गर्मी और ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम लगाने के नाम दुनिया भर की सरकारें बैठती रही हैं। पिछले साल दिसम्बर में कोपेनहेगेन में इसे लेकर भी बैठक हो चुकी है, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। दरअसल गर्मी को लेकर सरकारें मानती रही हैं कि मौसम में बदलाव के नतीजे शताब्दियों में दिखेंगे, तब तक कोई-न-कोई हल ढूँढ लिया जाएगा। लेकिन प्रोफेसर मैक्ग्वायर ने चेतावनी दी है कि यह भयानक बदलाव हजारों साल की बजाय कुछ ही दशकों में भी हो सकते हैं। लेकिन इसमें समुद्री जलस्तर की बढ़ोत्तरी प्रमुख भूमिका निभाएगी। बचपन में एक कहानी सुनी थी। फागुन बीतते ही एक ब्राह्मण ने अपना कम्बल बेचकर बछिया खरीद ली थी। उसे लगा था कि फागुन बीतते ही जाड़ा चला जाएगा, तब कम्बल की जरूरत क्या रहेगी। लेकिन चैत-बैसाख की रातों में जब पुरवाई चलने लगी तो उसे जाड़े का अहसास हुआ और उसने अपनी गलती का अहसास हुआ। इसके बाद उसने बछिया बेचकर फिर से कम्बल खरीद लिया। लेकिन इस साल इस कहानी के मायने ही बदल गए हैं।
रामनवमी के वक्त जिस गुलाबी ठंड के हम आदी रहे हैं, उसने इस बार दगाबाजी कर दी है। आमतौर पर मार्च में तापमान 15 से 30 डिग्री तक रहता रहा है। लेकिन इस साल मार्च में अधिकतम 33.8 डिग्री और न्यूनतम 18.6 डिग्री तक जा पहुँचा। बात यहीं तक रहती तो गनीमत होती। हद तो तब हो गई, जब शनिवार 17 अप्रैल को अधिकतम तापमान 43.7 डिग्री और न्यूनतम तापमान 26.5 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुँचा। इसके साथ ही मौसम ने 52 सालों में अप्रैल महीने के तापमान की रिकॉर्ड तोड़ दिया।
भारत का मौसम विभाग मानता है कि हर साल मार्च के महीने में पश्चिमी विक्षोभ बनता रहा है। जिसके चलते मार्च-अप्रैल में हल्की बारिश होती रही है। मौसम विभाग दिल्ली में उपमहानिदेशक लक्ष्मण सिंह राठौर के मुताबिक इस साल पश्चिमी विक्षोभ ने दगाबाजी की है, जिसकी कीमत तेज गर्मी के तौर पर पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ रहा है। अमेरिकी अन्तरिक्ष अनुसन्धान एजेंसी नासा की एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक 1901 से लेकर 2009 तक मौसम लगातार गर्म होता रहा है।
मौसम को लेकर व्यवस्थित तरीके से आँकड़े इकट्ठे करने का जो दौर शुरू हुआ है, उसके बाद सबसे गर्म साल 2005 रहा है। लेकिन मार्च–अप्रैल की इस गर्मी के चलते शायद इस साल भी ये रिकॉर्ड टूट जाये। नासा और भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक 1901 से लेकर अब तक बारह साल बेहद गर्म रहे हैं।
पिछली शताब्दी में जहाँ महज चार साल ही ऐसे रहे, जब झुलसा देने वाली गर्मी पड़ी, जिन आठ सालों में गर्मी ने अपना रूतबा दिखाया है, वे आठ साल पिछले दशक में ही रहे। हाल ही में धरती की हवा के तापमान के बदलाव पर एक रिपोर्ट आई है।
इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी, पुणे के वरिष्ठ वैज्ञानिक) के कृष्ण कुमार, डी आर कोठवाले और एए मनोट ने सरफेस एयर टेंपरेचर वैरियेबिलिटी ओवर इण्डिया ड्यूरिंग 1901-2007 नामक इस अध्ययन रिपोर्ट को एनवायरनमेंट साइंस ऑर्गनाइजेशन (इनसो) के सहयोग से तैयार किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1901 से 2007 के बीच पूरे भारत का तापमान तकरीबन 0.51 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक अधिकतम तामपान में 0.71 डिग्री और न्यूनतम में 0.27 डिग्री सेल्सियस का अन्तर दर्ज किया गया है। इन वैज्ञानिकों के मुताबिक तामपान में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी 1970 के बाद दर्ज की गई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में औद्योगीकरण पूरी दुनिया में पिछले सालों की तुलना में ज्यादा बढ़ा है। इसके साथ ही दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन में भी तेजी है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि जाहिर है कि इस गर्मी की वजह ग्लोबल वार्मिंग ही है। नारायण का कहना है कि इससे साफ है कि मौसम में बदलाव आ रहा है और इसकी बड़ी वजह ग्लोबल वार्मिंग ही है।
मौसम के इसी बदलते मिजाज के खतरे के अध्ययन के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ ने इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज का गठन किया था। इस पैनल ने दुनिया के बढ़ते तापमान के लिये अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी थी। 2008 में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 1970 से धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसकी वजह हवा में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता उत्सर्जन है।
इस रिपोर्ट ने भी बताया था कि 1906 से 2005 के बीच दुनिया का तापमान 0.18 से लेकर 0.74 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़त देखी गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा 1955 के बाद तापमान बढ़ा है। इस रिपोर्ट का कहना था कि 1805 से 1905 के बीच धरती का तामपान जिस दर से बढ़ा, पिछली सदी में तापमान बढ़ने की दर उससे दोगुनी रही है।
मौसम में आ रहे बदलाव की जाँच करते वक्त एक और तथ्य पर ध्यान नहीं दिया जाता। विकास के कारण शहरों की बसावट बढ़ी है। पूरी दुनिया में शहरी जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक महानगर के मुताबिक 19वीं सदी तक पूरी दुनिया में सिर्फ पाँच फीसदी आबादी ही गाँवों में रहती थी। लेकिन बीसवीं सदी के आरम्भ होते-होते यह संख्या 20 फीसदी तक जा पहुँची। 2007 आते-आते यह जनसंख्या तकरीबन आधी हो गई है। जाहिर है कि औद्योगीकरण शहरीकरण भी लाता है।
शहरीकरण में ऊर्जा की खपत ज्यादा तो होती ही है, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी ज्यादा होता है। जैविक खेती अभियान के संयोजक क्रान्ति प्रकाश कहते हैं कि इस गर्मी को भी अब खतरे की तरह लेने का वक्त आ गया है।
बढ़ती गर्मी ने फौरी तौर पर हमें भले ही परेशान कर रखा हो, लेकिन अगर हालात नहीं बदले, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम नहीं लगाई गई तो आने वाले दिन और भी भयावह होंगे। लंदन की रॉयल सोसायटी के हाल ही में प्रकाशित एक जर्नल में कहा गया है कि गर्म होता यह मौसम ग्लेशियरों से बर्फ को पिघला रहा है और इस वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के एआन बेनफील्ड यूसीएल हैजार्ड रिसर्च सेंटर के बिल मैक्ग्वायर ने इस शोध की समीक्षा में लिखा है कि पिघलने के बाद बर्फ, धरती को ऊपर से 'धक्का' मारती है। इस लेख के मुताबिक ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका जैसी जगहों पर यह धक्का कई किलोमीटर तक हो सकता है।
इस शोध के मुताबिक इसके चलते धरती पर दबाव बढ़ सकता है, जो भूकम्प और सुनामी तक की वजह बन सकता है। इससे न्यूजीलैंड, कनाडा के न्यूफाउंडलैंड और चिली सुनामी के घेरे में आ सकते हैं। इतना ही नहीं, बर्फ की कमी ज्वालामुखी विस्फोट का भी कारण बन सकती है।
गर्मी और ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम लगाने के नाम दुनिया भर की सरकारें बैठती रही हैं। पिछले साल दिसम्बर में कोपेनहेगेन में इसे लेकर भी बैठक हो चुकी है, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। दरअसल गर्मी को लेकर सरकारें मानती रही हैं कि मौसम में बदलाव के नतीजे शताब्दियों में दिखेंगे, तब तक कोई-न-कोई हल ढूँढ लिया जाएगा। लेकिन प्रोफेसर मैक्ग्वायर ने चेतावनी दी है कि यह भयानक बदलाव हजारों साल की बजाय कुछ ही दशकों में भी हो सकते हैं। लेकिन इसमें समुद्री जलस्तर की बढ़ोत्तरी प्रमुख भूमिका निभाएगी।
अब कुछ देश की बात करें। अपने यहाँ गर्मी बढ़ने को लेकर कुछ अच्छी बातें भी सामने आ रही हैं। भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि इस साल कुछ जल्दी गर्मी आने के चलते गेहूँ की पैदावार में पिछले साल की तुलना में दस से बारह फीसदी की बढ़त दिखने जा रही है।
इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली टीम से जुड़े रहे एक वैज्ञानिक पीके सिंह का कहना है कि 2008-2009 के दौरान उत्तर प्रदेश और उत्तर पश्चिमी भारत में प्रति हेक्टेयर गेहूँ की पैदावार जहाँ 3750 किलो और 3280 किलो प्रति हेक्टेयर थी, वह इस साल यानी 2009-2010 में बढ़कर 4472 और 4201 किलो प्रति हेक्टेयर होने जा रही है। लेकिन मौसम विभाग अभी तक इस बात की जानकारी नहीं दे पाया है कि गर्मी और पिछले साल सूखे के चलते पानी के जो स्रोत सूख गए हैं, उसका अगली फसल पर क्या असर पड़ेगा।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।