लेखक
भारत की आधी से अधिक आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर है। इसके परिणामस्वरूप अनेक बीमारियां जिनमें उल्टी-दस्त प्रमुख हैं, बड़े पैमाने पर फैलती हैं, जिनकी परिणति कई बार मृत्यु पर ही होती है। सरकारी योजनाओं में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर हमारे सामने रख रही है। दुनिया में सर्वाधिक लोग दूषित जल से होने वाली बीमारियों से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़े बताते हैं कि दुनिया में प्रतिवर्ष करीब 6 करोड़ लोग डायरिया से पीड़ित होते हैं, जिनमें से 40 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। डायरिया और मौत की वजह प्रदूषित जल और गंदगी ही है। अनुमान है कि विकासशील देशों में होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियां और एक तिहाई मौतों के लिए प्रदूषित जल का सेवन ही जिम्मेदार है। प्रत्येक व्यक्ति के रचनात्मक कार्यों में लगने वाले समय का लगभग दसवां हिस्सा जलजनित रोगों की भेंट चढ़ जाता है। यही वजह है कि विकासशील देशों में इन बीमारियों के नियंत्रण और अपनी रचनात्मक शक्ति को बरकरार रखने के लिए साफ-सफाई, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी की आपूर्ति पर ध्यान देना आवश्यक हो गया है। निश्चित तौर पर साफ पानी लोगों के स्वास्थ्य और रचनात्मकता को बढ़ावा देगा। कहा भी गया है कि सुरक्षित पेयजल की सुनिश्चितता जल जनित रोगों के नियंत्रण और रोकथाम की कुंजी है।
ऐसे में हमें मर्यादापूर्वक शौच निपटाने की सही सोच के साथ शौचालय उपलब्ध होना ही चाहिए। सरकार निर्मल भारत अभियान, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान आदि से शौचालय बनवाना चाहती है और इसके लिए काफी बड़े बजट का प्रावधान किया गया है, लेकिन सफाई-स्वच्छता पर खर्च होने वाला धन यदि केवल ‘शौच गृह’ बनाने तक सीमित है तो हम मल प्रबंधन, खुले में शौच समस्या को ‘ट्रांसफर’ भर कर रहे हैं। न की इस समस्या का पूरा निराकरण कर रहे हैं। गांधीजी के अनुसार कचरा वह चीज है, जो अपने यथास्थान नहीं है। अगर वह अपने ‘उचित’ स्थान पर पहुंच जाए तो वह हमारे लिए सम्पत्ति हो जाती है। पर सीवेज या फ्लश जैसे इन तरीकों से मल खेती का बल नहीं बन पाता। इन तरीकों में उड़ाऊपन, फिजूलखर्ची का दोष है। मल की खाद यानी सोनखाद जैसी अपने हाथ की खाद व्यर्थ गंवाना बेवकूफी और दुर्दैव का लक्षण है।
खुले में शौच से जल की गुणवत्ता खत्म हो जाती है और यह पीने के लायक नहीं रहता। इससे बीमारियां होने की भी संभावनाएं ज्यादा होती हैं। जल गुणवत्ता में एक खास पहलू है कि इसमें मल की मौजूदगी नहीं होनी चाहिए, इसलिए जब पेयजल की बैक्टीरियोलॉजिकल जांच की जाती है तो उसमें सबसे पहला उद्देश्य मल प्रदूषण की उपस्थिति की जांच करना होता है। एक खास तरह का बैक्टीरिया मानव मल की जल में उपस्थिति के संकेत देता है, जिसे ई-कोलाई कहते हैं।
महाराष्ट्र राज्य में अमरावती जिले के गांवों में लोग पीने के लिए अलग-अलग स्रोतों- कुआं, नलकूप, हैंडपंप और ग्राम पंचायतों का मुहैया कराए गए पानी से काम चलाते हैं। इस पानी की गुणवत्ता को जांचने के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसके तहत जिले के खुले में शौचमुक्त (ओपन डेफिकेशन फ्री- ओडीएफ) और खुले में शौच वाले (ओपन डेफिकेशन नॉट फ्री- ओडीएनएफ) गांवों को चुना गया क्योंकि वह यह देखना चाहते थे कि मानव मल का जल की गुणवत्ता पर क्या और कितना असर पड़ता है। उन्होंने खुले में शौचमुक्त 66 गांवों और खुले में शौच वाले बहत्तर गांवों से पेयजल के नमूने इकट्ठा किए। खुले में शौच मुक्त वाले गांवों में निर्मल ग्राम पुरस्कार प्राप्त किए हुए गांव चिह्नित किए गए थे। 66 ओडीएफ और 72 ओडीएनएफ गांवों में से कुल मिलाकर 211 पेयजल के नमूने लिए गए। जिनमें से 104 ओडीएफ गांव से और 107 ओडीएनएफ से थे। नमूनों के लिए अलग-अलग स्रोतों को भी चुना गया। जांच के दौरान अलग-अलग परीक्षण किए गए और कई तरह के प्रदूषणों का पता लगाया गया तो नतीजे चौंकाने वाले थे। ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल से होने वाला जल प्रदूषण 35 फीसदी था, जबकि ओडीएफ गांवों में यह मात्र 8 फीसदी था। अगर हम स्रोत की बात करें तो ओडीएनएफ गांवों में यह प्रदूषण खुले कुओं में सबसे ज्यादा 77 फीसदी तक पाया गया जबकि ओडीएफ गांव में यह मात्र 15 फीसदी ही था। ओडीएफ गांवों में पेयजल 83 फीसदी मानव मल के संक्रमण से मुक्त पाया गया जबकि ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल की मौजूदगी 52 फीसदी पाई गई। इस परीक्षण से वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया कि खुले में शौच हमारे जल स्रोतों को किस तरह प्रदूषित कर देता है।
सेनिटेशन केवल मानवीय स्वास्थ्य के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी निहायत जरूरी है। बावजूद इसके भारत में पूर्ण स्वच्छता के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं। सरकारी से लेकर, खुले में शौच और साफ-सफाई से संबंधित आदतों तक की। लोगों के मन, वचन और कर्म में गहरे पैठी हुई आदतों को बदलना इतना आसान नहीं होता। आदतों में बदलाव तो एक चुनौती है ही पर सरकारों की समझदारी भी सवालों के घेरे में है। सरकारें सबको शौचालय देना चाहती हैं लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अधकचरी समझ से बन रहे शौचालय कहीं देश के भूजल को न प्रदूषित कर दें। इसके अलावा सब्सिडी दे-देकर कब तक शौचालय बनवाएंगे। फिर उनकी रख-रखाव के लिए क्या कोई नई स्कीम लाएंगे।
हालांकि खुले में पड़े हुए मल से न केवल भू-जल प्रदूषित होता है, बल्कि कृषि उत्पाद भी इस प्रदूषण से अछूते नहीं रहते। यही मल डायरिया, हैजा, टाइफाइड जैसी घातक बीमारियों के कीटाणुओं को भी फैलाता है। उचित शौचालय न केवल प्रदूषण और इन बीमारियों से बचने के लिए जरूरी है बल्कि एक साफ-सुथरे सामुदायिक पर्यावरण के लिए भी जरूरी हैं क्योंकि शौचालय ही वो स्थान है, जहां मानव मल का एक ही स्थान पर निपटान संभव है। जिससे पर्यावरण साफ-सुथरा सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे मानव मल में मौजूद जीवाणु हमारे जल, जंगल, जमीन को प्रदूषित नहीं कर पाते हैं।
जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य, पोषण और लोगों की भलाई ये सब आपस में जुड़े हुए हैं। प्रदूषित जल का पीना, मल का ठीक से निपटान न करना, व्यक्तिगत और खाद्य पदार्थों के स्वास्थ्य और सफाई की कमी, कचरे का ठीक से प्रबंधन न होना भारत में बीमारियों की सबसे बड़ी वजह है। यहां हर साल लगभग 5 करोड़ लोगों को जल जनित बीमारियों का शिकार होना पड़ता है।
दूषित पेयजल से स्वास्थ्य को जो सबसे बड़ा और आम खतरा है वो है मानव और पशु मल और उसमें मौजूद छोटे-छोटे जीवांश का संक्रमण। आमतौर पर जिन्हें ई-कोलाई के नाम से जानते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों ने भी यह साबित कर दिया है कि खुले में शौच को रोककर और गांवों को निर्मल बनाकर ही हम न केवल पेयजल के प्रदूषण को कम कर सकते हैं बल्कि इससे गांव प्रदूषण मुक्त होने के साथ-साथ डायरिया, हैजा, टाइफाइड और अन्य संक्रामक रोगों से भी मुक्त होंगे। बेहतर स्वच्छता सुविधाएं लोगों के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उनके आर्थिक और सामाजिक विकास को भी बेहतर बनाती हैं।
सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा हिन्दी वाटर पोर्टल की कोर्डिनेटर और वाटरकीपर एलाइंस की सदस्या हैं।
ऐसे में हमें मर्यादापूर्वक शौच निपटाने की सही सोच के साथ शौचालय उपलब्ध होना ही चाहिए। सरकार निर्मल भारत अभियान, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान आदि से शौचालय बनवाना चाहती है और इसके लिए काफी बड़े बजट का प्रावधान किया गया है, लेकिन सफाई-स्वच्छता पर खर्च होने वाला धन यदि केवल ‘शौच गृह’ बनाने तक सीमित है तो हम मल प्रबंधन, खुले में शौच समस्या को ‘ट्रांसफर’ भर कर रहे हैं। न की इस समस्या का पूरा निराकरण कर रहे हैं। गांधीजी के अनुसार कचरा वह चीज है, जो अपने यथास्थान नहीं है। अगर वह अपने ‘उचित’ स्थान पर पहुंच जाए तो वह हमारे लिए सम्पत्ति हो जाती है। पर सीवेज या फ्लश जैसे इन तरीकों से मल खेती का बल नहीं बन पाता। इन तरीकों में उड़ाऊपन, फिजूलखर्ची का दोष है। मल की खाद यानी सोनखाद जैसी अपने हाथ की खाद व्यर्थ गंवाना बेवकूफी और दुर्दैव का लक्षण है।
खुले में शौच से जल की गुणवत्ता खत्म हो जाती है और यह पीने के लायक नहीं रहता। इससे बीमारियां होने की भी संभावनाएं ज्यादा होती हैं। जल गुणवत्ता में एक खास पहलू है कि इसमें मल की मौजूदगी नहीं होनी चाहिए, इसलिए जब पेयजल की बैक्टीरियोलॉजिकल जांच की जाती है तो उसमें सबसे पहला उद्देश्य मल प्रदूषण की उपस्थिति की जांच करना होता है। एक खास तरह का बैक्टीरिया मानव मल की जल में उपस्थिति के संकेत देता है, जिसे ई-कोलाई कहते हैं।
महाराष्ट्र राज्य में अमरावती जिले के गांवों में लोग पीने के लिए अलग-अलग स्रोतों- कुआं, नलकूप, हैंडपंप और ग्राम पंचायतों का मुहैया कराए गए पानी से काम चलाते हैं। इस पानी की गुणवत्ता को जांचने के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसके तहत जिले के खुले में शौचमुक्त (ओपन डेफिकेशन फ्री- ओडीएफ) और खुले में शौच वाले (ओपन डेफिकेशन नॉट फ्री- ओडीएनएफ) गांवों को चुना गया क्योंकि वह यह देखना चाहते थे कि मानव मल का जल की गुणवत्ता पर क्या और कितना असर पड़ता है। उन्होंने खुले में शौचमुक्त 66 गांवों और खुले में शौच वाले बहत्तर गांवों से पेयजल के नमूने इकट्ठा किए। खुले में शौच मुक्त वाले गांवों में निर्मल ग्राम पुरस्कार प्राप्त किए हुए गांव चिह्नित किए गए थे। 66 ओडीएफ और 72 ओडीएनएफ गांवों में से कुल मिलाकर 211 पेयजल के नमूने लिए गए। जिनमें से 104 ओडीएफ गांव से और 107 ओडीएनएफ से थे। नमूनों के लिए अलग-अलग स्रोतों को भी चुना गया। जांच के दौरान अलग-अलग परीक्षण किए गए और कई तरह के प्रदूषणों का पता लगाया गया तो नतीजे चौंकाने वाले थे। ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल से होने वाला जल प्रदूषण 35 फीसदी था, जबकि ओडीएफ गांवों में यह मात्र 8 फीसदी था। अगर हम स्रोत की बात करें तो ओडीएनएफ गांवों में यह प्रदूषण खुले कुओं में सबसे ज्यादा 77 फीसदी तक पाया गया जबकि ओडीएफ गांव में यह मात्र 15 फीसदी ही था। ओडीएफ गांवों में पेयजल 83 फीसदी मानव मल के संक्रमण से मुक्त पाया गया जबकि ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल की मौजूदगी 52 फीसदी पाई गई। इस परीक्षण से वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया कि खुले में शौच हमारे जल स्रोतों को किस तरह प्रदूषित कर देता है।
सेनिटेशन केवल मानवीय स्वास्थ्य के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी निहायत जरूरी है। बावजूद इसके भारत में पूर्ण स्वच्छता के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं। सरकारी से लेकर, खुले में शौच और साफ-सफाई से संबंधित आदतों तक की। लोगों के मन, वचन और कर्म में गहरे पैठी हुई आदतों को बदलना इतना आसान नहीं होता। आदतों में बदलाव तो एक चुनौती है ही पर सरकारों की समझदारी भी सवालों के घेरे में है। सरकारें सबको शौचालय देना चाहती हैं लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अधकचरी समझ से बन रहे शौचालय कहीं देश के भूजल को न प्रदूषित कर दें। इसके अलावा सब्सिडी दे-देकर कब तक शौचालय बनवाएंगे। फिर उनकी रख-रखाव के लिए क्या कोई नई स्कीम लाएंगे।
हालांकि खुले में पड़े हुए मल से न केवल भू-जल प्रदूषित होता है, बल्कि कृषि उत्पाद भी इस प्रदूषण से अछूते नहीं रहते। यही मल डायरिया, हैजा, टाइफाइड जैसी घातक बीमारियों के कीटाणुओं को भी फैलाता है। उचित शौचालय न केवल प्रदूषण और इन बीमारियों से बचने के लिए जरूरी है बल्कि एक साफ-सुथरे सामुदायिक पर्यावरण के लिए भी जरूरी हैं क्योंकि शौचालय ही वो स्थान है, जहां मानव मल का एक ही स्थान पर निपटान संभव है। जिससे पर्यावरण साफ-सुथरा सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे मानव मल में मौजूद जीवाणु हमारे जल, जंगल, जमीन को प्रदूषित नहीं कर पाते हैं।
जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य, पोषण और लोगों की भलाई ये सब आपस में जुड़े हुए हैं। प्रदूषित जल का पीना, मल का ठीक से निपटान न करना, व्यक्तिगत और खाद्य पदार्थों के स्वास्थ्य और सफाई की कमी, कचरे का ठीक से प्रबंधन न होना भारत में बीमारियों की सबसे बड़ी वजह है। यहां हर साल लगभग 5 करोड़ लोगों को जल जनित बीमारियों का शिकार होना पड़ता है।
दूषित पेयजल से स्वास्थ्य को जो सबसे बड़ा और आम खतरा है वो है मानव और पशु मल और उसमें मौजूद छोटे-छोटे जीवांश का संक्रमण। आमतौर पर जिन्हें ई-कोलाई के नाम से जानते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों ने भी यह साबित कर दिया है कि खुले में शौच को रोककर और गांवों को निर्मल बनाकर ही हम न केवल पेयजल के प्रदूषण को कम कर सकते हैं बल्कि इससे गांव प्रदूषण मुक्त होने के साथ-साथ डायरिया, हैजा, टाइफाइड और अन्य संक्रामक रोगों से भी मुक्त होंगे। बेहतर स्वच्छता सुविधाएं लोगों के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उनके आर्थिक और सामाजिक विकास को भी बेहतर बनाती हैं।
सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा हिन्दी वाटर पोर्टल की कोर्डिनेटर और वाटरकीपर एलाइंस की सदस्या हैं।