जयपुर-अजमेर राजमार्ग पर दूदू से 25 किलोमीटर की दूरी पर राजस्थान के सूखाग्रस्त इलाके का एक गांव है - लापोड़िया। यह गांव ग्रामवासियों के सामूहिक प्रयास की बदौलत आशा की किरणें बिखेर रहा है। इसने अपने वर्षों से बंजर पड़े भू-भाग को तीन तालाबों (देव सागर, फूल सागर और अन्न सागर) के निर्माण से जल-संरक्षण, भूमि-संरक्षण और गौ-संरक्षण का अनूठा प्रयोग किया है। इतना ही नहीं, ग्रामवासियों ने अपनी सामूहिक बौध्दिक और शारीरिक शक्ति को पहचाना और उसका उपयोग गांव की समस्याओं का समाधान निकालने में किया। आज गोचर का प्रसाद बांटता यह गांव दूसरे गांवों को प्रेरणा देने एवं आदर्श प्रस्तुत करने की स्थिति में आ गया है।
1977 में अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान गांव का एक नवयुवक लक्ष्मण सिंह गर्मियों की छुट्टियां बिताने जयपुर शहर से जब गांव आया तो वहां अकाल पड़ा हुआ था। उसने ग्रामवासियों को पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक भटकते व तरसते देखा। तब उसने गांव के युवाओं की एक टीम तैयार की, नाम रखा, ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया। शुरूआत में जब वह अपने एक-दो मित्रें के साथ गांव के फराने तालाब की मरम्मत करने में जुटा तो बुजुर्ग लोग साथ नहीं आए। बुजुर्गों के इस असहयोग के कारण उसे गांव छोड़कर जाना पड़ा। कुछ वर्षों बाद जब वह वापस गांव लौटा तो इस बार उसने अपने फराने अधूरे काम को फिर से शुरू करने के लिए अपनी टीम के साथ दृढ़ निश्चय किया कि अब कुछ भी करना पडे पर पीछे नहीं हटेंगे। कुछ दिनों तक उसने अकेले काम किया। उसके काम, लगन और मेहनत से प्रभावित होकर एक के बाद एक गांव के युवा, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं उससे जुड़ते चले गए। देव सागर की मरम्मत में सफलता मिलने के बाद तो सभी गांव वालों ने देवसागर की पाल पर हाथ में रोली-मोली लेकर तालाब और गोचर की रखवाली करने की शपथ ली। इसके बाद फूल सागर और अन्न सागर की मरम्मत का काम पूरा किया गया। उन्हें गोचर की साज-संभाल करने, खेतों में पानी का प्रबंध करने, सिंचाई कर नमी पैफलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था, किन्तु इस बार उन्होंने पानी को रोकने और इसमें घास, झाड़ियां, पेड़-पौधो पनपाने के लिए चौका विधिा का नया प्रयोग किया। इससे भूमि में पानी रुका और खेतों की बरसों की प्यास बुझी। इसके बाद भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए विलायती बबूल हटाने का देशी अभियान चलाया गया। उनकी वर्षों की कठोर तपस्या पूरी हुई थी। पहले स्त्रियों को रोजाना रात को दो बजे उठकर पानी की व्यवस्था के लिए घर से निकलना पड़ता था। उनका अधिकांश समय इसी काम में व्यर्थ हो जाता था। किन्तु अब तालाबों में लबालब पानी भरने से पीने के पानी की समस्या से तो निजात मिली ही, क्षेत्र में गोचर, पशुपालन और खेती-बाड़ी का धन्धा भी विकसित होने लगा।
इसके बाद भूमि सुधार कर मिट्टी को उपजाउफ बनाया गया और गांव के बहुत बड़े क्षेत्र को चारागाह के रूप में विकसित किया गया। आज इस गोचर में गांव के सभी पशु चरते हैं। उधार गो पालन से दुग्धा व्यवसाय अच्छा चल पड़ा। परिवार के उपयोग के बाद बचे दूध को जयफर सरस डेयरी को बेचा गया, जिससे अतिरिक्त आय हुई। इससे कितने ही परिवार जुड़े और आज स्थिति यह है कि दो हजार की जनसंख्या वाला यह गांव प्रतिदिन 1600 लीटर दूध सरस डेयरी को उपलब्ध करा रहा है। लोपड़िया के लोगों ने राजस्थान के जयपुर-अजमेर राजमार्ग पर दूदू से 25 किलोमीटर की दूरी पर राजस्थान के सूखाग्रस्त इलाके का एक गांव है - लापोड़िया। यह गांव ग्रामवासियों के सामूहिक प्रयास की बदौलत आशा की किरणें बिखेर रहा है। इसने अपने वर्षों से बंजर पड़े भू-भाग को तीन तालाबों (देव सागर, फूल सागर और अन्न सागर) के निर्माण से जल-संरक्षण, भूमि-संरक्षण और गौ-संरक्षण का अनूठा प्रयोग किया है। इतना ही नहीं, ग्रामवासियों ने अपनी सामूहिक बौध्दिक और शारीरिक शक्ति को पहचाना और उसका उपयोग गांव की समस्याओं का समाधान निकालने में किया। आज गोचर का प्रसाद बांटता यह गांव दूसरे गांवों को प्रेरणा देने एवं आदर्श प्रस्तुत करने की स्थिति में आ गया है।
1977 में अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान गांव का एक नवयुवक लक्ष्मण सिंह गर्मियों की छुट्टियां बिताने जयफर शहर से जब गांव आया तो वहां अकाल पड़ा हुआ था। उसने ग्रामवासियों को पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक भटकते व तरसते देखा। तब उसने गांव के युवाओं की एक टीम तैयार की, नाम रखा, ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया। शुरूआत में जब वह अपने एक-दो मित्रें के साथ गांव के फराने तालाब की मरम्मत करने में जुटा तो बुजुर्ग लोग साथ नहीं आए। बुजुर्गों के इस असहयोग के कारण उसे गांव छोड़कर जाना पड़ा। कुछ वर्षों बाद जब वह वापस गांव लौटा तो इस बार उसने अपने पुराने अधूरे काम को फिर से शुरू करने के लिए अपनी टीम के साथ दृढ़ निश्चय किया कि अब कुछ भी करना पडे पर पीछे नहीं हटेंगे। कुछ दिनों तक उसने अकेले काम किया। उसके काम, लगन और मेहनत से प्रभावित होकर एक के बाद एक गांव के युवा, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं उससे जुड़ते चले गए। देव सागर की मरम्मत में सफलता मिलने के बाद तो सभी गांव वालों ने देवसागर की पाल पर हाथ में रोली-मोली लेकर तालाब और गोचर की रखवाली करने की शपथ ली। इसके बाद फूल सागर और अन्न सागर की मरम्मत का काम पूरा किया गया। उन्हें गोचर की साज-संभाल करने, खेतों में पानी का प्रबंध करने, सिंचाई कर नमी पैफलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था, किन्तु इस बार उन्होंने पानी को रोकने और इसमें घास, झाड़ियां, पेड़-पौधो पनपाने के लिए चौका विधि का नया प्रयोग किया। इससे भूमि में पानी रुका और खेतों की बरसों की प्यास बुझी। इसके बाद भूमि को उपजाउफ बनाने के लिए विलायती बबूल हटाने का देशी अभियान चलाया गया। उनकी वर्षों की कठोर तपस्या पूरी हुई थी। पहले स्त्रियों को रोजाना रात को दो बजे उठकर पानी की व्यवस्था के लिए घर से निकलना पड़ता था। उनका अधिाकांश समय इसी काम में व्यर्थ हो जाता था। किन्तु अब तालाबों में लबालब पानी भरने से पीने के पानी की समस्या से तो निजात मिली ही, क्षेत्र में गोचर, पशुपालन और खेती-बाड़ी का धन्धा भी विकसित होने लगा।
इसके बाद भूमि सुधार कर मिट्टी को उपजाऊ बनाया गया और गांव के बहुत बड़े क्षेत्र को चारागाह के रूप में विकसित किया गया। आज इस गोचर में गांव के सभी पशु चरते हैं। उधार गो पालन से दुग्धा व्यवसाय अच्छा चल पड़ा। परिवार के उपयोग के बाद बचे दूध को जयफर सरस डेयरी को बेचा गया, जिससे अतिरिक्त आय हुई। इससे कितने ही परिवार जुड़े और आज स्थिति यह है कि दो हजार की जनसंख्या वाला यह गांव प्रतिदिन 1600 लीटर दूध सरस डेयरी को उपलब्ध करा रहा है। लोपड़िया के लोगों ने राजस्थान के गांवों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।