साँची की विस्मृत जल सम्पदा

Submitted by RuralWater on Sun, 04/29/2018 - 15:08
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डाउन टू अर्थ, अप्रैल, 2018


साँची में निर्मित परम्परागत जल संचय प्रणालीसाँची में निर्मित परम्परागत जल संचय प्रणाली (फोटो साभार - विकिपीडिया) मध्य प्रदेश के साँची नगर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों ने साँची की पहाड़ी पर वर्षा के पानी को संचित करने की प्राचीन तकनीक को फिर से शुरू करने की कोशिश की है। यह एक विस्मृत प्राचीन परम्परा को फिर से जन्म दे सकती है।

साँची भोपाल से 45 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। इसकी 91 मीटर लम्बी पहाड़ी पर 50 ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धार्मिक नगर को मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में बसाया था। ऐसा माना जाता है कि गौतम बुद्ध और उनके निकटतम शिष्यों, सारीपुतासा और महा मोगलनासा के अवशेष यहीं है। एक पत्थर की बनी शवपेटिका पर खुदे अभिलेख दस बौद्ध शिक्षकों को श्रद्धांजलि देते हैं और चार उत्कृष्ट नक्काशी वाले द्वार बौद्धिक जातकों को प्रदर्शित करते हैं, जो बुद्ध के जीवन को दर्शाते हैं। सन 1992 में यूनेस्को ने साँची को विश्व विरासत स्थल घोषित किया, क्योंकि वह बौद्ध धर्म के लिये विशेष महत्त्व रखती है।

जल ब्रह्मांड विज्ञान

साँची की पहाड़ी एक और चीज के लिये भी महत्त्व रखती है। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के निदेशक और इतिहासकार कल्याण चक्रवर्ती कहते हैं, “यह पूरी पहाड़ी जल ब्रह्मांड को उजागर करती है। साँची के पर्यावरण का जल से गहरा सम्बन्ध है। जातकों की शिल्प कला हरे-भरे पेड़-पौधों, फलों, पक्षियों और ऊँचे वृक्षों को बखूबी दर्शाती है। एक उल्टा वृक्ष भगवान बुद्ध के शरीर का प्रतीक है।”

ईसा से तीन सदी पूर्व में बनाए गए तीन प्राचीन जलाशय साँची की पहाड़ी पर हैं। एक जलाशय पहाड़ी के ठीक ऊपर बना हुआ है और बाकी दो पहाड़ी की ढलान पर हैं- करीब आधा किमी की दूरी पर। तब पहाड़ी की ढलान एक प्राकृतिक आगोर का काम करती थी। वर्षाजल द्वारा बने मार्ग और नालियाँ पानी जमा करती थीं जो एक जलाशय से दूसरे में चला जाता था। पहाड़ी के पश्चिमी भाग बौद्ध विहारों से भरे थे। विहार वासी इस जमा किये हुए पानी को घरेलू कामों के लिये इस्तेमाल करते थे। सामान्य जनता पहाड़ी के पूर्वी भाग में रहती थी।

पहाड़ी से दो किमी दूर बेतवा नदी बहती थी, जो भोपाल के तालाबों से मिल जाती थी। यह नदी, तीन जलाशय और एक घना जंगल मिलकर एक प्राचीन और स्वतंत्र जल-प्रणाली का काम करते थे। इससे 2 किमी नीचे एक पुराने बैराज के अवशेष मिले हैं। अब उलझन यह है कि क्या इस बैराज को फिर से खड़ा करने से इलाके में भूजल का स्तर सुधर सकता है।

आज साँची पहाड़ी पर विश्व प्रसिद्ध स्मारक तो हैं, पर पेड़-पौधे गायब हो गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के भोपाल क्षेत्र के प्रमुख पुरातत्ववेत्ता आर.सी. अग्रवाल ने इस ऐतिहासिक विरासत को बचाने के लिये अधिक वृक्ष रोपने की जरूरत को समझा, लेकिन पानी की कमी एक बाधा सिद्ध हुई। अग्रवाल कहते हैं, “हमने जलाशयों की फिर से मरम्मत करवाई, जिससे प्राचीन जल संचय पद्धति को फिर से शुरू किया जा सके। पुरातत्ववेत्ता होने के चलते हमें इस तकनीक का पता था।”

पुरातत्व सर्वेक्षण ने यूनेस्को से सम्पर्क किया। उसके तुरन्त बाद ही जापानी सरकार ने जनवरी, 1994 में डेढ़ करोड़ रुपए की रकम देने की घोषणा की। अग्रवाल कहते हैं, “हम ईसा से दो सदी पूर्व के पर्यावरण को फिर से खड़ा करना चाहते हैं। हमने उस समय वाले वृक्ष, जैसे गिरनी, नीम और पीपल को लगाने का फैसला किया है। इसके साथ ही हम जलाशयों में कमल के फूल को भी उसका उचित स्थान देना चाहते हैं।”

जलाशय के पुनर्निर्माण में करीब पाँच लाख रुपए खर्च किये जा चुके हैं। ये जलाशय चट्टानों को प्रोत्खनित करके बने थे। पुनर्निर्माण का काम करीब छह महीने पहले प्रारम्भ हुआ था। इन जलाशयों का ज्यामितीय सर्वेक्षण भारतीय दूरसंवेदी संस्थान, देहरादून ने किया था। इन जलाशयों का मापन गाद की परत के साथ किया गया था। पहला जलाशय 32 मीटर लम्बा और 13 मीटर चौड़ा है। गाद की परत की ऊँचाई 2.8 भी आँकी गई है। दूसरा जलाशय 27 मीटर लम्बा और 24 मीटर चौड़ा है और गाद की परत करीब 3.15 मीटर ऊँची है।

 

 

ईसा से तीन सदी पूर्व में बनाए गए तीन प्राचीन जलाशय साँची की पहाड़ी पर हैं। एक जलाशय पहाड़ी के ठीक ऊपर बना हुआ है और बाकी दो पहाड़ी की ढलान पर हैं- करीब आधा किमी की दूरी पर। तब पहाड़ी की ढलान एक प्राकृतिक आगोर का काम करती थी। वर्षाजल द्वारा बने मार्ग और नालियाँ पानी जमा करती थीं जो एक जलाशय से दूसरे में चला जाता था। पहाड़ी के पश्चिमी भाग बौद्ध विहारों से भरे थे। विहार वासी इस जमा किये हुए पानी को घरेलू कामों के लिये इस्तेमाल करते थे।

पुरातत्व वैज्ञानिकों ने चट्टानों में दरारों का पता कर उसे भरवा दिया है, जिससे वर्षा के पानी को अच्छी तरह जमा किया जा सके। सभी आगोर क्षेत्रों को ईंटों और गारा तथा चूना पत्थर से पुनः बनाया गया है। एक विशेष प्रकार का नाला भी जलाशयों के पास बनाया गया है, जो पानी के साथ बहकर आने वाले मिट्टी को रोकने का भी काम करेगा। एक और नाला भी तैयार किया गया है जो जरूरत से अधिक पानी को पहाड़ी के आस-पास के जंगलों में पहुँचा देने में सहायक होगा। गाद को हटा दिया गया है। वर्षा के पुराने नलों की पहचान भी कर ली गई है और उन्हें जलाशयों की तरफ घुमा दिया गया है। अग्रवाल का मानना है कि एक बार सभी जलाशयों की मरम्मत हो जाये तो करीब 22.7 लाख लीटर पानी को जमा किया जा सकता है। यह साँची की पहाड़ियों को हरा-भरा करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

महत्त्वपूर्ण मुद्दे

हालांकि आर.सी. अग्रवाल ने प्रशंसा योग्य प्रयास किया है, पर उनकी कोशिश दिन-प्रतिदिन नई उलझनों में फँसती जा रही है। तीसरा जलाशय, जो कनकसागर के नाम से जाना जाता है, एक गाँव के समीप है। यहाँ की महिलाएँ शौच वगैरह के लिये इसका इस्तेमाल करती रही हैं। जब मानचित्रकार, आर. श्रीवास्तव इस स्थल पर काम से गए तो महिलाओं ने उन्हें भगा दिया। इस जलाशय की मरम्मत का काम अब मध्य प्रदेश सरकार के पर्यावरण संरक्षण एवं समन्वय संगठन को दिया गया है।

अग्रवाल चाहते हैं कि ऐतिहासिक स्मारकों और गाँव के बीच वनभूमि एक प्रतिरोधक के तौर पर तैयार की जाये। पर बची हुई हरी-भरी जमीन पर चराई के अधिकार को लेकर तनाव की अफवाह भी फैल रही है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लोग इस बात से काफी परेशान हैं। इन मुद्दों पर बारीकी से जाँच पहले नहीं की गई थी, जिससे स्थिति और भी जटिल हो गई है। एक तरफ अधिकारी बताते हैं कि स्थानीय लोगों के लिये प्रवेश शुल्क 50 पैसा ही रहेगा, दूसरी तरफ वे एक पहाड़ी के चारों तरफ महँगा बाड़ा बनाने की भी बात करते हैं जिससे स्थानीय लोगों को अन्दर आने से रोका जा सके।

अब अधिकारी स्थानीय लोगों को भी साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल वर्ल्ड हेरिटेज-डे पर स्कूल के छात्रों को बुलाया गया था।

अग्रवाल मानते हैं, “सरकार अकेले सब कुछ नहीं कर सकती है।” पर वह इस बात से इनकार करते हैं कि संसाधनों का बँटवारा होना चाहिए। उनका दावा है, “साँची विकास प्राधिकरण हर पर्यटक से प्रवेश शुल्क लेता है, पर इसके विकास के लिये कोई काम नहीं कर रहा है।” पर्यावरण और वन मंत्रालय में सचिव और पर्यावरण और वन मंत्रालय में सचिव और पर्यावरण संरक्षण के निदेशक, अवनी वैश कहते हैं कि स्थानीय लोगों के लिये एक कारखाना खोलना चाहिए। पर यह एक छलावा ही है, क्योंकि वे खुद कहते हैं, “पहले कुछ काम तो हो।”

पर्यावरण संरक्षण संगठन के एक अधिकारी मानते हैं कि असल में इन जलाशयों का उपयोग करने वालों को सन्तुष्ट करना चाहिए। पानी का उपयोग करने वालों की सूची में वे पेड़ों, चिड़ियों और स्थानीय लोगों को सम्मिलित करते हैं। चक्रवर्ती कहते हैं, “प्राचीनकाल में अग्रहन श्रेणी काश्तकार और कुम्हार लोग इन जलाशयों और स्मारकों की देखभाल करते थे। यह समूह अब बचा ही नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह एक वर्ग को तैयार करे जो इस काम को देख सके।”

पर क्या पुरातत्व सर्वेक्षण इस प्राचीन जल संरक्षण पद्धति को फिर से जीवित कर सकता है? खुद उसके अधिकारी ही इस पर अविश्वास प्रकट करते हैं। चक्रवर्ती के अनुसार, “प्राचीन तकनीकों को फिर शुरू करने में आधुनिक अभियन्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ेगी। प्राचीनकाल में अभियन्ता तकनीकों को स्थानीय पर्यावरण के अनुसार तैयार करते थे, जो बदल चुकी है।”

पहले भोपाल के जलाशय बेतवा नदी से जुड़े थे। शहर का हर घर आँगन वाला और आँगन में कुआँ होता था। इन कुओं और जलाशयों में आदान-प्रदान वाली स्थिति थी। अब शहर के जलाशय लगभग खत्म से हो गए हैं। भोपाल शहर में अब गर्मी के दिनों में सिर्फ आधे घंटे के लिये ही पानी आता है। चक्रवर्ती बताते हैं, “साँची एक ऐतिहासिक भू-दृश्य का एक हिस्सा है। ये 27 पहाड़ियाँ एक पूरी श्रृंखला का एक हिस्सा है, जिनके अन्दर 700 गुफाएँ हैं जिनमें रंग-बिरंगी तस्वीरें बनी हैं। यहाँ कई ऐतिहासिक स्थल हैं। ये एक समान जीवन चक्र का हिस्सा है। आज जापानी सहायता से ज्यादा जरूरी भूविज्ञान की स्वदेशी कार्य निपुणता है, जिससे पानी को सही तरीके से जमा किया जाये और पुराने स्रोतों की खोज की जाए।”