उत्तराखण्ड के मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत को पंडित नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे अधिक अनुभवी राजनेता माना जाता है। हरीश रावत का मानना है कि इस प्रदेश के विकास की गाड़ी गाँवों से होते हुए ही मंजिल तक पहुँच सकती है। उनका यह भी मानना है कि गाँवों की आर्थिकी सुधारने और शिक्षा तथा चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाएँ पहाड़ के गाँवों तक पहुँचाए बिना पलायन रोकना सम्भव नहीं है और इसीलिये उनकी सरकार मैगी या नूडल्स की बजाय राज्य के पहाड़ी उत्पादों ‘मंडुवा और झंगोरा’ की बात करती है। मुख्यमंत्री का कहना है कि ग्राम स्तर तक लोकतंत्र को मजबूत करने और ग्रामवासियों की उनके विकास में सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये शीघ्र ही राज्य का अपना पंचायती राज एक्ट आ रहा है। यही नहीं उनकी सरकार सीमित ज़मीन के असीमित लाभों का मार्ग प्रशस्त करने के लिये भूमि बन्दोबस्त की तैयारी शुरू करने जा रही है। राज्य के विकास का रोडमैप स्वयं मुख्यमंत्री के श्रीमुख से सुनने और प्रदेश की ज्वलन्त समस्याओं के समाधान की उनकी मंशा जानने के लिये पिछले दिनों उनके बीजापुर हाउस स्थित आवास पर उनसे लम्बी बातचीत की। पेश है हरीश रावत से हुई लम्बी बातचीत के प्रमुख अंश
यमुना-गंगा, कोसी-रामगंगा को कैसे लिंक करें इस पर विचार चल रहा है। नदियों पर जलाशय बनाने की प्रक्रिया जारी है। इससे यह फायदा होगा कि इस विशाल जलराशि का उपयोग हम अपने ही राज्य में कर सकते हैं। पानी पर सरकारें अकूत धन खर्च कर रही हैं।
पहाड़ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार और परम्परागत रूप से भी जल संरक्षण की चाल-खाल की पद्धति को बढ़ावा दिया जा रहा है। जल संरक्षण होगा तो ही राज्य की कृषि उत्पादन की क्षमता बढ़ेगी।
राज्य की नौ प्रतिशत ज़मीन खेती के अन्दर नहीं है, परन्तु खेती करने योग्य है। इसी खेती को विकसित करने की योजना है। देखो 6000 फिट से ऊपर हम घिंघारू, बमोर लगवा रहे हैं। 4 से 6 हजार फिट के बीच में हम सेब जैसे फलदार वृक्षों का रोपण करवा रहे हैं। 3000 फिट पर आँवला तथा उससे नीचे आम, अमरूद जैसे फलदार वृक्षों को रोपित करवा रहे हैं। ये लोगों के हाथों में स्वरोजगार के साधन होंगे।
हम राज्य में तीन महत्त्वपूर्ण कार्य करने जा रहे हैं। पहला सरकारी स्तर पर खेती को बढ़ावा, दूसरा 2017 में भूमि बन्दोबस्त, तीसरा वैकल्पिक खेती यानि एक गाँव एक जोत। यदि यह हो गया तो हम कह नहीं सकते कि राज्य से पलायन रुकेगा परन्तु यह काम पलायन को नियंत्रित कर सकता है।
सरकार का ध्यान है कि पहाड़ में रैक्टाइल फार्म बनाएँगे। आप देखेंगे कि आने वाले समय में पहाड़ों की सड़कों पर लोग साइकलिंग करते दिखाई देंगे। इस तरह के पर्यटन क्षेत्रों को विकसित कर रहे हैं।
ग्राम पंचायतों की बॉडी लोकतांत्रिक है इसमें ज्यादा खुलापन है जिस कारण वे नियंत्रण में नहीं रह सकती। ग्राम पंचायतों के साथ ही हम वन पंचायतों के माध्यम से भी ग्रामीण विकास और वन संरक्षण पर फोकस कर हैं।
हमारे राज्य में गाँव विकास के लिये वन पंचायतें एक वैकल्पिक रास्ता बना सकती हैं। क्योंकि राज्य में वन पंचायतों की ढाँचागत प्रक्रिया एकदम तैयार है। राज्य में स्वैच्छिक चकबन्दी की नितान्त आवश्यकता है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि जो गाँव चकबन्दी करेगा उसे सरकार एक करोड़ की धनराशि अनुदान देगी।
राज्य में बाह्य सहायता प्रोजेक्टों में कुछ गड़-मड़ हो सकती है। इसलिये कि नीति आयोग का जो ट्रांस्फॉरमेशन हुआ है। उससे भी राज्य की कई कल्याणकारी योजनाओं पर फर्क पड़ेगा। हमने सरकार को टास्क दिया है कि पहाड़ी उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराओ। इस काम में मंडी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है।
मंडी के लोग गाँव-गाँव पहुँच रहे हैं। पहाड़ के कई जंगल में प्राकृतिक रूप से भांग की उपज होती है। जो निरन्तर बर्बाद हो रही है। भांग को बाजार में लाना और ना लाना इसके लिये जो कानून बने हैं उसका पालन लोग करें। परन्तु हमने भांग के रेशे को बाजार भाव तय किया है ताकि यह प्राकृतिक संसाधन लोगों का आर्थिक ज़रिया बन सके। कुल मिलाकर रूरल इकॉनमी को बढ़ावा देने की बात है।
-हरीश रावत मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
जब आपने प्रदेश की कमान सम्भाली थी तो आपके सामने पहली चुनौती क्या थी?
उस समय हमारा फोकस तत्काल केदारनाथ आपदा से उबरना था। राज्य में यातायात व्यवस्था सड़कों के क्षतिग्रस्त होने से बहुत ही चरमरा गई थी। सो हमने चार धाम यात्रा को बहाल करने व राज्य में सड़कों को ठीक करने का काम प्राथमिकता के तौर पर आरम्भ किया। इसमें हमें अभूतपूर्व सफलता मिली।
सभी सरकारी और गैर सरकारी लोगों का सहयोग उत्तरोत्तर मिलता रहा। केदारधाम के बिना चारधाम की यात्रा अधूरी थी, तो पहले केदारधाम तक यात्रियों को पहुँचाने का काम हुआ। उन दिनों केदारधाम में चार फुट बर्फ थी। ऐसे में ढाँचागत विकास को आरम्भ करना बहुत ही कठिन कार्य था। मगर सरकार ने कमर कसी तो यह कार्य भी हो गया।
चारधाम यात्रा को बारहमास तक चलने का भी निर्णय लिया गया। भले इस वर्ष हमें चारधाम में वर्ष भर चलने वाले यात्रियों में बढ़ोत्तरी की रफ्तार कम दिखी परन्तु भविष्य में यह कार्य राज्य के लोगों के रोज़गार के साथ जुड़ेगा, क्योंकि चारधाम यात्रा के दौरान स्थानीय लोग मात्र छः माह तक ही अपने व्यवसाय को चला पाते थे। अब लोगों के व्यवसाय में आमूलचूल परिवर्तन आएगा। लोगों के हाथों में नियमित रोज़गार रहेगा। हाँ थोड़ा सा समय लग सकता है।
यह समझने की जरूरत है कि जब स्विटज़रलैंड में लोग सर्दियों के दिनों में भी पर्यटन का लुत्फ उठाते हैं तो केदारनाथ और अन्य धामों में क्यों नहीं। इसी के बाबत हम राज्य में ढाँचागत विकास को तबज्जो दे रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब पर्यटन का कारोबार सीजनली नहीं वर्ष भर का रोज़गार प्राप्त करेगा तो कौन भला जो घर के पास का रोज़गार छोड़कर दूर शहरों में रोज़गार की तलाश करेगा।
केदारनाथ की आपदा से सरकार ने क्या सीखा और आपदा प्रबन्धन में आपने ऐसा नया क्या कर दिया?
आपदा के दौरान समय पर यथा स्थान पहुँचा जा सके यह सम्भव नहीं है। सरकार ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। हमारी रणनीति में तकनीकी के इस्तेमाल की बात है।
दूसरा यह कि सभी जिलों के जिलाधिकारियों को आपदा के वक्त पूर्ण अधिकार है कि उन्हें क्या करना है। इसके लिये शासन से कोई संस्तुति लेने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें जो बजट व जितना बजट खर्च करना होगा और जितने भी अन्य संसाधन आपदा राहत के लिये इस्तेमाल करने होंगे वे स्वयं इसके लिये जिम्मेदार हैं।
आपदा के पाँच मिनट के भीतर ही वित्तीय पावर सहित सभी ताकते उस जिले का जिलाधिकारी प्राप्त कर लेगा, जिस जिले में आपदा की घटना घटी हो। पहले आपदा का राज्य स्तर पर ही एक कंट्रोल रूम था अब प्रत्येक जिले में है। आपदा से निपटने के लिये एक्सपर्टाइज तैयार कर दिये। जिले में हमने आपदा से निपटने के लिये अथॉरिटी बना दी है। जिले में जितने भी विभाग हैं उन्हें आपदा से निपटने के लिये तमाम सम्पूर्ण वित्तीय अधिकार दे दिये हैं।
पलायन को रोकने के लिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जाना है। आपकी सरकार इस दिशा में क्या कर रही है?
हम स्थानीय उत्पादों को बाजार उपलब्ध करवा रहे हैं। माल्टा, कद्दू, मंडुवा, रामदाना, फाफर इत्यादि जैसे उत्पादों की माँग बढ़ा दी है। माँग बढ़ेगा तो दाम भी बढे़गी और लोगों में खुशहाली का संचार होगा। इसके साथ-साथ भुजेलु ( पेठा) की माँग बढ़ रही है। कह सकते हैं कि भुजेलु को लोग बहुत तवज्जो नहीं देते थे।
लेकिन अब माँग बढ़ रही है। वर्तमान में सरकार ने भांग का रेशा, कण्डाली का रेशा, धान का रेशा (पुआल), भीमल का रेशा, रामबाण का रेशा आदि के लिये बाजार उपलब्ध करवा दिया है। कुल मिलाकर ‘रूरल रिफार्म’ पर कार्य हो रहा है। अब मंडुवा और झंगोरा जैसे पहाड़ी अनाजों की आपूर्ति ओएलएक्स जैसे सूचना प्रोद्योगिकी पर आधारित ऐजेंसियों से कराने की व्यवस्था की जा रही है। अगर गाँव सम्पन्न होगा और लोगों को सुविधाएँ गाँव में ही मिलेंगी तो वे क्यों गाँव छोड़ेंगे?
पलायन रोकने के अन्य क्या प्रयास हो रहे हैं?
हम 2017 में भूमि बन्दोबस्त की तैयारी कर रहे हैं। कई दशकों से यहाँ भूमि का बन्दोबस्त न होने से भूमि सम्बन्धी डाटा अपडेट नहीं है। बन्दोबस्त के बाद ही हमें जमीनों की ज़मीनी सच्चाई का पता चलेगा और तब ही भूमि सुधार और सीमित भूमि से अधिक-से-अधिक लाभ की योजना बन सकेगी। मैं तो मात्र राज्य की नौ फीसदी जमीन को सरसब्ज करने की बात कर रहा हूँ।
यदि यह हो गया तो ग्रामीण जनजीवन की आर्थिकी मजबूत होगी। आर्थिकी मजबूत होगी तो पलायन पर अंकुश लगेगा। राज्य में स्वैच्छिक चकबन्दी की नितान्त आवश्यकता है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि जो गाँव चकबन्दी करेगा उसे सरकार एक करोड़ की धनराशि अनुदान देगी। एक और कार्य करने की भी आवश्यकता है ‘कलस्टर बेस्ड’ ऐग्रीकल्चर यानि एक गाँव एक चक।
इस तरह के कार्यक्रम पलायन पर नियंत्रण कर सकते हैं। गाँव में रोज़गार होगा, संसाधन उपलब्ध होंगे तो कोई भी पलायन नहीं करेगा। सरकार तो ‘रिवर्स पलायन’ की स्थिति को लेकर विशेष प्रयास कर रही है। जिसमें तीर्थाटन, पर्यटन और साहसिक पर्यटन की योजना पर कार्य किया जा रहा है।
ग्रामीण पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। जिसमें हम फ्लावर फेस्टीवल, फ्रुट फेस्टीवल, सांस्कृतिक टूरिज्म के अलावा मेलों का भी वर्गीकरण कर रहे हैं, ताकि इन तमाम साधनों को पर्यटन से जोड़ा जाये। इस तरह के कार्यक्रम भी स्थानीय स्तर पर रोज़गार के कारगर संसाधन साबित होंगे। यही नहीं राज्य के एक विश्वविद्यालय के भीतर ही ‘सांस्कृतिक’ शोध केन्द्र के लिये विभाग की स्थापना कर रहा हूँ। जहाँ सांस्कृतिक विषयों पर लगातार शोध व उपयोगिता पर कार्य होता रहे। ताकि भविष्य में दुनिया को हम बता सकें कि राज्य की संस्कृति कितनी समृद्ध है।
विपक्ष का आरोप है कि यह तो सिर्फ भाषण है।
काम करते-करते समस्याएँ आएँगी भी और उसका समाधान भी निकाला जाएगा। मगर क्या ‘‘जूं’’ के डर के मारे कोई कपड़े ही छोड़ सकता है?
क्या स्मार्ट सिटी बनने से पहाड़ की समस्याओं का समाधान हो सकेगा?
स्मार्ट सिटी कब तक बनेंगी, यह काम केन्द्र सरकार ने ले रखा है। हम तो अपने राज्य में ‘स्मार्ट कस्बे’ जरूर विकसित करेंगे। जहाँ पर ‘शिक्षा हब्स’ और ‘राज्य के उत्पादों के हब्स’ जैसे केन्द्र होंगे। इन्ही हब्स में राज्य के उत्पादों के अलावा स्थानीय फलों से निर्मित शराब को बाजार उपलब्ध करवाएँगे। इस हेतु कृषि मंडी का भरपूर उपयोग करेंगे।
राज्य के तमाम प्रकार के फल बर्बाद हो रहे हैं। इन्हें जूस, जैम, चटनी, अचार के अलावा शराब बनाने के उपयोग में लाया जाएगा। इसके अलावा ‘स्मार्ट कस्बों’ में सभी प्रकार की आधारभूत सुविधाएँ होंगी जिसके कारण पहाड़ के लोग पलायन का रास्ता तय करते हैं। कम-से-कम पहाड़ का पलायन पहाड़ में ही हो रहा होगा।
राज्य की आय बहुत सीमित है जबकि उसका बजट 32 हजार करोड़ तक पहुँच गया। राज्य के आर्थिक संसाधन बढ़ाने के लिये आप क्या कर रहे हैं?
राज्य में जो फ्रूट्स बर्बाद हो रहा है उसे शराब बनाने के लिये उपयोग में लाया जाएगा। दूसरा यह कि खनन के कारोबार को बढ़ाया जाएगा। इन दोनों काम से राजस्व प्राप्त होगा और स्थानीय लोगों की आमदनी बढ़ेगी।
खनन के विरोध के कारण निर्णय लेने में समय जाया हो रहा है। हमने कब कहा कि खनन ऐसा करो कि पूरी नदी-घाटी का विदोहन कर डालो। खनन का मतलब यह है कि जब नदियों का तल ऊपर उठ जाता है तो उसके निस्तारण का काम होना ही चाहिए। जो पर्यावरण की दृष्टि से भी जरूरी है।
यह प्राकृतिक संसाधन अगर राजस्व का स्रोत भी बनता है तो इसमें कोई गुनाह है क्या? मैं तो कह रहा हूँ कि विपक्ष के भाई अनावश्यक विरोध कर रहे हैं। राज्य के विकास के लिये विपक्ष के भाई कभी भी साथ बैठने के लिये तैयार नहीं हैं। सिर्फ गाल बजाने से काम नहीं चलेगा। अच्छा हो कि राज्य के विकास के लिये एक साथ आएँ। ऐसा करने के लिये विपक्ष के भाई डरते हैं।
पंचायतराज एक्ट नहीं बना। ग्राम समाज की ग्राम सरकार को मजबूत नहीं करेंगे तो गाँवों का विकास कैसे होगा?
राज्य का पंचायतराज एक्ट तैयार है। जल्दी ही लागू होने जा रहा है। हमने सीसी मार्ग की नहीं बल्कि ग्रास रूट डेमोक्रेसी की बात की है। ग्राम पंचायत अपने गाँव के विकास के लिये अपना-अपना रोडमैप तैयार करें। इसी में ग्रामों की क्षमता को विकसित करने का भी प्रावधान है। इसके अलावा ग्राम पंचायतों में बजट को बढ़ाया जाएगा।
पंचायतों को सशक्त बनाया जाएगा। कुछ लोग कहते हैं कि पंचायत चुनाव में धन-बल का दुरुपयोग हो रहा है। इसलिये मैं फिर से कह देता हूँ कि जब तक वोटर नहीं जागेगा तब तक ‘ग्रासरूट’ डेमोक्रेसी नहीं आएगी। यह नहीं होगा तो फिर से ग्राम पंचायतों की विकास की गाथा कैसे लिखी जाएगी?
ग्राम पंचायतों के साथ ही हम वन पंचायतों के माध्यम से भी ग्रामीण विकास और वन संरक्षण पर फोकस कर रहे हैं। हमारे राज्य में गाँव विकास के लिये वन पंचायतें एक वैकल्पिक रास्ता बना सकती हैं। क्योंकि राज्य में वन पंचायतों की ढाँचागत प्रक्रिया एकदम तैयार है। कुछ गतिविधियों से भी जुड़ी हैं। इन्हें ग्राम विकास के लिये क्षमता वर्धन बनाना है।
जल-जंगल और जमीन को कैसे सदुपयोग करने जा रहे हैं?
राज्य में प्राकृतिक संसाधनों का अकूत भण्डार है। इसके संरक्षण के भी कार्य हो रहे हैं। उदाहरणस्वरूप पानी पर सरकारें अकूत धन खर्च कर रही हैं। पहाड़ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार और परम्परागत रूप से भी जल संरक्षण की चाल-खाल की पद्धति को बढ़ावा दिया जा रहा है।
जल संरक्षण होगा तो ही राज्य की कृषि उत्पादन की क्षमता बढ़ेगी। इस दिशा में सरकार का काम जोरों पर है। इसके अलावा हम तो लोगों को हर उत्पादन पर बोनस दे रहे हैं। राज्य की भौगोलिक परिस्थिति के अनुरूप काम कर रहे हैं।
यदि 6000 फुट की ऊँचाई पर तिमूर या तिमले के वृक्षों का रोपण कर रहे हैं तो कम ऊँचाई पर जो प्राकृतिक फलदार वृक्षों की प्रजातियाँ हो सकती हैं उसे बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी तरह तराई क्षेत्रों में भी आम, लीची जैसे फलदार वृक्षों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ताकि एक तरफ ये फलदार वृक्ष आर्थिक संसाधन के रूप में काम आएँ तो दूसरी तरफ पर्यावरण सन्तुलन बनाने का काम भी करेंगे।
क्या आपकी सरकार लोकायुक्त का गठन करने से डर रही है?
हम हरगिज नहीं डर रहे। पहले उनको तो लोकायुक्त लाने दो जो इसके चैंपियन बने हुए थे। इसका गठन हमारे यहाँ भी होगा! पहले मोदी मॉडल, केजरीवाल मॉडल को आने दो। हम दोनों मॉडलों का अध्ययन करेंगे। उसके बाद हम भी तुरन्त अपने राज्य का लोकायुक्त ले आएँगे। राज्य में लोकायुक्त का पहले जो खण्डूड़ी मॉडल था वह तो एकदम अव्यावहारिक और असंवैधानिक था। वह केवल चुनावी मतलब के लिये तैयार किया गया था।
आपकी सरकार 2017 के लिये इलेक्शन मोड में कब आएगी? क्या तैयारियाँ शुरू हो गईं?
अभी हम ‘इलेक्शन मोड’ में नहीं आये। अभी हमें काफी कुछ करना है। अक्टूबर 2016 में कांग्रेस पार्टी इलेक्शन मोड में आएगी। यह बात थोड़ी सी कठोर लग सकती है कि अब मैं कांग्रेस पार्टी से भी निवेदन करने जा रहा हूँ कि राज्य के कल्याण के लिये राजनीति बाधा न बने। इसलिये सरकार व संगठन को सन्तुलन बनाकर चलना होगा।
मैं अपने अनुभव से बता दूँ कि कोई भी सरकार अपने मंसूबों पर खरी उतरी है। पर हम जिस तरह से चल रहे हैं यदि यही क्रम बना रहा तो अगली जो सरकार होगी वह स्थायी और स्थिर होगी। अर्थात तय तो आखिर राज्य के लोगों को ही करना है।
यदि हमारा विकास का मॉडल ठीक है तो निश्चित तौर पर लोग हमें पुनः मौका देंगे। अन्ततः चुनाव के दौरान और चुनाव से पहले जो नीतियाँ व कार्यक्रम सरकार ने चलाए हैं उनके आधार पर चुनाव में जीत हार की गणित बनती है।
पार्टी के ही अन्दर आपकी सरकार का विरोध क्यों?
ओ, हो! (थोड़ा रुककर और हंसते हुए) मैं तो समालोचन का अध्ययन करता हूँ। और कोरी आलोचना को सरसरी तौर देखता हूँ। वैसे भी बिना सन्तुलन बनाकर आप किसी भी काम में सफलता नहीं पा सकते। आलोचना भी जरूरी होती है।
आप केन्द्र में जल संसाधन मंत्री रहे हैं। जल सम्पदा से भरपूर इस राज्य को आपके उस अनुभव का लाभ मिला या मिल रहा है? कोई विशेष कार्ययोजना है।
यहाँ दुर्भाग्य यह है कि केन्द्र की सरकार उत्तराखण्ड के बजट में कटौती ही कर रही है। क्योंकि छोटा राज्य है संसाधन बहुत ही कम है। नई योजनाओं पर काम कैसे होगा। यह यक्ष प्रश्न है। परन्तु यमुना-गंगा, कोसी-रामगंगा को कैसे लिंक करें इस पर विचार चल रहा है।
नदियों पर जलाशय बनाने की प्रक्रिया जारी है। इससे यह फायदा होगा कि इस विशाल जलराशि का उपयोग हम अपने ही राज्य में कर सकते हैं। जब मैं केन्द्र में जल संसाधन मंत्री था तो हमारे पास बजट की कोई कमी नहीं थी। यहाँ राज्य में संसाधन सीमित हो गए हैं। फिर भी इन योजनाओं को अमलीजामा पहनाएँगे।
लेखक