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नेशनल दुनिया, 29 अप्रैल- 05 मई 2012
उत्तराखंड में 558 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जो भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी और नदी सहायक जलधाराओं पर चल रही है या चलने वाली हैं। इन्हें भी संतों, पर्यावरणविदों व स्थानीय निवासियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। 558 परियोजनाएं यदि पूरी बन गई तो इन परियोजनाओं के निर्माण के लिए उत्तराखंड की नदियों में लगभग 1,500 किलोमीटर की सुरंग बनानी पड़ेगी। इन सुरंगों में इन नदियों का पानी बहेगा। इससे लोगों को भय है कि वर्तमान नदियों का मार्ग इससे वीरान हो जाएगा।
अपने जिन हकों और सपनों को लेकर उत्तराखंड अलग हुआ था उनमें से हक तो उसे पूरे मिले लेकिन सपने एक के बाद एक टूटते रहे हैं। उत्तर प्रदेश से अलग होकर अपना उत्तराखंड का नारा बुलंद करने वाले यहां के लोगों को विकास के नाम पर विस्थापन मिला। पर्यावरण और क्षेत्रीय निवासियों की चिंता किनारे रखकर चल रहीं विद्युत परियोजनाओं ने हजारों लोगों को विस्थापित किया और हजारों एकड़ खेती योग्य जमीन बांध और विशाल जलाशय की भेंट चढ़ गई। बेरोजगारी युवकों को पलायन के लिए मजबूर कर रही है। किसी के पास बदतर होते हालात का इलाज नहीं है। सामरिक दृष्टि से संवेदनशील होने, जनजातीय निवासियों के जीवन में आ रहे बदलावों, बेरोजगारी से युवाओं में पनप रहे असंतोष और पर्यावरण संरक्षण आदि के नाम पर केंद्र सरकार से मिलने वाली राशि आखिर किसी का कितना भला कर सकती है। खासकर तब जब उनका समुचित इस्तेमाल न हो रहा हो।राज्य की नई सरकार के सामने विकट हालात हैं। वह उधेड़बुन में नजर आ रही है। पहाड़ बनाम मैदान के संघर्ष की ओर भी राज्य खिसकता जा रहा है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि सामरिक दृष्टि से अति संवेदनशील भारत-तिब्बत सीमा हो या भारत-नेपाल सीमा, इनसे सटे गांव साल-दर-साल खाली हो रहे हैं। इन गांवों में महज बूढ़ी महिलाएं ही मजबूरन रुकी हुई हैं। तमाम गांवों से युवाओं का तो सौ फीसदी तक पलायन हो चुका है। समाजविज्ञानी चिंतित हैं और सेना जवान नहीं ढूंढ पा रही है। एक बड़ा सवाल है कि आखिर सीमांत से हो रहा युवाओं का पलायन रुके कैसे? सीमाओं पर द्वितीय रक्षा पंक्ति की तरह जमे इन क्षेत्रों के ग्रामीण विकास की बाट जोहते-जोहते नाउम्मीद हो, यहां से पलायन करने में ही भलाई समझ रहे हैं।
दरअसल, उत्तराखंड के सीमांत इन गांव बुनियादी सुविधाओं से पूरी तरह महरूम हैं। पक्की सड़क, बिजली और स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी तरह नदारद हैं। जबकि इसके बरअक्स सीमा के उस पार चीन अधिकृत तिब्बत में तमाम विपरीत हालातों के होते हुए भी विकास की कोशिशें तेजी से साकार हो रही है। वहां रेल से लेकर सड़क एवं संचार नेटवर्क आदि के विकास ने चीनियों की भारतीय सीमा तक पहुंच आसान कर दी है। भारतीय क्षेत्र में असंतोष के मद्देनजर चीन लगातार भारतीय सीमा में पहुंचने की ताक में लगा रहता है। राज्य के नए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने खुद स्वीकार किया है कि अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के बाद चीन की नजर अब उत्तराखंड में घुसपैठ पर लगी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य के चमोली जिले के बाराहोती क्षेत्र में चीनी सैनिकों ने पिछले पांच वर्षों में 37 बार घुसपैठ करने की कोशिश की है। आंतरिक सुरक्षा के लिए बुलाए गए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राज्य के मुख्यमंत्री ने इन घुसपैठों के मद्देनजर चिंता जताई है।
जहां तक सीमा का सवाल है तो चीन से राज्य की 350 किलोमीटर लंबी सीमा लगी हुई है। इसकी सुरक्षा का जिम्मा भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के पास है। मुख्यमंत्री ने सम्मेलन में जो जानकारी सार्वजनिक की उसके मुताबिक वर्ष 2006 में छह बार, 2007 में दो बार, 2008 में दस बार व 2009 में ग्यारह बार तो 2010 में पांच तथा 2011 में तीन बार चीनी सैनिक सीमांत क्षेत्रों में घुसपैठ की कोशिश कर चुके हैं।
इधर राज्य से लगी चीनी सीमा तक बारह सड़कों के निर्माण की योजना को केंद्र सरकार ने स्वीकृति तो दी है लेकिन निर्माण की योजना को केंद्र सरकार ने स्वीकृति तो दी है लेकिन निर्माण से जुड़ी उलझनें दूर नहीं की जा रही हैं। रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण निर्माण को लेकर बरती जा रही हीला-हवाली से इस क्षेत्र की सुरक्ष भगवान भरोसे ही है। केंद्र ने इस क्षेत्र में बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम चलाया है। इसके तहत स्वीकृत धन भी राज्य सरकार पूरी तरह खर्च नहीं कर पा रही है। पर मुख्यमंत्री ने इस सीमावर्ती क्षेत्र के पांच जिलों के 34 विकासखंडों को इस योजना से आच्छादित करने की मांग की है। उधर चीन ने ल्हासा के किंगाई प्रांत तक रेल लाइन बिछा दी है तो भारतीय सीमा के गांव आज भी सड़क की बाट जोह रहे हैं। चीनी सीमांत क्षेत्र में विकास के प्रवाह से जनजीवन बेहतर हुआ है। जबकि भारतीय सीमांत इलाकों की बदहाली यहां के युवाओं को पलायन के लिए मजबूर कर रही है। स्थिति कितनी विकराल है इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि पिछले दस वर्षों में दस लाख से ज्यादा लोग अपना गांव-घर छोड़ने को मजबूर हुए हैं। दो लाख घरों में ताले पड़ गए हैं।
राज्य के युवाओं के पास रोजगार नहीं है और उनका यहां रुकना दूभर हो गया है। सात लाख से अधिक युवा बेरोजगारी की कतार में भिन्न रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत हैं। पिछले पांच वर्षों में सरकारों ने विभिन्न पदों के लिए भर्ती हेतु विज्ञापन तो निकाले लेकिन भर्ती नहीं हुई। उलटा बेरोजगारों से वसूले गए परीक्षा शुल्क तक की बंटरबांट कर ली गई, ऐसा लगता है। कुछ लोगों को जो रोजगार दिया भी गया वह एक सैनिक कल्याण के नाम पर बनी संस्था उपनल द्वारा। सत्तारूढ़ दल के नेता कभी उपनल तो कभी हिल्टान के जरिए अपने-अपने लोगों को छिटपुट नौकरी दिलाने की जोड़-तोड़ में ही लगे रहते हैं। दिनोदिन सुरसा की तरह मुंह फैलाती बैरोजगारी के बावजूद यहां के कल-कारखानों में स्थानीय लोगों को नौकरी देने में प्राथमिकता नहीं बरती जा रही है, क्योंकि इसके लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई है जबकि ये कल-कारखाने माकूल जमीनों पर लगाए गए हैं जिसने यहां के लोगों की रोटी छीनी है।
राज्य की खुशहाली का पर्याय बताई जा रही जलविद्युत परियोजनाओं ने भी यहां के लोगों को अब तक सिवाय विस्थापन और आपदाओं के कुछ और नहीं दिया है। उत्तराखंड में 558 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जो भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी और नदी सहायक जलधाराओं पर चल रही है या चलने वाली हैं। इन्हें भी संतों, पर्यावरणविदों व स्थानीय निवासियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। निर्माणाधीन योजनाओं में से कुछ परियोजनाएं संतों के विरोध के चलते बंद कर दी गई है। कई परियोजनाएं ऐसी हैं जो कि ग्रामीणों एवं स्थानीय नागरिकों के भी विरोध का कारण बनी हैं। 558 परियोजनाएं यदि पूरी बन गई तो इन परियोजनाओं के निर्माण के लिए उत्तराखंड की नदियों में लगभग 1,500 किलोमीटर की सुरंग बनानी पड़ेगी। इन सुरंगों में इन नदियों का पानी बहेगा। इससे लोगों को भय है कि वर्तमान नदियों का मार्ग इससे वीरान हो जाएगा।
इन परियोजनाओं को राज्य के उत्तरकाशी क्षेत्र में पर्यावरण पर काम कर रहे पर्यावरणविद् सुरेश भाई विनाशकारी करार देते हैं। सुरेश भाई की आशंका है कि गंगा व उसकी सहायक जलधाराओं का पानी जब सुरंगों से होकर बहेगा तो पवित्र गंगा का जल अपनी विशिष्टता खो देगा और उसका जल भी सामान्य जल की तरह सड़ने वाला हो जाएगा। इन प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण विस्थापन का सवाल भी अपने आप में महत्वपूर्ण है। दिनोंदिन खेती योग्य यहां की जमीन बांधों एवं बांध विस्थापितों के पुनर्वास में ही खत्म हो रही है। विकास का विनाशकारी मॉडल सामने आ रहा है। उससे नदियां, जंगल और जमीन सभी खतरे में हैं। इनसे जुड़े लोगों पर खतरा लाजिमी है। इन बांध परियोजनाओं से न केवल विस्थापन बल्कि पारिस्थितिकीय असंतुलन का भी खतरा पैदा हो गया है। इंटरनेशनल कमीशन फॉर स्नो एंड आइस ने तो एक अध्ययन के मद्देनजर चेताया है कि अगले 50 वर्षों में हिमालय के 50 हिमनद (ग्लेशियर) समाप्त हो सकते हैं। गौमुख पर खतरा किसी से छिपा नहीं रह गया है। लगातार सिकुड़ते इस हिमनद ने पिछले वर्षों में खूब सुर्खियों बटोरी है।
राज्य में खेती की जमीन भी लगातार सिकुड़ रही है। राज्य बनने के बाद विभिन्न योजनाओं के लिए खेती की जमीन विकास की भेंट चढ़ी और जमीन से स्थानीय किसान हाथ धोते चले गए। अब ये बिल्डर पूरे राज्य में पांव पसार रहे हैं। एक तो यूं भी राज्य के कुल क्षेत्रफल की महज तेरह फीसदी जमीन खेती योग्य है और यदि हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर जिलों को छोड़ दे तो शेष पहाड़ी जिलों में मात्र सात प्रतिशत भाग ही खेती के लिए बचता है। ऊपर से वहां भी खेती की जमीन लगातार विकास के नाम पर नष्ट की जा रही है। पंतनगर विवि के आसपास बने सिडकुल का उदाहरण लें तो पाते हैं कि इसके पास 14 हजार एकड़ जमीन हुआ करती थी। राज्य बनने के बाद आठ हजार एकड़ जमीन पर सिडकुल यानी राज्य औद्योगिक विकास संस्थान लगने से मात्र 6 हजार एकड़ ही अब विश्वविद्यालय के शोध एवं अन्य कार्यों के लिए बची है। ऐसे ही हरिद्वार, देहरादून और अन्य जिलों में बड़ी मात्रा में जमीनें बिल्डर्स प्रमोटर्स गतिविधियों की भेंट चढ़ी हैं।
भारत सरकार ने हाल ही में पंतनगर विवि से 1950 से लेकर अब तक कृषि की स्थिति से संबंधित एक रिपोर्ट मांगी थी। इसमें 2050 की आबादी का आकलन कर अनाज की आवश्यकता आदि की बाबत निष्कर्ष बताने को भी कहा गया था। विवि ने जो रिपोर्ट भेजी है उसके तथ्य चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार अभी पूरे देश में करीब 14 करोड़ हेक्टेयर खेतिहर जमीन है। बढ़ते शहरीकरण व खेती की जमीन का अन्य कामों में इस्तेमाल आदि के चलते 2050 तक लगभग दो करोड़ हेक्टेयर तक खेती योग्य जमीन कम हो जाएगी। इस हिसाब से एक दिन में 1,441 हेक्टेयर से ज्यादा उपजाऊ भूमि खत्म हो रही है। जबकि 2050 में आबादी बढ़कर एक अरब 70 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। इतनी आबादी के लिए सालाना 37 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी।
कृषि भूमि के लगातार सिकुड़ते जाने पर पंतनगर विवि की टीम ने गंभीर चेतावनी देते हुए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सीधे रिपोर्ट में कृषि भूमि के दूसरे कामों में इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने की संस्तुति की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आबादी की आवश्यकता के अनुरूप अनाज जुटाने के लिए भविष्य में अपरंपरागत क्षेत्र मसलन पर्वतीय, रेगिस्तान और तटवर्ती इलाके की जमीनों को खेती योग्य बनाने के प्रयास करने होंगे। साथ ही मौजूदा खेती योग्य जमीन की उपज बढ़ानी होगी। बहुमंजिला इमारतों को बढ़ावा देना होगा। इसके अलावा राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान व्यवस्था भी और सशक्त बनानी होगी। अनुसंधान पर अधिक खर्च करना होगा। स्पष्टतः कृषि भूमि का अविवेकी दोहन भविष्य के लिए बड़े खतरे को जन्म देने वाला साबित होने वाला है।
यह विडंबना ही है कि जिस पंतनगर विश्वविद्यालय को कृषि योग्य भूमि की दशा-दिशा पर अध्ययन का भार सौंपा गया था उसकी ही कृषि योग्य भूमि कल-कारखानों के निर्माण के कारण आधी से भी कम रह गई है। विश्वविद्यालय की कृषि योग्य भूमि की ज्यादा खुर्द-बुर्द पिछले सात सालों में हुई है। ऊपर से जनपद में खेती की जमीन पर खुलेआम अवैध प्लॉटिंग हो रही है लेकिन शासन-प्रशासन अनजान बना हुआ है। उत्तराखंड की तराई की जमीन खेती के लिए सर्वोत्तम है। यहां का चावल विदेशों में भी भेजा जाता है। लेकिन अब पिछले कुछ सालों में तराई की लगभग 30 हजार एकड़ भूमि पर अनाज की जगह कंक्रीट की फसल उग रही है।