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आदिकाल से पृथ्वी पर पानी का प्रबन्ध, प्रकृति, करती आई है। यह प्रबन्ध, प्रकृति द्वारा पानी को सौंपे गए लक्ष्यों की पूर्ति का प्रबन्ध है जिसे वह, प्राकृतिक घटकों की सहायता से पूरा कर रहा है। वे घटक, एक ओर जहाँ विभिन्न कालखण्डों में मौजूद जीवन की निरन्तरता एवं विकास यात्रा को निरापद परिस्थितियाँ उपलब्ध कराते रहे हैं तो दूसरी ओर भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियाओं की मदद से पृथ्वी का स्वरूप सँवारते रहे हैं।
पानी और पृथ्वी के उपर्युक्त सम्बन्ध को प्रकृति नियन्त्रित करती है। यह प्रबन्ध, एक ओर यदि जीवन के लिये निर्धारित मात्रा में जल उपलब्ध कराता है, तो दूसरी ओर उसे संरक्षित कर इष्टतम् व्यवस्था कायम करता है।
प्राकृतिक जल प्रबन्ध व्यवस्था को देखकर समझ में आता है कि वह वाष्पीकरण, बरसात तथा हिमपात, वर्षाजल, नदी जल, मिट्टी की नमी, ओस, बर्फ, समुद्री पानी के रूप में सक्रिय हो हजारों लाखों तरीकों से अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। पानी की प्राकृतिक भूमिका को देखकर कहा जा सकता है कि जल संरक्षण की तुलना में प्राकृतिक जल प्रबन्ध का दायरा बहुत बड़ा है।
प्रकृति नियन्त्रित जल प्रबन्ध व्यवस्था को समझने के लिये पृथ्वी पर अनेक संकेत तथा साक्ष्य मौजूद हैं। सबसे अधिक महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राकृतिक जलचक्र है जो वायुमण्डल तथा पृथ्वी के बीच पानी की मात्राओं के आदान-प्रदान के सन्तुलन को दर्शाता है। उसके अनुसार पृथ्वी से जितना पानी भाप बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है, उतना ही पानी, वायुमण्डल से बरसात के रूप में पृथ्वी पर वापस होता है।
इस आदान-प्रदान को दर्शाने वाले घटकों के योगदान को निम्न तालिका में दर्शाया है। तालिका में महाद्वीपों पर होने वाली वर्षा को 100 इकाई माना है। नीचे दिए घटक महाद्वीपों पर होने वाली वर्षा के समानुपाती हैं।
क्रमांक | घटक | योगदान |
1. | महाद्वीपों पर वर्षा | 100 |
2. | महासागरों पर वर्षा | 385 |
| पृथ्वी पर कुल वर्षा (सरल क्रमांक 01 और 02 का योग) | 485 |
3. | महाद्वीपों से वाष्पीकरण | 61 |
4. | महासगरों पर वाष्पीकरण | 424 |
| पृथ्वी पर कुल वाष्पीकरण (सरल क्रमांक 03 और 04 का योग) | 485 |
5. | वायुमण्डल में पानी की भाप की स्थायी मात्रा | 39 |
6. | सतही जल और भूजल का समुद्र को योगदान | 39 (38+1 = 39) |
ऊपर दी तालिका से पता चलता है कि - 1. वाष्पीकरण (485) और बरसात (485) की मात्रा एक दूसरे के बराबर तथा सन्तुलित है।
2. समुद्र से वाष्पीकृत होने वाले 424 इकाई पानी की समान वापसी तीन स्रोतों {वर्षा (385) नदी (38) तथा भूजल (1)} से होती है। आदान-प्रदान समान होने के कारण सन्तुलन बना रहता है।
3. हर साल महाद्वीपों पर 100 इकाई पानी बरसता है। इसमें से वाष्पीकरण द्वारा 61 वायुमण्डल को और नदियों तथा भूजल द्वारा 39 इकाई पानी समुद्र को वापस चला जाता है। आदान-प्रदान के समान होने के कारण सन्तुलन बना रहता है।
उपर्युक्त व्यवस्था के कारण महाद्वीपों तथा समुद्र के जल की मात्राओं में असन्तुलन पैदा नहीं होता। महाद्वीपों तथा वायुमण्डल में भी सन्तुलन व्यवस्था काम करती है। उससे पता चलता है कि पृथ्वी के वायुमण्डल में स्थायी रूप से मौजूद भाप की मात्रा और नदियों तथा भूजल द्वारा समुद्र को मिलने वाले पानी की मात्रा एक दूसरे के बराबर है। यह प्रकृति द्वारा संचालित प्राकृतिक जल प्रबन्ध है।
प्राकृतिक जलचक्र, पानी की सतत् यात्रा का विवरण पेश करता है। पानी अपनी यात्रा के दौरान वायुमण्डल में लगभग 15 किलोमीटर की ऊँचाई तक तथा धरती की ऊपरी परत में लगभग एक किलोमीटर की गहराई तक विचरण करता है। यह, यात्रा प्रकृति द्वारा सौंपी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये है। वह, कहीं जीवन जीने के लिये परिस्थितियाँ उपलब्ध करा रही है तो कहीं भौतिक या रासायनिक या दोनों बदलावों को अंजाम दे रही है।
आम आदमी को, प्राकृतिक जलचक्र अत्यन्त सरल नजर आता है पर हकीकत में वह तथा उसके अन्तर्गत चल रही प्रक्रियाएँ बहुत जटिल हैं। वह एक जटिल सिस्टम की तरह है। उनमें मौजूद पानी, लगातार चलता रहता है, अपने दायित्व पूरा करता है तथा परिणामों को अंजाम तक पहुँचाता है। उस व्यवस्था का न आदि है और न अन्त।
यह सच है कि जलचक्र में निहित पानी की सकल मात्रा अपरिवर्तनीय है परन्तु स्थानीय, क्षेत्रीय तथा महाद्वीपों के स्तर पर उसका वितरण लगातार बदलता रहता है। सतह पर बहने वाले तथा जमीन के नीचे प्रवाहित होने वाले पानी में अनेक समानताएँ तथा असमानताएँ हैं।
प्रकृति ने पृथ्वी पर बरसात और हिमपात की अदभुत व्यवस्था की है। मौटे तौर पर, भूमध्यरेखा के निकटवर्ती क्षेत्रों में खूब पानी बरसता है तो जैसे-जैसे उत्तर (कर्क रेखा) या दक्षिण (मकर रेखा) की ओर बढ़ते हैं वर्षा की मात्रा तथा उसके चरित्र में अन्तर दिखाई देने लगता है। ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को छोड़ कर, बाकी हिस्सों में बरसात की मात्रा घटती है और वर्षा दिवस भी कम होते हैं। ठण्ड बढ़ने लगती है तथा बरसात का स्थान हिमपात लेने लगता है।
उत्तर ध्रुवीय तथा दक्षिण ध्रुवीय इलाके बर्फ की चादर से स्थायी रूप से ढँक जाते हैं पर उसके नीचे पानी द्रव रूप में बने रहकर जीवन की निरन्तरता को कायम रखता है। गर्मी का मौसम भले ही कम अवधि का हो पर उस अल्प अवधि में वह बर्फ को पिघलाकर महासागरों को वापस करता है। वनस्पतियों को फलने-फूलने का अवसर देता है। जीवधारियों के लिये रोशनी, भोजन तथा स्वच्छतम् पानी की व्यवस्था करता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी पर लगभग 1300 करोड़ साल से पानी का अस्तित्व है। माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के लिये पानी ने ही उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध कराईं थीं और समय के साथ उसमें विविधता आई। बाद में, जीवन का विस्तार धरती पर हुआ। ज्ञातव्य है कि जीवन का अस्तित्व, वायुमण्डल, पृथ्वी के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों तथा समुद्र की अधिकतम गहराई के गहन अन्धकार तक में है।
समुद्री जीवन की जनगणना के अनुसार मौजूदा समय में धरती पर जीवों की प्रजातियों की संख्या 87 लाख के आसपास है। इस संख्या में 13 लाख की कमी या बढ़ोतरी हो सकती है। इनमें से लगभग 65 लाख प्रजातियाँ धरती की सतह के आसपास और उसके वातावरण में तथा लगभग 22 लाख प्रजातियाँ समुद्र में निवास करती हैं। यह विकास साफ पानी से लेकर खारे पानी तक में हुआ है।
सभी जगह पानी की इष्टतम् व्यवस्था ने जीवन की निरन्तरता तथा बदलाव के लिये वांछित परिस्थितियाँ उपलब्ध कराईं हैं। पानी, धरती के तापमान को नियमन करता है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि धरती पर जितनी अधिक जैव-विविधता होगी, धरती उतनी ही अधिक स्वस्थ तथा वनस्पतियों सहित, जीवधारियों के रहने के काबिल होगी।
पृथ्वी पर पानी की बहुत बड़ी मात्रा पौधों तथा जीव-जन्तुओं के शरीर में मिलती है। कहा जाता है कि जीव-जन्तुओं की तुलना में पौधों के शरीर में अधिक पानी होता है। यह मात्रा 90 से 95 प्रतिशत तक हो सकती है। प्रकृति ने एक ओर यदि पौधों तथा जीव-जन्तुओं के जीवित रखने के लिये पानी को आवश्यक बनाया है तो दूसरी ओर प्रकृति ने ही उनके शरीर को जल प्रबन्ध में जिम्मेदारी सौंपी है।
जीवों तथा मनुष्यों के शरीर में पानी का आचरण, वनस्पतियों की तुलना में थोड़ा जटिल भले ही प्रतीत होता है पर सिद्धान्ततः वह वनस्पतियों जैसा ही है। मनुष्य का पानी ग्रहण करने का तरीका भिन्न है। वह पानी को मुँह से पीता है। यह पानी, आँतों द्वारा सोख लिया जाता है। आँतों द्वारा सोखा पानी, रक्तवाहिकाओं के द्वारा पूरे शरीर में पहुँचता है। प्रकृति ने मानवीय शरीर से पानी बाहर करने के लिये पसीने तथा मूत्र की व्यवस्था की है। यदि यह व्यवस्था काम करना बन्द कर दे तो शरीर में जहर फैल जाता है। पौधों तथा मनुष्य के शरीर द्वारा संचालित जल चक्र में एक अन्तर है।जीव-जन्तु पानी तक पहुँच कर पानी हासिल करते हैं तो वनस्पतियों को पानी तक अपनी पहुँच बनानी होती है। इस अन्तर के कारण उनका पानी हासिल करने का तरीका भिन्न है। वे, अपनी जड़ों, ओस, वर्षा तथा सिंचाई से पानी प्राप्त करते हैं। फसलें, जिनकी आयु कम होती है, कम गहराई से; तो लम्बी उम्र वाले वृक्ष, अपेक्षाकृत अधिक गहराई से पानी प्राप्त करते हैं।
पौधों का जड़ों द्वारा सोखा पानी उनके शरीर के विभिन्न भागों से चल कर पत्तों तक पहुँचता है जहाँ से वह वाष्पीकृत हो वायुमण्डल में मिल जाता है। वनस्पतियाँ, इस विधि से जलचक्र को अपना योगदान देती है। इस योगदान के अन्तर्गत वनस्पतियाँ ओस, धरती की नमी, वर्षा तथा सिंचाई से प्राप्त पानी को वायुमण्डल को लौटा देती हैं। यह क्रिया वनस्पतियों की जड़ से प्रारम्भ हो पत्तों की सतह से वाष्पीकरण पर पहुँचकर समाप्त होती है।
जीवों तथा मनुष्यों के शरीर में पानी का आचरण, वनस्पतियों की तुलना में थोड़ा जटिल भले ही प्रतीत होता है पर सिद्धान्ततः वह वनस्पतियों जैसा ही है। मनुष्य का पानी ग्रहण करने का तरीका भिन्न है। वह पानी को मुँह से पीता है। यह पानी, आँतों द्वारा सोख लिया जाता है। आँतों द्वारा सोखा पानी, रक्तवाहिकाओं के द्वारा पूरे शरीर में पहुँचता है।
प्रकृति ने मानवीय शरीर से पानी बाहर करने के लिये पसीने तथा मूत्र की व्यवस्था की है। यदि यह व्यवस्था काम करना बन्द कर दे तो शरीर में जहर फैल जाता है। पौधों तथा मनुष्य के शरीर द्वारा संचालित जल चक्र में एक अन्तर है। मनुष्य शुद्ध पानी का सेवन करता है पर पसीने तथा मूत्र द्वारा गन्दा पानी लौटाता है वहीं पौधे अपनी जड़ों से रसायन युक्त पानी ग्रहण करते हैं तथा वाष्पीकरण द्वारा शुद्ध पानी वायुमण्डल को लौटाते हैं।
प्रकृति ने महाद्वीपों पर मौजूद जीवधारियों (लगभग 65 लाख प्रजातियाँ) और समुद्री जीवों (लगभग 22 लाख प्रजातियाँ) के योग-क्षेम के लिये क्रमशः शुद्ध पानी तथा खारा पानी उपलब्ध कराया है। पानी की यह उपलब्धता, बेहद असमान वितरण के बावजूद, जल प्रबन्ध का हिस्सा है। इसका सम्बन्ध धरती के रकबे या पानी की मात्रा या उसके तापमान से नहीं है।
सम्भवतः इस व्यवस्था का सम्बन्ध पानी की गुणवत्ता और परिवेश से जुड़ा है। इसी कारण उपलब्ध कराई मात्राएँ, जीवन की निरन्तरता तथा समस्त जीवधारियों के योग-क्षेम के लिये पर्याप्त हैं। समुद्र में निवास करने वाली प्रजातियों को पानी की उपलब्धता सतत् तथा सुनिश्चित है किन्तु महाद्वीपों पर निवास करने वाली आबादी के लिये वह बेहद चुनौतीपूर्ण, परिवर्तनीय तथा मौसम जैसे घटकों पर निर्भर है।
इन्हीं परिवर्तनीय तथा चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में प्रकृति ने हवा, पानी और रोशनी की मदद से प्रजातियों के उद्भव और विकास का प्राकृतिक चक्र संचालित किया है। उसी विकास यात्रा ने, समय-समय पर कुछ प्रजातियों का अस्तित्व समाप्त किया है तो कुछ नई प्रजातियों के उद्भव का मार्ग प्रशस्त किया है। पानी, इस बदलाव का साक्षी, व्यवस्थापक तथा हमसफर रहा है। पूरा बदलाव तापमान, पानी और सूर्य की रोशनी की भिन्नता के बावजूद सम्पन्न हुआ है।
महाद्वीपों पर जीवों की जनसंख्या तथा प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराए पानी के प्रतिशत को आँकड़ों के चश्मे से देखने से पता चलता है कि प्रकृति ने महाद्वीपों पर मौजूद लगभग 65 लाख प्रजातियों की सम्पूर्ण आबादी के योग-क्षेम के लिये मात्र 2.53 प्रतिशत शुद्ध पानी ही उपलब्ध कराया है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह प्रतिशत, शुद्ध पानी की उस सुरक्षित मात्रा को दर्शाता है जो महाद्वीपीय जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों के योग-क्षेम के लिये पर्याप्त है? यह प्रश्न इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में महाद्वीपों पर प्रजातियों का अस्तित्व नहीं था।
धीरे-धीरे महाद्वीपों पर जीवन पनपा, फिर उसमें इजाफा हुआ। क्या कारण है कि प्रकृति ने जीवधारियों की आबादी के लगातार बढ़ने के बावजूद, महाद्वीपों पर पानी की मात्रा या उसकी उपलब्धता को नहीं बढ़ाया? यक्ष प्रश्न है कि क्या प्राकृतिक मानदण्डों के अनुसार मौजूदा आबादी के लिये उपलब्ध शुद्ध जल पर्याप्त है?
एक यक्ष प्रश्न और है। क्या कारण है कि करोड़ों साल से धरती पर पानी की उपलब्धता जस-की-तस है। क्या कारण है कि प्रकृति को, इतने साल बीतने के बावजूद, उसकी मात्रा एवं ठिकानों में बदलाव की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई? क्या प्रकृति उपर्युक्त आँकड़ों या मात्रा तथा ठिकानों के माध्यम से सन्देश दे रही है कि यही सन्तुलित जलप्रबन्ध है?
पृथ्वी पर उपलब्ध पानी की कुल मात्रा का लगभग 97.2 प्रतिशत समुद्रों में और मात्र 2.8 प्रतिशत महाद्वीपों पर मिलता है। पानी का उपर्युक्त वितरण महाद्वीपों और समुद्र के क्षेत्रफल के मौजूदा अनुपात 30:70 से मेल नहीं खाता। महाद्वीपों पर भी पानी का वितरण असमान है। ग्लेशियरों और बर्फ की चोटियों में उसकी 2.14 प्रतिशत मात्रा कैद है तो सतही जल के रूप में उसका केवल 0.009 प्रतिशत भाग ही पाया जाता है।
धरती के नीचे मिट्टी में नमी के रूप में उसकी 0.005 प्रतिशत मात्रा और भूजल के रूप में उसकी 0.61 प्रतिशत मात्रा संचित है। क्या यह निरापद व्यवस्था है? क्या यही पृथ्वी पर प्रकृति नियन्त्रित जल वितरण व्यवस्था है? ये कुछ प्रश्न हैं जिनका सही-सही उत्तर दिया जाना सरल नहीं है।
1300 करोड़ साल पहले जब पृथ्वी पर पानी आया तो निश्चित ही वह खारा नहीं होगा। वह शुद्ध, साफ तथा समान गुणधर्मों वाला रहा होगा। स्थान भेद के कारण, अपवाद स्वरूप, कहीं-कहीं उसकी गुणवत्ता में थोड़ा-बहुत अन्तर होगा पर पृथ्वी पर संचालित प्राकृतिक जलचक्र के प्रभाव से समुद्र का साफ पानी, धीरे-धीरे, खारे होते पानी में बदला। समुद्र को खारा बनाने में नदियों तथा भूजल का योगदान है। यह योगदान सतत् तथा कभी भी समाप्त नहीं होने वाला योगदान है।
यह पानी, हर साल, समुद्र में रसायनों को जमा करता है। समुद्र डस्टबिन की तरह उपयोग में आते हैं। तथा नदियों की प्राकृतिक भूमिका, रसायनों और मलबे को गन्तव्य की ओर ले जाना है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग है। सम्भवतः इस प्रक्रिया द्वारा प्रकृति, धरती की सफाई और खनिजों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है।
समुद्रों में जमा मलबे के सहयोग से महाद्वीपों के जन्म तथा धरती के स्वरूप में बदलाव की इबारत लिखती है। सम्भवतः इस परिप्रेक्ष्य में समुद्रों के क्षेत्रफल या उसमें उपलब्ध पानी की मात्रा का प्रश्न अनावश्यक और बेमानी है।
समुद्री पानी के खारेपन के लगातार बढ़ते रहने के बावजूद प्रकृति ने उसको जीवन की नियामत से महरूम नहीं किया। खारे होते पानी में भी जीवन को प्रश्रय दिया। उसे विविधता बख्शी। भूमध्य सागरीय इलाकों से लेकर ध्रुवीय इलाकों तक खारेपन और तापमान की भिन्नता तथा सतह से लेकर अतुल गहराईयों में रोशनी की असमानता के बावजूद, समुद्रों में विभिन्न प्रजातियों का जीवन फल-फूल रहा है।
जीवन को सम्बल देता, यह जल प्रबन्ध दर्शाता है कि परिस्थितियों के भिन्न होने के बावजूद सभी महासागरों तथा खारे पानी की झीलों में जीवन पलता है। जीवन का फलना-फूलना दर्शाता है कि प्रकृति ने खारे होते समुद्री या झीलों के पानी में जीवन की सम्भावनाओं को बिना नकारे, योग-क्षेम उपलब्ध कराया है। क्या यही प्राकृतिक जल प्रबन्ध है जो महाद्वीपों से बिलकुल ही भिन्न समुद्री परिवेश में जीवन को निरापद आधार प्रदान करता है।
अब कुछ बात पानी के मिजाज की। स्थान भेद से उसके तापमान में अन्तर देखा गया है। धरती पर मिलने वाले पानी के तापमान पर मौसम का असर होता है। वह, मौसम के अनुसार बदलता है। मरुस्थलों तथा अत्यन्त गर्म इलाकों में उसका तापमान, वातावरण के तापमान से मेल खाता है तो साइबेरिया के सबसे ठण्डे क्षेत्र में, जिसे सर्दी का उत्तरी ध्रुव कहा जाता है, उसका न्यूनतम तापमान - 67.7 डिग्री सेंटीग्रेड तक नीचे उतर जाता है।
भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवों तक के समुद्रों के पानी के तापमान में अन्तर होता है तो गहराई के अनुसार भी वह बदलता है। सर्दी के मौसम में समुद्र की सतह पर मौजूद पानी भले ही जम जाए पर गहराई पर वह लगभग 4 डिग्री सेंटीग्रेड पर द्रव रूप में मौजूद हो, जीवधारियों को उपयुक्त परिवेश तथा ऑक्सीजन उपलब्ध कराता है।
पानी स्वभाव से अस्थिर है इसलिये उसके ठिकानों और मात्रा का वितरण सब जगह एक जैसा नहीं है। इसी प्रकृति के कारण वह महासागरों में गर्म और ठण्डी जल धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। इसी कारण वायुमण्डल में वाष्प, पानी तथा बर्फ के रूप में रह लेता है। इसी कारण, वह धरती की गहराईयों में मैग्मा का हिस्सा बनता है। विभिन्न खनिजों के साहचर्य में यात्राएँ करता है। क्या उसका यायावरी मिजाज भी प्राकृतिक जल प्रबन्ध का हिस्सा है?
संक्षेप में, प्रकृति नियन्त्रित जलप्रबन्ध की फिलासफी का मूल मन्त्र महाद्वीपों की धरती की साफ-सफाई कर जीव मात्र के निरापद जीवन के लिये शुद्ध पानी उपलब्ध कराना, नदी घाटी के भूगोल के परिमार्जन के लिये व्यवस्था करना तथा महाद्वीपों पर हर साल पनपने वाली गन्दगी को समुद्र के हवाले कर धरती की नई इबारत लिखने के लिये आधार तैयार करना है पर क्या मौजूदा विकास उस इबारत के लिये अवसर देगा?