लेखक
आज बहुत ही अच्छा दिन है क्योंकि आज इतने सारे लोग पानी और वनों पर चर्चा करने के लिये इकट्ठे हुए हैं। सभी का मानना है कि यह चर्चा समय काटने के लिये नहीं है। यह चर्चा अच्छे लोगों को जोड़कर कुछ अच्छा करने के लिये है। इस चर्चा के माध्यम से आज हम जल स्वावलम्बन से जुड़ी कुछ उजली कहानियों की बानगी देखेंगे। ये कहानियाँ उन लोगों की हैं जो आम जन थे। उन्होंने अपने कामों तथा समाज के सहयोग से हाशिये पर बैठे लोगों तथा समाज की उम्मीदें जगाई हैं। उम्मीदों को पूरा किया था। लोगों की कसौटी पर खरे उतरे थे। उनकी कहानियाँ आश्वस्त करती हैं कि सोच बदल कर जल कष्ट को जल आपूर्ति की कारगर संभावना में बदला जा सकता है। इसलिये आज हम कुछ उजली संभावनाओं के क्षितिज भी तलाशेंगे। यह चर्चा मुख्य रूप से समाज को उसकी ताकत तथा बुद्धिबल की याद दिलाने के लिये भी आयोजित की गई है। समाज के बुद्धिबल और क्षमता को याद कराने के लिये सबसे पहले हम, रामायण के उस प्रसंग को याद करें जिसमें सीता का पता लगाने गई सुग्रीव की वानर सेना समुद्र तट पर असहाय होकर बैठी है। उसका लक्ष्य समुद्र पार लंका पहुँचना है। लक्ष्य की 400 योजन की दूरी के सामने बलवान वानर भी लाचारी जता रहे हैं। उनको लगता है, वो बहुत कम दूरी तक ही छलांग लगा सकते हैं। समुद्र पार करना उनके बस की बात नहीं है। तब जामवंत, हनुमान को उनके बुद्धिबल और ताकत की याद दिलाने के लिये कहते हैं -
‘‘कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।।’’
हनुमान को अपना बिसराया बल याद आ जाता है। वे एक ही छलांग में समुद्र लांघ जाते हैं। लंका पहुँचकर सीता का पता लगा लेते हैं। उनसे मिल भी लेते हैं। राम को सीता का पता भी बता देते हैं। इसी प्रकार, महाभारत के युद्ध में अर्जुन उहापोह में हैं। अपने सगे सम्बन्धियों और गुरू से युद्ध करें कि नहीं करें के असमंजस ने उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया था। ऐसी परिस्थितियों में श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म की शिक्षा दी और कर्तव्य की याद दिलाई। अर्जुन उठ खड़े हुए। युद्ध में विजयी हुए। वही हालत आज हमारे समाज की है। पानी और जंगल के मामले में शायद हम भी जामवंतों, हनुमान तथा कृष्ण जैसे प्रेरकों को खोजना चाहते हैं। आइए मिलकर आधुनिक युग के जामवंतों, हनुमानों तथा कृष्ण को अपने आस-पास खोजें। आवश्यकता पड़े तो उनका मार्गदर्शन प्राप्त करें। अनुभव, ज्ञान और सीख साझा करें। अपनी क्षमता तथा बुद्धिबल का उपयोग करें।
हमारे प्रेरक - उनका योगदान और संदेश
इस उपशीर्ष के अन्तर्गत हम अपने प्रेरकों के बारे में जानेंगे तथा उन उजली संभावनाओं के क्षितिज तलाशेंगे। उन कहानियों की बानगी देखेंगे जो हाशिये पर बैठे लोगों तथा समाज की उम्मीद जगाती है और आश्वस्त करती हैं कि सोच बदल कर जल कष्ट को जल आपूर्ति की कारगर संभावना में बदला जा सकता है। अगले कुछ पन्नों में देश के अलग-अलग भागों में समाज सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य मानने वाले सामान्य लोगों की उपलब्धियों की कहानी कही गई है जिन्होंने समाज के देशज ज्ञान और मार्गदर्शन से वे परिणाम हासिल किये हैं जो गर्व और ईर्ष्या की मिलीजुली मिसाल हैं। पानी के प्रेरकों की सूची में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं। वे हैं अनिल अग्रवाल, अनुपम मिश्र, अन्ना हजारे, राजेन्द्र सिंह, पी.एस. मिश्रा, पोपटराव पवार, बलबीर सिंह सिंचेवाला, चनवासप्पा शिवप्पा कोम्बाली तथा अनेक गुमनाम लोग। इन सामान्य लोगों ने समाज के साथ मिलकर पानी की नई इबारत लिखी है। जंगल के मामले में आधुनिक जामवंत और हनुमान हैं - सुन्दरलाल बहुगुणा, चन्डी प्रसाद भट्ट और अनेक अनाम व्यक्ति। उन्होंने जंगल बचाने और जैवविविधता (बायोडायवर्सिटी) को बहाल करने के लिये अदभुत काम किए हैं। यह चर्चा आपको उनके प्रयासों से परिचित कराने और अपनी हौसला अफजाई में मददगार सिद्ध होगी।
गांधीजी का ग्राम स्वराज
सेन्टर फार सांइस एन्ड इन्वायर्न्मेंट, नई दिल्ली के अनिल अग्रवाल द्वारा प्रकाशित किताब हरे भरे ग्रामों की ओर में राजस्थान के उदयपुर के एक छोटे से ग्राम सीड का उल्लेख है। यह गाँव सन 1971 में राजस्थान के ग्रामदान कानून के अन्तर्गत पंजीकृत हुआ था। यह कानून देश का सबसे पहला कानून है जो गाँव की ग्राम सभा को कानूनी और काम करने का अधिकार देता है। यह कानून विनोवा भावे के भूदान आन्दोलन से प्रेरित होकर बना था। इसके अन्तर्गत ग्राम को अधिकार है कि वह खुद को ग्रामदान गाँव घोषित कर दे। मान्यता प्राप्त होते ही गाँव की ग्रामसभा को अपने इलाके के भीतर के प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्ध करने, न्याय करने, दंड देने और मुकदमा चलाने का अधिकार मिल जाता है। सीड ग्रामदान गाँव है। इस कारण उसकी ग्राम सभा का, गाँव की सीमा में आने वाली पूरी जमीन पर नियंत्रण है। इसमें सरकारी जमीन और सरकारी धन से बनी सभी सार्वजनिक संरचनायें भी सम्मिलित हैं। गाँव के सभी वयस्क इसके सदस्य हैं। सीड की ग्रामसभा ने सार्वजनिक भूमि के संरक्षण के लिये स्पष्ट नियम बना रखे हैं। पोषक तत्वों को खो चुकी सत्वहीन अरावली में यह भूमि, हरियाली का जीता जागता नखलिस्तान है। अभूतपूर्व सूखे में भी इसके पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव देखने में नहीं आता।
सीड़ ग्राम का अनुभव आँखें खोलने वाला है। वह अनुभव स्पष्ट करता है कि गांधीजी की ग्राम गणराज्य की पर्यावरण आधारित अवधारणा, विलक्षण और अनुकरणीय है। वह अवधारणा किसी भी गाँव की अर्थव्यवस्था को नया जीवन दे सकती है। सीड गाँव का संदेश है कि सार्वजनिक संसाधनों का विकास और सुधार करने के लिये ग्राम में सक्रिय सामुदायिक मंच आवश्यक है। सामुदायिक मंच पर अच्छे लोग आवश्यक हैं। सामुदायिक मंच का अपने ग्राम के पर्यावरण, उसके प्रबन्ध और संसाधनों की हिस्सेदारी तय करने पर पूरा नियंत्रण होगा तभी सार्वजनिक संसाधनों का विकास और सुधार संभव है। गांधीजी की ग्राम गणतंत्र की अवधारणा विकल्पहीन है। उसका विकल्प नहीं है। सीड गाँव में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्ध की बागडोर सरकार के बजाय समाज के हाथ में है। इस गाँव की कहानी बताती है कि समस्या का हल वही समाज बेहतर तरीके से कर सकता है जिसके हित, फायदे नुकसान, समस्या के हल से जुड़े हैं और उसे काम करने की पूरी-पूरी आजादी है।
अनुपम मिश्र - तालाबों के पुरोधा
गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अनुपम मिश्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। तालाबों और पानी पर उनकी दो किताबें हैं - ‘आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूँदें।’ उनकी जल साधना यात्रा होशंगाबाद जिले में मिट्टी बचाओ आन्दोलन से प्रारंभ हुई थी। वे तत्कालीन उत्तरप्रदेश के चिपको आन्दोलन से भी जुड़े थे। अनुपम मिश्र ने परम्परागत तालाबों के बारे में अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब में लिखा था कि -‘‘सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे इकाई थी बनवाने वालों की तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हजार बनती थी।’’
‘‘जहाँ सदियों से तालाब बनते रहे हैं, हजारों की संख्या में बने हैं - वहाँ तालाब बनाने का पूरा विवरण न होना शुरू में अटपटा लग सकता है, पर यह सहज स्थिति है। तालाब कैसे बनाएँ के बदले चारों तरफ तालाब ऐसे बनाएँ का चलन था।’’
अनुपम मिश्र की नजर में परम्परागत ज्ञान को समाज की धरोहर बनाने का यह भारतीय तरीका था। यह तरीका लोगों को शिक्षित करता था। उनके कौशल का समग्र विकास करता था। उनका आत्मविश्वास जगाता था। उन्हें काबिल बनाता था। यही ज्ञान तथा काबलियत, समाज को पूरी जिम्मेदारी से भागीदारी का अवसर देती थी।
अनुपम की किताबों से प्रेरणा लेकर हजारों लोगों ने बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात में अनेक नये तालाब बनवाए। पुराने बदहाल तालाबों को ठीक किया। उन्होंने जीवन भर मानवता और प्रकृति के बीच गहरे रिश्ते को बनाने, भारत के परम्परागत जल प्रबन्ध और स्थानीय हुनरमंद लोगों को सामने लाने का काम किया। उनका मानना था कि पानी का काम सरकारी तंत्र तथा सरकारी धन से नहीं अपितु समाज की सक्रिय भागीदारी से ही हो सकता है। वे नदियों की भी बहुत चिन्ता करते थे। वे नदियों की आजादी के पक्षधर थे। उनका मानना था कि गन्दी नदियों को पुनः नदी बनाने के लिये उनका पर्यावरणी प्रवाह लौटाना होगा। वही एकमात्र रास्ता है।
अन्ना हजारे का करिश्मा
अन्ना हजारे का जन्म सन 1938 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के भिंगर ग्राम में हुआ था। सामान्य शिक्षा के बाद सन 1962 में वे फौज में भरती हुये और उन्होंने सन 1975 तक फौज में नौकरी की। सन 1975 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के बाद, वे सूखा प्रभावित गाँव (रालेगांव सिद्धि) आ गये। महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित, अन्ना हजारे (मूल नाम किसन बाबूराव हजारे) ने रालेगांव सिद्धि में आकर समाज को संगठित किया और पानी की कमी, सूखा, गरीबी, कुरीतियों और पलायन के विरुद्ध काम करने को अपने जीवन का मिशन बनाया। उनके काम के कारण, रालेगांव का चट्टानी इलाका, जहाँ लगभग 400 मिलीमीटर पानी बरसता है, जलग्रहण विकास के आत्मनिर्भर टिकाऊ मॉडल के रुप में सारे देश में स्थापित हुआ। हजारों लोगों ने उससे प्रेरणा ली। इस काम ने उन्हें देश विदेश में सम्मान दिलाया। उनका काम लाखों लोगों के लिये प्रेरणास्रोत है। इतने साल बीतने के बाद भी रालेगांव में उनके काम की चमक फीकी नहीं पड़ी है। आज भी रालेगांव के लोग पानी और मिट्टी के कामों व्यवस्था संभाल रहे हैं। आज भी रालेगांव का ग्रामीण समाज पानी के मामले में समृद्ध है। उनके गाँव में खेती, फायदे का सौदा है। रालेगांव की कहानी, जल स्वराज हासिल करने वाले समाज की अदभुत कहानी है। अन्ना हजारे को भारत सरकार का पद्म विभूषण तथा World Bank's 2008 Jit Gill Memorial Award for outstanding public service मिल चुका है।
राजेन्द्र सिंह - आधुनिक भागीरथ
जल पुरुष के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र सिंह का जन्म 6 अगस्त 1959 को मेरठ जिले के डोला ग्राम में हुआ था। वे पेशे से आयुर्वेदाचार्य हैं। उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्राप्त की है। उन्होंने सन 1984 में तरुण भारत संघ (स्वयं सेवी संस्था) की स्थापना की। राजस्थान के सूखा पीड़ित अलवर जिले के भीकमपुरा ग्राम को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। पानी की परम्परागत जलप्रणालियों को समाज के साथ बैठ कर जाना, समझाा और हजारों की संख्या में जोहड़, एनीकट और छोटे-छोटे बाँध बनवाये। अरवारी सहित सात नदियों को जिन्दा किया, समाज नियंत्रित जलप्रबन्ध और अरवरी जल संसद के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पानी के उपयोग की स्वावलम्बी प्रजातांत्रिक प्रणाली विकसित की। जल संरक्षण के क्षेत्र में अनुकरणीय काम करने के कारण उन्हें वर्ष 2001 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है।
सन 1984 में 25 साल की आयु में वे, स्थानीय बुजुर्गों की सलाह पर समाज को संगठित करने तथा जोहड़ों को बनाने एवं जल संरचनाओं को गहरा करने के काम में जुट गये। समाज के सहयोग से उन्होंने अल्प वर्षा वाले इलाके में पानी के संकट से मुक्ति का रास्ता दिखाया। ग्रामीणों को संगठित कर परम्परागत जलप्रबन्ध की मदद से सामुदायिक सम्पत्तियों के संरक्षण एवं प्रबन्धन की नई दृष्टि विकसित की।
राजस्थान की सात सूखी नदियों के जीवन्त होने की कहानी
समाज के सामूहिक प्रयासों से अलवर और करौली जिलों में रूपारेल, अरवरी, जहाजवाली, सरसा, भगाणी - तिलदेह, महेश्वरा और साबी (कुल सात) नदी जिन्दा हो चुकी हैं। नदियों को जिन्दा करने के प्रयास में सबसे अधिक ध्यान प्रवाह बढ़ाने पर दिया है। पुनर्जीवित प्रवाह को फिर सूखने से बचाए रखने के लिये भूजल और नदी से सीधे पानी उठाने में संयम बरता गया है। जल उपयोग के कायदे-कानूनों को समाज ने खुद तय किया है। मैंने इन सभी नदियों को अविरल बहते देखा है। उन सभी का कछार हरा-भरा है। आस-पास के वन सम्पन्न हैं। जैव विविधता सम्पन्न है। उस पर कोई संकट नहीं है।
महेश्वरा नदी का पुनर्जन्म 17 सालों के प्रयास से सन 2008 में हुआ है। महेश्वरा नदी के पुनर्जन्म की खुशी में दिनांक 6 एवं 7 सितम्बर 2008 को करोली जिले के खिजुरा गाँव में जल कुंभ मनाया गया। इस कार्यक्रम में 80 ग्राम सभाओं ने भाग लिया था। यह गाँव केलादेवी से 18 किलोमीटर दूर, सपोटरा की डांग में बसा गूजर बहुल इलाका है। यहाँ से लगभग 8 किलोमीटर दूर से चम्बल बहती है। गर्मी में इस इलाके का तापमान 46 डिग्री सेन्टीग्रेड तक और सर्दी में तापमान का 2 डिग्री तक पहुँचना आम बात है। बरसात का मौसम 15 जून से सितम्बर की शुरूआत तक कुल बरसात 550 से 650 मिलीमीटर होती है। बरसात अनियमित है। मावठा नहीं गिरता। इस इलाके में ऊंट, बकरी, गाय, भैंस, हिरन, बारहसिंघा, सूअर, लकड़बग्घा और नीलगाय बहुतायत से पाये जाते हैं।
गाँव के लोग बताते हैं कि महेश्वरा नदी बरसों से सूखी थी। लगभग 17 सालों के प्रयास के बाद अब नदी बारहमासी हो गई है। इन 17 सालों में 80 गाँवों के लोगों ने इस छोटी सी नदी के आस-पास 387 जल संरचनायें बनाई हैं। ये संरचनायें मुख्यतः पोखर, जोहड़, अनीकट हैं जो कड़े पत्थर (सेन्ड स्टोन) एवं कहीं-कहीं शेल (सेन्ड स्टोन की अपेक्षा कम कड़ा पत्थर) की परत पर बने हैं। उल्लेखनीय है कि इलाके में मिट्टी की परत का लगभग अभाव है। यह इलाका रणथम्भोर अभ्यारण्य का हिस्सा है। वृक्षों एवं हरियाली के नाम पर देशी बबूल और कहीं-कहीं यदाकदा घास देखी जाती थी।
समाज के प्रयासों से हरियाली लौट आई है। महेश्वरा नदी सदानीरा हो गई है। स्थानीय परिस्थितियों को संज्ञान में रख समझदारी से काम में लिया परम्परागत विज्ञान काम आ गया है। तालमेल बैठ गया। खेती सुधर गई। खरीफ में बासमती चावल और बाजरा तथा रबी में गेहूँ की फसल ली जाने लगी। महेश्वरा नदी के जिन्दा होने से -
- नदी में जलचरों तथा पानी में पैदा होने वाली वनस्पतियों के सुखी जीवन के लिये आधारभूत न्यूनतम जल प्रवाह सुनिश्चित हुआ है।
- गरीब लोगों की रोजी-रोटी सुनिश्चित हुई है।
- नदी किनारे पर रहने वाले लोगों की सिंचाई जरूरतें पूरी हुई हैं।
- नदी का पानी प्रदूषण मुक्त है। उसकी गुणवत्ता जीवनदायनी है।
- जल प्रवाह में सिल्ट की मात्रा न्यूनतम स्तर तक आ गई है।
- पलायन घट गया है।
समाज का अभिनव प्रजातांत्रिक प्रयोग - अरवरी जल संसद
समाज के प्रयासों से राजस्थान की जिन्दा हुई नदियों को भविष्य में सूखने से बचाने के लिये समाज सम्मत प्रजातांत्रिक रणनीति आवश्यक थी। उस प्रजातांत्रिक रणनीति को तय करने के लिये अलवर जिले के एक छोटे से गाँव ‘देव का देवरा’ में 10 जून, 2000 को अरवरी नदी की संसद का पहला सत्र लगाया गया। इस बैठक में अरवरी नदी के किनारे बसे 70 गाँवों के लोग सम्मिलित हुये। इन लोगों ने सूखे की स्थिति पर अपने नजरिये से गंभीर विचार विमर्श किया। उन्हें लगा कि पानी और हरियाली बचाने का काम नौकरशाही के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने इस काम का जिम्मा अपने हाथ में लेने का फैसला लिया। उन्होंने यह भी फैसला लिया कि आगे से जंगल से केवल सूखी लकड़ी ही बीन कर लाई जायेगी। कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाने वाले पर जुर्माना लगाया जायेगा। जंगल कटते देखने वाले और उसकी शिकायत नहीं करने वालों पर भी दंड की राशि तय की गई। जुर्माना नहीं देने वालों पर सबसे अधिक दंड तय किया गया। अब, अरवरी नदी के समाज के अभिनव प्रजातांत्रिक प्रयोग की कहानी थोड़ा विस्तार से।
अरवरी जल संसद की कहानी, एक छोटी सी नदी के सूखने और समाज के प्रयासों से उसके जिन्दा होने की कहानी है। नदी के जिन्दा होने का कमाल वैज्ञानिक नहीं अपितु समाज की परम्परागत समझ तथा देशज ज्ञान की बदौलत हुआ है। पहले, हम इस नदी के सूखने के कारणों को संक्षेप में समझ लें फिर समाज के उन देशज प्रयासों की बात करेंगे जो एक सूखी नदी को जिन्दा करने के लिये जिम्मेदार हैं। कहानी इस प्रकार है-
अठाहरवीं सदी में अरवरी नदी राजस्थान के अलवर जिले में प्रतापगढ़ नाले के नाम से जानी जाती थी। उस कालखंड में वह सदानीरा थी। उसके केचमेंट में घने जंगल थे। लोग पशुपालन करते थे। पानी की मांग बहुत कम थी। धीरे-धीरे समय बदला, परिवार बढ़े और बढ़ती खेती ने जंगल की जमीन को निगलना शुरू किया। इस बदलाव ने पानी की खपत को तेजी से बढ़ाया। बढ़ती खपत ने जमीन के नीचे के पानी को लक्ष्मण रेखा पार करने के लिये मजबूर किया।
अरवरी नदी के सूखने की कहानी झिरी गाँव से शुरू होती है। इस गाँव में सन 1960 के आस-पास संगमरमर की खुदाई शुरू हुई। इसके लिये खदानों में जमा पानी को निकाला गया। लगातार चलने वाली इस प्रक्रिया ने पानी की कमी को बढ़ाया। सन 1960 के बाद के सालों में अरवरी नदी सूख गई। धीरे-धीरे जलसंकट आस-पास के गाँवों में फैल गया। जल संकट के कारण, पशुओं को आवारा छोड़ने की परिस्थितियाँ बनने लगीं। नौजवान रोजी-रोटी के लिये जयपुर, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली की ओर पलायन करने लगे। बचे खुचे लोगों ने विधान सभा के सामने धरना दिया। मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। समस्या का निदान नहीं मिला। समाज की आस टूटी और निराशा हाथ आई। इसी समय तरुण भारत संघ ने इस इलाके को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने उनसे, सब काम छोड़, पानी का काम करने को कहा। जोहड़ बनाने का काम शुरू हुआ। एक के बाद एक जोहड़ बने। ये सब जोहड़ छोटे-छोटे थे। नदी से दूर, पहाड़ियों की तलहटी से प्रारंभ किए गये थे। पहली ही बरसात में वे लबालब भरे। अरवरी नदी सूखी रही पर कुओं में पानी लौटने लगा। लौटते पानी ने लोगों की आस भी लौटाई। सफलता ने लोगों को रास्ता दिखाया। उन्हें एकजुट किया। उनका आत्मबल बढ़ा। सन 1990 में अरवरी नदी में पहली बार, अक्टूबर माह तक पानी बहता दिखा।
अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक अति पिछड़े इलाके में कम पढ़े-लिखे किन्तु संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। यह कहानी पानी के उपयोग में आत्मसंयम का संदेश देती है। यह पानी, जंगल एवं जैवविविधता के पुनर्वास, निरापद खेती और सुनिश्चित आजीविका की विलक्षण कहानी है। इस कहानी की पूरी पटकथा ग्रामीणों ने लिखी है।इस घटना से लोगों का भरोसा मजबूत हुआ। हौसलों को ताकत मिली। काम और आगे बढ़ा। सन 1995 आते-आते पूरी अरवरी नदी जिन्दा हो गई। अब अरवरी सदानीरा है। लोगों के मन में सवाल कौंधने लगे - अरवरी नदी को आगे भी सदानीरा कैसे बनाये रखा जाये? उन्हें लग रहा था कि यदि सही इन्तजाम नहीं किया तो नदी फिर सूख जायेगी। गाँव वालों ने अरवरी नदी के पानी को साफ सुथरा बनाये रखने तथा जलचरों को बचाने और केचमेंट के जंगल को सुरक्षित रखने, स्थानीय समाज की भूमिका और समाज के अधिकारों के बारे में सोच विचार प्रारंभ किया। उन्होंने उपरोक्त मुद्दे पर देश के विद्वानों और पढ़े लिखे लोगों की राय जानने के लिये अरवरी नदी के किनारे बसे हमीरपुर गाँव में 19 दिसम्बर, 1998 को जन सुनवाई कराई। जनसुनवाई में विश्व जल आयोग के तत्कालीन आयुक्त अनिल अग्रवाल, राजस्थान के पूर्व मुख्य सचिव एम. एल. मेहता, हिमाचल के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गुलाब गुप्ता, राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति टी. के. उन्नीकृष्णन, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एस. रिजवी जैसे अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया। जन सुनवाई में मुद्दई, गवाह, वकील, जज, विचारक, नियंता सब मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता जस्टिस गुलाब गुप्ता ने की। गाँव वालों ने अपनी बेवाक राय जाहिर की और बाहर से आये लोगों को ध्यान से सुना।
जन सुनवाई के दौरान राय बनी कि ........... कानून और सरकार कुछ भी कहें, पर मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। अतः संसाधनों पर पहला हक बचाने वाले का है। पहले वही उपभोग करे, उसी का मालिकाना हक हो। 26 जनवरी 1999 को प्रसिद्ध गाँधीवादी सर्वोदयी नेता सिद्धराज ढड्ढा की अध्यक्षता में हमीरपुर गाँव में संकल्प ग्रहण समारोह आयोजित हुआ और 70 गाँवों की अरवरी संसद अस्तित्व में आई। अरवरी संसद, हकीकत में एक जिन्दा नदी की जीवन्त संसद है। लोगों ने अपनी संसद के निम्नलिखित उद्देश्य तय किये -
- प्राकृतिक संसाधनों का संवर्धन करना।
- समाज की सहजता को तोड़े बिना अन्याय का प्रतिकार करना।
- समाज में स्वाभिमान, अनुशासन, निर्भयता, रचनात्मकता तथा दायित्वपूर्ण व्यवहार के संस्कारों को मजबूत करना।
- स्वावलम्बी समाज की रचना के लिये विचारणीय बिन्दुओं को लोगों के बीच ले जाना। उन पर कार्यवाही करना।
- निर्णय प्रक्रिया में समाज के अन्तिम व्यक्ति की भी भागीदारी सुनिश्चित करना।
- ग्राम सभा की दायित्वपूर्ति में संसद सहयोगी की भूमिका अदा करेगी, लेकिन जहाँ ग्राम सभा, तमाम प्रयासों के बावजूद निष्क्रिय बनी रहेगी वहाँ संसद स्वयं पहल करेगी।
अरवरी संसद के दायित्व निम्नानुसार हैं -
- संसद में अपनी ग्राम सभा का नियमित तथा सक्रिय प्रतिनिधित्व करना
- ग्राम सभा तथा संसद ......... दोनों के कार्यों, निर्णयों तथा प्रगति से, एक दूसरे को अवगत कराना तथा उनका लागू होना सुनिश्चित करना
- ग्राम सभा के कार्यों एवं दिक्कतों के समाधान में दूसरी ग्राम सभाओं से सहयोग लेना एवं सहयोग देना।
अरवरी नदी का सांसद कौन होगा -
- गाँव की ग्राम सभा द्वारा अरवरी संसद में प्रतिनिधित्व के लिये चुना गया व्यक्ति सांसद होगा। यह ग्राम सभा, सरकारी चुनाव वाली ग्राम पंचायत से पूरी तरह भिन्न संगठन है। यह ग्राम सभा, प्रकृति और समाज के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये बनाई साझी व्यवस्था है।
- अरवरी सांसद का चुनाव सर्वसम्मति से हो। अपरिहार्य स्थिति में भी चयनित प्रत्याशी को ग्राम सभा के कम से कम 50 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त होना चाहिये।
- सांसद की निष्क्रियता अथवा अन्य कारणों से असन्तुष्ट होने पर चाहे तो ग्राम सभा उसे दायित्वमुक्त कर सकती है। उसकी जगह ग्राम सभा जो भी नया सांसद चुनकर भेजेगी, संसद को वह स्वीकार्य होगा; लेकिन यदि संसद ग्राम सभा को पुनर्विचार के लिये कहेगी, तो ग्राम सभा को पुनर्विचार करना होगा।
अरवरी जल संसद 1999 के गणतंत्र दिवस को अस्तित्व में आई। उसकी नियमित बैठकें होती हैं, फैसले होते हैं और उनका क्रियान्वयन होता है। लोगों के अजेन्डे पर निम्न विषय हैं-
लोगों ने नदी से सिंचाई करने के लिये कड़े नियम बनाये हैं। नियम बनाते समय स्थानीय परिस्थितियों एवं नदी घाटी के भूजल विज्ञान को अच्छी तरह समझा गया है। इस कारण लोगों को समझ में आया कि नदी के चट्टानी क्षेत्र में स्थित होने के कारण, उसके एक्वीफर उथले तथा भूजल रीचार्ज क्षेत्र छोटा है इसलिये थोड़ा सा रीचार्ज होते ही उसका जलभंडार भर कर ऊपर बहने लगता है। इसका अर्थ है नदी जितने जल्दी बहना शुरू होती है उतनी ही जल्दी सूखती भी है। इसलिये तय हुआ कि होली के बाद नदी से पानी उठा कर सिंचाई नहीं की जायेगी। होली तक सरसों और चने की खेती करने वाले को नदी से पानी उठाने की अनुमति होगी। पशुओं के पीने के पानी और नये पौधों की सिंचाई के लिये कोई बन्दिश नहीं होगी।
लोगों ने कुओं से सिंचाई के नियम बनाये। उन्होंने अनुभव की रोशनी में स्थानीय एक्वीफर की स्थिति और उसकी क्षमता को समझा। चूँकि यह पूरा इलाका भूजल की छोटी-छोटी धाराओं पर टिका है इसलिये यहाँ ज्यादा गहरे कुएँ या नलकूप बनाना ठीक नहीं है। उन्होंने अरवरी नदी के साल भर बहने की प्रक्रिया के विश्लेषण के आधार पर कानून बनाये और तय किया कि नदी के दो से तीन प्रतिशत पानी का ही उपयोग किया जाये। उन्होंने पानी की कम खपत वाली फसलों को पैदा करने पर जोर दिया। रासायनिक खाद और जहरीली दवाओं का कम से कम उपयोग करने का फैसला लिया। गन्ना, मिर्च और चावल की फसल नहीं लेने देने का इन्तजाम किया। उपर्युक्त फसलों को जबरन लेने वाले लोगों को जोहड़, कुएँ या नदी से पानी नहीं लेने दिया। पानी की बर्बादी रोकी और गर्मी की फसलें नहीं लीं। उन्होंने अधिक से अधिक पशु चारा उगाया। चारे की सिंचाई को सुनिश्चित कराया।
लोगों ने पानी की बिक्री पर रोक लगाई। तय किया कि कोई भी व्यक्ति नदी पर इंजन लगाकर पानी की बिक्री नहीं करेगा। पानी का उपयोग व्यावसायिक काम में नहीं होगा। गहरी बोरिंग करने और उसके पानी के बाहर ले जाने पर रोक रहेगी। पानी की बिक्री करने वाले उद्योग नहीं लगने देंगे। गरीब आदमी को पानी की पूर्ति नि:शुल्क की जायेगी। गरीब को केवल डीजल या बिजली और इंजन की घिसाई का दाम देना होगा। पानी की कीमत लेना दंडनीय अपराध होगा।
संसद ने उद्योगपतियों और भूमि उपयोग बदलने वाले बाहरी व्यक्तियों को जमीन बेचने पर रोक लगाई। संसद को लगता है कि ऐसा करने से बदहाली, प्रदूषण, बीमारी और बिखराव होगा। जमीन की बिक्री गाँव के लोगों के बीच, आपस में ही की जायेगी और जमीन की बिक्री का रुझान रोकने का भरसक प्रयास किया जायेगा।
अरवरी संसद के निर्णय के अनुसार अधिक जल दोहन करने वालों का पता लगाया जायेगा और उन्हें नियंत्रित किया जायेगा। पानी का अधिक उपयोग करने वाले कल-कारखाने नहीं लगने देंगे। अतिदोहन को शुरू होने के पहले रोकेंगे और दोहन पर हर समय निगाह रखेंगे।
अरवरी संसद के निर्णय के अनुसार जो व्यक्ति धरती को पानी देगा, वही धरती के नीचे के पानी का उपयोग कर सकेगा। राजस्थान की गर्म जलवायु में पानी का बहुत अधिक वाष्पीकरण होता है इसलिये पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिये उसे बरसात के दिनों में जमीन के नीचे उतारना होगा। स्थानीय एक्यूफर की क्षमता और व्यक्ति की पानी की जरूरत में तालमेल रखने वाले सिद्धान्त का पालन किया जायेगा। जो जल पुनर्भरण का काम करेगा उसे पुनर्भरण नहीं करने वाले की तुलना में अधिक पानी लेने का अधिकार होगा। इस अधिकार की सीमा पुनर्भरण की 15 प्रतिशत होगा। गाँव के लोग और संसद मिलकर एक्वीफर की क्षमता का अनुमान लगाने और क्षमता के अनुसार पुनर्भरण के काम को अंजाम देंगे।
अरवरी संसद ने नदी घाटी के जीव-जंतुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये संसद ने अरवरी नदी क्षेत्र को ‘शिकार वर्जित क्षेत्र’ घोषित किया है। संसद ने हर गाँव वाले को जागरूक और प्रशिक्षित करने, शिकार प्रभावित इलाके की पहचान करने और जंगल तथा जीव बचाओं अभियान चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है।
अरवरी संसद के सांसदों ने बाजार मुक्त फसल उत्पादन के नियम तथा स्थानीय जरूरत पूरा करने वाली व्यवस्था पर विचार कर फैसला लिया कि क्यों न हम अपनी आवश्यकता की चीजें खुद पैदा करें, अपना बाजार खुद विकसित करें और आपस में लेन-देन करें। ऐसा करने से गाँव का पैसा गाँव में रहेगा और खुशहाली आयेगी। गाँव वालों का मानना है कि किसान का सबसे ज्यादा शोषण बाजार ही कर रहा है। इस कारण किसान को अपनी मेहनत का सौवां हिस्सा भी नहीं मिल पाता। किसान की सारी आमदनी बीज, दवाई, खाद, फसल बुआई तथा कटाई में खर्च हो जाती है। वे मानते हैं कि नये बीज शुरू में तो अधिक पैदावार देते दिखते हैं पर बाद में जमीन की उर्वरा शक्ति कम कर देते हैं। खेती खराब होने लगती है।
अरवरी संसद ने नदी क्षेत्र में हरियाली और पेड़ बचाने का फैसला किया है। इस काम को पूरा करने के लिये उसने कायदे कानून बनाये हैं। उन्होंने गाँवों की साझा जमीनों और पहाड़ों को हरा भरा रखने के लिये बाहरी मवेशियों की चराई पर बन्दिश लगाई है। उन्होंने हरे वृक्ष काटने पर पाबन्दी, दिवाली बाद पहाड़ों की घास की कटाई करने, गाँव-गाँव में गोचर विकसित करने, नंगे पहाड़ों पर बीजों का छिड़काव करने, लकड़ी चोरों पर नियंत्रण करने, स्थानीय धराड़ी परम्परा को फिर से बहाल करने, क्षेत्र में ऊंट, बकरी और भेड़ों की संख्या कम करने तथा नई खदानों और प्रदूषणकारी उद्योगों को रोकने का फैसला लिया है। उनका मानना है कि इन कदमों से उनके इलाके की हरियाली बढ़ेगी और नदी बारहमासी बनी रहेगी। उल्लेखनीय है कि अरवरी के ग्रामीण तथा कम पढ़े-लिखे समाज की उक्त देशज समझ किसी भी वैज्ञानिक समझ की तुलना में उन्नीस नहीं अपितु इक्कीस है।
अरवरी नदी के सांसदों ने नियम बनाया कि क्षेत्र में खदानें बन्द कराने का प्रयास किया जायेगा। खदान मालिकों से बातचीत कर समस्या का हल खोजा जायेगा और खदानों द्वारा बर्बाद किए इलाकों को दुरुस्त किया जायेगा।
अरवरी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में प्रकृति के संरक्षण की बहुत अच्छी एवं जीवन्त परम्परायें यथा धराड़ी, थाई, देवबनी, देवअरण्य, गोचर तथा मछली और चींटियों की सुरक्षा है। अरवरी संसद ने उन परम्पराओं को पुनः जीवित करने का फैसला लिया।
सांसदों ने जलस्रोतों के उचित प्रबन्ध में संसद और ग्राम सभा की भूमिका तथा उसके उत्तरदायित्वों के निर्धारण के लिये स्थायी व्यवस्था कायम की है। उन्होंने जागरूकता और समझदारी की मदद से विकेन्द्रित, टिकाऊ और स्वावलम्बी व्यवस्था कायम की है। नियम और कायदे बनाये हैं और उन्हे लागू किया।
अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक अति पिछड़े इलाके में कम पढ़े-लिखे किन्तु संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। यह कहानी पानी के उपयोग में आत्मसंयम का संदेश देती है। यह पानी, जंगल एवं जैवविविधता के पुनर्वास, निरापद खेती और सुनिश्चित आजीविका की विलक्षण कहानी है। इस कहानी की पूरी पटकथा ग्रामीणों ने लिखी है। तकनीकी और जनतांत्रिक संगठनों के लिये इससे सीखने और करने के लिये बहुत कुछ है।
किसान बासप्पा की एकला चलो कहानी
प्रेरणा देती कहानियों की कड़ी में कर्नाटक के साधारण किसान बासप्पा की कहानी बहुत दिलचस्प है। पुणे बंगलुरु राजमार्ग पर हवेरी जिले के ककोला गाँव में इस साधारण किसान ने कुओं के रीचार्ज का देशज तरीका अपना कर 500 से 600 फुट से अधिक गहरे उतरे भूजल के स्तर को 100 फुट पर ला दिया है। इस गाँव के 45 साल के चनवासप्पा शिवप्पा कोम्बाली नाम के साधारण किसान के प्रयासों से सन 1980 से जल संकट भोग रहे गाँव के 116 कुएँ फिर जिन्दा हो गये, किसानों का हौसला लौट आया और जिन्दा हुये कुओं से फिर सिंचाई शुरू हो गई है। जीवन एक बार फिर पटरी पर आ गया है। लोग बरसात की बूँदों की हिफाजत करते हैं, उन्हें सहेजते हैं, इसलिये जल कष्ट की चिन्ता नहीं करते।
बासप्पा की कहानी दिलचस्प है। उसने सात-साल पहले कालाघटगी तालुक के सोरासेट्अीकोप्पा गाँव में आयोजित ग्रीन फ़ेस्टिवल में भाग लिया था। इस कार्यक्रम के दौरान उसे रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जानकारी मिली। इस कार्यक्रम के आयोजकों ने फार्म पौन्ड की श्रृंखला को आपस में जोड़ने की वकालत की थी। बासप्पा ने इस विचार को काकोला की हकीकत के मद्देनजर अपने देशज अन्दाज में देखा। फार्म पौन्ड को आपस में जोड़ने की फिलॉसफी को अपने नजरिये से देखा। बासप्पा के सोच ने उसे नई दिशा दी। उसने गाँव के सारे कुओं को नहरों से जोड़ने के बारे में निर्णय लिया। उसकी नजर में एक कुएँ की पानी सहेजने की क्षमता दस फार्म पौंड के बराबर थी अर्थात उसकी नजर में बरसात के पानी को सहेजने और रीचार्ज करने के लिये कुएँ अधिक सक्षम थे। उसने सन 2002 में काकोला गाँव के सभी कुओं को नहर के माध्यम से इस प्रकार जोड़ा कि बरसात का सारा पानी उनमें एकत्रित हो जाये। उस इलाके की धारवार युग की चट्टानों में मौजूद प्यासे एक्वीफरों ने पानी सहेजने के लिये अपनी झोली फैला दी। बरसात से होने वाली पानी की आपूर्ति के कारण पाताल पहुँचा भूजलस्तर ऊपर उठने लगा। भूजल दोहन और प्राकृतिक आपूर्ति का समीकरण, आपूर्ति के पक्ष में हो गया। समीकरण के बदलने के कारण साल-दर-साल पाताली पानी का स्तर ऊपर उठा और हालात सुधर गये।
गौरतलब है कि कुछ साल पहले तक काकोला गाँव में पानी की उपलब्धता काफी अच्छी थी। लोग पान की परम्परागत खेती करते थे। सन 1980 के शुरूआती दिनों में कुछ कम्पनियों ने, गाँव के लोगों को पान के बीजों के उत्पादन के लिये आकर्षक कीमतें देने का प्रस्ताव किया। बेहतर कीमतों के लालच में किसानों ने पान के बीजों की पैदावार लेना शुरू किया। शुरू-शुरू में किसानों को अच्छी कीमतें मिली पर पानी की खपत बढ़ने के कारण, यह दौर धीरे-धीरे खत्म होने लगा। कुएँ सूखने लगे। किसानों ने नलकूपों का उपयोग शुरू किया पर नलकूपों ने भी लम्बे समय तक साथ नहीं दिया। भूजल धीरे-धीरे पाताल में पहुँच गया। पान के बीजों की खेती की बर्बादी के साथ-साथ किसानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने लगी। बीज कम्पनी, किसानों को बीच मझधार में छोड़, अपना बोरिया बिस्तर लेकर लौट गई। इसी दौर में बासप्पा ने बरसात की हर बूँद को सहेजने का बीड़ा उठाया। अपने आइडिया के बारे में लोगों को बताया तथा साथ देने के लिये कहा। गाँव के लोगों ने उन्हें निराश किया। लोगों को उनके आइडिया पर भरोसा नहीं था। इस प्रारंभिक असफलता ने बासप्पा को दुखी तो किया पर वे निराश नही हुये। उन्होंने कुदाली उठाई और बरसात के पानी को कुओं में डालने के लिये नहरों को बनाने के काम में जुट गये। कुछ काम खुद किया तो कुछ काम मजदूरों से कराया। अपना पैसा लगाया। इस दौर में सरकार या समाज से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। बासप्पा अपनी कुदाल की मदद से बदलाव की नई इबारत लिखते रहे।
सन 2002 की बरसात में, बरसाती पानी ने नहरों के नेटवर्क की सहायता से आपस में जुड़े कुओं को ऊपर तक भर दिया। गाँव की जियोलॉजी ने भूजल रीचार्ज की माकूल परिस्थितियों को पैदा किया। बरसात के बाद परिणाम सामने आये। इस परिणाम के बाद बासप्पा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूरा गाँव इस जल सत्याग्रही के साथ जुड़ गया। जल संचय की शानदार मुहिम को श्रमदान की आहुतियों से नवाजा गया। गाँव के सारे कुएँ, नहरों के नेटवर्क से जुड़ गये। भूजल स्तर धीरे-धीरे लगभग 400 फुट ऊपर उठकर 100 से 120 फुट पर आ गया। लगभग 400 एकड़ जमीन की सिंचाई बहाल हो गई। इस पूरे काम को गाँव के लोगों ने अपने श्रम और पैसे से पूरा किया है। काकोला के सरपंच बीरप्पा अधिनावार बताते हैं कि भूजल उपलब्धता बढ़ने के कारण गाँव के लगभग 800 परिवारों को फायदा हुआ है। यह कहानी पानी के लिये जद्दोजहद करने वाले व्यक्ति तथा उसके पीछे एकजुट खड़े समाज की कहानी है। इस कहानी में सरकार या सरकारी अमले की भूमिका या दखलन्दाजी नहीं है। तकनीक, कायदे कानून, पैसा और श्रम गाँववालों का ही है।
बासप्पा की कहानी का तकनीकी पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण है। काकोला में सफलता का कारण उस गाँव की जमीन के नीचे मिलने वाली आग्नेय और उनके गुणधर्मों से मिलती-जुलती अन्य चट्टानें हैं। जमीन के नीचे पाई जाने वाली इन चट्टानों में पानी सहेजने के गुण प्राकृतिक रूप से मौजूद थे। इन्हीं गुणों के कारण सन 1980 के पहले आवश्यकतानुसार पानी मिलता था। पान के बीजों की खेती के लिये जब पानी का दोहन बढ़ा तो प्राकृतिक पूर्ति कम पड़ने लगी। प्राकृतिक पूर्ति की कम के कारण दोहन प्रतिकूल असर दिखाने लगा। इसीलिये संकट की शुरूआत हुई। भूजल का स्तर 500 फुट नीचे चला गया। तकनीकी भाषा में सामान्य प्राकृतिक रीचार्ज और भूजल दोहन का सन्तुलन बिगड़ा। बरसात द्वारा होने वाला रीचार्ज कम पड़ने लगा। एक्वीफर आधे-अधूरे भरने लगे पर जब कुओं को आपस में जोड़कर एक्वीफरों में अधिक पानी पहुँचाया तो रीचार्ज की मात्रा बढ़ गई। अधिक मात्रा में रीचार्ज हुआ। मांग की तुलना में अधिक पूर्ति होने के कारण भूजल स्तर में बढ़ोत्तरी दर्ज हुई। यही कहानी का तकनीकी पक्ष है जिसे अच्छी तरह समझ कर समाज ने समस्या का हल खोजा। इस उपलब्धि के पीछे सहज बुद्धि पर आधारित विज्ञान है।
कहानी पेरूमेट्टी पंचायत और कोका कोला की
यह कहानी प्रजातांत्रिक संस्था तथा बाजार के टकराव की कहानी है। इस कहानी के पात्र हैं - केरल के पेरूमेट्टी की पंचायत और हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड। कहानी की खास बातें और मुख्य घटनायें इस प्रकार हैं।
हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड ने 8 अक्टूबर 1999 को प्लाचीमाडा गाँव में बॉटलिंग प्लान्ट स्थापित करने के लिये पेरूमेट्टी पंचायत को दरख्वास्त दी। पेरूमेट्टी पंचायत ने 27 जनवरी सन 2000 को हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड को प्लाचीमाडा गाँव में फैक्टरी लगाने और 2600 हार्सपावर की बिजली का मोटर पम्प लगाने की अनुमति दी। कोका कोला फ़ैक्टरी लगने के कारण पंचायत को 4.65 लाख बिल्डिंग का टैक्स, तीस हजार लाइसेंस की फीस और 1.5 लाख प्रोफेशनल टैक्स के रूप में मिले। कोका कोला फ़ैक्टरी लगने के कारण 150 लोगों को स्थायी नौकरी और लगभग 250 लोगों को अस्थायी मजदूरी मिली।
सन 2002 के शुरूआती दिनों में प्लाचीमाडा गाँव के लोगों को पानी की गुणवत्ता में अन्तर अनुभव हुआ। रासायनिक परीक्षणों में पता चला कि पानी में केडमियम की मात्रा सुरक्षित सीमा से काफी अधिक है। बी.बी.सी. की जाँच में केडमियम की मात्रा एक किलोग्राम पानी में 100 मिलीग्राम पाई गई। केरल राज्य के प्रदूषण मंडल ने प्लाचीमाडा के पानी के नमूनों की जाँच जनवरी, अगस्त और सितम्बर में की। जाँच में भिन्नता पाई गई और केडमियम की मात्रा क्रमशः शून्य, 201.8 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम एवं 36.5 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम और कोका कोला की जाँच में केडमियम की मात्रा सुरक्षित सीमा में पाई गई। उद्योग और रोजगार का सपना टूटने लगा।
सन 2002 के शुरूआती दिनों में पानी की गुणवत्ता की खराबी के कारण प्लाचीमाडा के गाँव वालों ने 22 अप्रेल 2002 को कोको कोला फ़ैक्टरी के विरुद्ध प्रदर्शन किया। सात अप्रैल 2003 को पेरूमेट्टी पंचायत ने लोगों की शिकायत के आधार पर हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड को दी अनुमति निरस्त कर दी और नौ अप्रैल को कम्पनी को नोटिस जारी किया। बाईस अप्रेल 2003 को हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड ने केरल हाईकोर्ट में पेरूमेट्टी पंचायत के नोटिस के विरुद्ध पिटीशन दायर की। दिनांक 06 मई 2003 को सुनवाई के लिये हिन्दुस्तान कोका कोला बेवरिज प्राइवेट लिमिटेड के प्रतिनिधि पेरूमेट्टी पंचायत के सामने पेश हुये। पंचायत ने अपने फैसले को यथावत रखा। 16 मई 2003 को केरल हाईकोर्ट ने पंचायत के फैसले पर रोक लगा दी और कोका कोला फैक्टरी को राज्य सरकार के स्थानीय प्रशासन विभाग के समक्ष अपनी पिटीशन पेश करने को कहा। कोका कोला ने 22 मई 2003 को स्थानीय प्रशासन विभाग के समक्ष अपनी पिटीशन दायर की। स्थानीय प्रशासन विभाग ने दोनों पक्षों को सुना और 13 अक्टूबर 2003 के अपने आदेश में कोका कोला का पक्ष लिया और पंचायत के आदेश पर प्रश्नचिन्ह लगाया और उसे एक्सपर्ट कमेटी गठित करने का आदेश दिया। पंचायत ने स्थानीय प्रशासन विभाग के आदेश के विरुद्ध केरल हाई कोर्ट में अपील की। केरल हाई कोर्ट ने पंचायत के हक में फैसला दिया। कोका कोला ने उच्चतम न्यायालय में फैसले के विरुद्ध अपील की। तकनीकी नुक्ते के कारण उच्चतम न्यायालय में पंचायत की हार हुई।
केरल राज्य के भूमिगत जल विभाग के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2002 और मई 2003 के प्लाचीमाडा गाँव के 19 में से 11 कुओं के जलस्तर में बहुत अधिक गिरावट देखी गई। यह गिरावट क्षेत्रीय स्तर पर भी मौजूद है। भूजल विभाग की नवम्बर 2002 की रिपोर्ट में कुओं के पानी में कुल घुलित लवणों की मात्रा में बढोत्तरी का उल्लेख है।
उल्लेखनीय है कि इस कहानी में केरल राज्य के प्लाचीमाडा गाँव की संवेदनशील पंचायत ने राजस्व (आर्थिक लाभ) और ग्रामीणों को मिले रोजगार के अवसरों को त्याग कर पानी में बढ़ते प्रदूषण और सेहत पर गहराते संकट के विरुद्ध कोका कोला कम्पनी से आर-पार की लड़ाई मोल ली। यह कहानी पानी में बढ़ते प्रदूषण और सेहत पर गहराते संकट की अनदेखी करने वाले लोगों से कुछ कहती है। लोगों की सेहत की अनदेखी के स्थान पर कुछ अच्छा करने के लिये प्रेरणा देती है।
नदी के पानी की बिक्री का प्रतिकार करता समाज
छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के 23.5 किलोमीटर की लम्बाई में उपलब्ध पानी को लीज पर देने की कहानी तत्कालीन मध्यप्रदेश औद्योगिक केन्द्र विकास निगम और रेडियस वाटर लिमिटेड के बीच हुये समझौते के बाद शुरू हुई। यह कहानी सरकारी फैसले को समाज द्वारा नकारने की कहानी है। यह समझौता दुर्ग जिले में स्थित बोरई औद्योगिक क्षेत्र में प्रस्तावित इकाइयों को पानी की नियमित जलापूर्ति के लिये किया गया था। इस फैसले के अनुसार रेडियस वाटर लिमिटेड (निजी कम्पनी) अपनी पूँजी लगाकर पानी को जमा करने के लिये आवश्यक निर्माण कार्य करेगी। निर्माण कार्यों में अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करेगी, जलापूर्ति संयंत्र का संचालन और प्रबन्ध करेगी। पानी का संरक्षण कर उसकी आपूर्ति सुनिश्चित करेगी। यह पूरा काम बनाओ, संभालों, संचालित करो और अन्त में ट्रांसफर करो (Boot- Build, Operate, Own and Transfer) समझौते के आधार पर किया गया था। इस समझौते के बिन्दु 5.3 के अनुसार राज्य सरकार को रेडियस वाटर लिमिटेड से प्रति दिन चार मिलियन लिटर पानी खरीदना और उसकी लागत का भुगतान अनिवार्य था। अनुबन्ध में लिखी शर्तों के कारण, पानी की कम खरीदी की हालत में सरकार को 40 लाख लिटर पानी की कीमत का ही भुगतान करना था। इस अनुबन्ध के लागू होने के बाद रेडियस वाटर लिमिटेड ने नदी के 23.5 किलोमीटर लम्बे नदी पथ (जलक्षेत्र) के पानी पर अपनी मिल्कियत कायम कर समाज को पानी लेने से वंचित कर दिया था।
शिवनाथ नदी की कहानी का कानूनी पक्ष जानना दिलचस्प है। छत्तीसगढ़ राज्य की जलनीति का पैरा 4.2(2) जल संसाधनों के विकास में निजी निवेश का स्वागत करता है। पैरा 4.3(3) औद्योगिक इलाकों में पानी के वितरण एवं इन्तजाम के लिये निजी क्षेत्र के स्वागत के लिये पलक पांवड़े बिछाये नजर आता है। गौरतलब है कि पानी का स्वामित्व, राज्य के जल संसाधन विभाग का है जबकि अनुबन्ध सरकार के एक निगम ने किया है। अनुबन्ध की दूसरी खास बात यह है कि अनुबन्ध के पहले जल संसाधन विभाग (पानी के अधिकृत विभाग) की सहमति नहीं ली गई और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया। खैर सिविल सोसाइटी, एन.जी.ओ. और एक्टिविस्टों के विरोध के कारण कम्पनी से समझौता रद्द हो गया है। समाज के हित बहाल हो गए हैं पर यह घटनाचक्र लोगों के मन में एक गहरी टीस छोड़ गया है।
सुन्दरलाल बहुगुणा
सुन्दरलाल बहुगुणा का कार्यक्षेत्र पानी, मिट्टी और जंगल है। चिपको आन्दोलन के कारण उन्हें प्रसिद्धि मिली। चिपको आन्दोलन के सिलसिले में उन्होंने कोहिमा से लेकर कश्मीर तक और नेपाल भूटान सहित पूरे हिमालय की पद यात्रा की और सारी दुनिया को प्रकृति संरक्षण का संदेश दिया। टिहरी बाँध के विरोध ने, उन्हें, गरीबों के हितैषी के रुप में स्थापित किया। वे, आज भी टिहरी बाँध के निकट, गंगा के तट पर कुटिया में रहते हैं और समाज के लिये काम कर रहे हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा को भारत सरकार का पद्म विभूषण तथा राइट लाइवलीहुड अवार्ड मिल चुका है। राइट लाइवलीहुड अवार्ड को नोबेल पुरस्कार के समतुल्य माना जाता है।
चन्डी प्रसाद भट्ट चन्डी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून, 1934 को रुद्रनाथ मंदिर के पुजारी गंगाराम भट्ट के घर हुआ था। चन्डी प्रसाद भट्ट ने पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं को जोड़ने और उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने में अहम भूमिका का निर्वाह किया है। उन्होंने, चिपको आन्दोलन के पहले, सन 1973 में चमोली के मंडल ग्राम में, चिपको का प्रयोग कर ग्रामवासियों की सहायता से वृक्षों को कटने से बचाया था। वे इन दिनों इको-डवलपमेंट के काम में संलग्न हैं। उनके नेतृत्व में पौधरोपण, शिविरों का आयोजन, पंचायत स्तर पर ग्राम मंगल दलों की गतिविधियाँ चल रही हैं। सन 2003 में उन्हें नेशनल फॉरेस्ट कमीशन का सदस्य बनाया गया। सन 1983 में उन्हें पद्मश्री तथा सन 2005 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। सन 2008 में गोविन्द बल्लभ पन्त विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मनित किया है।
चन्डी प्रसाद भट्ट ने सन 1956 में जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर गान्धीवाद के प्रचार प्रसार का और शराबबन्दी पर काम किया था। उनका अन्य, अति महत्त्वपूर्ण पर्यावर्णीय योगदान, हिमनदियों के पिघलने और उनके पिघलने के कारण हिमालयीन नदियों पर मंडराते आसन्न संकट पर सरकार और समाज का ध्यान आकर्षित करना है। वे अत्यन्त सक्रिय पर्यावरणविद के रूप में पूरी दुनिया में जाने जाते हैं।
रवि चोपड़ा
डा. रवि चोपड़ा आधुनिक वैज्ञानिक हैं। उनका कार्यक्षेत्र पर्यावरण, विज्ञान, टैक्नोलॉजी और पानी है। वे पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट देहरादून तथा हिमालयन फाउन्डेशन, नई दिल्ली के प्रबन्ध न्यासी हैं। इन दोनों संस्थानों की प्रतिबद्धता जल संसाधनों का प्रबन्ध, पर्यावरण की रक्षा, आपदाओं की रोकथाम और नदियों के संरक्षण के क्षेत्र में नई पद्धति से किये जा रहे अनुसंधान तथा विकास में है। रवि चोपड़ा उस मिशन को आगे ले जा रहे हैं। उनका उद्देश्य विज्ञान तथा तकनीक की मदद से कमजोर वर्ग तथा गरीबों की मदद और सम्बद्ध जनों को दृष्टि-बोध उपलब्ध कराना है। उन्होंने अनेक किताबें लिखी हैं। जल संसाधन विकास तथा सामुदायिक सेवा पर उनके 20 से अधिक अनुसंधान तथा नीति सम्बन्धी दस्तावेज उपलब्ध हैं।
रवि चोपड़ा ने सन 1982 में 21 वीं सदी में भारत में जल संकट की प्रकृति, पानी की सकल आवश्यकता और संकट के समाधान पर नागरिक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था। इस प्रतिवेदन ने उन्हें राष्ट्रव्यापी मान्यता दिलाई। वे पिछले अनेक वर्षों से पर्यावरण रक्षा और देश के संसाधनों के विकास पर कार्यरत संस्थाओं को मार्गदर्शन भी उपलब्ध करा रहे हैं। वे अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं के अलावा गंगा नदी घाटी अथॉरिटी तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्टीयरिंग कमेटी के सदस्य हैं। उनका मिशन गरीबों को शक्तिसम्पन्न बनाकर तथा प्राकृतिक संसाधनों के उत्पादक, जीवनक्षम एवं भेदभावरहित उपयोग की सहायता से गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को मदद देना है।
बलबीर सिंह सींचेवाल
बलबीर सिंह सीचेवाल का कार्यक्षेत्र नदी, जल और वृक्षारोपण है। उन्होंने सन 2004 में अपने शिष्यों के साथ सतलज की सहायक काली बेई नदी की सफाई का बीड़ा उठाया था। वे मन वचन कर्म से उस काम में जुट गये। उनकी दृढ़ता और संकल्प ने समाज के अनेक लोगों की सोई चेतना को जगाया और नदी को साफ करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गई। भू-माफिया तथा प्रशासन की लालफीताशाही, उनके इरादों के सामने, नहीं टिक सकी। उन्होंने, गंदे नाले में तब्दील काली बेई नदी को लगभग छः साल के अथक परिश्रम के बाद सदानीरा और शुद्ध पानी की नदी में बदल दिया। उनके अनुसार प्रकृति की सेवा ही सच्चा धर्म है। उनकी मान्यता है कि काली बेई नदी की सफाई पूरी मानवता की भलाई के लिये है। काली बेई नदी की सफाई से बढ़कर ज्यादा पवित्र काम कुछ नहीं है। उनका संदेश है - जागो और नरक बनती, सड़ती नदियों को बचाने के लिये उठ खड़े हो। गुरूबानी कहती है कि ईश्वर की रचना को संजोना बेहतर है।
उजली संभावनाओं का उषाकाल
पानी और प्रकृति की कहानी अन्ना हजारे, अनुपम मिश्र, राजेन्द्र सिंह, पीआर. मिश्रा, सुन्दर लाल बहुगुणा, चन्डी प्रसाद भट्ट, बासप्पा, रवि चोपड़ा, पोपटराव पवार, बलबीर सिंह सींचेवाला या पेरूमेट्टी पंचायत पर खत्म नहीं होती। दक्षिण गुजरात में हरीभाई पारिख और झीणाभाई दरजी, एक्शन फॉर फुड ने जालना महाराष्ट्र में, उड़ीसा के ढ़ेंकानॉल में पीपुल्स इंस्टीट्यूट फॉर पार्टिसिपेटरी एक्शन रिसर्च जैसे सैकड़ों गुमनाम लोगों और संस्थाओं ने जल संरक्षण, वन संरक्षण तथा प्राकृतिक परिवेश को सुधारने तथा उसे संरक्षित करने का काम किया है, और कर रहे हैं। आगे भी करेंगे। कुछ और भी लोग हैं जो अपनी शैली में देश की जनता और जिम्मेदार लोगों से बरसों से चर्चा कर रहे हैं। आज भी खरे हैं तालाब, बूँदों की संस्कृति जैसी किताबों के क्रम में सेन्टर फॉर साइंस एन्ड इन्वायरन्मेंट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित बूँदों की संस्कृति, का योगदान किसी भी तरह कम नहीं है। यह किताब भारत की पारम्परिक जल संचय प्रणालियों के विकास, ह्रास और उनमें अब भी मौजूद उजली संभावनाओं पर देश में प्रकाशित सबसे अधिक प्रमाणित पुस्तक है। किताब कहती है कि परम्परागत ज्ञान को बदली परिस्थितियों में यथावत स्वीकार नहीं किया जा सकता पर उसके कालजयी सिद्धान्तों की अनदेखी नामुमकिन है। यह बदलते हालातों का युग है। यह उजली संभावनाओं का उषाकाल है। उगता सूरज, समाज के अभ्युदय की प्रतीक्षा कर रहा है।
समाज, प्रकृति और विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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लेखक परिचय | |
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