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नई दुनिया, 19 जून 2011
भारतीय संस्कृति और अध्यात्म की प्रतीक पावन गंगा की अविच्छिन्न धारा में रुकावट और प्रदूषण की जिस समस्या से निजात दिलाने के लिए सफाई के नाम पर हजारों करोड़ खर्च कर दिए गए और इतना ही खर्च करने की योजना है, उसी समस्या के चलते निगमानंद जैसे संत को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। निश्चित रूप से इस घटना ने गंगा सफाई अभियान और इसके इर्द गिर्द अवैध खनन से आने वाले समय में जो स्थिति उत्पन्न होने वाली है, उसका संकेत तो दे ही दिया है। आखिर क्यों है गंगा अभियानों की यह स्थिति और कहां है व्यस्था में कमी, पेश है फोकस के इस अंक में इसी की दास्तां।
अब फिर शुरू हुई सफाई की कवायद। 14 सौ करोड़ और होगा खर्च। गंगा प्रदूषण मुक्ति परियोजना पर विश्व बैंक का भारत सरकार के साथ 14 जून को हुआ करार। इस अवसर पर पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश एवं अन्य।
भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन में नदियों को माता का दर्जा देने की बात आसानी से स्पष्ट हो जाती है। गंगा, कावेरी, नर्मदा, यमुना, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र जैसी नदी माताओं की स्तुति संस्कृत और स्थानीय भाषाओं में कई श्लोकों और गीतों के माध्यम से की गई है लेकिन आज हिमालय से निकलने वाली गंगा और यमुना हों या अमरकंटक के जंगलों से निकलकर मध्य भारत के पहा़ड़ों और पठारों में अठखेलियां करने वाली नर्मदा या दक्षिण भारत की भूमि को उर्वर बनाने वाली कावेरी, गोदावरी और तुंगभद्रा जैसी नदियां, सबका हाल बुरा है। पानी सूख रहा है, नदियां सदियों पुराने किनारे छो़ड़ रही हैं, नदियों के मार्ग अप्राकृतिक रूप से बदले जा रहे हैं और शहरों व कारखानों की गंदगी नदियों को नाले में तब्दील कर रही है लेकिन इन नदियों की फिक्र किसी को नहीं है। गऊ और गंगा के नाम पर होने वाली धार्मिक राजनीति हो या पर्यावरण संरक्षण की आ़ड़ में विकास योजनाओं को ठप करके विदेशी संगठनों के हित साधन करने वाली एनजीओ धारा, किसी को नदियों को बचाने की गंभीर चिंता नहीं है। सरकारें तो इस ओर से न सिर्फ उदासीन हैं, बल्कि गंगा और दूसरी नदियों को नष्ट करने में उनकी भूमिका जग जाहिर है।
हिमालय की पडा़ड़ियों में गंगा को बांधने के लिए बनने वाले टिहरी बांध की शुरुआत के समय से ही कई सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने गंगा के अस्तित्व को लेकर सवाल उठाने शुरु किए थे। पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने आमरण अनशन तक किया था। विश्व हिंदू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव अशोक सिंघल ने टिहरी बांध के विरोध में गंगा में जल समाधि लेने का ऐलान किया था। वहीं सरकार और अन्य एजेंसियों का जोर गंगा को बचाने से ज्यादा विस्थापितों को राहत के नाम पर ज्यादा पैसे देकर विरोध के स्वरों को दबाने का था लेकिन बांध बना और गंगा सिकु़ड़ती गई । अब उत्तराखंड में बनने वाली कुछ जल विद्युत परियोजनाओं पर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन गंगा के अस्तित्व को बांध और विद्युत परियोजनाओं से भी ज्यादा खतरा उसके किनारों पर होने वाले अवैध खनन और हरिद्वार से लेकर गंगा सागर तक गंगा के किनारे बसे शहरों के कचरे और गंदगी के नदी में समाने की वजह से है। राजीव गांधी सरकार ने गंगा विकास प्राधिकरण बनाकर इसकी पहल की थी।
दो साल पहले द्वारिका और ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के प्रयासों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके इसके उद्धार के लिए सात हजार करो़ड़ रुपए की परियोजना घोषित की। हाल ही में भाजपा में शामिल हुईं मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने गंगा के उद्धार को अपने जीवन का मिशन बनाने की घोषणा की है। वर्षों पहले कानपुर में गंगा को तटों पर वापस लाने के लिए एक संत के आह्वान पर श्रमदान का अभियान शुरू हुआ था। अब गंगा को लेकर चिंता सार्वजनिक हुई है और जनमत बना है लेकिन जिस तरह भ्रष्टाचार को लेकर देश में जनमत का दबाव राजनीति पर प़ड़ता दिखाई दे रहा है, वैसा दबाव गंगा और दूसरी नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए नहीं बनता दिख रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दल और सरकारें दिखावे के लिए भले ही गंगा और अन्य नदियों को बचाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती हों लेकिन दूसरी तरफ रेत और खनन माफिया, ब़ड़े कारखाना मालिकों और नदी को नष्ट करके बनने वाली परियोजनाओं के साथ पूरी साठ गांठ रखती हैं। यही वजह है कि गंगा, अन्य नदियों को बचाने का अभियान धरातर पर परवान नहीं च़ढ़ पा रहा है।
अब फिर शुरू हुई सफाई की कवायद। 14 सौ करोड़ और होगा खर्च। गंगा प्रदूषण मुक्ति परियोजना पर विश्व बैंक का भारत सरकार के साथ 14 जून को हुआ करार। इस अवसर पर पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश एवं अन्य।
भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन में नदियों को माता का दर्जा देने की बात आसानी से स्पष्ट हो जाती है। गंगा, कावेरी, नर्मदा, यमुना, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र जैसी नदी माताओं की स्तुति संस्कृत और स्थानीय भाषाओं में कई श्लोकों और गीतों के माध्यम से की गई है लेकिन आज हिमालय से निकलने वाली गंगा और यमुना हों या अमरकंटक के जंगलों से निकलकर मध्य भारत के पहा़ड़ों और पठारों में अठखेलियां करने वाली नर्मदा या दक्षिण भारत की भूमि को उर्वर बनाने वाली कावेरी, गोदावरी और तुंगभद्रा जैसी नदियां, सबका हाल बुरा है। पानी सूख रहा है, नदियां सदियों पुराने किनारे छो़ड़ रही हैं, नदियों के मार्ग अप्राकृतिक रूप से बदले जा रहे हैं और शहरों व कारखानों की गंदगी नदियों को नाले में तब्दील कर रही है लेकिन इन नदियों की फिक्र किसी को नहीं है। गऊ और गंगा के नाम पर होने वाली धार्मिक राजनीति हो या पर्यावरण संरक्षण की आ़ड़ में विकास योजनाओं को ठप करके विदेशी संगठनों के हित साधन करने वाली एनजीओ धारा, किसी को नदियों को बचाने की गंभीर चिंता नहीं है। सरकारें तो इस ओर से न सिर्फ उदासीन हैं, बल्कि गंगा और दूसरी नदियों को नष्ट करने में उनकी भूमिका जग जाहिर है।
हिमालय की पडा़ड़ियों में गंगा को बांधने के लिए बनने वाले टिहरी बांध की शुरुआत के समय से ही कई सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने गंगा के अस्तित्व को लेकर सवाल उठाने शुरु किए थे। पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने आमरण अनशन तक किया था। विश्व हिंदू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव अशोक सिंघल ने टिहरी बांध के विरोध में गंगा में जल समाधि लेने का ऐलान किया था। वहीं सरकार और अन्य एजेंसियों का जोर गंगा को बचाने से ज्यादा विस्थापितों को राहत के नाम पर ज्यादा पैसे देकर विरोध के स्वरों को दबाने का था लेकिन बांध बना और गंगा सिकु़ड़ती गई । अब उत्तराखंड में बनने वाली कुछ जल विद्युत परियोजनाओं पर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन गंगा के अस्तित्व को बांध और विद्युत परियोजनाओं से भी ज्यादा खतरा उसके किनारों पर होने वाले अवैध खनन और हरिद्वार से लेकर गंगा सागर तक गंगा के किनारे बसे शहरों के कचरे और गंदगी के नदी में समाने की वजह से है। राजीव गांधी सरकार ने गंगा विकास प्राधिकरण बनाकर इसकी पहल की थी।
दो साल पहले द्वारिका और ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के प्रयासों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके इसके उद्धार के लिए सात हजार करो़ड़ रुपए की परियोजना घोषित की। हाल ही में भाजपा में शामिल हुईं मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने गंगा के उद्धार को अपने जीवन का मिशन बनाने की घोषणा की है। वर्षों पहले कानपुर में गंगा को तटों पर वापस लाने के लिए एक संत के आह्वान पर श्रमदान का अभियान शुरू हुआ था। अब गंगा को लेकर चिंता सार्वजनिक हुई है और जनमत बना है लेकिन जिस तरह भ्रष्टाचार को लेकर देश में जनमत का दबाव राजनीति पर प़ड़ता दिखाई दे रहा है, वैसा दबाव गंगा और दूसरी नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए नहीं बनता दिख रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक दल और सरकारें दिखावे के लिए भले ही गंगा और अन्य नदियों को बचाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती हों लेकिन दूसरी तरफ रेत और खनन माफिया, ब़ड़े कारखाना मालिकों और नदी को नष्ट करके बनने वाली परियोजनाओं के साथ पूरी साठ गांठ रखती हैं। यही वजह है कि गंगा, अन्य नदियों को बचाने का अभियान धरातर पर परवान नहीं च़ढ़ पा रहा है।