रासायनिक खेती का विकल्प

Submitted by Hindi on Wed, 10/12/2011 - 00:59
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, अक्टूबर 2011

हरित क्रांति की देन रासायनिक खेती के दुष्परिणाम देश भर से सामने आने लगे हैं। बिहार भी इससे अछूता नहीं है लेकिन वहां के कुछ युवा कृषकों ने स्वयं जैविक खेती को अपनाकर एवं कालान्तर में इसका व्यापक प्रचार-प्रसार कर इसकी लोकप्रियता बढ़ाने का अनुकरणीय कार्य किया है। आवश्यकता इस बात की है कि जैविक खेती को पुनः स्थापित करने में समाज व सरकार एक साथ कार्य करें।

उत्तर बिहार के अनेक युवा किसानों ने इस बार अपने खेतों में सोना उपजाया। उनके खेतों में गेहूँ की बालियां पहले की तुलना में बड़ी थीं। अमूमन एक बाली में 40 से 50 दाने रहते हैं, इस बार 70 से 80 दाने थे और वह भी काफी पुष्ट। एक एकड़ खेत में 26 क्विंटल 40 किलोग्राम तक गेहूँ की उपज हुई। मकई तथा अन्य फसलों में भी इसी प्रकार की उपज वृद्धि हुई है। इन किसानों ने रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग बंद करके जैविक कृषि की शुरुआत की है। केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) नीम की पत्तियों और गोमूत्र के संयोग से बने कीटनाशक के प्रयोग का ही कमाल है कि दो वर्षों के अंदर ही उनके खेतों की उर्वरा शक्ति वापस लौट आयी।

जब रासायनिक खादों का प्रयोग शुरु हुआ था तो उपज बढ़ी थी। लेकिन धीरे-धीरे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई और खेती का खर्च बढ़ता चला गया। जैविक कृषि के द्वारा कम सिंचाई में ही अच्छी फसल होने लगी है क्योंकि अब मिट्टी में वर्षा जल को सोखकर टिकाये रखने की क्षमता काफी बढ़ गई है। जिन खेतों में जैविक खादों के सहारे सब्जी उगाई जा रही है वहाँ की सब्जियाँ ज्यादा स्वादिष्ट और ज्यादा पौष्टिक हैं। बिहार का एक शहर मुजफ्फरपुर लीची के लिए प्रसिद्ध है। लीची के जिन बागानों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है वहाँ की लीची का रंग, आकार और स्वाद बेहतर है। यही कारण है कि जैविक खेती के द्वारा उपजाये गये अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं।

बिहार में धान की फसल सूख रही थी, लेकिन बारिश ने फिर से हरियाली ला दी है लेकिन रासायनिक खाद के लिए हाहाकार मचा हुआ है। इसकी कालाबाजारी धड़ल्ले से चल रही है और किसान परेशान हैं। जब हम जानते हैं कि रासायनिक कृषि से फसल चक्र भी बिगड़ जाता है। एक ही प्रकार की फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। दाल और अनाज वाली फसलों को अदल-बदल कर बोने या मिश्रित रूप से बोने पर खेत उर्वर बने रहते हैं। जैविक कृषि करने वालों ने इसे फिर से अपनाया है। रासायनिक कृषि से पौधों के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व भी समाप्त होने लगे हैं। मिट्टी की जाँच का झंझट सामने आता है और सूक्ष्म पोषक तत्वों को महंगे दाम पर खरीदकर खेतों में छिड़कना पड़ता है। जबकि केंचुआ खाद में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में होते हैं। एसिनिया फटिडा केंचुआ द्वारा निर्मित जैविक खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटेशियम के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, बोरोन, सल्फर, लोहा, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, जिबरैलीन, साइटोकाइनीन तथा ऑक्सीजन पाया जाता है। इसके अलावा इसमें बहुत सारे बायो ऐक्टिव कम्पाउंड, विटामिन एवं एमिनोएसिड होते हैं।

यहाँ के किसानों की नई पीढ़ी मधुमक्खी पालन का काम भी अपनाने लगी है। बिहार के हजारों किसान परिवार मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन करके खुशहाल हुए हैं। जिन फसलों के आसपास मधुमक्खी के बक्से रखे जाते हैं। वहाँ उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुमक्खियाँ फसलों के परागण में मददगार होती हैं लेकिन जहरीले रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण काफी मधुमक्खियाँ मर जाती हैं। उनके साथ तितली, केंचुए आदि खेती के मित्र जीव-जन्तु भी मर जाते हैं। नुकसानदेह कीटों को खा जाने वाले मेंढकों के जीवन पर भी आफत है। कौए, गोरैया, कोयल तथा अन्य चिड़ियों की चहचहाहट तथा कबूतरों की ‘गुटूर गूं’ भी कम सुनाई पड़ती है। चील भी कम दिखाई देती हैं और गिद्ध तो दिखाई ही नहीं देते लेकिन जिन गांवों में जैविक कृषि होने लगी है वहाँ मित्र जीव जन्तुओं की सुरसुराहट, चिड़ियों की चहचहाहट और हलचल का मधुर संगीत फिर से सुनाई देने लगा है।

मध्यकाल से ही सरइसा परगना वर्तमान तिरहुत के एक बड़े इलाके में किसान नगदी फसल के रूप में तंबाकू की खेती करते आ रहे हैं। किसान जानते हैं कि वे तंबाकू के रूप में जहर उपजा रहे हैं लेकिन पेट की खातिर इसे करना पड़ता है पर तंबाकू की खेती अब उतनी फायदेमंद नहीं रही। ऐसे में अनेक किसानों ने पुदीना, लेमन ग्रास, अश्वगंध, सफेद मूसली, शतावर, आंवला, हरड़, बहेड़ा, जस्टीसिया जैसी सैकड़ों औषधीय पौधों की खेती शुरु की है और उन्हें अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा है। देशी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इनकी बड़ी मांग है।

औषधीय खेती करते किसानऔषधीय खेती करते किसानआठ साल पूर्व कम्मन छपड़ा गांव के फुदेनी पंडित, गोविंदपुर के श्रीकांत कुशवाहा और मानिकपुर के सुबोध तिवारी ने जब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक तथा औषधीय पौधों का प्रचार-प्रसार शुरु किया था तो लोग इन्हें पागल समझते थे। उनके परिवार वाले भी रासायनिक कृषि को छोड़ जैविक कृषि अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। आज ये किसानों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बन गए हैं। आज बिहार के दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, भागलपुर जैसे शहरों में जैविक कृषि का प्रसार होने लगा है। इससे खेती की लागत भी घट रही है और रोजगार के नए अवसर भी पैदा होने लगे हैं। जैविक किसान मंडलों का गठन होने लगा है और जैविक किसान पंचायत बुलाकर जैविक कृषि अपनाने का फैसला भी लिया जा रहा है। वीरेन्द्र नरेश जैसे कई लोग उत्साह से इस काम में लगे और सकरी-सरैया गांव में आयोजित एक किसान पंचायत में फुदेनी पंडित और श्रीकांत कुशवाहा को सम्मानित भी किया गया।

कुछ वर्ष पूर्व असम से जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों को निर्यात की गई चाय वापस लौटा दी गई थी। उस चाय में जहरीले कीटनाशकों तथा रासायनिक खार के अंश पाए गए थे, जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। नासिक से निर्यात किए गए अंगूर को भी इसी कारण लौटाया गया था। अमीर देश अपने यहाँ आयात की जाने वाली सब्जियों, फलों, अनाज तथा दूध आदि की जांच के बाद निरापद पाये जाने पर ही लेते हैं। इसलिए चाय बागान वाले अब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने लगे हैं। इनकी मांग काफी बढ़ गई है और उत्पादकों को अच्छी आमदनी भी हो रही है।

निर्यात किए जाने वाले फलों, सब्जियों आदि के उत्पादन के लिए भी इनकी मांग बढ़ी है। सरकार कुछ सब्सिडी भी देने लगी है। लेकिन सब्सिडी का ज्यादा पैसा या तो बिचौलिए मार लेते हैं या वापस लौट जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर बैंककर्मी उदासीन या नकारात्मक रवैया ही रखते हैं। सरकार भी सिर्फ निर्यात वाले खाद्य पदार्थों के जैविक उत्पादन की चिंता करती है। खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों का प्रसार हुआ है। क्या हम रासायनिक उर्वरकों तथा जहरीले कीटनाशकों के लिए दी जाने वाली भारी सब्सिडी को समाप्त करके उस पैसे को जैविक कृषि में लगे कृषकों की मदद में खर्च नहीं कर सकते?