयोजित की है। बैठक में रिपोर्ट के अलग-अलग अध्यायों में आपदा प्रभावित इलाकों की गहरी समस्याओं को प्रतिभागियों द्वारा शामिल करवाया गया है। इस बैठक में प्रसिद्ध गाँधी विचारक सुश्री राधा बहन, प्रो. विरेन्द्र पैन्यूली, डा. अरविन्द दरमोड़ा, लक्ष्मण सिंह नेगी, ब्रतिन्दी जेना, तरुण जोशी, ईश्वर जोशी, जब्बर सिंह, प्रेम पंचोली, अरण्य रंजन, इन्दर सिंह नेगी, दुर्गा कंसवाल, डा. रामभूषण सिंह, रमेंश मुमुक्ष, जय शंकर, मदन मोहन डोभाल, सुरेश भाई, बंसत पाण्डे, देवेन्द्र दत्त आदि कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।
रिपोर्ट की प्रस्तावना में हिमालयी सुनामी के बारे में बताया गया है। इसके दूसरे अध्याय में आपदा के परिणाम में सुनामी से हुए परिवर्तनों को रेखांकित किया है। इस त्रासदी में मौत एवं महाविनाश का तांडव किस तरह से हुआ है इसके साथ ही राहत और बचाव के कार्य में व्यवस्था की उदासनीता एवं फिजूलखर्ची और सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में बताया गया है। रिपोर्ट के अंतिम अध्याय में इस हिमालयी सुनामी पर उत्तराखंड की आवाज को सुझाव के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि इस आपदा से सबक लेकर उत्तराखंड में विकास की अवधारणा को बदलना होगा। विकास के जिस मॉडल पर आज तक बेतहाशा सड़के खुदती रही विद्युत परियोजनाएं भारी विस्फोटों के साथ सुरंगे खोद कर संवदेनशील पर्वत माला को झकझोरती रही और नदियों के अविरल प्रवाह को जहाँ-तहाँ रोककर गांव के लोगों के लिए कृत्रिम जलाभाव पैदा किया गया और कभी इन्हीं जलाशयों को अचानक खोलकर लोगों की जमीनें एवं आबादियां बहा दी गई। अब भविष्य में ऐसा विकास का मॉडल उत्तराखंड में नहीं चलेगा। इस आवाज़ को इस रिपोर्ट के माध्यम से यहां के लोगों ने बुलंद किया है और इससे 40 वर्ष पूर्व भी यहां के सर्वोदय कार्यकर्ताओं की आवाज को महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन ने पर्वतीय विकास की सही दिशा के रूप में प्रसारित किया था, जिसे वर्तमान परिप्रेक्ष में इसी जमात की नई पीढ़ी के द्वारा हिमालय लोक नीति के रूप में सरकार के सामने प्रस्तुत किया था। आज पुनः आपदा के संदर्भ में नए आयामों के साथ सरकार और जनता के सामने लाया गया है।
इस टीम की अध्ययन रिपोर्ट में आपदा प्रबंधन, राहत और बचाव कार्य में हुई अनियमितता पर सवाल खड़े किए गए हैं। जिसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में आपदा के लिए संवेदनशील उत्तराखंड में विकास के नाम पर भारी अनदेखी हुई है। यदि उत्तराखंड सरकार के पास मजबूत जलवायु एक्शन प्लान होता तो इस बार की आपदा के पूर्वानुमानों को ध्यान में रखा जा सकता था और लोगों को बचाया भी जा सकता था। आपदा के बारे में वैज्ञानिकों और मौसम विभाग की सूचनाओं के प्रति लापरवाही बरती गई है। जिसके कारण लगभग 1 लाख पर्यटक चारों धाम में फंसे रहे हैं, जिन्हें या तो भूखा रहना पड़ा या अल्प भोजन पर जीवन गुजारना पड़ा है। उत्तराखंड सरकार के पास पर्यटकों की संख्या का केवल अनुमान मात्र ही था। बताया जाता है कि पिछले पांच दशकों में आपदा का यह दिन सबसे अधिक नमी वाला दिन था।
केदारनाथ में अधिकांश तबाही हिमखंडों के पिघलने से चौराबारी ताल में भारी मात्रा में एकत्रित जल प्रवाह के कारण हुई है। इसके चलते इस तबाही में केदारनाथ में जमा हुए लोगों में भगदड़ मच गई और हजारों लोगों की जिंदगी चली गई है। आपदा के उपरांत केदारनाथ एवं इसके आस-पास का उपग्रह द्वारा लिए गए चित्रों के विश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि देश के प्राकृतिक आपदा मानचित्र का पुर्नरीक्षण करके नए सिरे से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए।
इस आपदा ने 20 हजार हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि तथा 10 हजार से अधिक लोगों की जिंदगी को मलबे में तब्दील कर दिया। इसके कारण इन नदी क्षेत्रों के आस-पास बसे हुए गांव के आवागमन के सभी साधन नष्ट हुए हैं। नदी किनारों के गाँवों का अस्तित्व मिटने लगा है। कई गांव के निवासियों को अपनी सुरक्षा के लिए अन्यत्र पलायन करना पड़ा है।
उत्तराखंड समेत देश- विदेश के कई स्थानों से आए पर्यटकों व श्रद्धालुओं के परिवार वाले अपने लापता परिजनों को वापस घर लौटने की आस लगाए बैठे हैं। कई लोगों के शव अब तक बरामद नहीं हो सके हैं और कितने लोग कहाँ से थे, उसकी अंतिम सूची नहीं बन पाई है।
अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के उच्चायुक्त जेम्स बीमन ने अध्ययन दल को बताया है कि उन्हें जानकारी नहीं हो सकी है कि इस आपदा में ब्रिटिश नागरिक कुल कितने उत्तराखंड में थे। क्योंकि 100 से अधिक ब्रिटिश परिवारों ने इस संबंध में उच्चायोग से संपर्क करके बताया है कि इस आपदा के बाद उनके लोगों का कोई पता नहीं है। यही स्थिति नेपाली लोगों की भी है।
आपदा से पूर्व गौरीकुण्ड में खच्चरों की अनुमानित संख्या 8000 थी आपदा के बाद मृत लोगों के शवों की तलाश तो जारी है लेकिन पशुओं की मृत्यु संख्या क्या है, और जो बचे हैं उनकी स्थिति क्या है, अधिकांश पशु बुरी तरह जख्मी भी हुए हैं जो इलाज और चारा-पानी के अभाव में मरे हैं।
राहत कार्य में सरकार की ओर से बहुत देरी हुई है। 16-17 जून को आई आपदा के बाद 21 जून को देर शाम तक 12 युवा अधिकारियों को नोडल अधिकारी के रूप में आदेश दिए जा सके थे, जो 22 जून की रात्रि और 23 जून की सुबह तक प्रभावित क्षेत्र में पहुँच पाए थे। सवाल यह है कि आखिर यह देर क्यों हुई है? इससे कोई भी समझ सकता है कि सामान्य दिनों में जनता के कामकाज में कितनी देरी होती होगी?
उत्तराखंड में सन 2010, 011, 012, 013 में लगातार बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना और इससे पहले भूकंप जैसी विनाश की कई घटनाएं हो रही है फिर भी राज्य के पास पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन नीति क्यों नहीं है? मुवाअजा राशि में बढ़ोतरी हुई है लेकिन सही पात्र व्यक्ति तक पहुँचना अभी बाकी है। उत्तराखंड सरकार द्वारा पुर्ननिर्माण के लिए प्रस्तावित 13800 करोड़ में से 6687 करोड़ की राशि स्वीकृत है। इसके आगे भी केन्द्र सरकार विभिन्न स्रोतों से राज्य को आपदा से निपटने के लिए सहायता दे रही है। इतनी सहायता के बाद भी उत्तराखंड सरकार रोना-धोना कर रही है। उत्तराखंड राज्य के लोगों ने पृथक राज्य के लिए अभूतपूर्व संघर्ष किया है। लोगों की मांग रही है कि जल, जंगल, जमीन पर गाँवों का अधिकार मिले। इसी बात को लेकर चिपको, रक्षासूत्र, नदी बचाओ, सरला बहन द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष हिमालयी लोक नीति ने राज्य एवं देश का ध्यान आकर्षित किया है। इसके बावजूद सरकारों की अपनी मनमर्जी ने हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों को उजाड़ने वाली परियोजनाओं को महत्व दिया है। जिसके परिणाम आपदा को बार-बार न्यौता मिल रहा है। सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजना, सड़कों के चौड़ीकरण से निकलने वाले मलवे ने पहाड़ों के गांव को अस्थिर बना दिया है। नदियों के उद्गम संवेदनशील हो गए हैं। अब मानव जनित घटना को रोकना ही श्रेयस्कर होगा।
प्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. खड़ग सिंह वाल्दिया का कहना है कि राज्य में संवेदनशील फॉल्ट लाइनों को ध्यान में न रखकर सड़कें बनायी जा रही हैं। यही कार्य जल विद्युत परियाजनाओं के निर्माण में हो रहा है। अधिकांश जल विद्युत परियोजनाएं भूकंप व बाढ़ के लिए संवेदनशील फॉल्ट लाइनों के ऊपर अस्थिर चट्टानों पर बन रही हैं। उनका मानना है कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को केवल रबर स्टैम्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आपदा से निपटने के लिए सत्ता एवं विपक्ष के नेताओं को समुदाय, सामाजिक संगठन, अभियान और आन्दोलनों के साथ संवाद करने की नई राजनीतिक संस्कृति बनानी चाहिए। यह अखबारों में छपी खबरों को भी संज्ञान में लेकर राज्य की जिम्मेदारी बनती है। जिसका सर्वथा अभाव क्यों है? माननीय उच्चतम न्यायालय ने केद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि वह एक विशेषज्ञ समिति का गठन करे जो यह सुनिश्चित करें कि उत्तराखंड के सभी निर्मित अथवा निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण जून माह में राज्य में आए आकस्मिक बाढ़ में क्या योगदान रहा है? इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश जारी किया कि भागीरथी और अलकनन्दा नदियों पर हाल ही में प्रस्तावित 24 जल विद्युत परियोजनाओं की जाँच की जाए। जिनका विरोध पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा विशेषज्ञों द्वारा अभी जारी है। उच्चतम न्यायालय ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा उत्तराखंड सरकार को यह भी हिदायत दी है कि वह उत्तराखंड में किसी भी नए जल विद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति जारी नहीं करेंगे। इस आपदा में बाँधों की क्या भूमिका रही इसे पता करने के लिए विशेषज्ञ दल में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों, भारतीय वन्य जीव संस्थान, केन्द्रीय विद्युत अथॉरिटी, केन्द्रीय जल आयोग और अन्य विशेषज्ञों को शामिल किया जाय-ऐसा न्यायालय का आदेश था। इन आदेशों को उत्तराखंड की सरकार भूल गई है। हर रोज नई-नई परियोजना के उद्घाटन हो रहे है और अब सिर्फ बजट बांटना शेष बचा है। जबकि उत्तराखंड के सामाजिक पर्यावरण से जुड़े संगठन आपदा से निपटने के लिए राज-समाज मिलकर काम करने की दिशा में दबाव बना रहे हैं।
हिमालय के सतत विकास की सही दिशा- हिमालय की लोकनीति
हिमालय दक्षिण एशिया का जल मीनार है। अतः यहां की जल, जंगल, जमीन के साथ संवेदनशील होकर व्यवहार करने की आवश्यकता है। उत्तराखंड में चिपको, नदी बचाओ, रक्षासूत्र, जन कारवां और सिविल सोसायटी, सरला बहन के द्वारा पर्वतीय विकास की सही दिशा और वर्तमान परिप्रेक्ष में हिमालय लोक नीति राज्य एवं केन्द्र कि सामने प्रस्तुत की गई है। इसको ध्यान में रखकर हिमालय के लिए एक समग्र एवं मजबूत हिमालय नीति बनवाने की पहल की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य के लिए उपरोक्त रिपोर्टों, अध्ययनों व हिमालय लोक नीति के अनुसार निम्नानुसार कदम बढ़ाने की आवश्यकता है -
1. हिमालय भारत को उत्तर दिशा की ओर से सुरक्षित रखता है। अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही यहाँ विकास का कार्य करना चाहिए। इसलिए हिमालय का मात्र व्यावसायिक दोहन के लिए विकास का कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए खनिजों के लिए खनन का कार्य, बड़े-बड़े जल विद्युत परियोजनाएं जो यहाँ के पर्यावरण के साथ-साथ लोगों के जीवन को भी क्षति पहुँचाएगा। विकास की नई योजनाएं चाहे वह वन संसाधनों के दोहन के लिए बनाई गई हो अथवा लोगों के परंपरागत कौशल को प्रभावित करने वाला हो।
2. हिमालय का दुनिया में विशेष स्थान है। अतः यहां पर पंचतारा आकर्षित आधुनिक महानगरीय शैली की तरह बड़े-बड़े सुविधाओं वाले भवनों के निर्माण करने से बचना होगा। इसके स्थान पर हमें चाहिए कि यहाँ पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुसार ही छोटे अथवा मध्यम आकार का घर बनाएं जिससे कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव न पड़े।
3. इसलिए यहाँ की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय स्थिति को देखते हुए निर्माण की रूपरेखा एवं योजना के क्रियान्वयन के लिए हिमालयी मॉडल तैयार करना होगा। यह मॉडल ऐसा होना चाहिए जो एक ओर आधुनिक समुदाय की सभी मूलभूत आवश्यकताओं को सुनिश्चित करे जैसे कि भवन, सड़के, विद्युत वितरण लाइन्स, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य सेवा से जुड़े भवनों आदि बनाने से पहले हमें यहं की प्रकृति की संवेदनशीलता, भौगोलिक स्थिति और हिमालय की प्राथमिक एवं अनंत भूमिकाओं को ध्यान में रखकर विकास करना होगा।
4. हिमालयी राज्यों खास करके उत्तराखंड, हिमांचल, अरूणांचल, असम आदि में जल विद्युत उत्पादन हेतु प्रस्तावित परियोजनाओं तथा वर्तमान परियोजनाएं जो सुरंग पर आधारित हो उन्हें तत्काल प्रभाव से बंद कर देना चाहिए। विद्युत उत्पादन के अन्य वैकल्पिक अपरंपरागत ऊर्जा स्रोत जैसे कि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा घराट (पानी मिल) आधारित लघु जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कि हिमालयी क्षेत्रों में बसे लोगों को ऊर्जा मिले इसके लिए प्रत्येक हिमालय राज्य को छोटी व लघु जल विद्युत परियोजना के लिए अपना ग्रिड बनाना चाहिए।
5. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए और नदी के पानी का 30 प्रतिशत से ज्यादा भाग को बदलना नहीं चाहिए।
6. वर्तमान में कार्यरत जल विद्युत परियोजनाओं के टरबाइन में जमी हुई नदी की गाद को तत्काल निकालने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि नदी के निचले क्षेत्र की उर्वरक कृषि भूमि पर इसका दुष्प्रभाव न हो।
7. किसी भी परियोजना को स्वीकृत करने से पहले उसे यह अनुमति लेना आवश्यक होगा कि परियोजना, प्रभावित समुदाय को विश्वास में लेकर बनाया गया है अथवा नहीं परियोजना के दुष्प्रभाव के आंकलन के लिए विश्वसनीय संस्थाओं के सहयोग से वैज्ञानिक अध्ययन कराया गया हो तथा इसमें स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों को सम्मिलित किया गया हो। परियोजना का लाभ-हानि विश्लेषण केवल आर्थिक आधार पर नहीं हो, बल्कि इसमें सामाजिक एवं पर्यावरणीय कीमत को भी शामिल करनी चाहिए। कुल मिलाकर जब तक स्थानीय समुदाय परियोजना के लिए सहमति नहीं दे तब तक सरकार उस परियोजना के लिए मंजूरी नहीं देगी। प्रायः भोले भाले ग्रामीण लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कंपनियों तथा भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध कागजात तैयार कर ली जाती है। इससे बचने के कड़े नियम का प्रावधान होना चाहिए जिससे कि आरोपियों को कठोर सजा मिल सके। यदि किसी कारणवश परियोजना संचालक एवं स्थानीय लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न हो जाएं तो ऐसी स्थिति में सरकार का निर्णय सर्वप्रथम स्थानीय समुदाय के हित में होना चाहिए।
8. लघु विद्युत परियोजनाएं जो किसी धारा अथवा छोटी धारा के ऊपर बनाई जा रही हैं और लगातार जल प्रवाह में कोई व्यवधान उत्पन्न करता हो तथा स्थानीय सहयोग से बनाई जा रही हो-ऐसे परियोजनाओं के लिए तकनीकी सहयोग एवं आर्थिक मदद राज्य सरकार द्वारा होना चाहिए। ऐसे परियोजनाओं से उत्पादित विद्युत को गाँव में स्थानीय लोगों द्वारा लघु उद्योगों के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध कराना चाहिए जिससे कि बेरोजगारी कम हो सके तथा लोगों का पलायन भी रूक सके।
9. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत (सौर, पवन, गोबर गैस) का विकास प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए और इसे ऊर्जा का प्रमुख श्रोत बनाना चाहिए।
10. 1960 के दशक में उत्तराखंड में लगभग 200 लघु जल विद्युत इकाईयां थीं जो बड़े-बड़े सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के आने के बाद सभी के सभी बंद हो चुके हैं। ये सभी इकाईयां पर्यावरण एवं स्थानीय लोगों के लिए हानिकारक भी नहीं थी। ऐसे बंद पड़े इकाइयों का जल्द से जल्द सुधारकर इनका उपयोग ग्रामीण लघु उद्योगों के लिए की जानी चाहिए। इस तरह के लघु जल विद्युत ईकाइयां संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में बनवाना चाहिए जिससे यहाँ के लोगों की ऊर्जा से संबंधित जरूरत पूरी हो सके।
11. हिमालय में विकास के कार्यों को निजी कंपनियों अथवा ठेकेदारों को नहीं देना चाहिए क्योंकि इनका मुख्य उद्देश्य किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने की होती है। इसके बदले विकास के कार्यों को ग्रामीण स्तर की संस्थाएं जैसे ग्राम सभा अथवा ग्राम पंचायत अथवा क्षेत्र व जिला पंचायत के द्वारा कराना चाहिए।
12. नदियों और अन्य जल श्रोतों के प्राकृतिक एवं उनमुक्त जल बहाव को किसी भी हालत में अवरोध नहीं करना चाहिए।
13. जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार स्थानीय लोगों का होना चाहिए। स्थानीय समुदाय के स्पष्ट अनुमति के बिना पानी का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं होना चाहिए। स्थानीय समुदाय को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने जल स्रोतों की प्रबंधन के पूर्ण रूप से अपने हाथों में लेकर करे। उन्हें पानी के उपयोग हेतु नियम बनाने का अधिकार हो और इस नियम का पालन सभी लोगों द्वारा की जाए।
14. जल संरक्षण के लिए प्राकृतिक उपाय, जैसे चौड़ीपत्ती वाले पेड़ों का रोपण करना, विभिन्न विधियों द्वारा वर्षा जल संग्रह करना और इस तरह के फसल उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए जो कम से कम पानी का उपयोग करता हो। हिमालय के लिए किसी भी प्रकार के विकास की नीति में जल संरक्षण प्रमुख मुद्दा हो।
15. चाहे कारण कुछ भी हो, किसी भी नदी के जल बहाव को नहीं रोकना चाहिए यह अच्छा होगा कि प्रत्येक नदी के अलग नीति बनानी चाहिए।
16. किसी भी भवन के लिए जिसका कुल क्षेत्रफल 200 वर्ग मीटर से ज्यादा हो, वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
17. जंगल के लिए उपयुक्त प्रबंधन के लिए यह अति आवश्यक हो गया है कि ब्रिटिश काल से लागू वन अधिनियम को समाप्त कर दिया जाए। वन के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों को सौंपी जाए।
18. गाँव एवं इसमें रहने वाले लोगों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए, जंगल का कुछ हिस्सा खास करके सामुदायिक वन संसाधन (सी. एफ. आर.) को ग्रामवासियों के उपयोग के लिए दे देना चाहिए। हिमालय में बसने वाले प्रत्येक गाँवों के लिए अनिवार्य रूप से उनको अपना वन विकसित करना होगा।
19. जंगल एवं जैव विविधता के संरक्षण एवं विस्तार के लिए कठोर कदम उठाना चाहिए।
20. जंगल को आग से सुरक्षित रखने के लिए हमें चौड़ीपत्ती वाली विभिन्न प्रजाति के पेड़ों का वनीकरण करना होगा क्योंकि ऐसे पेड़ों वाले जंगलों में आग लगने पर आसानी से काबू की जा सकती है।
21. कृषि, फलदार पेड़ लगाने का कार्य, वनीकरण आदि को हिमालय में बसने वाले लोगों के जीविका के लिए उत्तम श्रोत माना गया है। अतः किसी भी प्रकार के विकास योजना में ये सभी कार्य मूलभूत आधार के रूप में होना चाहिए।
22. जडी-बूटी और संगन्ध पेड़-पौधों तथा फलदार पेड़ों के रोपण को बढ़ावा देना चाहिए।
23. कृषि उत्पाद के गुणात्मक सुधार की कार्य-योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए। स्थानीय लोगों को ‘वेल्यू एडिसन‘ की कार्य योजनाओं में सम्मिलित कर उन्हें प्रगतिशील उद्यमी बनने में सहायता करनी चाहिए।
24. आपदा प्रबंधन के लिए मजबूत आपदा प्रबंधन मैन्यूअल ग्राम स्तर से बनाई जाए।
25. सरकार को आपदा से निपटने के लिए वित्तीय नीति बनानी चाहिए इसके लिए गांव से लेकर राज्य स्तर तक प्रभावितों को समय पर आर्थिक सहयोग दिलाने के लिए खासकर बैंको की जबावदेही सुनिश्चित करनी चाहिए।
26. आपदा प्रभावितों को वनाधिकार अधिनियम 2006 के अनुसार खाली पड़ी वन भूमि को कृषि एवं आवासीय भवन निर्माण के लिए उपलब्ध करवाना चाहिए।
महिला केन्द्रित विकास
1. महिलाओं को अपने परंपरागत एवं स्वतंत्र रोज़गार के अवसर का अधिकार मिलना चाहिए।
2. महिलाओं के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले महिला संस्थान और अन्य संगठनों को स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को भी ध्यान में रखकर योजनाऐं बनानी चाहिए।
3. समुदाय आधारित पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। दुगर्म पर्यटन स्थलों को सड़क मार्ग के अपेक्षा रज्जू मार्ग (रोप-वे) द्वारा जोड़ना चाहिए। ग्रीन टैक्नोलोजी का इस्तेमाल कर सड़क का निर्माण करना चाहिए। हिमालय जैसे अति संवदेनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य में डायनामाईट का उपयोग नहीं करना चाहिए और मलबा को घाटी के ढाल पर जमा नहीं करना चाहिए। ठोस अवशिष्ट एवं मलबा का उपयुक्त विधि द्वारा प्रबंधन करना चाहिए। बड़े स्तर पर निर्माण कार्य योजना में अवशिष्ट प्रबंधन एवं वृक्षारोपण का कार्य करना अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना चाहिए।
4. आधुनिक संचार एवं सूचना तकनीकी का विकास इसके अधिकतम स्तर तक यहाँ करना चाहिए।
5. जब हम कहते हैं कि कृषि का विकास, फल उत्पादन, वनीकरण आदि जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन है तब इसका मतलब यह है कि सबके लिए उर्वरक जमीन हो/जमीन की उर्वरकता किसान के हाथों में है।
6. फल उत्पादन एवं वनीकरण के लिए अपेक्षाकृत कम उपजाऊ वाले जमीन से भी अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। अतः जमीन की उर्वराशक्ति की स्थिति की जाँच कराना आवश्यक है। अच्छी ज़मीन पर खेती कार्य की जाए परंतु किसी भी हालत में 30 डिग्री से अधिक ढाल वाली जमीन पर खेती न की जाए।
7. भूगर्भ विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि हिमालय हिन्दुस्तान और एशिया प्लेट के संधिस्थान पर स्थित है जो आपस में टकराकर कई छोटे-छोटे प्लेटों में टूट गए हैं और ये सभी प्लेटें एक दूसरे के ऊपर निरंतर गतिमान हैं। हमें इन भूगर्भीय हलचलों के अध्ययन के आधार पर ही इस क्षेत्र की भू उपयोग के बारे में समझना होगा। बड़े-बड़े जलाशयों एवं बहुमंजिला भवनों का निर्माण कार्य इस क्षेत्र के लिए आपदाओं को निमंत्रण देने जैसा होगा। हिमालय की एक निश्चित ऊँचाई के बाद के क्षेत्रों को अति संवेदनशील क्षेत्र घोषित करना होगा। इन क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के मानवीय गतिविधियाँ चाहे वह पर्यटन ही क्यों न हो पूर्णतः प्रतिबंधित करना होगा। इन दुर्गम स्थानों को सड़क मार्ग से न जोड़कर, रज्जू मार्ग (रोप-वे) एवं उड़न खटोला जैसे विकल्प पर विचार करना होगा। नदियों एवं धाराओं से उत्पादित जल विद्युत का उपयोग इन उड़न खटोलों को चलाने में करना चाहिए।