नदी विज्ञान की नजर से नदी विकास

Submitted by Hindi on Fri, 08/18/2017 - 13:01


.नदी, धरती पर पानी का हस्ताक्षर है। वह हस्ताक्षर जब धरती पर अपनी पहचान स्थापित करता है तो वह अकेला नहीं होता। उसमें सम्मिलित होता है धरती का वह हिस्सा जिसे कछार कहते हैं। उसमें सम्मिलित होती हैं वे छोटी-छोटी सहायक नदियाँ जो उस हस्ताक्षर की पहचान भी होती हैं। इसी कारण नदी और उसकी सहायक नदियों के बीच अंत-रंग सम्बन्ध होता है। वही सम्बन्ध नदी के प्रवाह का आधार है। उस सम्बन्ध को समझने के लिये वृक्ष का उदाहरण सबसे अधिक सटीक उदाहरण है। हर वृक्ष के तीन प्रमुख भाग होते हैं - धरती के नीचे जड़ों का ताना-बाना, धरती के ऊपर तना और शाखा तंत्र। शाखा तंत्र और तना, वृक्ष के वे भाग हैं, जिनसे वृक्ष के जीवित होने का अनुमान लगता है पर जब बात मुरझाते वृक्ष को जिन्दा करने की होती है तो बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी तने या शाखा तंत्र पर पानी नहीं डालता। वह उस धरती को पानी देता है जो जड़ों के ऊपर स्थित है।

आम जन भी जानते हैं कि पौध या वृक्ष उस समय तक जीवित रहता है जब तक जड़ों को पानी मिलता है। वह यह भी समझता है कि जड़ों का योगदान तने के सहारे चल कर शाखाओं को मिलता है। इस व्यवस्था के चलते ही वृक्ष, फल, फूल और प्राण वायु देता है। जड़ों के योगदान के कम होने से वृक्ष के योगदान घट जाते हैं पर जड़ों के ताने-बाने के छतिग्रस्त होते ही वृक्ष पर मृत्यु का खतरा मँडराने लगता है। उसी तरह, जिस तरह सहायक नदियों के जीवंत रहने तक मुख्य नदी जिन्दा रह सकती है। सहायक नदियों का बारहमासी योगदान ही मुख्य नदी को अविरल, स्वच्छ और जैवविविधता से परिपूर्ण रखता है।

नदी, धरती पर पानी का हस्ताक्षर है। उसके पानी का स्रोत समुद्र है। समुद्र से पानी भाप के रूप में उठकर आकाश में पहुँचता है। आकाश उसे धरती को सौंप देता है। धरती का ढ़ाल उसकी नियति तय करता है और नदीतंत्र को सौंप देता है। नदीतंत्र उसे समुद्र को लौटा देता है। यह सामान्य दिखने वाली घटना धरती पर सक्रिय प्राकृतिक जलचक्र है। मनुष्य के शरीर में लगातार सक्रिय खून और हृदय के उदाहरण से उसे आसानी से समझा जा सकता है। सब जानते हैं कि शरीर को स्वस्थ और सक्रिय रखने के लिये, हृदय, लगातार, स्वच्छ खून उपलब्ध कराता है। इस प्रयास में खून गंदा होता है। वह हृदय के पास वापिस जाता है। हृदय उसे साफ कर फिर उसी काम में लगा देता है। इस उदाहरण में हृदय, समुद्र का, कछार शरीर का और हृदय को लौटता खून नदी तंत्र का पर्याय है। यह व्यवस्था कुदरती व्यवस्था है। यह व्यवस्था धरती की ‘सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलाम’ व्यवस्था है। अब लौटें नदी विज्ञान की ओर।

नदी विज्ञान बहुत ही विस्तृत विज्ञान है। उसे समझने के लिये एक से अधिक विज्ञानों का ज्ञान चाहिए। पृथक-पृथक पृष्ठभूमि के लोग चाहिए। इसी कारण विज्ञान की किसी एक शाखा से जुड़े लोग, बरसों के अनुभव के बावजूद नदी विज्ञान को अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। समझ की इसी कमी के कारण, काम करते समय, उनसे नदी के अनेक कम उजागर पक्षों की उपेक्षा हो जाती है । उपेक्षित पक्षों का नदी पर तत्काल भले ही असर नहीं दिखाई दे पर उसका प्रतिकूल असर लम्बे समय के बाद सामने आने लगता है। मौजूदा फायदे अस्थायी सिद्ध होने लगते हैं। यह नदी विज्ञान की अधूरी समझ का परिणाम है।

इस परिणाम को आने वाली पीढ़ियाँ भोगती हैं। नदी में साल भर बहने वाले पानी के साथ यही चूक हुई। बाढ़ के दौरान नदी में बहते पानी की विशाल मात्रा ने उसको संचित करने की विधियों को खोजने के लिये प्रोत्साहित किया। तकनीकी लोगों ने पानी इकट्ठा करने के लिये उपयुक्त स्थान खोजे। परिणाम स्वरूप जलाशयों की उपयुक्त साइटें निर्धारित हुईं। नदियों पर खूब सारे बाँधों का बनना सुगम हुआ। पानी के उपयोग के बढ़ते क्षेत्रों ने अधिकाधिक लाभार्थियों को जोड़ा। उनके जुड़ाव को स्वीकार्यता का पैमाना माना गया। धीरे-धीरे बाँधों को बाढ़ सुरक्षा, बिजली पैदा करने जैसे लक्ष्यों से जोड़ा। इसी क्रम में तटबन्धों का निर्माण हुआ। उन्हे बाढ़ सुरक्षा के कारगर हथियार के रूप में अपनाया गया। इस एकाकी दृष्टि-बोध के कारण नदी की कुदरती भूमिका की अनदेखी हुई। नदी के पानी के उपयोग पर बहस तो हुई पर वह बहस उत्पादन और विस्थापन के इर्दगिर्द ही केन्द्रित रही। बाँधों के कारण होने वाली कुदरती हानियों को कम करने की दिशा में काम नहीं हुआ। पिछले कुछ सालों से पश्चिम के उन्नत देशों तक से बाँधों से असहमत लोगों की असहमति सामने आ रही है। भारत में यह असहमति नदी विज्ञान सम्मत बाँधों के निर्माण के इर्दगिर्द केन्द्रित नहीं है।

भारतीय नदियों में हर साल, लगभग 1963 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बहता है। यह पानी, अपने साथ लगभग 205.2 करोड़ टन मलबा बहा कर ले जाता है। मलबे को समुद्र में जमा करना ही नदी की प्राकृतिक भूमिका है। बाँध उस प्राकृतिक भूमिका में रुकावट पैदा करते हैं। इस कारण जलाशयों में हर साल 48.00 करोड़ टन मिट्टी जमा हो रही है। उसके साथ बड़ी मात्रा में आर्गेनिक कचरा भी जमा हो रहा है। कचरा सड़ रहा है। मीथेन गैस पैदा कर रहा है। प्रवाह कम हो रहा है। इकोलॉजी बदल रही है। नदियों में अनुपचारित अपशिष्ट तथा खेती के रसायन मिलकर पानी को जहर बना रहे हैं और बहुआयामी पर्यावरणी समस्याएं पैदा कर रहे हैं। जलचरों का जीना हराम हो रहा है। कुछ नदियाँ तो बरसाती बनकर रह गई हैं। नदी विज्ञान की अनदेखी के कारण पानी का अमरत्व लगभग खत्म हो रहा है। कुछ लोगों को पता है कि नदी विज्ञान के कायदों को काम में लाकर समस्याओं का हल खोजा जा सकता है पर इच्छाशक्ति और निदान अन्तिम पायदान पर है।

गौरतलब है कि बाँध बनने से नदी की कुदरती भूमिका पर ग्रहण लगता है और मूल नदी खत्म हो जाती है। बाँध से छोड़े पानी से फिर एक नई नदी का जन्म होता है। वह नदी पुरानी नदी के मार्ग से बहती है। नदी को ठीक से नहीं समझने वाले लोगों को नदी में हो रहे बदलाव (बदलती जैवविविधता, राईपेरियन जोन और कछार पर पड़ने वाला असर इत्यादि) नजर नहीं आता। मलबे के सुरक्षित निपटान से जुड़ी अकल्पनीय मात्रा तथा रसायन नजर नहीं आते। यदि हमारा समाज नदी की कुदरती जिम्मेदारी अर्थात नदी विज्ञान को ध्यान में रखकर निरापद रणनीति पर काम करता तो कहानी कुछ और हो सकती थी।

नदी कई लोग सहायक नदियों और मुख्य नदी के अन्तरंग सम्बन्ध को ठीक से नहीं समझते हैं। इसलिये वे भूल गए कि मुख्य नदी उसी समय तक जिन्दा रह सकती है जब तक उसे सहायक नदियों का सहयोग प्राप्त है। नदी विज्ञान की अधूरी समझ के कारण हमने नदी कछार में मौजूद भूजल का इस प्रकार दोहन किया है कि सहायक नदियों के स्रोतों का सारा पानी ही खत्म हो गया। स्रोतों के पानी के खत्म होते ही वे सूख गईं। नदी विज्ञान बताता कि मुख्य नदी की सेवा, देखभाल या चिन्ता करने से काम नहीं बन सकता। मुख्य नदी का जीवन तभी संवरेगा जब सभी सहायक नदियों का पूरा तंत्र जिन्दा होगा और अच्छी तरह काम करेगा। अर्थात यदि हम सहायक नदियों और मुख्य नदी के अन्तरंग सम्बन्ध और उसके पीछे के विज्ञान को समझ कर काम करेंगे तो ही नदियाँ जिन्दा बचेंगी। अन्यथा नहीं। यदि इबारत बदलना है तो नदी विज्ञान को ध्यान में रखकर सहायक नदियों पर सबसे पहले काम करना होगा।

नदी का अर्थ, उसमें बहता पानी और उसके संगी साथी - तली में जमा बोल्डर, बजरी और रेत तथा सिल्ट और सम्पूर्ण जीव जगत होता है। नदी विज्ञानी बताते हैं कि बाढ़ के असर को कम करने, भूजल के आदान-प्रदान एवं प्रवाह को अनवरत रखने में नदी के संगी साथियों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस कारण जब नदी से अवैज्ञानिक तरीके से रेत निकाली जाती है तो सन्तुलन बिगड़ जाता है। प्रवाह अनियमित हो जाता है। रेत में रहने वाले जीवों की भूमिका खत्म हो जाती है। यह नदी विज्ञान की समझ की कमी के कारण होता है।

नदी का कुदरती गुण उसके पानी को साफ रखना भी है। इसके लिये कुदरत ने अनेक इन्तजाम किए हैं। पानी में ऐसे जलचरों को उपयुक्त आवास उपलब्ध कराया है जो गन्दगी को समाप्त करने की काबलियत रखते हैं। नदी के प्रवाहमान पानी में भी कुदरती व्यवस्थाएँ मौजूद हैं जो ऑक्सीजन और गुणवत्ता को ठीक रखती हैं। कुदरत ने सदानीर नदियों को भी सूखे दिनों में गंदगी को साफ करने की काबलियत दी है पर जब लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होता है तो कुदरत अपना काम नहीं कर पाती। कारखानों और बसाहटों के कचरे, खेती के हानिकारक रसायनों तथा मलमूत्र की गंदगी ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। यह काम मानव शरीर में दवाई की जगह जहरीले रसायन डालने जैसा है।

पर्यावरण और नदी विज्ञान का मानना है कि नदियों के विज्ञान को समझ कर किया विकास ही निरापद तथा टिकाऊ विकास है। उसी विकास की डगर पर चल कर हर नदी अविरल होगी। निर्मल होगी। कर्तव्यनिष्ट होगी। अपनी कुदरती, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जिम्मेदारियों का पालन करेगी। उसके आधार पर बने जलाशय साईड इफेक्ट से मुक्त होंगे। कुएँ, बावड़ी, नलकूप, तालाब पानी के लिये कभी मोहताज नहीं होंगे। जलचरों का जीवन सुरक्षित होगा। यही नदी विज्ञान के पालन का परिणाम होगा। यही धरती पर बने रहने का सुरक्षित रास्ता है।

 

 

 

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