जल बचाएं और मानसून से संबंध प्रगाढ़ बनाएं

Submitted by Hindi on Fri, 07/15/2011 - 09:10
Source
बिजनेस स्टैंडर्ड, 19 जुलाई 2010

हमारे शहरों और खेतों में होने वाली बारिश का उत्सव कैसे मनाया जाए? जब भी बारिश नहीं होती है तब भी हम रोते हैं और जब अतिवृष्टि के कारण बाढ़ और तमाम तरह की बीमारियां फैलती हैं या शहरों में जाम लगते हैं तब भी हमारी आंखों से आंसू निकलते हैं। मानसून हम सबका ही एक हिस्सा है और अब हमें इस बात को सच्चाई में बदलना होगा।

हर साल बारिश की प्रतीक्षा करने के बजाय हमें जल की एक-एक बूंद का संरक्षण करना चाहिए, तभी मानसून पर हमारी निर्भरता खत्म हो सकेगी शहरी और ग्रामीण, अमीर और गरीब के भेद से परे हमारे देश के लोग हर वर्ष कम से कम जिस चीज का इंतजार समान रूप से करते दिखाई देते हैं, वह है मानसून। इंतजार की शुरुआत हर वर्ष उस समय होती है जब गर्मियां जोर पकड़ती हैं और मानसून आगे बढऩा शुरू हो जाता है। किसान बेसब्री से मानसून की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें फसलों के लिए सही समय पर बारिश की जरूरत महसूस होती है। हमारे यहां परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं कि बगैर बारिश के वे खेतों में बीज बो सकें। शहरों में मानसून का इंतजार होता है क्योंकि मानसून की शुरुआत तक शहरों में जलापूर्ति करने वाले तमाम जलाशयों में पानी की कमी होने लगती है और उन्हें भरने के लिए बारिश जरूरी होती है। वातानुकूलन की व्यवस्था होने के बावजूद हम सभी बारिश का इंतजार करते हैं क्योंकि वह हमें भीषण गर्मी के अलावा धूल से भी राहत दिलाती है। शायद साल में यही एक मौका होता है जब देश भर के लोगों में अभूतपूर्व एकता देखने को मिलती है।

अभी जबकि मैं यह आलेख लिख रही हूं, मेरे मन में तीन सवाल घुमड़ रहे हैं। पहला, क्या मानसून हर भारतीय की जिंदगी में इतना ज्यादा महत्त्व रखता है? दूसरा, हम इसके बारे में कितना जानते हैं और तीसरा व आखिरी सवाल यह कि क्या हममें से अधिकांश लोग जानते हैं कि मानसून की परिभाषा को लेकर अभी भी वैज्ञानिकों में मतैक्य नहीं है। अब तक वैज्ञानिकों के मुताबिक मानसून की परिभाषा इस प्रकार है: मौसमी हवाएं जो एक निश्चित दिशा में बहती हैं और दिशा में परिवर्तन होने पर ये हवाएं चक्कर खाने लगती हैं। हमारा मानसून सही मामलों में वैश्विक है। इसका संबंध सुदूर स्थित प्रशांत महासागर से लेकर तिब्बत के पठार के तापमान, यूरेशिया के हिमपात या फिर बंगाल की खाड़ी में मिलने वाले ताजे पानी तक से है। क्या हमें पता है कि देश में मानसून से जुड़े वैज्ञानिक कौन हैं और कैसे वे मनमौजी और चंचल प्रवृत्ति के मानसून की रोजाना की गतिविधि का अध्ययन करते हैं। इनमें से सभी सवालों का जवाब ना है। हमें वाकई ये सब नहीं मालूम। हमने स्कूल में कुछ विज्ञान जरूर पढ़ा है लेकिन वास्तविक जीवन में हमारा उससे पाला नहीं पड़ा क्योंकि यह हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में नहीं आता। हमें लगता है कि आज की दुनिया में रहने के लिए यह आवश्यक है लेकिन हम गलत हैं।

भारत में मानसून के पितृ पुरुष माने जाने वाले स्वर्गीय पी आर पिशारोटी होते तो बताते कि पूरे 8,765 घंटों के एक साल में यह मानसून महज 100 घंटे की बारिश हमें देता है, जाहिर है कि इस वर्षाजल का कुशल प्रबंधन बहुत आवश्यक है। पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल हमें समझा पाते कि हमें मानसून को जानना चाहिए क्योंकि यह हमें बताता है कि किस तरह प्रकृति अपने कार्यों के लिए कमजोर ताकतों का इस्तेमाल करती है, न कि ताकतवर का। जरा सोचिए, हजारों मील में फैले सागरों से 40,000 अरब टन पानी अवशोषित करने के लिए तापमान में बहुत अधिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती, यही पानी मानसून हमारे देश में बरसाते हैं। वे हमें बताएंगे कि प्रकृति के कदमों के बारे में जानकारी की कमी ही पर्यावरण संकट के मूल में है। आज हम कोयले और तेल जैसे संकेंद्रित ऊर्जा संसाधनों का प्रयोग करते हैं और हमने स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण और वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन जैसी अनेक समस्याएं खड़ी कर ली है। अगर हमने प्रकृति के तौर तरीकों को समझा होता तो हमने भी सौर ऊर्जा के रूप में या वर्षाजल के नदियों या जलाशयों में संरक्षित होने का इंतजार किए बगैर अपने स्तर पर संरक्षण कर कमजोर संसाधनों का प्रयोग शुरू कर दिया होता।

अग्रवाल कहते हैं, पिछले 100 वर्षों के दौरान मनुष्य नदियों और जलाशयों जैसे संकेंद्रित जल स्त्रोतों पर बहुत अधिक निर्भर रहा है लेकिन इनका बहुत अधिक इस्तेमाल किए जाने से वहां पानी की कमी हो रही है। 21वीं सदी में मनुष्य एक बार फिर जल संसाधन के अपेक्षाकृत कमजोर स्त्रोत यानी कि वर्षाजल की ओर रुख करेगी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मानसून के बारे में हम जितनी अधिक जानकारी एकत्रित कर पाएंगे उतना ही हम प्रकृति का अनुकरण कर पाएंगे। बात करते हैं मेरे दूसरे प्रश्न की, क्या हमें यह पता है कि बगैर मानसून के जीवन कैसे बिताया जाए? आजादी के 60 साल बीत जाने के बाद और सिंचाई व्यवस्था में अच्छा खासा निवेश कर चुकने के बाद भी हमारी कृषि का अधिकांश हिस्सा मानसून पर आधारित है। मतलब साफ है, किसानों को बुआई से लेकर फसल काटने तक भगवान की दया पर निर्भर रहना पड़ता है, मगर ठहरिए यह भी अभी पूरी तस्वीर नहीं है। देश में सिंचित भूमि का 60-80 फीसदी इलाका भूजल से सींचा जाता है।

जाहिर सी बात है कि हर वर्ष बारिश से जमीन का भीतरी जलस्तर दोबारा भर जाता है। यही कारण है कि हर वर्ष जब मानसून केरल से कश्मीर, बंगाल या राजस्थान की ओर चलता है तो उसके धीमा पडऩे, रुकने या नष्ट होने पर लोगों की सांस थमने लगती है। कम दबाव या अवनमन आदि शब्द हमारे शब्दकोष का हिस्सा बन चुके हैं। मानसून हमारे देश का असली वित्त मंत्री है और रहेगा। इसलिए मेरा मानना है कि मानसून पर निर्भरता कम करने की कोशिश के बजाय, हमें उसके साथ अपना जुड़ाव बढ़ाने की कोशिशें तेज कर देनी चाहिए। हमारी मानसून संबंधी शब्दावली का विस्तार होना चाहिए ताकि हम बारिश की एक-एक बूंद का संरक्षण कर सकें, वह चाहे कहीं भी गिरे और कभी भी गिरे अगर हम ऐसा करने में सफल रहे तो निश्चित तौर पर मेरे तीसरे और सबसे पीड़ादायक सवाल का जवाब भी मिल जाएगा। हमारे शहरों और खेतों में होने वाली बारिश का उत्सव कैसे मनाया जाए? जब भी बारिश नहीं होती है तब भी हम रोते हैं और जब अतिवृष्टि के कारण बाढ़ और तमाम तरह की बीमारियां फैलती हैं या शहरों में जाम लगते हैं तब भी हमारी आंखों से आंसू निकलते हैं। मानसून हम सबका ही एक हिस्सा है और अब हमें इस बात को सच्चाई में बदलना होगा।
 

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