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तहलका, 19 दिसंबर 2011
गंगा में खनन के मुद्दे पर हरिद्वार में लंबे समय से चल रही लड़ाई में संत एक बार फिर सरकार पर भारी पड़े हैं।
हरिद्वार में पवित्र गंगा में खनन हो या नहीं, इसे लेकर एक संत और सरकार के बीच हुई लड़ाई में संत जीत गया। मातृ सदन आश्रम के स्वामी शिवानंद गंगा की मुख्य धारा पर खनन बंद कराने की मांग को लेकर 25 नवंबर से आमरण अनशन पर बैठे थे। कई नाटकीय घटनाक्रमों के बाद सरकार को अनशन के 11वें दिन झुकना पड़ा। सरकार ने फिलहाल केंद्र की जांच रिपोर्ट आने तक गंगा पर पूरी तरह खनन रोक दिया है।
पिछले महीने उत्तराखंड सरकार ने गंगा नदी पर पड़ने वाले तीन घाट खनन के लिए खोल दिए थे। इसके बाद स्वामी शिवानंद खनन बंद कराने की मांग को लेकर अनशन पर बैठ गए। इन तीन घाटों में से दस नंबर घाट कुंभ मेला क्षेत्र की सीमा के भीतर आता था। राज्य सरकार के पहले शासनादेशों और नैनीताल उच्च न्यायालय के 26 मई के निर्णय के अनुसार कुंभ मेला क्षेत्र के भीतर किसी भी हालत में खनन या स्टोन क्रैशिंग का काम नहीं हो सकता। इनके अलावा राज्य सरकार ने गंगा की मुख्य धारा पर पड़ने वाले दो और घाट विशनपुर-कुंडी और भोगपुर भी खनन के लिए खोले थे। शिवानंद के विरोध के बाद और दस नंबर घाट के कुंभ मेला क्षेत्र में पड़ने की पुष्टि होने पर जिला प्रशासन ने इस घाट पर चलने वाला खनन कुछ ही दिनों में बंद करा दिया था। परंतु बिशनपुर-कुंडी और भोगपुर के घाटों पर खनन चलता रहा।
स्वामी शिवानंद की मांग थी कि गंगा पर फिर से खनन के लिए खोले गए इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो। उनकी यह भी मांग थी कि गंगा में किसी भी तरह की खुदाई करने वाली बड़ी मशीनों और वाहनों की आवाजाही पूर्णतया प्रतिबंधित हो जाए। यह तभी संभव है जब गंगा पर खनन के लिए कोई भी घाट खुला न हो। उधर, राज्य सरकार किसी भी हालत में इन दोनों घाटों को खनन के लिए बंद नहीं करना चाहती थी। इन दो घाटों के अलावा भी हरिद्वार में गंगा की सहायक नदियों पर पड़ने वाले 21 घाट खनन के लिए खोले गए हैं। शिवानंद के अनशन पर बैठने के बाद मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने हरिद्वार में मीडिया को बताया कि राज्य में हो रहे विकास और निर्माण कार्यों की जरूरतें पूरी करने के लिए इन खनन क्षेत्रों का खुला रहना आवश्यक है। उधर शिवानंद का तर्क था कि वे केवल गंगा की मुख्य धारा पर खनन बंद करने की मांग कर रहे हैं और सहायक धाराओं में स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त खनन सामग्री है।
स्वामी शिवानंद की मांग थी कि इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो
इसके बाद राज्य के राजस्व मंत्री और उक्रांद नेता दिवाकर भट्ट ने तीन दिसंबर को मुख्यमंत्री के बयान का समर्थन करते हुए धमकी दी कि यदि शिवानंद अपना अनशन नहीं तोड़ते तो वे भी छह दिसंबर से अनशन शुरू करेंगे। भट्ट का कहना था, ‘खनन पर रोक लगने से हरिद्वार और उत्तराखंड में भवन निर्माण सामग्री राज्य के बाहर से आ रही है जिससे इसका मूल्य अंधाधुंध बढ़ गया है और आम आदमी को घर बनाने में मुश्किल हो रही है।’ खनन को रोजगार से जोड़ते हुए उनका कहना था, ‘खनन से जुड़ी गतिविधियों से हजारों लोगों को रोजगार भी मिलता है।’ उन्होंने यह भी कहा कि वे राज्य के हितों से खिलवाड़ नहीं होने देंगे इसलिए मजबूरी में उन्हें हरिद्वार में खनन खोलने की मांग को लेकर अनशन पर बैठना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि इससे पहले उन्हें नियमानुसार मंत्री पद त्यागना पड़ेगा।
इससे पहले भी कई मौकों और मुद्दों पर इस्तीफा देने की घोषणा करने के बाद भट्ट बाद में पलट गए थे। इसलिए इस घोषणा को किसी ने संजीदगी के साथ नहीं लिया। इस्तीफे का एलान करके फंस गए भट्ट ने बीच का रास्ता निकाला और स्वामी शिवानंद को मनाने खुद चार नवंबर को मातृ सदन पहुंचे। लेकिन शिवानंद अपनी मांग पर अड़े रहे और दो घंटे चली बातचीत पर कोई नतीजा नहीं नीकला. भट्ट एक बार फिर पांच दिसंबर को मातृ सदन गए, पर बात बनी नहीं। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और आदेश हुआ कि हरिद्वार में गंगा पर केंद्र के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पर्यावरणीय प्रभाव समीक्षा रिपोर्ट आने के बाद ही इन घाटों पर खनन होने या न होने का निर्णय लिया जाएगा।
1997 में मातृ सदन आश्रम की स्थापना के बाद से इस आश्रम के संन्यासियों द्वारा किया जा रहा यह 32वां अनशन था। मातृ सदन द्वारा पहले किए गए लगभग सारे सत्याग्रह कुंभ मेला क्षेत्र में गंगा पर हो रहे खनन या नियम विरुद्ध चल रहे स्टोन क्रैशरों को बंद कराने के लिए किए गए हैं। इसी साल जून में जगजीतपुर गांव में चल रहे हिमालय स्टोन क्रैशर का विरोध करते हुए मातृ सदन के संत निगमानंद की 68 दिन के अनशन के बाद मृत्यु हो गई थी। स्वामी शिवानंद बताते हैं, ‘मातृ सदन आश्रम की शुरुआत करने के बाद से ही मैं खनन के कारण गंगा, उसके आस-पास के टापुओं और तटों की बिगड़ती हालत से परिचित था।’ 1998 के महाकुंभ से गंगा को खनन मुक्त करने की मांग को लेकर शुरू हुई इन संतों के अनशनों की श्रृंखला 13वें साल में पहुंच गई है। हर बार सरकार के तर्कों और जिद पर संतों का अनशन भारी पड़ता है। इस बार भी यही हुआ। खनन को स्थानीय लोगों के रोजगार से जोड़ने के दिवाकर भट्ट के तर्क को विजेंद्र चौहान हवा में उड़ाते हुए कहते हैं, ‘गंगा में खनन और स्टोन क्रैशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है।’ हरिद्वार के 41 क्रैशरों में से गंगा के किनारे वाले इन गांवों में 35 के लगभग क्रैशर लगे हैं। मातृ सदन के पास ही मिस्सरपुर गांव के निवासी और गुरुकुल महाविद्यालय के उपाध्यक्ष चौहान बताते हैं, ‘ये माफिया अधिकतर काम मशीनों से करते हैं। जब कभी प्रशासन का दबाव पड़ता है तब बोगीवालों और हाथ से काम करने वाले मजदूरों को काम मिल पाता है।’ उनका दावा है कि स्थानीय गांवों के मूल निवासी इस खनन व्यवसाय में केवल मजदूरी पा रहे हैं जबकि माफियाओं द्वारा संचालित क्रैशर हर साल पांच से लेकर 20 करोड़ रुपये तक की कमाई कर रहे हैं।’ चौहान कहते हैं, ‘हरिद्वार के नेताओं और अधिकारियों को उत्तराखंड के लोगों के रोजगार से अधिक इन माफियाओं को होने वाले नुकसान की चिंता है।’ उनके अनुसार हर साल अकेले हरिद्वार से खनन माफिया और क्रैशर मालिक कम से कम 200 करोड़ रु. के राजस्व की चोरी कर रहे हैं जबकि खनन के जरिए पूरे राज्य से मिलने वाला राजस्व 93 करोड़ रु. है। स्थानीय लोगों का यह भी आरोप है कि नेताओं और अधिकारियों के लिए खनन दुधारू गाय है इसलिए वे मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख रहे हैं। चौहान बताते हैं, ‘गंगा पर हो रहे खनन पर देश-विदेश का मीडिया चाहे कितना भी बवाल कर रहा हो पर पिछले 15 वर्षों से किसी जिलास्तरीय अधिकारी तक ने इन क्षेत्रों की हालत देखने की जहमत नहीं उठाई है।’ सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि अभी तक इन क्षेत्रों में हो रहे खनन का कोई विस्तृत पर्यावरणीय अध्ययन भी नहीं हुआ है।
'गंगा में हो रहे खनन और स्टोन क्रशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है'
लोगों की मानें तो गंगा में पड़े पत्थरों और पहाड़ों से बहकर आने वाले बोल्डरों को क्रैशरों के लिए इस्तेमाल करने से गंगा पर बने द्वीप खत्म हो गए हैं और इन अर्धजलीय क्षेत्रों में रहने वाले जानवर और पादपों की प्रजातियां खत्म हो रही हैं। अब इस क्षेत्र में कछुए और खोह जैसे जीव नहीं दिखते जिनका नजर आना पहले आम बात थी। खनन से गंगा पर पड़ते प्रभाव का अध्ययन करने वाले चौहान बताते हैं कि इन्हीं पत्थरों के नीचे मछलियां अंडे देती हैं और छिपने के लिए स्थान बनाती हैं। गंगा पर खनन चलते रहे समर्थक तर्क देते हैं कि खनन न होने से नदियों का तल बढ़ता जाता है और बाढ़ आने की संभावना बढ़ती है। चौहान उनके इस दावे को नकारते हुए कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद खनन खुलने के बाद बाढ़ से अधिक नुकसान हुआ है। हरिद्वार के मोतीचूर, रायवाला, बाघरो जैसे इलाकों में वर्ष 1995 में खनन बंद हो गया था। पिछले 15 वर्षों के दौरान इन इलाकों में बाढ़ नहीं आई। जबकि मातृ सदन से नीचे मिस्सरपुर, अजीतपुर, बिशनपुर टांडी और भोगपुर जहां पिछले साल तक खनन हुआ है, में नदी के तटों पर कटाव होने के कारण हर साल नुकसान होता रहता है। अजीतपुर से बिशनपुर और टांडा-भागमल के बीच में वर्ष 1986 में 14किमी लंबा बना बांध पिछले ही साल खनन के कारण ही टूटा है। लोगों का आरोप है कि खनन माफिया ने बांध की बुनियाद तक का खनन कर दिया था।
मिस्सरपुर के ही किसान जीतेंद्र सैनी बताते हैं कि बरसात में पहाड़ों से बहकर पोषक तत्वों से युक्त मिट्टी आती है जो पहले मैदानी इलाके में आते ही बढ़ते जल स्तर के साथ खेतों में भर जाती थी। मिट्टी के भरने की प्रक्रिया को किसान ‘पांगी चढ़ना’ कहते हैं। किसान बताते हैं कि खनन होने पर नदियों का पानी सीधे आगे बढ़ जाता है और पोषक तत्वों का फायदा उत्तराखंड के किसानों को नहीं मिलता है। सैनी कहते हैं, ‘किसानों के नुकसान की किसी को परवाह नहीं। यहां तो राजनेताओं और अधिकारियों को आसानी से और बिना कुछ लगाए मिलने वाले धन की चिंता है।’

पिछले महीने उत्तराखंड सरकार ने गंगा नदी पर पड़ने वाले तीन घाट खनन के लिए खोल दिए थे। इसके बाद स्वामी शिवानंद खनन बंद कराने की मांग को लेकर अनशन पर बैठ गए। इन तीन घाटों में से दस नंबर घाट कुंभ मेला क्षेत्र की सीमा के भीतर आता था। राज्य सरकार के पहले शासनादेशों और नैनीताल उच्च न्यायालय के 26 मई के निर्णय के अनुसार कुंभ मेला क्षेत्र के भीतर किसी भी हालत में खनन या स्टोन क्रैशिंग का काम नहीं हो सकता। इनके अलावा राज्य सरकार ने गंगा की मुख्य धारा पर पड़ने वाले दो और घाट विशनपुर-कुंडी और भोगपुर भी खनन के लिए खोले थे। शिवानंद के विरोध के बाद और दस नंबर घाट के कुंभ मेला क्षेत्र में पड़ने की पुष्टि होने पर जिला प्रशासन ने इस घाट पर चलने वाला खनन कुछ ही दिनों में बंद करा दिया था। परंतु बिशनपुर-कुंडी और भोगपुर के घाटों पर खनन चलता रहा।
स्वामी शिवानंद की मांग थी कि गंगा पर फिर से खनन के लिए खोले गए इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो। उनकी यह भी मांग थी कि गंगा में किसी भी तरह की खुदाई करने वाली बड़ी मशीनों और वाहनों की आवाजाही पूर्णतया प्रतिबंधित हो जाए। यह तभी संभव है जब गंगा पर खनन के लिए कोई भी घाट खुला न हो। उधर, राज्य सरकार किसी भी हालत में इन दोनों घाटों को खनन के लिए बंद नहीं करना चाहती थी। इन दो घाटों के अलावा भी हरिद्वार में गंगा की सहायक नदियों पर पड़ने वाले 21 घाट खनन के लिए खोले गए हैं। शिवानंद के अनशन पर बैठने के बाद मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने हरिद्वार में मीडिया को बताया कि राज्य में हो रहे विकास और निर्माण कार्यों की जरूरतें पूरी करने के लिए इन खनन क्षेत्रों का खुला रहना आवश्यक है। उधर शिवानंद का तर्क था कि वे केवल गंगा की मुख्य धारा पर खनन बंद करने की मांग कर रहे हैं और सहायक धाराओं में स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त खनन सामग्री है।
स्वामी शिवानंद की मांग थी कि इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो
इसके बाद राज्य के राजस्व मंत्री और उक्रांद नेता दिवाकर भट्ट ने तीन दिसंबर को मुख्यमंत्री के बयान का समर्थन करते हुए धमकी दी कि यदि शिवानंद अपना अनशन नहीं तोड़ते तो वे भी छह दिसंबर से अनशन शुरू करेंगे। भट्ट का कहना था, ‘खनन पर रोक लगने से हरिद्वार और उत्तराखंड में भवन निर्माण सामग्री राज्य के बाहर से आ रही है जिससे इसका मूल्य अंधाधुंध बढ़ गया है और आम आदमी को घर बनाने में मुश्किल हो रही है।’ खनन को रोजगार से जोड़ते हुए उनका कहना था, ‘खनन से जुड़ी गतिविधियों से हजारों लोगों को रोजगार भी मिलता है।’ उन्होंने यह भी कहा कि वे राज्य के हितों से खिलवाड़ नहीं होने देंगे इसलिए मजबूरी में उन्हें हरिद्वार में खनन खोलने की मांग को लेकर अनशन पर बैठना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि इससे पहले उन्हें नियमानुसार मंत्री पद त्यागना पड़ेगा।
इससे पहले भी कई मौकों और मुद्दों पर इस्तीफा देने की घोषणा करने के बाद भट्ट बाद में पलट गए थे। इसलिए इस घोषणा को किसी ने संजीदगी के साथ नहीं लिया। इस्तीफे का एलान करके फंस गए भट्ट ने बीच का रास्ता निकाला और स्वामी शिवानंद को मनाने खुद चार नवंबर को मातृ सदन पहुंचे। लेकिन शिवानंद अपनी मांग पर अड़े रहे और दो घंटे चली बातचीत पर कोई नतीजा नहीं नीकला. भट्ट एक बार फिर पांच दिसंबर को मातृ सदन गए, पर बात बनी नहीं। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और आदेश हुआ कि हरिद्वार में गंगा पर केंद्र के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पर्यावरणीय प्रभाव समीक्षा रिपोर्ट आने के बाद ही इन घाटों पर खनन होने या न होने का निर्णय लिया जाएगा।
1997 में मातृ सदन आश्रम की स्थापना के बाद से इस आश्रम के संन्यासियों द्वारा किया जा रहा यह 32वां अनशन था। मातृ सदन द्वारा पहले किए गए लगभग सारे सत्याग्रह कुंभ मेला क्षेत्र में गंगा पर हो रहे खनन या नियम विरुद्ध चल रहे स्टोन क्रैशरों को बंद कराने के लिए किए गए हैं। इसी साल जून में जगजीतपुर गांव में चल रहे हिमालय स्टोन क्रैशर का विरोध करते हुए मातृ सदन के संत निगमानंद की 68 दिन के अनशन के बाद मृत्यु हो गई थी। स्वामी शिवानंद बताते हैं, ‘मातृ सदन आश्रम की शुरुआत करने के बाद से ही मैं खनन के कारण गंगा, उसके आस-पास के टापुओं और तटों की बिगड़ती हालत से परिचित था।’ 1998 के महाकुंभ से गंगा को खनन मुक्त करने की मांग को लेकर शुरू हुई इन संतों के अनशनों की श्रृंखला 13वें साल में पहुंच गई है। हर बार सरकार के तर्कों और जिद पर संतों का अनशन भारी पड़ता है। इस बार भी यही हुआ। खनन को स्थानीय लोगों के रोजगार से जोड़ने के दिवाकर भट्ट के तर्क को विजेंद्र चौहान हवा में उड़ाते हुए कहते हैं, ‘गंगा में खनन और स्टोन क्रैशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है।’ हरिद्वार के 41 क्रैशरों में से गंगा के किनारे वाले इन गांवों में 35 के लगभग क्रैशर लगे हैं। मातृ सदन के पास ही मिस्सरपुर गांव के निवासी और गुरुकुल महाविद्यालय के उपाध्यक्ष चौहान बताते हैं, ‘ये माफिया अधिकतर काम मशीनों से करते हैं। जब कभी प्रशासन का दबाव पड़ता है तब बोगीवालों और हाथ से काम करने वाले मजदूरों को काम मिल पाता है।’ उनका दावा है कि स्थानीय गांवों के मूल निवासी इस खनन व्यवसाय में केवल मजदूरी पा रहे हैं जबकि माफियाओं द्वारा संचालित क्रैशर हर साल पांच से लेकर 20 करोड़ रुपये तक की कमाई कर रहे हैं।’ चौहान कहते हैं, ‘हरिद्वार के नेताओं और अधिकारियों को उत्तराखंड के लोगों के रोजगार से अधिक इन माफियाओं को होने वाले नुकसान की चिंता है।’ उनके अनुसार हर साल अकेले हरिद्वार से खनन माफिया और क्रैशर मालिक कम से कम 200 करोड़ रु. के राजस्व की चोरी कर रहे हैं जबकि खनन के जरिए पूरे राज्य से मिलने वाला राजस्व 93 करोड़ रु. है। स्थानीय लोगों का यह भी आरोप है कि नेताओं और अधिकारियों के लिए खनन दुधारू गाय है इसलिए वे मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख रहे हैं। चौहान बताते हैं, ‘गंगा पर हो रहे खनन पर देश-विदेश का मीडिया चाहे कितना भी बवाल कर रहा हो पर पिछले 15 वर्षों से किसी जिलास्तरीय अधिकारी तक ने इन क्षेत्रों की हालत देखने की जहमत नहीं उठाई है।’ सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि अभी तक इन क्षेत्रों में हो रहे खनन का कोई विस्तृत पर्यावरणीय अध्ययन भी नहीं हुआ है।
'गंगा में हो रहे खनन और स्टोन क्रशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है'
लोगों की मानें तो गंगा में पड़े पत्थरों और पहाड़ों से बहकर आने वाले बोल्डरों को क्रैशरों के लिए इस्तेमाल करने से गंगा पर बने द्वीप खत्म हो गए हैं और इन अर्धजलीय क्षेत्रों में रहने वाले जानवर और पादपों की प्रजातियां खत्म हो रही हैं। अब इस क्षेत्र में कछुए और खोह जैसे जीव नहीं दिखते जिनका नजर आना पहले आम बात थी। खनन से गंगा पर पड़ते प्रभाव का अध्ययन करने वाले चौहान बताते हैं कि इन्हीं पत्थरों के नीचे मछलियां अंडे देती हैं और छिपने के लिए स्थान बनाती हैं। गंगा पर खनन चलते रहे समर्थक तर्क देते हैं कि खनन न होने से नदियों का तल बढ़ता जाता है और बाढ़ आने की संभावना बढ़ती है। चौहान उनके इस दावे को नकारते हुए कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद खनन खुलने के बाद बाढ़ से अधिक नुकसान हुआ है। हरिद्वार के मोतीचूर, रायवाला, बाघरो जैसे इलाकों में वर्ष 1995 में खनन बंद हो गया था। पिछले 15 वर्षों के दौरान इन इलाकों में बाढ़ नहीं आई। जबकि मातृ सदन से नीचे मिस्सरपुर, अजीतपुर, बिशनपुर टांडी और भोगपुर जहां पिछले साल तक खनन हुआ है, में नदी के तटों पर कटाव होने के कारण हर साल नुकसान होता रहता है। अजीतपुर से बिशनपुर और टांडा-भागमल के बीच में वर्ष 1986 में 14किमी लंबा बना बांध पिछले ही साल खनन के कारण ही टूटा है। लोगों का आरोप है कि खनन माफिया ने बांध की बुनियाद तक का खनन कर दिया था।
मिस्सरपुर के ही किसान जीतेंद्र सैनी बताते हैं कि बरसात में पहाड़ों से बहकर पोषक तत्वों से युक्त मिट्टी आती है जो पहले मैदानी इलाके में आते ही बढ़ते जल स्तर के साथ खेतों में भर जाती थी। मिट्टी के भरने की प्रक्रिया को किसान ‘पांगी चढ़ना’ कहते हैं। किसान बताते हैं कि खनन होने पर नदियों का पानी सीधे आगे बढ़ जाता है और पोषक तत्वों का फायदा उत्तराखंड के किसानों को नहीं मिलता है। सैनी कहते हैं, ‘किसानों के नुकसान की किसी को परवाह नहीं। यहां तो राजनेताओं और अधिकारियों को आसानी से और बिना कुछ लगाए मिलने वाले धन की चिंता है।’