365 परिवारों के गांव मलगांव में फिलहाल 210 के करीब पक्के नाडेप हैं, जबकि कच्चे घूरों की संख्या तो 400 से भी अधिक है। कम्पोस्ट की गुणवत्ता बढ़ाने हेतु रॉक फास्फेट पाउडर प्रत्येक टांके में डेढ़ क्वंटल तक डाला गया। कचरे की कमी महसूस की गई तो गांव के आसपास उपलब्ध गाजर घास, चिरोटा, गोखरू इत्यादि का उपयोग कम्पोस्ट बनाने के लिए किया जाने लगा।
नाडेप कम्पोस्ट वायुवीय विधि से साढ़े तीन से चार माह में तैयार हो जाता है। इसके अलावा शीघ्रता से और अधिक गुणवत्ता का कम्पोस्ट बनाने हेतु वर्मी कम्पोस्ट यूनिट निर्मित कर केंचुआ खाद तैयार की जाने लगी, लेकिन जमीन में नमी नहीं होने और वर्षा की अनियमितता से केंचुओं को जिन्दा रख पाना संभव नहीं हो पा रहा था। इसलिए कुछ समय के लिए इसे बंद कर दिया गया, फिलहाल इसे पर पुन: कार्य प्रारंभ होना है। मलगांव में वर्ष 1998-99 में 14.73 लाख से अधिक का खर्च रसायनिक उर्वरक व कीटनाशकों पर किया जाता था, जो अब घटकर नाममात्र का रह गया। ग्रामीणों की मानें तो एक गोबर गैस से साल भर में करीब 10 टन, नाडेप से 8-9 टन और वर्मी कम्पोस्ट से 10-12 टन खाद उत्पादन किया जा सकता है। हाल ही में कृषि विभाग के सहयोग से गांव में एक रोटावेटर भी लाया गया है, जिसका उपयोग कृषि अपिशष्टों को बारीक टुकड़ों में परिवर्तित करने के लिए किया जाता है। नाडेप, केंचुआ खाद, एवं बायो गैस स्लरी से बनने वाली जैविक खाद से भूमि में नत्रजन, फास्फोरस और पोटाश की उपलब्धता सुनिश्चित होने लगी।
भूमि स्वास्थ्य के साथ जल संरक्षण पर भी ध्यान दिया गया। मलगांव की अधिकतर भूमि समतल है। समतल भूमि से प्रवाहित वर्षा जल व पोषक तत्व को खेत के आसपास बनी 7000 कुण्डियों में एकत्रित किया जाने लगा। जिससे जल अंतत: रिसकर भू-जल भंडार की अभिवृद्धि करता है। कुण्डियों से अतिरिक्त बहने वाले जल को कुंओं की ओर मोड़कर गांव भू-जल पुर्नभरण का प्रयास किया गया। अतिरिक्त जल को रोकने के लिए गांव पास नाले पर बोल्डर चेक बनाए गए। सिंचाई में पानी का किफायत से उपयोग हो, इसके लिए बूंद-बूंद पद्धति एव फव्वारा पद्धति अपनाई गई। भूमि में पोशक तत्व बने रहें इसके लिए एक खेत में भिन्न-भिन्न कतारों में अलग-अलग फसलों की खेती की गई। पानी की बचत करने के लिए फसल की एक कतार छोड़कर पानी दिया जाने लगा। इन प्रयोगों जल संरक्षण में मदद मिली और जमीन में नमी बरकरार रखना भी संभव हो सका है। पीने की पानी की समस्या हल करने के लिए एक ट्यूबवैल एवं टंकी बनवाई गई, जिससे पूरे गांव को पीने का पानी मिलने लगा।
गांव में सम्पूर्ण स्वच्छता हो इसके लिए भी प्रयास किए गए और लोगों को घर एवं कृशि अपिशश्टों को इधर-उधर फेंकने की बजाय नाडेप में डालने के लिए प्रेरित किया गया। परिणाम यह हुआ कि जो कूड़ा कचरा गांव में बिखरा रहता था वह अब नज़र नहीं आता। पॉलीथीन की थैलियां एकत्रित करने हेतु 25 संग्रह केन्द्र बनाये गए। इसका उपयोग पुन: चक्रण हेतु या चेकडेम के नीचे जल रिसाव न हो उस हेतु बनाई जाने वाली डाइक में उपयोग किया गया, जिससे जल रिसाव को रोका जा सके। शौचालयों को बायोगैस से जोड़ा गया। इन सबके चलते कीचड़ से लथपथ गांव की गलियां साफ सुथरी नज़र आने लगी। यही नहीं मलगांव को इन सबके लिए निर्मल ग्राम पुरस्कार भी मिला है। जिस मलगांव में कोई नहीं आता था, मुख्यमंत्री से लेकर अधिकारी सभी आने लगे।
स्थानीय ग्रामीणों के मुताबिक मलगांव के प्रगतिशील किसान स्वर्गीय हुकुमचंद ने जैविक खेती का गांव में शंखनाद किया था और अन्य ग्रामीणों को भी इसके दीर्घकालीन फायदे से अवगत कराते हुए उन्हें भी इसके लिए प्रेरित किया। हुकुमचंद अपने खेतों एवं घर से निकले अपशिष्टों का उपयोग गाय के गोबर के साथ उसकी परत बनाकर और उसमें निर्धारित मात्रा में फास्फेट के उपयोग से जैविक खाद के निर्माण में करने लगे। रमेश पटेल बताते हैं कि-`पहले 50 एकड़ जमीन पर साल भर में लाखों रुपये रसायनिक खाद, फर्टीलाइजर्स और कीटनाशकों पर खर्च करने पड़ते थे। जैविक खाद के उपयोग से यह खर्च घटकर कुछेक हजार रुपये रह गया, जिससे कर्ज लेकर खेती करने की निर्भरता भी समाप्त हो गई। यही नहीं उत्पादन की गुणवत्ता भी जैविक खाद के उपयोग से बढ़ गई। आरंभिक तीन वर्षों में फसल उत्पादन में जरूर कुछ कमी आई, लेकिन बाद में सब ठीक हो गया और आज उत्पादन लागत निकाल कर 70 फीसदी तक बचत हो जाती है।´
धीरे-धीरे मलगांव का हर किसान हुकुमचंद और रमेश पटेल की राह पर चल पड़ा। आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है, यह बात मलगांव में शत् प्रतिशत सत्य साबित हुई है। सालों तक अत्यधिक रसायनिक उर्वरकों के उपयोग से जमीन की नमी बरकरार रखने वाले कृमि नष्ट होने से भूमि की उर्वरकता कम हो चुकी थी। इस पर सूखे ने किसानों पर कर्ज का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा था। रमेश कहते हैं कि-`ऐसे समय में मलगांव में कृषि वैज्ञानिकों से परंपरागत खेती से गांव की खेती-किसानी में जान फूंकने के लिए मशविरे की जरूरत महसूस की जाने लगी।´ कृषि विस्तार अधिकारी श्याम दूबे इस समस्या का सूत्रधार बन गए और उन्होंने ग्रामीणों के परस्पर विवादों को हल करने और उनके बीच जैविक खेती को लेकर आम सहमति बनाने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्हीं की अगुवाई में कई वर्षों बाद गांव में ग्रामसभा का आयोजन हुआ, जिसमें मलगांव के ग्रामीणों ने मिलकर जैविक खेती अपनाने का फैसला किया। जन जागरूकता अभियान में युवाओं, बुजुर्गों एवं बच्चों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया। गांव के बुजुर्गों ने एकता कायम करने और जैविक खेती के अपनाने केे लिए प्रेरित करने हेतु नाटक मंडली बनाई। दशरथ पटेल, मंशाराम और दादा गजानन पटेल भी इस मंडली के सदस्य थे। मंशाराम बताते हैं कि गांव में चले इस अभियान के प्रभाव से कई सालों तक मलगांव में विवाद नहीं हुए।
तभी से गांव के देवस्थान पर बने चबूतरे पर हर शनिवार को कृषक पाठशाला का आयोजन किया जाने लगा, जिससे किसानों को अपनी समस्याओं को साझा करने का मंच मिल गया। कृषक पाठशाला की बैठकों में विभिन्न फसलों में लगने वाली व्याधियों और उनके उपचार समेत जैविक खेती की तकनीकों के बारे नियमित चर्चा होने लगी। कृषक पाठशाला की बात फैली तो तमाम सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं के लोगों का भी गांव में आना-जाना शुरु हो गया और उनके अनुभव का लाभ भी स्थानीय ग्रामीणों को मिलने लगा। कृषक पाठशाला की उपयोगिता को देखते हुए गांव के ही जमींदार स्व. हुकुमचंद ने अपना मकान इसके लिए दे दिया। अब मलगांव की कृषक पाठशाला चबूतरे से उठकर छत के नीचे आ गई थी, जिससे कृषि विस्तार अधिकारियों को भी सरकारी कार्यक्रमों की स्थायी प्रदर्शनी का एक ठिकाना मिल गया। अब इस स्थायी कृषक पाठशाला का उपयोग विभिन्न फसलों के उत्पादन की विधियों, जैविक खेती के उपयोग से होने वाले लाभ, जैविक खेती के गुर, कम लागत कृषि आगतों का उपयोग, जैविक कीटनाशकों के निर्माण एवं उपयोग से जुड़े प्रयोगों की सीख और गोबर गैस की उपयोगिता के बारे में ग्रामीणों को शिक्षित करने के लिए किया जाने लगा।
खेतों में पक्षी आकर बैठे व कीड़ों को खाए उस हेतु मक्का के पौधे, पक्षियों को बैठने हेतु खुटियां, माहों हरा मच्छर एवं सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु पीले डिब्बों पर ग्रीस लगाकर व साथ में फेरोमोन ट्रेप प्रत्येक के बारह नग प्रति हेक्टेयर लगाए गए। कीड़ों की पहचान करने के लिए रात्रि में लाईट टैªप का भी उपयोग किया गया। नीम की निंबोली गोमूत्र में भिगोकर दो दिन रखकर साथ में अकाव के पत्ते भी मिलाए गए, बाद में इसका रस निकाल कर कपास के पौध संरक्षण कार्य किया जाने लगा। किसानों ने बड़े पैमाने पर मट्ठा (छाछ), गौमूत्र, अकाव, आयपोमिया की पत्ती, पलास की छाल, गिदान की बेेल को गोमूत्र में सड़ाकर बने अर्क इत्यादि के स्प्रे से फसलों पर लगने वाले हानिकारक कीटों से निजात पाया।
जागरूकता के प्रचार-प्रसार के लिए गांव में चेतना रैली का आयोजन किया गया। स्कूली छात्र-छात्राएं, कृषक परिवार, श्रमिक व गांव की महिलाओं ने चेतना रैली में भाग लिया। यही नहीं दीघZकालीन खेती के गुर अन्य गांवों तक पहुंचे इसके लिए मलगांव से लेकर इंदौर तक पदयात्रा निकाली गई। पदयात्रा में शामिल रहे अशोक कहते हैं कि-`बी.टी. कॉटन की खेती से भले ही कपास का निर्यात नहीं हो पा रहा है, लेकिन मंडी से मिलने वाली कीमत एवं बोनस मिलाकर लगभग आय बराबर हो जाती है। वे कहते है कि इन सबके बीच अच्छी बात यह है कि खेती की लागत एवं रसायनिक खादों का उपयोग मलगांव में आज भी बेहद कम रह गया है।´ अशोक बताते हैं कि रेडियो पर भी मलगांव की सफलता पर व्याख्यान देने का उन्हें मौका मिला है।
वर्ष 2002 में मलगांव में 806 क्विंटल यूरिया, 407 क्विंटल सुपर फास्फेट, 125 क्विंटल पोटाश और 446 क्विंटल डी.ए.पी. का उपयोग होता था। जबकि वर्ष 2008 में यूरिया का उपयोग घटकर 250 क्विंटल, सुपर फास्फेट का 97 क्विंटल, पोटाश का 58 क्विंटल और डी.ए.पी. का उपयोग महज 105 क्विंटल रह गया। इन प्रयोगो के बीच मलगांव ने जैविक खेती से उत्पादन में कमी होने के मिथ को भी तोड़ा है। वर्ष 2002 में मलगांव में प्रति हेक्टेयर कपास की पैदावार 10 क्विंटल, सोयाबीन की 11 क्विंटल/हेक्टेयर, ज्वार की 10 क्विंटल/हेक्टेयर, मक्का की 15 क्विंटल/हेक्टेयर, मूंगफली की 16 क्विंटल/हेक्टेयर होती थी। जैविक खेती शुरु होने के बाद भिन्न-भिन्न फसलों का उत्पादन या तो स्थिर रहा या फिर उसमें अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है। 2008 मे प्रति हेक्टेयर कपास की पैदावार 18 क्विंटल होना, सोयाबीन 16 क्विंटल, ज्वार 12.80 क्विंटल, मक्का 16.80 क्विंटल, और मूंगफली का उत्पादन 16 क्विंटल/हेक्टेयर होना इस बात का ज्वलंत प्रमाण माना जा सकता है।
बेहतर मूल्य एवं उम्दा फसल प्राप्त करने के लिए मलगांव में अनेक विधियों का उपयोग किया गया। मलगांव में प्याज की खेती से बेहतर मूल्य हासिल करने के लिए स्थानीय किसान दिसंबर में जब सर्दी पड़ती है तो प्याज की बीजाई कर देते हैं। कुछ समय बाद इसकी कली को खोदकर स्टोर कर लिया जाता है और पुन: अगस्त में इस कली की बीजाई कर दी जाती है। ऐसा करने से यह प्याज अक्टूबर तक तैयार हो जाता है। उल्लेखनीय है कि यह वह समय होता है, जब बाजार में प्याज की कमी होती है और मलगांव के किसान ऐसे समय में ट्रकों मे भर कर प्याज दूसरे शहरों में भेजकर भारी मुनाफा कमा लेते हैं। यही नहीं गांव जैविक कपास एक समय विदशों में खूब मांग थी। लेकिन लालचवश किसानों बी.टी. कॉटन का बीज उपयोग करना आरंभ कर दिया, जो अंतर्राश्ट्रीय मानकों के मुताबिक जैविक की श्रेणी में शामिल नहीं है। इससे मलगांव से जैविक कपास का निर्यात बंद हो गया, लेकिन आज भी किसान जैविक विधि से कम लागत की खेती कर अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। जिससे गांव की दशा ही नहीं सुधरी है, बल्कि लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आया है।
मलगांव में हुए इस परिवर्तन में सरकारी विभागीय प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि सालों बीत जाने के बाद भी कृषक पाठशाला के लिए स्थायी बिल्डिंग की व्यवस्था नहीं की जा सकी। जो भी हो, मलगांव में हुए बदलाव को देखकर कहा जा सकता है कि सरकारी स्तर पर मिले सहयोंग से भी विकास संभव है। लेकिन सवाल उठता है किऐसे प्रयोग क्या महज विभागीय प्रदर्शन भर तो नहीं हैं. जरूरत इन प्रयोगों के प्रदर्शन की बजाय आडंबरहीन निरंतरता की है, मलगांव से मिले अनुभवों से तो ऐसा ही कहा जा सकता है।