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योजना, दिसम्बर 2015
जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर एशिया के क्षेत्रों पर पड़ेगा क्योंकि ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कृषि व प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है।19 ऐसे में भारत जैसे देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है मानव शरीर रूपी मशीन को प्राकृतिक रूप से चलने के लिये धरती तत्व, जल तत्व, आग तत्व, आकाश तत्व व वायु तत्व रूपी पाँच तत्वों को संतुलित करने की जरूरत पड़ती है। इन तत्वों का असंतुलन मनुष्य के शरीर में व्याधियों को उत्पन्न करता है। जलवायु की जब हम बात करते हैं तो इसमें मुख्य रूप से दो तत्वों की बात होती है। पहला जल व दूसरा वायु। इन दोनों तत्वों का संतुलित रहना मानव स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है।
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों को महसूस किया जाने लगा है। देखा जाए तो परिवर्तन एक सार्वभौमिक सत्य है। इसी तरह जलवायु में परिवर्तन भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। चिंता व चिंतन की बात तब शुरू होती है जब कुछ भी अप्राकृतिक घटित होता है। जलवायु परिवर्तन भी प्राकृतिक सीमाओं को लाँघ चुका है व मानवीय जीवन-चक्र खतरे में है। नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं, जो पहले से हैं उनका भी वैश्विक फैलाव हो रहा है।दरअसल जलवायु किसी क्षेत्र विशेष की औसत दशाएं हैं। यह उस क्षेत्र के मौसम में सामान्य परिवर्तन, दशाएं और ऋतुओं के चक्र की दशाओं का योग है। अगर हम पृथ्वी की बात करें तो वर्तमान में इसे हम सात जलवायु प्रदेशों में बाँट सकते हैं।
इन प्रदेशों के जलवायु की स्थिति को समझने के बाद यह पता चलता है कि प्रत्येक जलवायु प्रदेश के तापमान व वर्षा की उपलब्धता में अंतर है। यही अंतर उन्हें एक-दूसरे से अलग करता है। इन प्रदेशों की स्वाभाविक प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न होने की स्थिति में यहाँ के लोगों को तमाम तरह की बीमारियों से जूझना पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन व मानव स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन का सीधा असर मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने सन 2001 में 21वीं सदी में इसके प्रभाव को लेकर अपनी आशंका जाहिर की थी। इस रपट में कुछ प्रमुख बिंदुओं पर ध्यान आकृष्ट कराया गया था। जिसे तालिका-1 से समझा जा सकता है।
मिट्टी पर पड़े प्रभाव का मानव स्वास्थ्य पर असर :
जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होती है और वाष्पीकरण का संतुलन खराब होता है व हमारी मिट्टी की आद्रता असंतुलित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप हमें सूखे की मार झेलनी पड़ती है। अगर यह स्थिति लगातार बनी रहे तो मिट्टी मरुस्थल में तब्दील हो जाती है। मिट्टी एक समय ऊसर व बंजर हो जाती है अर्थात हमारे पास भोज्य पदार्थों के उत्पादन के लिये पर्याप्त उर्वर भूमि नहीं बचेगी और हमें भूख और कुपोषण की चपेट में आकर अपनी जान गंवानी पड़ेगी। हालाँकि, यह स्थिति अभी भी बनी हुई है लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसका स्वरूप और विकराल हो सकता है। इतना ही नहीं ‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायर्नमेंट एंड वाटर’ द्वारा जारी एक शोध में यह कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से पैदा हुए मुद्दों का युद्धस्तर पर निवारण नहीं किया गया तो 2050 तक गेहूँ, चावल और मक्के की 200 अरब डॉलर की फसलों को नुकसान हो सकता है।
हिमनद पर पड़े प्रभाव का मानव स्वास्थ्य पर असर :
शोध पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित अपने शोध में मिशेल कोप्पस ने लिखा है कि ‘अंटार्कटिका की तुलना में पेटागोनिया में ग्लेशियर 100 से 1000 गुना तेजी से अपक्षरित हुए हैं।… तेजी से बढ़ रहे ग्लेशियर अनुप्रवाह घाटियों और महाद्वीपीय समतल पर अधिक गाद इकट्ठा कर देते हैं। मछली पालन, बाँधों और पर्वतीय इलाकों में रह रहे लोगों के लिये पेयजल की उपलब्धता पर इसका प्रभाव संभव है।’ वहीं एशियाई विकास बैंक का अनुमान है कि इस सदी के अंत तक समु्द्री जल स्तर 40 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा। इसे समुद्री इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा। इंडोनेशिया, थाईलैंड जैसे देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6.7 फीसद आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। वहीं वैश्विक घरेलू उत्पाद के स्तर पर इसी दौरान 2.6 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ेगा।3
मानव स्वास्थ्य पर बढ़ता खतरा
अमेरिकी मेटरलॉजिकल सोसायटी के बुलेटिन में विशेष परिशिष्ट के रूप में बुलेटिन में विशेष परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित ‘स्टेट ऑफ द क्लाइमेट इन 2014’ नामक रपट के अनुसार वर्ष 2014 इस सदी का सबसे गर्म वर्ष रहा है। कुल 58 देशों के 413 वैज्ञानिकों के योगदान से यह रपट तैयार की गई थी। ‘नेशनल रिकॉर्ड्स’ द्वारा साल 1901 से लेकर अब तक दर्ज किए गए आँकड़ों में साल 2014 सबसे गर्म साल के रूप में सामने आया है। साल 2014 में दक्षिण एशिया का औसत तापमान पहले की अपेक्षा ज्यादा गर्म महसूस किया गया। भारत के लिये सालाना औसत तापमान 1961-90 की तुलना मे 0.52 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।4 जलवायु परिवर्तन की भयावहता व इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के जन स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा सामाजिक मानक विभाग ने लिखा है - “विश्व यदि इसी रफ्तार से चलता रहा तो आने वाले 80 वर्षों में सतह के तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की आशंका है। इस बार की गर्मी में पाकिस्तान व भारत में हमने जिस तरह से गर्म हवाओं को महसूस किया है और जिसके कारण वहाँ पर 5000 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गँवाई है और हजारों की तादाद में लोग गर्मी से संबंधित बीमारियों से जूझने के लिये मजबूर हुए हैं, आने वाले समय में हमें इससे भी ज्यादा गर्म हवाओं से जूझना पड़ेगा। समुद्री तूफान, चक्रवात, बाढ़, जंगल में आग जैसे जलवायु परिवर्तनीय कारकों ने पहले ही पश्चिमी संयुक्त राष्ट्र में 80 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन को तबाह कर दिया है, आगे स्थिति और भी खराब होने वाली है।.. सूखे के समय में हमें और कुपोषण से जूझना पड़ेगा व बाढ़ हमारी भोजन-प्रदाई फसलों को नष्ट करेगी। जलवायु परिवर्तन आने वाले दिनों में मलेरिया, डेंगू व अन्य संक्रामक बीमारियों का वाहक बनेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौतों में मलेरिया का योगदान सबसे ज्यादा है।”5
जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को रेखांकित करते हुए ‘लांसेट कमीशन ऑन हैल्थ एंड क्लाइमेट चेंज-2015’ ने अपनी रपट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से 9 अरब लोगों की वैश्विक आबादी के लिये पिछली आधी सदी में मिले विकास एवं वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी लाभ नष्ट होने का खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव मौसम की अतिशय घटनाओं खासकर लू, बाढ़, सूखे और आँधी की बढ़ती आवृति और तीव्रता की वजह से पड़ रहा है। इसमें कहा गया है कि संक्रामक रोगों के स्वरूपों में बदलाव, वायु प्रदूषण, खाद्य असुरक्षा एवं कुपोषण, अनैच्छिक विस्थापन और संघर्षों से अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पैदा हो रहे हैं।6 जलवायु परिवर्तन के कारण जलजनित बीमारियों (देखें तालिका-2) से पूरा विश्व परेशान है। डब्ल्यूएचओ की रपट के अनुसार 74 करोड़ 8 लाख लोग 2012 तक असंशोधित जल स्रोतों के भरोसे अपना जीवन चला रहे हैं। 2.5 अरब लोग 2012 तक स्वच्छता सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं। 2012 तक खुले में शौच करने वालों की तादाद 1 अरब से ज्यादा है। तापमान व समुद्री तल के बढ़ने से बाढ़, जलभराव के कारण पेयजल में रासायनिक अपशिष्टों के समिश्रण की वजह से जलजनित रोगों के होने की आशंका बढ़ जाती है।
पब्लिक हैल्थ एन्वायर्नमेंट जिनेवा :
2009 की रपट में भारत में पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी इनवायर्नमेंट बर्डन डिजीज की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि पानी, स्वच्छता व हाईजीन के अभाव में डायरिया के कारण भारत में 4,54,400 मौतें हुई।
वाइल्ड लाइफ कनजर्वेशन सोसायटी (डब्ल्यूसीएस) की रपट में बताया गया बर्ड फ्लू, कोलेरा, इबोला, प्लेग व ट्यूबरक्लोसिस जैसी बीमारियाँ जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत तेजी से फैलेंगी। इसकी भयावहता को दर्शाते हुए रपट में कहा गया है कि जिस तरह से यूरोप में 14वीं शताब्दी में ‘ब्लैक डेथ’ (प्लेग) के कारण एक तिहाई लोगों की मौत हो गई थी व फ्लू पैनडेमिक से 1918 ई. में वैश्विक स्तर पर 2 करोड़ से 4 करोड़ के बीच लोगों की मौतें हुई थी, जिनमें अकेले अमेरिका के 5 लाख से 6 लाख 75 हजार से ज्यादा लोग मरे थे। जलवायु परिवर्तन की यही रफ्तार रही तो इस तरह की बीमारियों से इससे भी अधिक मौत होने की आशंका है।7
एक तरह से देखा जाए तो शरीर में होने वाली तमाम तरह की व्याधियों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष जुड़ाव ग्लोबल वार्मिंग से है। जलवायु परिवर्तन व मानवीय स्वास्थ्य पर उपरोक्त चर्चा में इन बीमारियों से इतर भी बहुत सी बीमारियों का जिक्र आया है। उन प्रमुख बीमारियों को तालिका 3 में देखा जा सकता है।
प्रमुख बीमारियाँ
जलवायु परिवर्तन से किस तरह बीमारियाँ जानलेवा हो जाएँगी, इसका अंदाजा इनकी वर्तमान स्थिति से लगाया जा सकता है। आइए जानते हैं कुछ प्रमुख बीमारियों की वर्तमान वैश्विक स्थिति :-
मलेरिया : पूरी दुनिया के सामने मलेरिया ने बहुत बड़ी चुनौती पेश की है। विश्व के 97 देशों के 3.2 अरब लोग मलेरिया से प्रभावित क्षेत्र में रह रहे हैं। जिसमें 1.2 अरब लोगों को मलेरिया होने की आशंका ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी विश्व मलेरिया रपट-2014 के अनुसार सन 2013 में 19 करोड़ 80 लाख लोगों में मलेरिया के लक्षण पाए गए। इस बीमारी से 5 लाख 84 हजार लोगों की मृत्यु हुई। मलेरिया से हुई मौतों में 90 फीसद मौत अफ्रीकी देशों में हुई। वहीं भारत की बात करें तो डब्ल्यूएचओ की मलेरिया रपट-2014 के अनुसार मलेरिया संक्रमित होने की अधिकतम आशंका वाले क्षेत्रों में 22 फीसद यानी 27 करोड़ 55 लाख लोग हैं। जबकि मलेरिया प्रभावित न्यूनतम आशंका वाले क्षेत्रों में 67 फीसद अर्थात 83 करोड़ 89 लाख लोग रहे रहे हैं। मलेरिया मुक्त क्षेत्रों का प्रतिशत महज 11 है। कहने का मतलब यह है कि भारत के 89 फीसद लोग मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर बहुत ही मजबूती के साथ यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ रहा है। डेंगू व मलेरिया जैसे रोगों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ जाता है। डब्ल्यूएचओ के अनुमानों के मुताबिक प्रत्येक वर्ष 1,50,000 लोगों की मौत जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही है।8
लिशमैनियासिस
लिशमैनियासिस बीमारियों का समूह है। मादा फिलोबोटोमाइन सैंडलाई के काटने से मानव में इसका संक्रमण फैलता है। लिशमैनियासिस के मुख्य रूप में तीन प्रकार हैं - (1) विससेरल (वीएल) जिसे हम कालाजार के रूप में जानते हैं, यह इस बीमारी का सबसे गंभीर रूप है, (2) कुटानियस (सीएल), यह बहुत कॉमन है। (3) मोकोकुटानियस।यह बीमारी मुख्य रूप से अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका की आबादी को प्रभावित करती हैं। साथ ही इसका प्रत्यक्ष संबंध कुपोषण, विस्थापन, कमजोर आवासीय व्यवस्था, कमजोर पाचन शक्ति व संसाधनों की अनुपलब्धता से है। नए आँकड़े बताते हैं कि 98 देशों में यह बीमारी पाई जा रही हैं। प्रत्येक वर्ष 2 लाख से 4 लाख नए मामले गंभीर रूप के लिशमैनियासिस (वीएल) से पीड़ितों की संख्या 7 लाख से 12 लाख के आसपास है। जिसमें 90 फीसद वीएस श्रेणी यानी कालाजार के मामले महज 6 देशों बांग्लादेश, ब्राजील, इथोपिया, भारत, दक्षिण सुडान और सुडान में है।
लिमफैटिक फैलाराइसिस : इस बीमारी से विश्व के 73 देश प्रभावित हैं और पूरे विश्व में 1 अरब 23 लाख 30 हजार लोगों को इस रोग से बचाव के लिये सुरक्षा-इलाज कराने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ के अफ्रीकी व दक्षिण पूर्व एशिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों के 94 फीसद लोग इस बीमारी के परिक्षेत्र में हैं। जिन लोगों को इस रोग से बचने के लिये कीमोथैरिपी दिया जाना अति आवश्यक है। उनकी संख्या 70 करोड़ 1 लाख है अर्थात 57 फीसद लोग दक्षिण पूर्व एशिया (9 प्रभावित देशों) में व 47 करोड़ 2 लाख अफ्रीकन क्षेत्र के 35 देशों में हैं। जलवायु परिवर्तन होने की स्थिति में जलीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में इस रोग के फैलाव की आशंका और बढ़ती जा रही है।
लेप्रोसी (कुष्ठ रोग) : डब्ल्यूएचओ रपट बताती है कि 102 देशों व क्षेत्रों में कुष्ठ रोग के मामले पाए गए हैं। 2014 की शुरुआत में कुल 2 लाख 15 हजार 656 मामले कुष्ठ रोगियों के पाए गए हैं। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर त्वचा पर पड़ता है। यदि पर्यावरणीय असंतुलन इसी तरह जारी रहा तो आने वाले समय में त्वचा संबंधी रोगों में और इजाफा होगा। भारत की बात करें तो 2014-15 में कुल 1 लाख 25 हजार 785 मामले पाए गए जोकि 2013-14 के मुकाबले 2.5 फीसद कम है।9
सिस्टोसोमाइसिस : विश्व के 78 देशों में इसका प्रभाव है। इस रोग से बचने के लिये 52 देशों के 26 करोड़ 20 लाख लोगों को बचाव हेतु कीमोथैरिपी की जरूरत है, जिसमें 12 करोड़ 12 लाख विद्यालय जाने वाले बच्चे हैं।10
वायु जनित बीमारियाँ
ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) : डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार-2012 में वैश्विक स्तर पर टीबी के 86 लाख नए मामले दर्ज किए गए और 13 लाख लोगों की टीबी से मौतें हुई। टीबी से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि 15-44 आयु वर्ग के महिलाओं की मौत के शीर्ष तीन कारणों में से एक टीबी भी है।11 इंडियन कॉसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 20-23 लाख लोग प्रत्येक साल टीबी से ग्रसित होते हैं जोकि वैश्विक टीबी मरीजों का 26 फीसद है। इस रोग से भारत में तकरीबन 3 लाख लोग प्रत्येक साल काल के गाल में समा रहे हैं।12
वायु प्रदूषण जनित बीमारियों का फैलाव भी निरंतर हो रहा है। जिनका जलवायु परिवर्तन से प्रत्यक्ष संबंध है। डब्ल्यूएचओ के आँकड़ों की मानें तो 2012 में 37 लाख लोगों की मौत बाह्य वायु प्रदूषण से हुई, जिसमें 88 फीसद लोग कम व मध्य आय वाले देशों के थे। वहीं 43 लाख लोगों की मौत हाउसहोल्ड वायु प्रदूषण यानी घर के अंदर के वायु प्रदूषण से हुई है। इस तरह से देखा जाए तो विश्व में 8 मौतों में से एक मौत वायु प्रदूषण के कारण है। पब्लिक हैल्थ इन्वायर्नमेंट जिनेवा, 2009 की रपट में भारत में पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी इनवायर्नमेंट बर्डन बीमारियों की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि इंडोर वायु प्रदूषण से 4 लाख 88 हजार 200 मौतें व बाह्य वायु प्रदूषण से 1 लाख 19 हजार 900 लोगों की जानें गई हैं। इतना ही नहीं, वातावरण में सल्फर ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से दिल के दौरे (हार्ट अटैक) की आशंका बढ़ जाती है।
जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य व गरीबी
जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार गरीब लोगों पर पड़ रही है। पहले से ही खाद्य व आवास की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिये बदलती जलवायु व इसका प्रभाव त्रासद पूर्ण है। वैसे समाजशास्त्रियों की मानें तो गरीबी अपने आप बीमारियों का समुच्य है। डब्ल्यूएचओ के आँकड़े के अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया परिक्षेत्र में पूरे विश्व की 26 फीसद जनसंख्या रहती है, जहाँ विश्व के 30 फीसद गरीब हैं।13 जनसंख्या में अधिकता के कारण इस परिक्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत ही आपदाकारी हो सकता है। यह परिक्षेत्र पहले से संक्रामक बीमारियों के भार तले दबा हुआ है। इस क्षेत्र में 1 करोड़ 40 लाख लोगों की मौत का कारण जलवायु परिवर्तन बनेगा। जिसमें 40 फीसद मौतों के लिये संक्रामक बीमारियाँ जिम्मेदार रहेंगी।14 2015 के डब्ल्यूएचओ आँकड़ों के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में 83 फीसद बच्चों की मौत संक्रामक बीमारी व पोषण अभाव में हो रही है। मौसम में बड़े पैमाने पर होने वाले बदलाव, जैसे चक्रवात व बाढ़ के आने की स्थिति में डायरिया व कोलेरा जैसी बीमारियों के लिये अनुकूल हो जाता है।15
जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य व भारतीय पक्ष
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत हमेशा से सचेत रहा है। यह बात भारत के प्रधानमंत्री द्वारा पृथ्वी दिवस पर दिए उस बयान से स्पष्ट होती है, जिसमें उन्होंने कहा था - ‘भारत विश्व को जलवायु परिवर्तन से निपटने के रास्ते दिखा सकता है क्योंकि पर्यावरण की देखभाल करना देश की मान्यताओं का अभिन्न अंक है। हमारा नाता ऐसी संस्कृति से है जो इस मंत्र में विश्वास करती है, कि धरती हमारी माँ है। और हम उसकी संतानें हैं।’16 अपनी बात को दोहराते हुए प्रधानमंत्री ने ब्रिटेन के वेम्बले स्टेडियम में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि विश्व के सामने दो प्रमुख समस्याएँ हैं। एक आतंकवाद और दूसरा जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत विश्व को बहुत कुछ दे सकता है। अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिये भारत द्वारा सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने पर बल देते हुए उन्होंने आह्वान किया कि भारत दुनिया के 102 सूर्य पुत्रों (जहाँ पर सूर्य की रोशनी ज्यादा है।) को एक मंच पर लाने की पहल कर रहा है। प्रधानमंत्री की यह सोच भारत की दूरदृष्टि को स्पष्ट कर रही है। निश्चित ही इससे ऊर्जा जरूरतों के लिये उपयोग में लाए जाने वाले ईंधनों (जिनसे कार्बन उत्सर्जन होता है) की खपत में कमी आएगी।
प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए पिछले दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री ने भी जलवायु परिवर्तन पर आयोजित वित्त मंत्रियों की बैठक में कहा कि, ‘हम मानते हैं कि पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी भारत सहित विश्व के गरीब हिस्सों को बहुत ज्यादा प्रभावित करेगी। हम इस बारे में पूरी तरह से अवगत हैं कि हमारे मुकाबले धनी देश अधिक आसानी और किफायती तरीके से जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन कर सकते हैं। इसलिये इससे हमारा ज्यादा कुछ दाँव पर लगा है।’17
दिसंबर-2015 में जलवायु परिवर्तन पर पेरिस सम्मेलन वैश्विक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। भारत के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री ने पेरिस में प्री-सीओपी-21 की आम सभा को संबोधित करते हुए विकासशील देशों की समस्याओं को बखूबी रखा व उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जलवायु परिवर्तन के मामले में विकसित राष्ट्रों को और खुलकर सामने आना चाहिए। उन्होंने कहा कि, विकसित देशों द्वारा वित्त उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और आर्थिक क्षमताओं पर आधारित है।18
निष्कर्ष
पेरिस सम्मेलन में विश्व के देश कार्बन उत्सर्जन को लेकर जो नियामक तय करेंगे, उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि विश्व का स्वास्थ्य कैसा रहने वाला है। आईपीसीसी के अनुसार जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर एशिया के क्षेत्रों पर पड़ेगा क्योंकि ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कृषि व प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है।19 ऐसे में भारत जैसे देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है मानव शरीर रूपी मशीन को प्राकृतिक रूप से चलने के लिये धरती तत्व, जल तत्व, आग तत्व, आकाश तत्व व वायु तत्व रूपी पाँच तत्वों को संतुलित करने की जरूरत पड़ती है। इन तत्वों का असंतुलन मनुष्य के शरीर में व्याधियों को उत्पन्न करता है। जलवायु की जब हम बात करते हैं तो इसमें मुख्य रूप से दो तत्वों की बात होती है। पहला जल व दूसरा वायु। इन दोनों तत्वों का संतुलित रहना मानव स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है। हमें पूरी उम्मीद है कि पेरिस सम्मेलन में विश्व के देश तापमान वृद्धि रोकने के उपायों, ईंधन में कटौती, ऊर्जा उपयोग, प्रदूषण नियंत्रण की नई तकनीकों जैसे तमाम विषयों पर जरूर ध्यान देंगे। इन प्रश्नों के उत्तर में ही जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही को रोकने व वैश्विक स्वास्थ्य रक्षा का सूत्र छुपा हुआ है।
संदर्भ सूची
लेखक स्वास्थ्य जागरुकता कार्यकर्ता तथा समाचार-विचार पोर्टल www.swasthbharat.in के संपादक हैं। स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में अनेक आलेख लिखने के अलावा वह कंट्रोल एमएमआरपी (मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस) तथा ‘जेनरिक लाइए, पैसा बचाइए’ पैसा अभियानों के माध्यम से दवा कीमतों व स्वास्थ्य सुविधाओं पर जन जागरुकता के लिये काम करते रहे हैं। ईमेल : forhealthyindia@gmail.com
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