उल्लेखनीय है कि पिछले दो माह से भी अधिक से बिहार के कुछ प्रबुद्ध जनों द्वारा प्रदेश की पांच नदियों पर नदी चेतना यात्रा के लिए होमवर्क चल रहा है। इस दौरान सारे लोग नदी और समाज के सम्बन्ध और जल संकट से जुडी समस्याओं को समझने प्रयास करते हैं। यह सारा सम्वाद जल संकट से जुडी समस्याओं को सुलझाने के लिए है। विकल्पों की पैरवी के लिए है। यह पैरवी समाज करेगा। नदी चेतना यात्रा से जुडे लोग उस पैरवी के नालेज पार्टनर हैं। इस मन्थन का उद्देश्य है सम्वाद के लिए तार्किक विकल्पों की पहचान करना, गैर-जरूरी विकल्पों को बाय-बाय कहना और विचार विमर्श से निकले अमृत को राज के सामने पेश करना। चेतना यात्रा के लोग समझ रहे हैं कि यदि उनकी तैयारी में खामी रही तो असफलता हाथ लेगी। भाषण कला काम नहीं आवेगी। यह अभियान पानी रे पानी अभियान का हिस्सा है।
पिछले तीन-चार दिन से नदी चेतना यात्रा के लोग कन्टूर और जल संरक्षण के सम्बन्ध को समझने के लिए चर्चा कर रहे हैं। लक्ष्य है, कन्टूर और जल संरक्षण के सम्बन्ध को समझने का प्रयास। समाज से चर्चा के समय उसकी उपयोगिता। चर्चा के दौरान, आकृति सिंह ने कन्टूर का अर्थ समझाने के लिए तकनीकी तरीका अपनाया। टोपोशीट का उल्लेख किया। पहाडों तथा घाटियों के रेखाचित्रों की मदद से अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया। कन्टूर की परिभाषा से अवगत कराया। महाराष्ट्र की परिस्थितियों में कन्टूर पर निर्मित सी.सी.टी (Continuous contour trench) पर वह फिल्म दिखाई जिसके कारण बरसात में जल संरक्षण होता है। इस सब के बाद भी प्रीति सिंह और पंकज मालवीय को जो बात खल रही थी, वह थी वह शब्दावली और सहज तरीका जिससे कन्टूर और जल संरक्षण के अन्तरंग सम्बन्ध को आसानी से समझा और समझाया जा सके। बाकी लोग भी उस शब्दावली और तरीके को तलाशना चाहते थे जिसे अपनाने से नदी के कछार का ग्रामीण समाज, पंचायत से लेकर राज तक से सम्वाद कर सके। गैरजरुरी कामों पर होने वाले खर्च को जल संरक्षण में लगा सके।
दिनांक 6 अगस्त 2020 को सम्पन्न बैठक में उक्त बिन्दुओं पर काफी हद तक स्पष्टता बनी। सबसे पहले, नदी चेतना यात्रा के साथियों ने नदी कछार के स्थानीय भूगोल को समझने की कोशिश की। इसके लिए उस क्षेत्र की सर्वे आफ इंडिया की टोपोशीट (स्केल 1ः50000) को प्राप्त करने और उसके अध्ययन की आवश्यकता को रेखांकित किया। दूसरे कदम के रूप में, टोपोशीट में दर्शाई मुख्य नदी की सहायक नदियों की मदद से नदी कछार का सही सही सीमांकन। ताकि यह पता चल सके कि कितने गांवों के लोगों से सम्वाद करना है। तीसरे कदम के रुप में, टोपोशीट में अंकित कन्टूर लाईनों के बीच की दूरी के आधार कछार के भूगोल को समझने का प्रयास हुआ। यह बेहद छोटा सा लगने वाला प्रयास बताता है कि कन्टूरों द्वारा दर्शाया जाने वाले कछार के भूगोल द्वारा किस प्रकार बरसाती पानी के प्रवाह का नियमन होता है।
कन्टूरों के वितरण से कछार के ढ़ाल की जानकारी का अनुमान लग जाता है। टोपोशीट पर जहाँ दो कन्टूर पास-पास होते हैं वहाँ ढ़ाल बहुत अधिक होता है। खडी चढ़ाई होती है। पानी तेजी से बहकर निकल जाता है। उसके धरती में रिसने या धरती पर संचय के अवसर बहुत कम होते हैं। पानी के नीचे उतरने की गति के अधिक होने के कारण भूमि कटाव बहुत अधिक होता है। ऐसी जगह में भूमिगत जल संचय के लिए स्टेगर्ड कन्टूर ट्रेंच (Staggered contour trench) ही एकमात्र कारगर विकल्प होता है। इस प्रकार की ट्रेंचों का निर्माण, समान ऊँचाई पर थोडा-थोडा अन्तर रखकर किया जाता है। उनकी मिट्टी को नीचे के भूभाग पर फैलाया जाता है। उनकी लम्बाई, चैडाई और गहराई तथा परस्पर दूरी का निर्णय, उस ग्राम की एक दिन की अधिकतम बरसात के आधार पर लिया जाता है। प्रयास होता है कि उनका पानी ओव्हर-फ्लो नहीं हो। उनमें मिट्टी का जमाव नहीं हो। उनके ऊपर नीचे की जमीन पर मिट्टी को पकडने वाली घास लगाई जाती है। यदि इस जानकारी के साथ समाज, अधिकारियों या पंचायत के साथ चर्चा करता है तो उनके सुझाव ग्राह्य होंगे और काम में समाज की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होगी।
इसके बाद उस इलाके के लोगों से चर्चा करेंगे जहाँ दो कन्टूरों के बीच की दूरी पहली स्थिति से अधिक लेकिन तीसरी स्थिति से कम है। वहाँ ढ़ाल सामान्य होता है। पानी सामान्य गति से बहकर निकलता है। उसके धरती में रिसने के अवसर सामान्य होते हैं। ऐसी जगह में बरसाती पानी को धरती में उतारने के लिए ढ़ाल पर स्टेगर्ड कन्टूर ट्रेंच के स्थान पर गहरे तालाब बनाए जाना चाहिए। तालाब की गहराई का फैसला उस इलाके में मिलने वाली एक्वीफर की परत के आधार पर करना चाहिए। मान लो उस स्थान पर एक्वीफर 22 फुट की गहराई से प्रारंभ होता है तो तालाब में जल प्रवेश के क्षेत्र को छोडकर बाकी हिस्सों में गहराई हर हाल में 22 फुट से अधिक होना चाहिए। तालाबों की संख्या का निर्धारण जल संकट के समानुपातिक होगा। अर्थात जितना बडा संकट उतने अधिक तालाब। चूँकि बिहार के अधिकांश इलाकों में सरकारी पडती भूमि का अभाव है इसलिए तालाबों में गहराई को बढ़ाकर कर जल संचय बढ़ाया जा सकता है। तालाबों की खुदाई से निकली मिट्टी को पाल बनाने और नीचे के भूभाग पर फैलाया जाना चाहिए। वेस्टवियर की ऊँचाई का निर्णय, तालाब में जल संचय की क्षमता तथा गाद निकासी के बीच तालमेल बना कर की जाना चाहिए। चर्चा में यह सहमति बनी कि जब इस बिन्दु पर चर्चा हो तब मामला पूरी तरह तकनीकी लोगों पर नहीं छोडा जावे। समाज की भी भागीदारी भी हो।
इसके बाद उस इलाके के लोगों से चर्चा करेंगे जहाँ दो कन्टूरों के बीच की दूरी सबसे अधिक है। वहाँ ढ़ाल बहुत मंद होता है। पानी धीरे-धीरे बहकर निकलता है। गाद को पीछे छोडता है। परिस्थितियों के उपयुक्त होने की हालत में उसके धरती में रिसने के अवसर बहुत अच्छे होते हैं। ऐसी जगह में बरसाती पानी को धरती में उतारने के लिए मुख्य नदी से थोडा दूर, विशाल तालाब बनाए जाना चाहिए। तालाब की गहराई का फैसला उस इलाके के एक्वीफर की परत के आधार पर करना चाहिए। तालाबों की खुदाई से निकली मिट्टी को पाल बनाने और नीचे के भूभाग पर फैलाया जाना चाहिए। वेस्टवियर की ऊँचाई का निर्णय, जल संचय की क्षमता और गाद निकासी के बीच तालमेल बना कर की जाना चाहिए। चर्चा में यह सहमति बनी कि जब इस बिन्दु पर चर्चा हो तब मामला पूरी तरह तकनीकी लोगों पर नहीं छोडा जावे। उस निर्णय में समाज की भी भागीदारी हो। नदी चेतना यात्रा, नदी के इलाके के कन्टूरों की समझ के आधार पर यही जागरुकता हासिल कराने के लिए प्रयास करेगी। यदि यह प्रयास सफल होता है तो समाज की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होगी।