खूनी भण्डारा बुरहानपुर शहर की एक अनूठी भूजल प्रबंधन व्यवस्था है, जिसे मुगलों ने 17वीं शताब्दी में स्थापित किया था। आज मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले का बुरहानपुर नगर निगम और खण्डवा जिला प्रशासन मिलकर इस व्यवस्था को फिर से ज़िंदा करने में जुटे हैं, जिससे इस पूरे शहर में सालों-साल स्वच्छ और पर्याप्त मात्रा में भूजल उपलब्ध होता रहे। इस पहल से इस क्षेत्र में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। भूजल व्यवस्था का कार्यक्रम दिसम्बर 2000 से शुरु हो गया था, और इसकी जल आपूर्ति प्रति 11 लाख लीटर तक बढ़ गई है।
मुगलों ने अपने शासन काल में बुरहानपुर को काफी विकसित किया, क्योंकि यह दक्षिण भारत में उनके फैलाव का एक आधार था। यहां प्रकृति ने उन्हें पर्याप्त जल संसाधनों से हरा-भरा रखा था। यह शहर ताप्ती और उतावली नदी के किनारे बसा है और यहां सालाना औसतन 880 मिलीमीटर वर्षा होती है। लेकिन मुगल सूबेदार अब्दुल रहीम खानखाना के दिमाग में यही चिंता सवार थी कि किस तरह से दो लाख की सेना और 35,000 नागरिकों की पानी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधनों का भरपूर उपयोग किया जाए।
खानखाना ने जमीन के नीचे जल व्यवस्था विकसित की। इसलिए भी कि कहीं उनके शत्रु उनके पेयजल में जहर न मिला दें। एक फारसी भू-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने इस विचार को साकार किया। सन् 1615 में उन्होंने खूनी भण्डारा का निर्माण किया, जिसमें 103 कुंडियां थी, जिनका एक कतार में निर्माण किया गया और इन्हें 3.9 किमी लंबी संगमरमर की जमीनी सुरंग में एक-दूसरे से जोड़ा गया। एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, चूंकि इस पानी का रंग थोड़ा लाल था, अत: इसका नाम खूनी पड़ा। इसके पानी की गुणवत्ता मिनरल वाटर से कम नहीं हैं ।
यह व्यवस्था सतपुड़ा पहाड़ियों से ताप्ती नदी में बहने वाले वर्षाजल को रोकने के लिए ही विकसित की गई थी। इसका ढांचा गुरुत्वाकर्षण के सीधे नियम पर आधारित है। इसका पानी सतपुड़ा पहाड़ की पहली कुंडी से बहते हुए अंतिम कुंडी तक पहुँचता है। इसकी पहली कुंडी शहर की जमीन से करीब 30 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इन कुंडियों का व्यास 0.75 मीटर से लेकर 1.75 मीटर और इनकी गहराई 6 से 24 मीटर तक है, जो कि उनके स्थान विशेष के हिसाब से छोटे-बड़े रूप में बनाए गए थे। दूसरे शब्दों में, पहली कुंडी अंतिम कुंडी की अपेक्षा ज्यादा गहरी है। ये 103 कुंडियां मरम्मत के लिए अंदर जाने के मार्ग का भी काम करती हैं। आज इसके अंदर घुसने के लिए रस्सियों के बजाय लोहे की सीढ़ियाँ मौजूद हैं।
इस प्रणाली को इतने सलीके से गढ़ा गया है कि इससे बुरहानपुर शहर में पानी पहुँचाने में कोई ऊर्जा नहीं लगती है, बल्कि यह गुरूत्वाकर्षण की शक्ति से सीधे शहर पहुंचता है।
इस व्यवस्था के निर्माण के बाद से लोगों को 312 सालों तक पानी मिलता रहा। यह सन् 1977 आते-आते नष्ट हो चुका था और करीब 12 सालों तक किसी के ज़हन में इसका कोई ख्याल नहीं आया। फिर सन् 1989 में इसने इंजीनीयरों और इतिहासकारों को आकर्षित करना शुरु किया, जिन्होंने इसमें सुधार लाने के कई प्रयास किए, लेकिन असफल रहे, क्योंकि इनके पास इसके लिए कोई पैसा नहीं था।
इस खूनी भण्डारा की वार्षिक जल एकत्रण क्षमता भी काफी घटी। शुरुआत में इसकी जलग्रहण क्षमता 10 लाख लीटर थी, जो 1975-76 में घटकर 1.5 लाख लीटर ही रह गई। सन् 1997 में तो इसकी क्षमता 50 हजार लीटर ही बची। इस निरंतर गिरावट के कई कारण थे, जैसे: सुरंग की दीवारों पर कैल्सियम और मैग्निजियम की मोटी परत जम गई थी, जिससे पानी निकलने का सुराग छोटा पड़ गया। दूसरे, लोग पारंपरिक जल आपूर्ति को भूलते चले गए, क्योंकि नगर निगम उतावली नदी से पाइपों के जरिए पानी की आपूर्ति करने लगा। चूँकि कुछ कुँडियां टूट-फूट गई थीं, जिससे इसकी सुरंग में मलवा भर गया, जिससे आगे गाद भरने की प्रक्रिया भी तेज हो गई और फिर कुंडियों का निजी कुंओं और कूड़ेदान के रूप में उपयोग होने लगा। इसके अलावा इस शहर के बिजलीघर से रिसने वाले रसायनों का इस पानी में घुलने लगा, जिससे इस सुरंग से बहने वाला पानी विषैला हो गया।
नगर निगम इस शहर को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति करने में काफी असमर्थ होता जा रहा था।
ऐसे में लोगों और प्रशासन, दोनों के लिए खूनी भंडारा की मरम्मत करना ही एक बड़ा उपाय था। खण्डवा के जिलाधीश प्रवीण गर्ग ने इस क्षेत्र के भ्रमण के बाद घोषणा की कि जिला प्रशासन इसके ढांचे की मरम्मत का काम देखेंगे।
जिला प्रशासन को इसके तीन चरण के सुधार कार्यक्रम के तहत 15 लाख रुपये का योगदान प्राप्त हुआ है। शहरी विकास प्राधिकरण ने तीन किलोमीटर लंबी सुरंग को ठीक करने के लिए 10 लाख रुपए जुटाए हैं।
इसके पहले चरण का काम प्रगति पर है, जैसाकि इस सुरंग में फिर से पानी बहना शुरु हो गया है।
स्थानीय स्तर पर पानी की समस्या दूर करने में खानखाना की सदबुद्धि का आज भी उतना ही मोल है, जितना पहले कभी हुआ करता था।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : जय नागडा द्वारा - वीना स्टूडियो, महात्मा गांधी मार्ग खंडवा, मध्य प्रदेश 450001 फोन : 0733, 26178
मुगलों ने अपने शासन काल में बुरहानपुर को काफी विकसित किया, क्योंकि यह दक्षिण भारत में उनके फैलाव का एक आधार था। यहां प्रकृति ने उन्हें पर्याप्त जल संसाधनों से हरा-भरा रखा था। यह शहर ताप्ती और उतावली नदी के किनारे बसा है और यहां सालाना औसतन 880 मिलीमीटर वर्षा होती है। लेकिन मुगल सूबेदार अब्दुल रहीम खानखाना के दिमाग में यही चिंता सवार थी कि किस तरह से दो लाख की सेना और 35,000 नागरिकों की पानी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधनों का भरपूर उपयोग किया जाए।
खानखाना ने जमीन के नीचे जल व्यवस्था विकसित की। इसलिए भी कि कहीं उनके शत्रु उनके पेयजल में जहर न मिला दें। एक फारसी भू-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने इस विचार को साकार किया। सन् 1615 में उन्होंने खूनी भण्डारा का निर्माण किया, जिसमें 103 कुंडियां थी, जिनका एक कतार में निर्माण किया गया और इन्हें 3.9 किमी लंबी संगमरमर की जमीनी सुरंग में एक-दूसरे से जोड़ा गया। एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, चूंकि इस पानी का रंग थोड़ा लाल था, अत: इसका नाम खूनी पड़ा। इसके पानी की गुणवत्ता मिनरल वाटर से कम नहीं हैं ।
यह व्यवस्था सतपुड़ा पहाड़ियों से ताप्ती नदी में बहने वाले वर्षाजल को रोकने के लिए ही विकसित की गई थी। इसका ढांचा गुरुत्वाकर्षण के सीधे नियम पर आधारित है। इसका पानी सतपुड़ा पहाड़ की पहली कुंडी से बहते हुए अंतिम कुंडी तक पहुँचता है। इसकी पहली कुंडी शहर की जमीन से करीब 30 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इन कुंडियों का व्यास 0.75 मीटर से लेकर 1.75 मीटर और इनकी गहराई 6 से 24 मीटर तक है, जो कि उनके स्थान विशेष के हिसाब से छोटे-बड़े रूप में बनाए गए थे। दूसरे शब्दों में, पहली कुंडी अंतिम कुंडी की अपेक्षा ज्यादा गहरी है। ये 103 कुंडियां मरम्मत के लिए अंदर जाने के मार्ग का भी काम करती हैं। आज इसके अंदर घुसने के लिए रस्सियों के बजाय लोहे की सीढ़ियाँ मौजूद हैं।
इस प्रणाली को इतने सलीके से गढ़ा गया है कि इससे बुरहानपुर शहर में पानी पहुँचाने में कोई ऊर्जा नहीं लगती है, बल्कि यह गुरूत्वाकर्षण की शक्ति से सीधे शहर पहुंचता है।
इस व्यवस्था के निर्माण के बाद से लोगों को 312 सालों तक पानी मिलता रहा। यह सन् 1977 आते-आते नष्ट हो चुका था और करीब 12 सालों तक किसी के ज़हन में इसका कोई ख्याल नहीं आया। फिर सन् 1989 में इसने इंजीनीयरों और इतिहासकारों को आकर्षित करना शुरु किया, जिन्होंने इसमें सुधार लाने के कई प्रयास किए, लेकिन असफल रहे, क्योंकि इनके पास इसके लिए कोई पैसा नहीं था।
इस खूनी भण्डारा की वार्षिक जल एकत्रण क्षमता भी काफी घटी। शुरुआत में इसकी जलग्रहण क्षमता 10 लाख लीटर थी, जो 1975-76 में घटकर 1.5 लाख लीटर ही रह गई। सन् 1997 में तो इसकी क्षमता 50 हजार लीटर ही बची। इस निरंतर गिरावट के कई कारण थे, जैसे: सुरंग की दीवारों पर कैल्सियम और मैग्निजियम की मोटी परत जम गई थी, जिससे पानी निकलने का सुराग छोटा पड़ गया। दूसरे, लोग पारंपरिक जल आपूर्ति को भूलते चले गए, क्योंकि नगर निगम उतावली नदी से पाइपों के जरिए पानी की आपूर्ति करने लगा। चूँकि कुछ कुँडियां टूट-फूट गई थीं, जिससे इसकी सुरंग में मलवा भर गया, जिससे आगे गाद भरने की प्रक्रिया भी तेज हो गई और फिर कुंडियों का निजी कुंओं और कूड़ेदान के रूप में उपयोग होने लगा। इसके अलावा इस शहर के बिजलीघर से रिसने वाले रसायनों का इस पानी में घुलने लगा, जिससे इस सुरंग से बहने वाला पानी विषैला हो गया।
नगर निगम इस शहर को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति करने में काफी असमर्थ होता जा रहा था।
ऐसे में लोगों और प्रशासन, दोनों के लिए खूनी भंडारा की मरम्मत करना ही एक बड़ा उपाय था। खण्डवा के जिलाधीश प्रवीण गर्ग ने इस क्षेत्र के भ्रमण के बाद घोषणा की कि जिला प्रशासन इसके ढांचे की मरम्मत का काम देखेंगे।
जिला प्रशासन को इसके तीन चरण के सुधार कार्यक्रम के तहत 15 लाख रुपये का योगदान प्राप्त हुआ है। शहरी विकास प्राधिकरण ने तीन किलोमीटर लंबी सुरंग को ठीक करने के लिए 10 लाख रुपए जुटाए हैं।
इसके पहले चरण का काम प्रगति पर है, जैसाकि इस सुरंग में फिर से पानी बहना शुरु हो गया है।
स्थानीय स्तर पर पानी की समस्या दूर करने में खानखाना की सदबुद्धि का आज भी उतना ही मोल है, जितना पहले कभी हुआ करता था।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : जय नागडा द्वारा - वीना स्टूडियो, महात्मा गांधी मार्ग खंडवा, मध्य प्रदेश 450001 फोन : 0733, 26178