लेखक
कन्फ्लिक्ट रिजोल्यूशन दिवस, 15 अक्टूबर 2015 पर विशेष
भारत के निकटस्थ पड़ोसी देश हैं नेपाल, चीन, बंगलादेश, भूटान, श्रीलंका, म्यामांर और पाकिस्तान। श्रीलंका की नदी घाटियों का भारत की नदी घाटियों के साथ साझा नहीं है इसलिये भारत और श्रीलंका के बीच नदी जल विवाद नहीं है पर पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश के बीच पानी के बँटवारा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सिंधु, ब्रम्हपुत्र एवं गंगा नदी तंत्रों में प्रवाहित विपुल जलराशि का उपयोग कर वे अपने लोगों की खेती सहित अनेक ज़रूरतों की पूर्ति कर सकते हैं। यह बँटवारा उनके नागरिकों के योगक्षेम तथा देश की खुशहाली से जुड़ा है।
यह लेख किसी भी देश के आधिकारिक पक्ष को पेश नहीं करता। यह लेखक की सीमित राय है। इसका उद्देश्य किसी भी देश की सोच को कमतर आँकने, विपरीत टीप देने या उस पर आक्षेप करना नहीं है।
पाकिस्तान
पाकिस्तान की प्रमुख नदी सिन्धु है। उसकी कुल लम्बाई 2900 किलोमीटर तथा कछार का क्षेत्रफल लगभग 966,000 वर्ग किलोमीटर है। सिन्धु नदी का उद्गम हिमालय में है। पाकिस्तान का अधिकांश भाग सिन्धु नदी के कछार में स्थित है। बलुचिस्तान को छोड़कर उसका बाकी भूभाग, गंगा के कछार की तरह है। पूरे देश में बरसात की मात्रा अपेक्षाकृत कम है। हिमालयीन बर्फ के पिघलने से मिले पानी के कारण सिन्धु नदी में पर्याप्त पानी बहता है।
बलुचिस्तान के इलाके में भूजल पर और सिन्धु नदी की घाटी में नहरी पानी पर अधिक निर्भरता है। थार मरुस्थल से सटे पाकिस्तानी इलाकों में परम्परागत जल प्रणालियाँ अभी भी कहीं-कहीं प्रचलन में हैं। पाकिस्तान को रावी, व्यास और सतलज को छोड़कर झेलम, चेनाब और सिन्धु नदी का पूरा-पूरा पानी उपलब्ध है।
पाकिस्तान के जलसंसाधनों की समस्याएँ, भारत से मिलती-जुलती हैं। पाकिस्तान में उपलब्ध पानी का लगभग 80 प्रतिशत भाग सिंचाई के काम में लिया जाता है। देश में अन्न उत्पादन के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी पानी की मांग तेजी से बढ़ रही है। उसका सिंचित क्षेत्र 180 लाख हेक्टेयर है।
सिंचित क्षेत्र के लगभग एक तिहाई क्षेत्र में वाटर लॉगिंग और मिट्टी के खारेपन की समस्या है। रामास्वामी अय्यर (2007) के अनुसार पाकिस्तान की प्रमुख समस्याएँ अन्न उत्पादन के लिये पानी की कमी, सिन्धु घाटी में वाटर लॉगिंग और मिट्टी का खारापन, राज्यों के बीच जल बँटवारे को लेकर विवाद हैं। देश में बड़े बाँध बनाम नदियों के पानी के प्रत्यावर्तन पर चल रही बहस है।
पाकिस्तान में जल संसाधनों के प्रबन्ध और प्लानिंग को लेकर दो विचारधाराएँ (तकनीकी सोच पर आधारित एवं समाज के सोच पर आधारित विचारधारा) उभर रही हैं। इन विचारधाराओं से सम्बन्धित बहस को माहौल प्रदान करने में कालाबाग बाँध परियोजना की भूमिका अहम मानी जाती है।
बंगाली (2003) कहते हैं कि मात्र इंजीनियरिंग समाधानों द्वारा जल क्षेत्र में “विकास, प्रबन्ध और संरक्षण के मुकाम हासिल नहीं किये जा सकते। इन्हें पाने के लिये सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना, संस्कृति और लोगों की जीवनशैली को भी समान महत्त्व देना होगा’’।
पाकिस्तान की अन्य समस्याओं में नदियों का बढ़ता प्रदूषण, नगरीय क्षेत्रों में मल-मूत्र का निपटारा और सागर के तटीय क्षेत्रों में डीग्रेडेशन प्रमुख हैं। ये समस्याएँ कुछ हद तक मानव निर्मित हैं तो कुछ समस्याएँ प्राकृतिक चक्र का अभिन्न हिस्सा हैं।
ग़ौरतलब है कि सन् 1947 के विभाजन में भारत और पाकिस्तान के बीच सिन्धु घाटी की नदियों के पानी का बँटवारा, दो भाईयों के बीच जायदाद के बँटवारे की तर्ज पर हुआ था। इस बँटवारे में पाकिस्तान को सिन्धु, झेलम और चेनाब और भारत को रावी, व्यास और सतलज नदियाँ मिलीं।
जायदाद के बँटवारे की तर्ज पर नदियाँ बँटने एवं 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिन्धु समझौता होने के बावजूद पाकिस्तान की चाहत अधिकतम पानी हासिल करने की है। इस कारण, हर छोटे-बड़े मामले में विवाद उभरते रहते हैं। भारत के नजरिए से देखें तो जम्मू कश्मीर की जनता को सबसे अधिक घाटा उठाना पड़ रहा है।
ग़ौरतलब है कि नदी जल विवादों के निपटारे में 1960 के समझौते की अहम भूमिका है। पाकिस्तान और भारत के अनसुलझे विवाद इंटरनेशन कोर्ट में ही निपटते हैं।
बांग्लादेश
बांग्लादेश सन् 1971 में अस्तित्व में आया। इसकी बुनियादी सोच, पाकिस्तान या भारत की सोच से हट कर नहीं है। मौटे तौर पर बांग्लादेश गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों की घाटियों के परिपक्व क्षेत्र में स्थित है। यह क्षेत्र समुद्र के निकट है। ढाल बहुत कम ढाल है और उसका विकास लाखों साल से कछारी मिट्टी के जमा होने से हुआ है।
बरसात के दिनों में गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों की बाढ़ का पानी कभी-कभी एक साथ तो कभी-कभी अलग-अलग समय अवधि में देश के बड़े हिस्से को प्रभावित करता है। गर्मी में हिमालयीन बर्फ के पिघलने से नदियों में फिर पानी की मात्रा बढ़ जाती है।
तकनीकी लोगों का मानना है कि बांग्लादेश के 94 प्रतिशत जल संसाधनों का स्रोत, भारत में स्थित है इसलिये उनके देश में आने वाली बाढ़ों का सम्बन्ध भी भारत से ही है इसलिये, बाढ़ों का प्रबन्ध, दोनों देशों को मिलकर करना चाहिये।
उसका मानना है कि बाढ़ से मुक्ति एवं देश की पानी की जरूरतें भारत और उसके बीच पानी के समुचित बँटवारे और आपसी सहयोग पर निर्भर है। इस परिपेक्ष्य में दोनों देश के बीच, समय-समय पर गंगा नदी के पानी के बँटवारे पर समझौते भी हुए हैं।
ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश की टोपोग्राफी बाँध बनाने के लिये अनुपयुक्त है इसलिये वहाँ जल प्रबन्ध की सोच थोड़ा हटकर है। उसे हर साल आने वाली बाढ़ों से बचाव के लिये समुचित इन्तजाम करना चाहिये। उसे गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र के कैचमेंट में स्थित देशों के साथ न्यायोचित, तर्कसंगत एवं व्यावहारिक समझौते करना चाहिए। उसकी मौजूदा सोच के मुताबिक उपलब्ध जल संसाधनों का समुचित प्रबन्ध, पानी की प्लानिंग एवं प्रबन्ध में महिलाओं को महत्त्व और पानी पर नागरिकों खासकर गरीब व उपेक्षित वर्ग के अधिकार तय होना चाहिए।
बांग्लादेश में प्राकृतिक परिवेश की सुरक्षा एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरुकता बढ़ रही है। इस अनुक्रम में सुन्दरवन और समुद्र के तटवर्ती इलाकों में खारे पानी के प्रवेश की चिन्ता को प्राकृतिक परिवेश की सुरक्षा एवं उसके संरक्षण के बैरोमीटर के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा, उसके कछारी इलाके के भूजल में आर्सेनिक की समस्या सिर उठा रही है।
यह सच है कि आर्सेनिक की समस्या कम करने में, भारत, सीधे-सीधे कोई योगदान नहीं दे सकता पर क्षेत्रीय सहयोग के अर्न्तगत उन खनिजों का पता लगा सकता है जो इस समस्या के मूल में है। जहाँ तक बाढ़ों का प्रश्न है तो कुछ लोगों का मानना है कि बाढ़ों के समाधान में परम्परागत प्रणालियों और स्थानीय विकल्पों की मदद से बहुत कुछ करना सम्भव है।
चीन
मौजूदा समझौतों के अर्न्तगत चीन द्वारा भारत को बरसात, बाढ़ और मौसम सम्बन्धी आँकड़े प्रदान किये जाते हैं। ग़ौरतलब है कि तिब्बत क्षेत्र में हर साल लगभग 300 मिलीमीटर पानी बरसता है। इसलिये वह प्रलयंकारी बाढ़ का कारण नहीं बनता। ब्रह्मपुत्र नदी की बाढ़ का सम्बन्ध भारतीय क्षेत्र में होने वाली लगभग 3000 मिलीमीटर बरसात से है।
बर्फ के पिघलने वाले पानी की जो भारतीय सीमा में प्रवेश करता है, उसकी मानीटरिंग भारत द्वारा की जाती है। ग़ौरतलब है कि बर्फ के पिघलने से भारत में आने वाले पानी की मात्रा लगभग एक समान है। इसके अतिरिक्त सेटेलाइट डाटा का भी उपयोग किया जाता है। चीन और भारत के बीच उभयपक्षीय बिन्दुओं पर चर्चा का दौर चल रहा है।
भारत और उसके पड़ोसी देश, सारी दुनिया में अपने समृद्ध देशज ज्ञान के लिये जाने जाते हैं। इन देशों में पानी की परम्परागत जल प्रणालियाँ प्रचलित थी। इन प्रणालियों को अंग्रेजों के शासनकाल में पूर्णग्रहण लगा और वे घोर उपेक्षा की शिकार हुईं। भूटान और नेपाल को छोड़कर बाकी इलाके, 1947 के पहले, अंग्रेज सरकार के अधीन थे। गुलाम भूभाग पर अंग्रेज सरकार की सोच हावी थी। आजाद होने के बाद सरकारें तो बदलीं पर उन्होंने परम्परागत जल प्रणालियों को अपनाने की जहमत नहीं उठाई।
नेपाल
तराई वाले भूभाग को छोड़कर नेपाल का बाकी हिस्सा पहाड़ी तथा तीखे ढाल वाला है। नेपाल में अच्छी बरसात होती है। हिमालय से निकलकर भारत में प्रवेश करने वाली नदियों की संख्या बहुत अधिक है। अनुमान है कि नेपाल में लगभग 48,000 मेगावाट पनबिजली बनाने की क्षमता है। बिजली की माँग कम है।
एक वर्ग की मान्यता है कि नेपाल में पनबिजली उत्पादन के लिये पर्याप्त प्रयास होना चाहिए। उत्पादित अतिरिक्त बिजली को पड़ोसी देशों, खासकर भारत को बेचा जाना चाहिए। भारत चाहता है कि नेपाल में बाँध बनें।
बिजली का इष्टतम स्तर तक उत्पादन हो पर वहीं नेपाल में एक अन्य वर्ग की मान्यता है कि बाँधों के कारण होने वाली डूब, भूकम्प प्रवणता के खतरों और विस्थापन से बचा जाये। वे चाहते हैं कि छोटी संरचनाएँ बना कर बिजली बनाई जाये।
भारत और नेपाल के बीच सदियों पुराने व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध हैं। इसके बावजूद पानी के मामले में स्थिति पूरी तरह साफ और पारदर्शी प्रतीत नहीं होती। ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जिन पर दोनों देशों के बीच आम राय बनना बाकी है। विचार-विमर्श जारी है और सप्तकोसी, पंचेश्वर और करनाली जैसी परियोजनाएँ हरी झंडी की प्रतीक्षा कर रही हैं।
भूटान
यह देश हिमालय के दक्षिणी में स्थित है। तिब्बत इसकी उत्तरी सीमा, असम दक्षिणी सीमा पर और सिक्किम तथा अरुणाचल प्रदेश क्रमशः पश्चिम एवं पूर्व में स्थित हैं। इस देश में खूब समृद्ध जंगल पाये जाते हैं। लगभग पूरा भूभाग पहाड़ी तथा ढालू है। इस इलाके में अच्छी बरसात होती है। अनेक नदियाँ हिमालय से निकलकर तेज गति से भारत में प्रवेश करती हैं।
गर्मी में बर्फ के पिघलने के कारण उनमें काफी पानी रहता है। पानी की पर्याप्त मात्रा मिलने के कारण इस देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष पानी की उपलब्धता 75,000 घन मीटर है अर्थात पानी के मामले में भूटान अत्यन्त समृद्ध देश है।
पानी के मामले में भूटान की सोच अपने पड़ोसियों से पूरी तरह नहीं तो काफी हद तक जुदा है। सारा देश अपनी सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विरासत का बेहद सम्मान करता है। भूटान में जल संसाधनों का विकास प्रकृति से तालमेल बनाकर किया जाता है।
भूटान के सोच की झलक उसकी जलनीति के दस्तावेज़ में मौजूद प्रावधानों (यथा सरकार पानी की ट्रस्टी है, प्रकृति, पानी और मानवीय जीवन एक दूसरे पर निर्भर हैं, उन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता और उनका विकास एक दूसरे के साहचर्य में, सन्तुलन बनाकर, सह-अस्तित्व के आधार पर करना चाहिये) से पता चलती है।
भूटान की जल नीति पर पश्चिमी सोच का भी कहीं-कहीं असर दिखाई देता है। उसकी जलनीति में विश्व बैंक और ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप के मुहावरों (यथा आर्थिक पक्ष, विकास एवं बाजार, राजस्व प्राप्ति की सम्भावना एवं लागत वसूली इत्यादि) का उल्लेख भी मौजूद हैं। परस्पर विरोधी विचारधाराओं से लैस भूटानी जल नीति को कुछ लोग पूर्व और पश्चिम के सोच के बीच का रास्ता मानते हैं।
भूटान ने भारत के सहयोग से कुछ जलविद्युत परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया है। भूटान और भारत के बीच कुछ परियोजनाएँ विचाराधीन या प्रारम्भिक दौर में हैं। भूटान में संचालित चौका जल विद्युत परियोजना को दोनों देशों के बीच सहयोग के सफल उदाहरण के रूप में माना जाता है। इस परियोजना से भारत को बिजली बेची जाती है।
भूटान में पर्यावरण के नजरिए से पहाड़ी झरनों के बेहद स्वच्छ पानी को भी आय के अतिरिक्त साधन के रूप में देखा जाता है। भूटान की वास्तविक जल विद्युत उत्पादन क्षमता 6000 मेगावाट है। उसे पैदा करने के लिये एक ओर बाँध बनाने होंगे तो दूसरी ओर प्रकृति, पानी और मानवीय जीवन के साथ सन्तुलन बनाकर सह-अस्तित्व के आधार पर विकास को कैसे हासिल किया जाएगा, वास्तविक चुनौती है।
यदि यह सम्भव हुआ तो सारी दुनिया सहित पश्चिम की इंजीनियरिंग अवधारणा के पैरोकारों और पड़ोसियों के लिये बहुत बड़ा उदाहरण, विकल्प एवं सबक होगा।
म्यांमार
भारत की पूर्वी सीमा जो म्यांमार से सटी है से कुछ नदियाँ म्यांमार में प्रवेश करती हैं। भारत अपने इलाके में उनका उपयोग कर रहा है। म्यांमार अपने इलाके में उसका उपयोग कर रहा है। भारत ने अपने इलाकों में पनबिजली उत्पादन प्रोजेक्ट प्रारम्भ किये हैं। उन्हें लेकर भारत और म्यांमार के बीच कोई विवाद नहीं है।
भारत
भारत की जलनीति, सरकार के साथ-साथ मुख्य रूप से विश्व बैंक, ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप, एडीबी जैसी संस्थाओं और कारपोरेट हाउसों की मदद से जल संसाधनों के विकास पर काम करने की पक्षधर है। स्थानीय विकल्प, परम्परागत जल प्रणालियाँ और छोटी संरचनाएँ या जन सहभाग से बने सफल उदाहरणों को अपनाना उसकी प्राथमिकता सूची में नही है। जलनीति में वाटरशेड विकास, वाटर हार्वेस्टिंग और ग्राउंड वाटर रीचार्ज का उल्लेख है पर इन कामों के लिये बहुत कम बजट उपलब्ध है।
मौजूद हालात और नजरिया
भारत और उसके पड़ोसी देश, सारी दुनिया में अपने समृद्ध देशज ज्ञान के लिये जाने जाते हैं। इन देशों में पानी की परम्परागत जल प्रणालियाँ प्रचलित थी। इन प्रणालियों को अंग्रेजों के शासनकाल में पूर्णग्रहण लगा और वे घोर उपेक्षा की शिकार हुईं। भूटान और नेपाल को छोड़कर बाकी इलाके, 1947 के पहले, अंग्रेज सरकार के अधीन थे।
गुलाम भूभाग पर अंग्रेज सरकार की सोच हावी थी। आजाद होने के बाद सरकारें तो बदलीं पर उन्होंने परम्परागत जल प्रणालियों को अपनाने की जहमत नहीं उठाई। इस कारण पश्चिमी सोच और समस्याओं के इंजीनियरिंग हल मुख्यधारा में बने रहे। बाकी कसर लगातार बढ़ती आबादी और खाद्यान्नों की जरूरत ने पूरी कर दी।
भारत में बाँधों को मुख्य संरचना के रूप में स्थापित किया। साइड इफेक्ट की चर्चा लगातार हासिए पर है। यही हाल पाकिस्तान और बांग्लादेश का है।
पिछले कुछ सालों से सारी दुनिया में बड़े बाँधों का विरोध हो रहा है। बाँध विरोधी बयार से यह भूभाग भी अछूता नही है। सरकारी स्तर पर बाँध विरोधी बयार का सबसे कम असर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में है। भूटान पुरानी परम्परा से जुड़ा है और प्रकृति से तालमेल बिठाकर काम करने का पक्षधर है।
नेपाल की टोपोग्राफी और उसके भूकम्प सम्भावित इलाके में स्थित होने के कारण, माहौल विभाजित है। तिस्ता बैराज के बनने के बाद गंगा बैराज बनवाने के लिये बांग्लादेश का दबाव यथावत है।
बड़े बाँधों के पक्षधर, जल विद्युत उत्पादन एवं बाढ़ नियंत्रण के लिये बड़े बाँधों को बनाने की वकालत करते हैं। इस अनुक्रम में भारत में बहुउद्देशी परियोजनाओं का जिक्र किया जाता है पर अनुभव बताता है कि बाढ़ नियंत्रण में बड़े बाँधों की भूमिका दुधारी तलवार की तरह है। वे, कभी-कभी, खुद के वजूद को बचाने की विवशता के कारण, निचले इलाकों में गम्भीर बाढ़ें पैदा करते हैं। इसी तरह भूकम्प सम्भावित इलाकों में उनकी मौजूदगी टाईम बम की तरह है जो समाज को आशंकित रखती है।
प्रश्न बाँध का नहीं है। प्रश्न उस ज़मीन की असमर्थता का है जो भूकम्प को झेलेगी। उपरोक्त चर्चा में नदी जोड़ योजना का उल्लेख आवश्यक है क्योंकि नदी जोड़ योजना में सम्मिलित कुछ नदियाँ अन्तरराष्ट्रीय हैं। इस कारण, पानी का ट्रांसफर का सम्बन्धित देशों की सहमति के बाद ही सम्भव होगा। इसे कैसे निपटाया जाएगा, अत्यन्त जटिल प्रश्न है।
सभी देश परस्पर सहयोग के पक्षधर हैं। सम्भावनाओं का स्वरूप क्या होगा, यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण वह जज्बा है जो उन्हें एक दूसरे के पास लाता है और उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराता है। यही वातावरण काम करने का अवसर देता है। इन अवसरों के अर्न्तगत समस्याओं के हल खोजे जा सकते हैं। उन्हें पूरा करने में राजनैतिक इच्छाशक्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।