गंगा नदी का बरसों पुराना, धार्मिक पहलू है जो करोड़ों भारतीयों की आस्था के मूल में शताब्दियों से रचा-बसा है। इन भारतीयों की नजर में यह पवित्र नदी भगवान शंकर की जटाओं से निकली है और इसे स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए राजा भागीरथ ने भागीरथी प्रयास किया था। यह पवित्र एवं पावन नदी है। इसमें स्नान करने से जीवन पवित्र होता है तथा अस्थियां विसर्जित करने से मोक्ष मिलता है।
पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी होगी जिसके बारे में जनमानस तथा धर्मग्रंथों में इस प्रकार की मान्यताएं तथा विश्वास वर्णित हों। कई साल पहले राजकपूर ने ‘राम तेरी गंगा मैली’ नाम की एक फिल्म बनाई थी। सब जानते है कि राजकपूर बहुत ही कल्पनाशील कलाकार, कुशल चितेरे और जगजाहिर फिल्म निर्माता थे। विषयों पर उनकी पकड़ अद्भुत थी और बात कहने का उनका अलग अंदाज़ था। इसलिए यह कहना कठिन है कि उस फिल्म की कहानी, केवल और केवल, फिल्म की हीरोइन की कहानी थी या करोड़ों भारतीयों के मन में रची बसी गंगा समेत देश की नदियों की दुर्दशा की। उस फिल्म की मदद से राजकपूर ने जो संदेश दिया था वह दोनों अर्थात फिल्म की हीरोइन पर और गंगा समेत देश की नदियों पर, पूरी तरह लागू है। दोनों की दुर्गति की कहानी एक ही है।गंगा की सफाई की कहानी सन 1985 में शुरू हुई। गंगा एक्शन प्लान (जी.ए.पी.) बना जिसे सरकारी शब्दावली में फेज वन अर्थात प्रथम चरण कहा गया। केन्द्र सरकार की इस योजना का मकसद नदी के पानी की गुणवत्ता में सुधार करना था।
इस मकसद को हासिल करने के लिए जो रोडमैप बनाया गया था या कदम तय किए गए थे उनमें सीवेज की गंदगी को रोककर उसकी दिशा बदलना, सीवेज की साफ सफाई के लिए उपचार प्लांट तथा कम लागत वाली स्वच्छता व्यवस्था स्थापित करना एवं गंगा में दाह-संस्कार को हतोत्साहित करना शामिल था प्रथम चरण की प्रगति से उत्साहित सरकार ने गंगा सफाई परियोजना के दूसरे चरण की शुरूआत की।
इस चरण में गंगा की प्रमुख सहायक नदियों जैसे यमुना, गोमती, दामोदर और महानन्दा को साफ-सफाई के दायरे में शामिल किया। दिसम्बर, 1996 में राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना बनी और गंगा सफाई प्लान को उसमें जोड़ा गया। इस योजना पर लगभग 837.40 करोड़ खर्च किए गए तथा हर दिन सीवर के 1025 मिलियन लीटर पानी को साफ करने की क्षमता विकसित की गई है।
भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया तथा 20 फरवरी, 2009 को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 (3) के अंतर्गत राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी अथॉरिटी (एन.जी.आर.बी.ए.) का गठन किया। भारत के प्रधानमंत्री इस संगठन के मुखिया हैं और उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री इसके सदस्य हैं।
इस संगठन के अन्य सदस्यों में केन्द्र सरकार के वित्त, शहरी विकास, जल संसाधन, उर्जा, विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी, पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के मंत्री, प्लानिंग कमीशन के उपाध्यक्ष, पांच नामांकित नामचीन विषय विशेषज्ञ (हाइड्रोलाजी, पर्यावरण अभियांत्रिकी, नदी संरक्षण, सामाजिक क्षेत्र इत्यादि) इसके सदस्य हैं। इस आथॉरिटी को नियामक तथा विकासोन्मुखी अधिकार दिए गए हैं एवं वह प्लानिंग, मानिटरिंग तथा आर्थिक अधिकारों से लैस सक्षम समन्वयक संगठन है।
राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी अथाॉरिटी के गठन को घोषित उद्देश्य गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता तथा प्रवाह, उस तक टिकाऊ पहुंच, पर्यावरणी प्रबंध, प्रदूषण नियंत्रण एवं बचाव तथा भोजन एवं ऊर्जा सुरक्षा है। इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय मिशन की संज्ञा दी गई है। इस संगठन का सारा प्रयास गंगा नदी में न्यूनतम पर्यावरणी प्रवाह सुनिश्चित करना तथा प्रदूषण को कम करना है।
सरकारी सूत्रों के अनुसार राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी अथाॉरिटी ने गंगा शुद्धीकरण के लिए विस्तृत कार्ययोजना बनाने का काम प्रारंभ कर दिया है। भारत सरकार ने इस अनुक्रम में, राज्य सरकारों से उन खास संवेदनशील स्थानों तथा प्रमुख नगरों के लिए तत्काल योजनाए बनाने तथा अमल के लिए कहा है जहां प्रदूषण का स्तर चिंताजनक है।
केन्द्र सरकार का मानना है कि नदियों का संरक्षण एक सतत प्रक्रिया तथा सामूहिक प्रयासों का अंग है और इस अनुक्रम में अन्य योजनाओं यथा जवाहरलाल नेहरू अर्बन रीन्यूअल मिशन, छोटे तथा मध्यम नगरों की अधोसंरचना विकास योजनाओं तथा राज्य सरकार की अन्य समान योजनाओं के वित्तीय सहयोग से जल-मल योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।
सरकारी सूत्रों के अनुसार गंगा नदी के निकट बसे नगरों के पास 3000 मिलियन लीटर सीवर के पानी के उपचार की क्षमता है। इस क्षमता के लगभग 34 प्रतिशत अर्थात 1025 मलियन लीटर सीवर के पानी के उपचार की क्षमता का ही उपयोग हो पाता है।
इस हकीकत को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी अथॉरिटी ने तय किया है कि सन 2020 तक यह सुनिश्चित किया जाएगा कि नगरों का अनुपचारित पानी तथा कल-कारखानों के प्रदूषित जल को किसी भी स्थिति में गंगा में विसर्जित नहीं होने दिया जाए। संयंत्रों की स्थापना पर एकमुश्त तथा उपचार पर होने वाले नियमित व्यय पर जो राशि खर्च होगी उसे योजना आयोग, वित्त मंत्रालय तथा राज्य सरकार के साथ विचार विमर्श के उपरांत राज्य तथा केन्द्र की सरकारें मिलकर वहन करेंगी।
व्यवस्था की चर्चा के बाद, वैज्ञानिकों द्वारा की जा रही पानी के गणित की बात करना उचित होगा। उल्लेखनिय है कि गंगा नदी की घाटी हिमालय पर्वत के दक्षिणी ढलानों तथा विंध्याचल के उत्तरी ढलानों के कुछ भूभाग से बहती हुई विशाल मात्रा में बरसात तथा बर्फ के पानी को साथ लेकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। गंगा का कछार भारत की धरती के लगभग एक चौथाई भाग को अपने में समेटता है। सब जानते हैं कि हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों को बरसात के अलावा, गर्मी के मौसम में बर्फ के पिघलने के कारण अतिरिक्त पानी मिलता है।
यह पानी उनके ग्रीष्मकालीन प्रवाह को बढ़ाता है जिसके कारण वे बारहमासी रहती हैं तथा उनमें कभी भी पानी की कमी का अनुभव नहीं होता पर पिछले कुछ सालों से उनके ग्रीष्मकालीन जल-प्रवाह में कमी देखी जा रही है। इस हकीकत को समझने के लिए सबसे पहले, हिमालय के ग्लेशियरों की सेहत की चर्चा करना ठीक होगा जो गर्मी के मौसम में नदियों को पानी देते हैं।
ग्लेशियरों की सेहत की पड़ताल करने वाले हिमवैज्ञानिकों के अनुसार पिछले कुछ सालों से अलग-अलग इलाकों में ग्लेशियरों अलग-अलग गति से सिकुड़ रहे है तथा उनकी पानी देने की क्षमता लगातार कम हो रही है। यह सब गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियों को पानी देने वाले ग्लेशियरों के साथ भी हो रहा है जिसके कारण इन नदियों के ग्रीष्मकालीन प्रवाह में कमी दिखाई दे रही है।
ग्लेशियरों के पिघलने का संबंध मौसम के बदलाव से है। जून 2009 में भारत सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन पर गठित राष्ट्रीय कार्य आयोजना (नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज) में हिमालय के इको-सिस्टम के स्थायित्व के लिए प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत मौसम के व्यवहार को समझने, ग्लेशियरों के सिकुड़ने तथा किस प्रकार समस्या से निपटा जा सकता है, जैसे बिंदुओं पर समझ बनाई जाएगी।
उल्लेखनीय है कि इंटर गवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज की चौथी आकलन रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया के ग्लेशियरों की तुलना में हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की गति सर्वाधिक है। उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार यदि यही गति आगे भी बरकरार रही तो संभावना है कि सन 2035 तक (उसके पहले भी) हिमालय के ग्लेशियरों का नामोनिशान मिट जाए।
हिमालय के भूविज्ञान से जुड़े विभिन्न पक्षों पर देहरादून स्थित वाडिया संस्थान काम कर रहा है। इस संस्थान में हिमालयीन ग्लेशियर विज्ञान (हिमालयन ग्लेशियोलॉजी) पर नया अनुसंधान केन्द्र खोला गया है। इस केन्द्र ने हिमालय के इको-सिस्टम के स्थायित्व के लिए बेहतर प्रबंध व्यवस्था तथा मार्गदर्शिका विकसित की है। अनुसंधान केन्द्र ने इस व्यवस्था तथा मार्गदर्शिका पर संबंधित राज्य सरकारों से विचार विमर्श किया है।
गंगा नदी का दूसरा, बरसों पुराना, धार्मिक पहलू है जो करोड़ों भारतीयों की आस्था के मूल में शताब्दियों से रचा-बसा है। इन भारतीयों की नजर में यह पवित्र नदी भगवान शंकर की जटाओं से निकली है और इसे स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए राजा भागीरथ ने भागीरथी प्रयास किया था। यह पवित्र एवं पावन नदी है। इसमें स्नान करने से जीवन पवित्र होता है तथा अस्थियां विसर्जित करने से मोक्ष मिलता है। पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी होगी जिसके बारे में जनमानस तथा धर्मग्रंथों में इस प्रकार की मान्यताएं तथा विश्वास वर्णित हों। गंगा स्नान के लिए बाकायदा तिथियां और कुम्भ तथा अर्द्धकुम्भ के लिए स्थान तथा पवित्र समय निर्धारित हैं। इसी आस्था के कारण आज भी लाखों हिन्दू तीर्थ यात्री इस पवित्र नदी पर स्नान करने के लिए, बिना बुलाए आते हैं और सारे प्रदूषण के बावजूद स्नान करते हैं। तांबा/पीतल के पात्र में पवित्र जल, अपने-अपने घर ले जाते हैं और पूजा-पाठ में उसका उपयोग करते हैं। यह आस्था, गंगा में लाखों लोगों के स्नान तथा अस्थियों के विसर्जन के बाद भी कम नहीं होती। आज भी करोड़ों हिंदुओं के मन में यह विश्वास गहरे तक पैठा है कि गंगाजल में कीटाणु नहीं पनपते और वह सालों साल खराब नहीं होता। इसी अनुक्रम में भूवैज्ञानिकों की मान्यता है कि गंगा के पानी की कभी खराब नहीं होने की विलक्षण क्षमता के पीछे उसके गंगोत्री (उद्गम) के निकट मिलने वाली मसूरी अपनति संरचना (मसौरी सिंक्लिनल स्ट्रक्चर) है जिसमें फास्फोराइट नामक रेडियोएक्टिव खनिज मिलता है। इस खनिज में मौजूद रेडियो एक्टिव पदार्थ की अल्प मात्रा के गंगाजल में मिलने के कारण, उसमें कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता विकसित हो जाती है पर रेडियो एक्टिव पदार्थ की वह अल्प मात्रा जो गंगाजल में मौजूद होती है, मनुष्यों के लिए नुकसानदेह नहीं है। प्रकृति नियंत्रित तथा उद्गम पर मौजूद यह विलक्षण विशेषता दुनिया की किसी अन्य नदी में मौजूद नहीं है।
आम चर्चा में अथा अनेक बार मीडिया में भी जब गंगाजल को अशुद्ध करने वाले कारणों की बात होती है तो कहा जाता है कि इसके पीछे लाखों लोगों का स्नान, मृत शरीरों का निपटान तथा अस्थि विसर्जन की हिन्दू परंपरा है। इस स्रोत से आने वाले प्रदूषण और कल-कारखानों से आने वाले प्रदूषण का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है। उद्गम के बाद से गंगा में कदम-कदम पर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश बिहार और बंगाल के कल-कारखानों का कचरा, गंदा पानी तथा अनुपचारित अपशिष्ट नदी में बेशर्मी एवं देश के कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए चौबीसों घंटे उंडेला जाता है। इस बेशर्मी के कारण गंगा और उसकी सहायक नदियां तेजी से गटर या गंदे नाले में बदलती जा रही हैं। यही हाल कश्मीर से कन्याकुमारी तथा द्वारका से देश की पूर्वी सीमा तक बिना अपवाद के लगभग सभी नदियों में देखा जा सकता है। प्रदूषण की इस डरावनी कहानी में भूजल भी योगदान देने में पीछे नहीं है। लाभप्रद सिंचित खेती में काम आने वाले प्रदूषक नदी नालों की सेहत खराब करने में बिलकुल भी पीछे नहीं है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष द्वारा बरसों पहले प्रकाशित देश का पर्यावरण नामक किताब में पेज 28 पर कहा है कि गंगा के प्रदूषण में उद्योगों के रासायनिक अवशेषों का येागदान भी काफी है। डी.डी.टी. के कारखाने, चमड़ा साफ करने वाले, लुगदी और कागज उद्योग, पेट्रोकेमिकल और रासायनिक खाद, रबड़ और ऐसे कई कारखानों ने अपनी गंदगी फेंकने के लिए गंगा को ही उपयुक्त समझा है। इन सारे अवशेषों की मात्रा गंदे नालों से गिरने वाले पानी से आधी ही है-कानपुर में 18 प्रतिशत, इलाहाबाद में 4 प्रतिशत और वाराणसी में 5 प्रतिशत। पर अनेक वैज्ञानिक परीक्षणों ने सिद्ध किया है कि वाराणसी के निचले प्रवाह में औद्योगिक कचरा तेजी से बढ़ रहा है और उसका जहर नदी के बहुत से भाग में मछलियों को खत्म कर रहा है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं से प्रदूषण की मात्रा यों तो अभी कम ही है, लेकिन वह क्रमशः बढ़ती जा रही है। किताब में लगभग 50 साल पुराने अनेक उदाहरण दिए हैं पर अधिक संवेदनशील उदाहरण अगले पैराग्राफ में उल्लेखित हैं।
ऋषिकेश, हरिद्वार और वाराणसी जैसी तीन पवित्र शहरों में गंगा का पानी काफी खराब हो रहा है। इन नगरों में वह बिना साफ किए पीने योग्य नहीं रहा है। इलाहाबाद में तब हालत उतनी खराब नहीं थी पर उस समय भी कानपुर किसी भी तरह पवित्र नगर नहीं था। उसके गंदे नालों और उद्योगों के अवशेषों के कारण मछलियां मर रही हैं।
कानपुर में हो रहे प्रदूषण में भैरोंघाट के बाद से उसमें मिलने वाले गंदे नालों का पानी और कपड़ा मिलों तथा चमड़े के कारखानों का कचरा आने लगता है जो पानी का रंग बदल देता है। इसके अलावा कानपुर के बिजलीघर तथा जे. के रेयान्स के अवशेष भी हैं, जो प्रदूषण को बढ़ाते हैं। इलाहाबाद के पास फूलपुर में इफ्को का रासायनिक खाद कारखाना, सन 1980 से गंगा का प्रदूषण बढ़ा रहा है। पटना, मोकामा पुल के निकट का इलाका जहां बाटा, मैकडॉवल डिस्टलरी, तेल शोधक कारखाना, ताप-बिजलीघर तथा रासायनिक खाद का कारखाना लगातार प्रदूषण फैला रहे है, पानी को असुरक्षित बनाने में पीछे नहीं हैं। समूची गंगा के मैदान में, सबसे अधिक प्रदूषण कोलकाता और हावड़ा में है जहां सबसे ज्यादा उद्योग धंधे तथा सर्वाधिक आबादी निवास करती है। देश के पर्यावरण का यह चित्र 40 से 50 साल पुराना है। गंगा के प्रदूषण की हालत पर संदर्भित किताब के पेज 30 पर कहा गया है कि अब गंगा से पृथ्वी को बचाने के लिए शिवजी की आवश्यकता नहीं है, खुद गंगा को जनता की हिंसा से बचाने की आवश्यकता है। इस तल्ख टिप्पणी में लेखक केवल इतना जोड़ना चाहता है कि खुद गंगा को कल-करखानों की हिंसा से बचाने की आवश्यकता है क्योंकि जनता द्वारा की जा रही हिंसा तो समुद्र में एक बूंद के तुल्य है। गंगा के प्रदूषण में उसकी सहायक नदियों के योगदान को यदि जोड़ दिया जाए तो प्रदूषण गाथा की भयावहता कई गुनी और बढ़ जाती है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कानपुर, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, पटना विश्वविद्यालय इत्यादि प्रख्यात संस्थानों द्वारा गंगा के पानी की गुणवत्ता की विभिन्न स्थानों पर मानीटरिंग की जा रही है। इन संस्थाओं द्वारा की जा रही पड़ताल से पता चलता है कि बायो-केमिकल ऑक्सीजन डिमान्ड (बी.ओ.डी.) और घुलित ऑक्सीजन (डी.ओ.-डिजाल्व्ड ऑक्सीजन) जैसे महत्वपूर्ण घटकों की मात्रा कन्नौज और वाराणसी के बीच के इलाके को छोड़कर बाकी के इलाकों के अधिकांश नमूनों में सुरक्षित सीमा से कहीं अधिक है। पूरी गंगा नदी के पानी के नमूनों में फीकल कोलाई जीवाणु की मात्रा सुरक्षित सीमा से अधिक है। संक्षेप में, गंगा में बहने वाला अधिकांश पानी स्वास्थ्य के लिए पूरी तरह असुरक्षित है।
लोक विज्ञान संस्था, देहरादून (उत्तराखंड) के अनिल गौतम ने ऋषिकेश के ऊपरी भाग में गंगा के पानी का अध्ययन किया है। उनके अनुसार, टिहरी बांध के नीचे के इलाके में कॉलीफार्म जीवाणुओं ने पानी की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित किया है। इस बिगाड़ का कारण टिहरी के नीचे बनी पनबिजली पिरयोजनाएं हैं जिनके कारण गंगा का जलप्रवाह रुकता है और पानी में गाद की मात्रा में इजाफा होता है। गंगा के पानी को टनल्स के मार्फत ले जाने के कारण लगभग 150 किलोमीटर क्षेत्र में जल प्रवाह खत्म हो गया है। इसी प्रकार, उत्तर प्रदेश के किसानों को पानी देने के कारण ऋषिकेश के बाद बने डायवर्जन बैराज ने हरिद्वार में गंगा के जलप्रवाह को घटा दिया है।
हर-की-पौड़ी के निकट 13 नालों की गंदगी तथा सीवर का पानी गंगा में मिलता है। अनिल गौतम के अनुसार हरिद्वार के बाद गंगा का पानी न तो पुनीत है और न शुद्ध।
भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स के पूर्व डिप्टी जनरल मैनेजर, त्रेहन का मानना है कि विकास तथा पर्यावरण को, बिना एक दूसरे को नुकसान पहुंचाए साथ-साथ, चलाना चाहिए। वे कहते हैं कि बांध और पनबिजली का उत्पादन किया जा सकता है। उनके अनुसार हरिद्वार में गंगा का प्रदूषण घरेलू गंदे पानी तथा अनधिकृत डार्मेटरियों में रहने वाले यात्रियों के कारण है। उनका कहना है तीर्थ यात्रियों को धार्मिक नियमों के साथ-साथ स्वास्थ्य के नियमों का कठोरता से पालन करना चाहिए। हरिद्वार के आनंद पांडे का मानना है कि द्वितीय गंगा एक्शन प्लान के गठन के पीछे गंगा सेवा अभियान की बद्रीकाश्रम, ज्योर्तिमठ तथा हरिद्वार में हासिल सफलता है। प्रतापगढ़ के प्रभाकर के अनुसार सई नदी के गंभीर प्रदूषण के पीछे पौनी पेपर मिल का अनुपचारित अपशिष्ट था, पर लोगों की जागरूकता तथा सफाई अभियान ने सई नदी को साफ पानी की नदी में बदल दिया है। शवों के जलाने के बाद बची लकड़ियों को नदी में प्रवाहित करने के स्थान पर फिर से उपयोग की परिपाटी ने लोगों के सोच को बदला है और साफ-सफाई को आगे बढ़ाया है।
बेंगलुरु की जियालाजिकल सोसाइटी आफ इंडिया के पी. कृष्णमूर्ति के अनुसार गंगा और दूसरी नदियों के प्रदूषण को कम करने के लिए उनके जलप्रवाह में बढ़ोतरी आवश्यक है। गंगा में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण जल-मल संयंत्रों की गंभीर कमी तथा उनका कम दक्ष होना है। उनके निम्न दक्षता पर संचालन के कारण प्रदूषण में अपेक्षित कमी नहीं आ पाती और नदी के पानी में अपशिष्टों को डालने से समस्या लगातार गंभीर हो रही है।
उल्लेखनीय है कि प्रदूषण को लेकर समाज के प्रबुद्ध वर्ग में पर्याप्त जागरूकता है। सामाजिक संस्थाएं भी पिछले कुछ सालों से इस विषय पर अपने तरीके से बात सामने ला रही हैं। सरकार भी आगे आने को इच्छुक है पर साफ सफाई के लिए तैयार किए रोडमैप को अमलीजामा कैसे पहनाया जाए, यह सबसे कठिन सवाल है।
गंगा की सफाई के लिए हरिद्वार में 11-12 मार्च 2010 को प्रबुद्ध जनों तथा संतों के समागम में कुछ सुझाव आए हैं। इनका सार नीचे दिया जा रहा है-
1. सरकार, समाज तथा संत मिलकर गंगा नदी की शुद्धता तथा पवित्रता को बहाल करने के लिए कार्ययोजना बनाएं।
2. गंगा नदी को अगले 6 से 12 सालों में बांधों, गंदे नालों तथा सीवर के पानी से मुक्त रखा जाए। गंगा को प्रवाहमान बनाए रखने के लिए हर भारतीय कृतसंकल्प रहे।
3. उपर्युक्त उदेश्य को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय (गंगा) नदी स्वच्छता कार्यक्रम का गठन किया जाता है। नदियों को स्वच्छ रखना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा। सरकार, समाज तथा संत एक दूसरे को सहयोग करें तथा निगरानी के लिए उत्तरदायी एवं ईमानदार व्यवस्था कायम करें।
4. सीवर के पानी को किसी भी स्थिति में गंगा में नहीं मिलने दें। स्थानीय स्तर पर सीवर के पानी के उपयोग की व्यवस्था कायम की जाए।
5. सीवर के पानी के परिवहन की पाइप आधारित व्यवस्था को सिरे से हतोत्साहित किया जाए। उसके स्थान पर परंपरागत तथा सेप्टिक टैंक की व्यवस्था लागू की जाए।
6. सेप्टिक टैंक की व्यवस्था में दक्षता की कमी तथा तकनीक में खामियां हैं, अतः गंगा नदी घाटी में उपर्युक्त व्यवस्था आधारित किसी भी परियोजना को स्वीकृति नहीं दी जाए। उसके स्थान पर कार्बनिक अवधारणा आधारित व्यवस्थाएं लागू की जाए।
7. वर्तमान सेप्टिक टैंक परियोजनाओं को कार्बनिक परियोजनाओं में बदला जाए।
8. नदियों में इष्टतम प्राकृतिक जलप्रवाह को सुनिश्चित किए बिना उनके पानी की गुणवत्ता बहाल करना असंभव हैः अतः प्रत्येक नदी घाटी का विकास उसकी भूवैज्ञानिक तथा भूजल परिवेश एवं ऐसी कृषि पद्धति को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए जो प्रदूषण से मुक्ति दिलाती है और नदी के पानी को साफ करने वाले तत्वों को बढ़ावा देती है।
9. विभिन्न प्रकार के कचरे तथा गंदगी को नदी में विसर्जित करने तथा उन्हें उसके किनारे की जमीन पर जमा करने की प्रवृत्ति को सख्ती से रोकना चाहिए। नदी के बाढ़ क्षेत्र का नक्शा बनाकर उस इलाके को सख्त कानूनों की मदद से अतिक्रमण से मुक्त रखा जाना चाहिए। नियम तोड़ने वालों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए।
10. औद्योगिक, कृषि या अन्य किसी भी प्रकार के भूमि उपयोग से नदी तल को मुक्त रखना चाहिए।
11. नदी के तल तथा किनारों को केवल नदी के पानी की गुणवत्ता सुधार के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए।
12. उल्लेखनीय है कि भारत की लगभग सभी नदियों के गैर-मानसूनी जल प्रवाह में कमी आ रही है तथा उनके पानी की गुणवत्ता लगातार खराब हो रही है। यह देशव्यापी समस्या है और लगातार बढ़ रही है। यह सुखद संकेत है कि पिछले कुछ सालों से लोग तथा सरकारें इस बारे में सोचने लगे हैं तथा नदी, तालाबों तथा अन्य जल संरचनाओं की साफ सफाई के काम, सरकारी योजनाओं के अंग बनने लगे हैं।
जनप्रतिनिधियों का भी इस ओर ध्यान गया है तथा पानी की बचत से लेकर जल संरक्षण एवं रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर उनकी चिंता सामने आ रही है। स्वयंसेवी संस्थाएं तथा समाज के कुछ प्रबुद्ध एवं संवेदनशील लोग इस काम में आगे आने लगे हैं। जल संरचनाओं की साफ-सफाई के काम में श्रमदान तथा समाज के योगदान की भी खबरें आम होने लगी हैं।
इस काम में मीडिया भी पीछे नहीं है। वह भी यदाकदा इन विषयों की खबरों को उचित महत्व देने लगा है। जल संरचनाओं की साफ सफाई का मुख्य उदेश्य उनमें पानी की गुणवत्ता के सुधार के साथ-साथ पानी की आवक बढ़ाना होता है।
पिछले कुछ सालों से जनहित के कामों में जन सहयोग तथा जन सहभागिता की बात होने लगी है। समाज विज्ञानी मानते है कि जब तक हितग्राही को काम से नहीं जोड़ा जाएगा, काम सही एवं सार्थक नहीं होगा तथा उसमें समाज का जुड़ाव और अपनत्व का भाव पैदा नहीं होगा।
यह सोच नदियों सहित सभी जल संरचनाओं के उपर्युक्त कामों पर भी लागू है। सौभाग्य से इन कामों में सामाजिक पक्ष महत्वपूर्ण होने लगा है और समाज की ऊर्जा का फायदा कामों को करने तथा दबाव बनाने में दिखाई देने लगा है पर जहां तक परिणामों का प्रश्न है तो वह पूर्व की तरह इन कामों के तकनीकी पक्ष से अधिक जुड़ा है और आगे भी उतना ही महत्वपूर्ण रहेगा, इसलिए इस अध्याय में कुछ अधिक प्रचलित कामों के तकनीकी पक्ष की संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।
नदी तल को गहरा करना
नदी में पानी की आवक बढ़ाने तथा उसकी शुद्धता बहाल करने के लिए नदी तल को गहरा करने को सार्थक पहल माना जाता है। इस अनुक्रम में अनेक जगह नदी के तल की मिट्टी और रेत इत्यादि को श्रमदान या अन्य व्यवस्था से हटाया जाता है। नदी तल की रेत, मिट्टी इत्यादि को हटाने से तात्कालिक रूप से नदी में पानी दिखाई देने लगता है। इस तात्कालिक सफलता से सब लोग प्रभावित होते हैं और काम के पक्ष में माहौल बनता है। मीडिया भी जो दिख रहा है उसी के आधार पर रिपोर्टिंग करता है।
गौरतलब है कि कुछ सालों बाद नदी की तली में फिर से रेत, मिट्टी जमा हो जाती है अर्थात किए कराए काम पर पानी फिर जाता है। उल्लेखनीय है कि तकनीकी रूप से यह सारा काम अस्थायी प्रकृति का होता है क्योंकि उसे करने में नदी विज्ञान के उन मूलभूत सिद्धांतों की अनदेखी होती है जो नदी के उद्गम से लेकर उसके संगम तक के नदी तल के स्तर के प्रत्येक बिंदु की ऊंचाई को निर्धारित करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इस अनदेखी के कारण नदी के तल को गहरा करने से अस्थायी परिणाम प्राप्त होते हैं। अर्थात इस प्रकार के काम का सामाजिक पहलू तो है पर उसका तकनीकी आधार नहीं है। नदी के पानी को साफ-सुथरा रखने के लिए उसे गंदगी से मुक्त रखने तथा संपूर्ण नदी घाटी के भूजल स्तर को ऊंचा रखना ही समस्या का असली संभावित स्थायी हल है।
तालाबों को गहरा करना
पिछले कुछ सालों से तालाबों को गहरा करने का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। यह काम देश के अनेक भागों में किया जाने लगा है। सूखा राहत तथा पानी की सप्लाई से जुड़े तकनीकी लोग भी इसके पक्षधर होते जा रहे है। यह सारी जदोजहद तालाबों की जल क्षमता बढ़ाने और आने वाले सालों में जल संकट की संभावना को खत्म करने के लिए की जाती है। इस तरह के काम को हितग्राही समाज का हित माना जाता है इसलिए उस पर सवाल नहीं उठाए जा पाते क्योंकि बहुसंख्य समाज को इस जदोजहद में अपनी समस्या का हल नजर आता है।
तालाब गहरा करने के काम का तकनीकी पक्ष भी है, इसलिए उसकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाने के पहले यह जानना आवश्यक है कि उसे पानी से लबालब भरने वाले जलग्रहण क्षेत्र से अधिकतम कितना पानी हासिल किया जा सकता है। इसी रिश्ते के आधार पर तालाब को गहरा करने का फैसला किया जाना चाहिए। यदि पिछले कुछ सालों से पूरी बरसात के बावजूद वह तालाब भरपूर पानी को तरस रहा हो तो उस हकीकत का अर्थ है कि सामान्य बरसात में भी कैचमेंट द्वारा तालाब को पूरा भरने लायक पानी उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है।
गौरतलब है कि भरपूर बरसात के बावजूद, कैचमेंट से पानी की आवक कम होने के पीछे की कहानी, भूमि उपयोग पर अधिक और बरसात की मात्रा पर कम निर्भर होती है। आजादी के बाद के सालों में तालाबों के कैचेमेंट में जंगल घटे हैं, खेती की जमीन बढ़ी है और भूजल का दोहन सीमा पार करने की राह पर है। इन सब कारणों से हर जगह, कैचमेंट में पानी रिसने की मात्रा में बढ़ोतरी हुई है और उससे आने वाले पानी की मात्रा में कमी हुई है। तालाब गहरा करते समय इस तकनीकी पक्ष की अक्सर अनदेखी होती है।
कैचमेंट से आने वाले पानी को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक बरसात की प्रकृति है। यदि बरसात धीमी गति से होती है तो पानी अधिक मात्रा में जमींदोज होगा अर्थात कुओं और नलकूपों को जीवनदान मिलेगा।
यदि पानी गिरने की गति तेज और समयावधि अधिक है तो तालाब का पेट भरेगा पर उसके चरित्र की अनदेखी कर केवल बरसात की मात्रा के आधार पर तालाब को गहरा करने से उसके भरने का कोई संबंध नहीं है।
तालाबों को गहरा करने तथा पुरानी जल संरचनाओं के जीर्णोंद्धार की चर्चा में पानी की गुणवत्ता का प्रश्न अक्सर गुम चुका होता है क्योंकि जहां लोग पानी के लिए तरस रहे हों वहां फर्टीलाइजर, इंसेक्टीसाइड और पेस्टीसाइड के कारण पानी की बिगड़ती गुणवत्ता की बात करना, नक्कारखाने में तूती बजाने जैसा लगता है, इसलिए मीडिया सहित सभी को अनदेखी या बंद मुट्ठी ही अच्छी लगती है।
नदियों में इष्टतम प्राकृतिक जलप्रवाह सुनिश्चित किए बिना उनके पानी की गुणवत्ता बहाल करना असंभव है अतः प्रत्येक नदी घाटी का विकास उसकी भूवैज्ञानिक तथा भूजल परिवेश एवं ऐसी कृषि पद्धति को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए जो प्रदूषण से मुक्ति दिलाती है और नदी के पानी को साफ करने वाले तत्वों को बढ़ावा देती है। इसी तरह बारहमासी तालाबों का निर्माण तथा बड़े पैमाने पर भूजल रीचार्ज को अपनाने पर ही जल समस्या से जुड़े विभिन्न पक्षों का हल मिलेगा।
यह संभव है क्योंकि पानी के मामले में भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश है इसीलिए मैली गंगा हमारी प्रज्ञा को चुनौती है।
नदियों तथा जल संरचनाओं के आसपास मेले तथा महोत्सव मनाने की पुरानी भारतीय परंपरा है। इस परंपरा के अनुसार, समाज नदी के किनारे एकत्रित होता है। मेला लगता है, सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता है तथा समाज का अवचेतन मन, नदी के प्रति अपनी भक्ति, श्रद्धा तथा आस्था प्रकट कर घर लौट आता है। इस अनुक्रम में कहा जा सकता है कि यदि समाज को अपने भाव, अपनी अपेक्षाएं प्रकट करने का अवसर मिलता तो बात यों कही जाती-
1. हमारी नदी, हमारी जल संरचनाएं बारहमासी रहें। उनके पानी में कभी कमी नहीं आए। वे जलचरों तथा नभचरों सहित सब जीवधारियों की जरूरतों को पूरा करें।
2. आजीविका तथा खेती के लिए जल स्रोतों के पानी पर निर्भर समाज को पानी की कमी के कारण कभी निराश नहीं होना पड़े। पानी गाद मुक्त हो।
3. पानी जीवन का आधार है। आयुर्वेद में उसे अमृत कहा है इसलिए वह हमेशा अमृततुल्य तथा जीवनदायनी ऊर्जा से ओतप्रोत रहे।
समाज की आकांक्षाओं को सरकार नीतिगत एवं संवैधानिक सम्बल दे। हर बसाहट में जल स्वराज लाए।