नदी

Submitted by admin on Tue, 12/03/2013 - 12:26
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काव्य संचय- (कविता नदी)
दूर किसी घर में कुछ गिरा है
पीतल की गगरी-सा!
लुढ़कती चला आई है टनटनाहट
सूनी दोपहरी में
कई देहलियां लांघकर।
आवाज की एक नदी बह गई है
इस घर से उस घर तक।
इसमें धोकर अपने थके हुए हाथ
सोचती है यह उसकी
चौंकी हुई उबासी-
हर घर से हर घर तक जाती है राह,
इतना अकेला नहीं होता है आदमी!
एक गूंज का दामन पकड़े
अनगूंज कितने ले आएं कब भीतर-
कौन कहे!
क्या जाने कौन, कहां-कब का खोया
किस रूप-रस-गंध-ध्वनि की ऊंगली पकड़े
आ जाए मिलने और कहे-
‘कहो, पहचाना?
कैसे हो?’