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डाउन टू अर्थ, सितम्बर, 2018
द्रविड़ मूल की सबसे प्रमुख जनजाति गोंड भारत की अनार्य जनजातियों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। गोंड साम्राज्य स्थापित करने में माहिर थे। नौवीं शताब्दी तक मध्य प्रान्त के सम्पूर्ण पूर्वी भाग और सम्बलपुर के एक बहुत बड़े क्षेत्र में गोंडों का साम्राज्य स्थापित हो गया था, जिसे गोंडवाना के नाम से जाना जाता था। इसमें आज के मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के कुछ हिस्से सम्मिलित थे।
गोंडवाना का पहला उल्लेख चौदहवीं सदी के मुस्लिम अभिलेखों में मिलता है। चौदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र गोंड राजवंश के अधीन था। मुगलों के शासनकाल में यह क्षेत्र या तो स्वतंत्र था या सामंतों के राज्य की तरह कार्य करता था।
अठारहवीं सदी में इसे मराठों ने जीत लिया था और गोंडवाना का एक बहुत बड़ा क्षेत्र नागपुर के भोंसला राजा और हैदाराबाद के निजाम के अधीन हो गया। सन 1818 और 1853 के बीच अंग्रेजों ने इसे अपने अधीन कर लिया। हालांकि कुछ छोटे राज्यों में गोंड राजाओं का शासनकाल 1947 तक चला।
यहाँ जिक्र सम्बलपुर क्षेत्र का हो रहा है। गोंडों के इलाके बहुत ही उपजाऊ हैं और सिंचाई की व्यवस्था काफी अच्छी है। इस क्षेत्र के जलाशय अद्भुत इंजीनियरी तकनीकों को दर्शातें हैं। गोंडों ने नई सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने वालों को खेत उपलब्ध कराए, जिन पर राजस्व नहीं लगता था। गाँवों के प्रमुख पुराने जलाशयों के पुनर्निर्माण और नये जलाशयों के निर्माण के लिये कानूनी रूप से बाध्य थे।
गाँवों के अधिक उद्यमी प्रधानों का ओहदा सुरक्षित रखा जाता था। गोंडवाना की लाखाबाटा प्रणाली खेतों और पानी के स्रोतों पर सामूहिक स्वामित्व को दर्शाती थी। इससे प्राकृतिक साधनों के अच्छे उपयोग में काफी सहायता मिलती थी। हालांकि सन 1750 के आस-पास राजनीतिक अस्थिरता, जनजातियों के अधिकारों के उन्मूलन और अधिक राज्य की माँग के कारण स्थिति बहुत बिगड़ गई, जिसका सिंचाई की परियोजनाओं पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा।
एक समय में सम्बलपुर इलाका पश्चिम में रायपुर जिला (जो उत्तर-पश्चिम में पुराने मेखला राज्य का एक हिस्सा था), बिलासपुर जिला और उदेपुर और जशपुर जैसे सामन्ती राज्यों ( जो एक समय में दक्षिण कौशल साम्राज्य के अधीन था), पूर्व में बौद्ध और आठमल्लिक राज्यों और दक्षिण में सामन्ती कालाहांडी राज्य से घिरा हुआ था। पटना और सम्बलपुर राज्यों में उपनिवेशवाद से पहले के क्षेत्रों में सिंचाई के पुराने साधनों का ध्वंसावशेष मिलता है। जलाशयों का निर्माण ग्राम प्रधानों का सबसे मुख्य काम था।
गोंडों की एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार हुआ करती थी। इसमें राजा को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। अन्य छोटे प्रधानों को इनमें सम्मिलित किया जाता था। इसके अलावा अन्य क्षेत्रों को छोटे-छोटे भागों में बाँटा जाता था, जिन्हें कुन्त कहा जाता था। इन्हें इन भागों के संस्थापकों के अधीन कर दिया जाता था।
गाँवों को शुरू में ही स्वायत्त दर्जा दिया जाता था। इन क्षेत्रों में पंचायतों की भी परम्परा काफी दिनों से चली आ रही थी। मराठा हमलों के समय इसमें कुछ बाधा आई थी, पर साम्राज्यों की स्थापना के बाद भी इन क्षेत्रों की स्वायत्तता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रशासनिक व्यवस्था शुरू से ही लोकतांत्रिक थी। स्थानीय पंचायत प्रधानों के स्वेच्छाचारी अधिकारों को सीति करने का काम करती थी।
गाँव मूलतः किसानों की बस्ती थी और ग्राम सभा उनका संगठन। शासन और अपनी अर्थव्यवस्था के मामले में हर गाँव काफी हद तक आजाद था। इसकी समृद्धि अपनी जमीन और जल संसाधनों के व्यवस्थित संचालन पर ही निर्भर करती थी। पहली बरसात के बाद ही नहरों, तटबन्धों, तालाबों की मरम्मत का काम शुरू हो जाता था। अधिकांश लोग इसे धार्मिक कार्य जैसी श्रद्धा से करते थे। जरा भी गड़बड़ या ढील हुई कि अपने ही गाँव में नहीं, आस-पास के इलाकों में भी लोक निन्दा शुरू हो जाती थी।
गोंड राजाओं ने यह उल्लेखनीय चलन शुरू किया कि जो कोई तालाब बनवाता उसे तालाब से लगी निचली जमीन लगान मुक्त दे दी जाती थी। सम्बलपुर क्षेत्र में जब तक गोंड राजाओं का शासन चला, तालाब या खेती में सुधार सम्बन्धी कामों को इसी तरह प्रोत्साहित किया जाता रहा। उनके शासनकाल में खेती से समृद्धि आई और सम्बलपुर के निकट बना विशाल तालाब आज तक उस दौर की कहानी कहता है। तालाब निर्माण और रख-रखाव के जानकार कोडा लोगों को लगान मुक्त जमीन दी जाती थी। इस तरह के अनुदान को सागर रक्षा जागीर कहा जाता था।
गोंड शासन वाले इलाकों में सिंचाई की जो मुख्य तकनीकें अपनाई गईं उन्हें काटा, मुंडा और बंधा कहा जाता था। काटा का निर्माण गाँव का प्रधान, जिसे गोंतिया कहा जाता था, कराता था और बदले में उसे गोंड राजा से लगान मुक्त जमीन मिलती थी। बनावट के हिसाब से यहाँ जमीन को चार श्रेणियों में बाँटा गया है, आट (ऊँची जमीन), माल (ढलान), बेरना (बीच की जमीन) और बहल (निचली जमीन)।
काटा का निर्माण बाँध को पूरब से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण रखते हुए किया जाता है। बाँध बहुत मजबूत बनाया जाता है और इसके दोनों सिरे जरा मुड़े हुए रखे जाते हैं। फिर इनमें ढलता हुआ पानी रुकता है। अगर ऐसा निर्माण घाटी को घेरकर किया गया हो तो उससे माल और बहल, सभी तरह की जमीन सींच ली जाती है।
हर बाँध के सबसे ऊपर से पानी निकलने का एक रास्ता ही जाता है, जहाँ से निकलकर वह ऊँचाई पर स्थित तालाब में गिरता है या फिर पहले ऊपर और फिर उससे नीचे के खेतों को सींचता नीचे पहुँच जाता है। अगर बारिश सामान्य हो तो सिंचाई की जरूरत नहीं रहती, पानी का रिसाव ही इसके लिये पर्याप्त नमी बनाए रखता है। फिर पानी को नाले से निकाल दिया जाता है। कम बरसात वाले वर्षों में तालाब का बाँध बीच से काटा जाता है जिससे सबसे नीचे तक की जमीन सिंच जाए।
कोरापुट जिले के बड़े तालाबों में जयपुर का जगन्नाथ सागर, काटपद का दमयन्तीसागर तथा मलकानगिरी का बाली सागर शामिल है। बस्तर-कोरापुर क्षेत्र के चंद्रादित्य समुद्र का निर्माण 11वीं सदी में तथा तितिलगढ़ अनुमंडल का दस्माटीसागर का निर्माण चौथी से आठवीं सदी के दौरान हुआ। जिले के सानीसागर, दर्पणसागर, भानुसागर, रामसागर, भोजसागर और पटना राज का हीरासागर तथा मयूरभंज राज का कृष्णसागर भी बहुत पुराने तालाबों में शामिल हैं।
बरसात के समय काटा की तरफ जाने वाले रास्ते पर पशुओं के जाने पर रोक रहा करती है और उस पर फसल नहीं लगाई जाती। इससे काटा में पानी बिना किसी बाधा के प्रवेश करता है तथा किनारे से बने रास्ते पानी को ज्यादा जमा होने नहीं देते। व्यवस्थित ढंग से जल निकासी के चलते इसके कमांड क्षेत्र में आने वाले खेतों की समय पर सिंचाई हो जाती है। पानी का यह बँटवारा बराबर-बराबर होता है और इसमें माल, बेरना और बहल भूमि में भी कोई फर्क नहीं किया जाता।
मुंडा जल निकासी मार्ग पर बनने वाले छोटे बाँध को कहा जाता था। यह बहुत आम था और अकेला किसान भी अपने खेत के पास इसका निर्माण कर सकता था। मुंडा का लाभ सीमित था और इससे छोटी जमीन को ही पानी मिल पाता था। अगर थोड़ी-बहुत बरसात हुई हो तो इसमें रुका पानी बाद में फसल के काम आ जाता था। बंधा चारों तरफ बाँध वाला तालाब था और अक्सर काटा के नीचे बनता था। उसके रिसाव का पानी इसमें आता था। बंधा का निर्माण पेयजल के लिये ही किया जाता था। इसकी पूजा होती थी और देवता से उनकी शादी मानी जाती थी। सूखे या मुश्किल वाले वर्षों में इनका पानी सिंचाई के काम भी आता था।
इस व्यवस्थाओं के निर्माण के साथ ही इनके बाँधों के कटाव या अन्य नुकसानों को रोकने का इन्तजाम भी कर लिया जाता था। इसके संचालन के कामों में पानी निकालने का इन्तजाम करना, पानी की मात्रा पर नजर रखना, गाद निकलवाना और बाँधों की रखवाली करना शामिल था। मानसून की शुरुआती बरसात के वक्त यह खास ख्याल रखा जाता था कि इसका बाँध न टूटे। पानी का वितरण गाँव के पंच की देख-रेख में होता था।
अनेक पहाड़ी सोते नदियों की रेतीली पेटी में पहुँचकर गुम हो जाते हैं। गोंडों को इनका पानी हासिल करने का तरीका मालूम है। आमतौर पर किसान 10 मीटर लम्बा एक छिछला नाला खोदता है जिसे चाहल कहा जाता है और इसमें ढेंकुली या डोंगी लगाकर पानी को ऊपर स्थित खेतों में पहुँचाया जाता था। आज इसकी जगह पम्पसेटों ने ले ली है। यह व्यवस्था सूखे वाले महीनों में पानी के गोंडों के कौशल के बारे में काफी कुछ बता देती है। बलांगीर जिले के सरसाहली गाँव में तेल की सहायक सानगढ़ नदी की सूखी पेटी में कम-से-कम दस चाहल मिलते हैं।
जाने कब से सारंगढ़ गाँव को किसानों ने खेती और लगान के हिसाब से कई हिस्सों में बाँट लिया है जिसे खार कहा जाता है। लाखाबाटा नामक यह प्रणाली पहले छत्तीसगढ़ में भी आम थी। इस दिलचस्प प्रणाली की शुरुआत कब हुई, यह स्पष्ट नहीं है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गाँव के खेतों पर सभी किसानों का सामूहिक हक माना गया है। लाखाबाटा में समय-समय पर जमीन को फिर से बाँटा जाता है जिससे इस बीच पैदा हो गई असमानता को दूर किया जा सके।
कालाहांडी
बाँध और तालाब कालाहांडी जिले में बहुत आम थे। जमीन पहाड़ी है और घाटियों में सदानीरा सोते हैं। अक्सर प्राकृतिक साधनों की सिंचाई से ही खेती का काम होता है। सन 1900 के भयंकर अकाल के साल भी इस इलाके में सूखा नहीं पड़ा था।
कालाहांडी में यह आम प्रथा थी कि जब गाँव को किसी प्रधान (गोंतिया) को सौंपा जाता था तो उसके साथ ही तालाब खुदवाने, बाँध बनवाने की जिम्मेदारी भी उसी के ऊपर डाल दी जाती थी। पानी का बँटवारा पंचायत करती थी। काटा तथा मुंडा का निर्माण कराने वाले गोंतिया को हटाना आसान नहीं था। तालाब खुदवाना उसका वैधानिक दायित्व था। जिस जमीन पर तालाब बनता था उस पर लगान नहीं लगता था। पर ये सारी प्रथाएँ धीरे-धीरे विदा हो गईं।
बौध
‘फ्यूडेटरी ऑफ ओडिया’ के लेखक काबडेन रैमसे कहते हैं, “बौध इलाके की प्राकृतिक विशेषता यह थी कि यहाँ सिंचाई का अलग से इन्तजाम नहीं करना था। महानदी में समा जाने से पहले सोते यह काम करते हुए आगे बढ़ते थे। जमीन उपजाऊ थी और सिंचाई की छोटी व्यवस्थाओं तथा कुओं की भरमार थी।”
वह बताते हैं कि राज्य के काश्तकारी और लगान कानून भी सिंचाई साधनों के निर्माण तथा रख-रखाव को बढ़ावा देने वाले थे। इस बारे में बने कानूनों में जब बदलाव किया गया तो उसके विनाशकारी परिणाम निकले।
1937 में बन्दोबस्ती अधिकारी ने सिंचाई व्यवस्था की गिरावट पर चिन्ता प्रकट की थी- “कुल मिलाकर 2,259 बाँध और तालाब थे, पर धीरे-धीरे उन लोगों ने इनमें दिलचस्पी लेनी बन्द कर दी जिन्होंने इनको बनाया था। काश्तकार इनका पानी लेते थे। वे सूखे के समय इन पर ही आश्रित रहते थे पर इनकी सफाई और मरम्मत की जवाबदेही में मुँह चुराते थे। इस प्रकार बाँध और तालाब उपेक्षित पड़े थे और अगर यही स्थिति बनी रही तो वे सदा के लिये समाप्त हो जाएँगे। इसलिये यह सुझाव दिया जाता है कि या तो सरकार सक्रिय रूप से उन्हें अपने हाथों में ले या फिर गाँव के कुछ प्रभावशाली लोगों को इनकी देख-रेख सौंप दी जाए।”
पटना
भूतपूर्व पटना रियासत के गाँव समृद्ध थे। इनमें तालाबों से सिंचाई का इन्तजाम था। यहाँ 3,000 से ज्यादा तालाब थे। 1919 में इनमें 33,700 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। 1937 में यह क्षेत्र बढ़कर 53,356 हेक्टेयर हो गया। फौजी अधिकारी एच.ई. इम्पे ने 1863 में पुरानी सिंचाई व्यवस्था के अवशेष देखे। पटना शहर से एक से दो मील के दायरे में अनेक तालाबों के अवशेष दिखे।
शासन ने काश्तकारों को तालाब बनाने के लिये प्रोत्साहित किया और इसके बदले उन्हें लगान तथा जलकर से मुक्ति दे दी जाती थी। एक बार व्यवस्था जम जाए तो इस पर जलकर लगने लगता था। सिंचाई के लेखे-जोखे का खतियान भी रखा जाता था। 1937 की बन्दोबस्ती रिपोर्ट में कहा गया है कि गाँव के मुखिया और पंच की देख-रेख में वे सभी किसान जलाशयों की देख-रेख और मरम्मत का काम करेंगे जो उनके पानी से सिंचाई करते हैं।
बड़े सिंचाई प्रबन्ध
बोलांगीर जिले के लोइसिंघा और उत्तलबैसी (आज का बीजापुर) के गोंड जमींदारों तथा अम्मामुंडा के गोंड राजा ने 20वीं सदी के शुरुआत में चक्रधरसागर, 1821 में रानीसागर और 1856 में अम्मामुंडा के काटा का निर्माण कराया था। लोइसिंघा, जुजुमुड़ा और सम्बलपुर जिले के रैराखोल के सिंचाई साधनों का निर्माण भी गोंड सामन्तों ने कराया था। चक्रधरसागर का नाम गोंड जमींदार चक्रधर सिंह राय के नाम पर है। सम्बलपुर के बीजेपुर का विशाल रानीसागर भी गोंड राजा के इलाके में ही आता था। रानीसागर आज अपने पुराने रंग-रूप में रंच मात्र भी नहीं रह गया है। इसमें गाद और खरपतवार भर गए हैं।
सम्बलपुर जिले के रैराखोल अनुमंडल में कुल 269 तालाब हैं जिनमें से 197 तालाब 2511 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करते हैं। यहाँ अक्सर पत्थर और मिट्टी के बाँधों से सिंचाई साधन बने हैं। इसके लिये ज्यादा कौशल या धन की जरूरत नहीं होती। स्थानीय समुदाय ही इनके निर्माण, देख-रेख और मरम्मत का काम करता है।
इन पारम्परिक साधनों से सूखों की मार और अकाल का खतरा काफी हद तक टलता है। 1897 में जब पूरे देश में सूखा पड़ा तो सम्बलपुर के इस हिस्से पर खास असर नहीं हुआ। 1900 के भारी सूखे के समय भी यहाँ के किसानों ने काटाओं से अपनी आधी जमीन सींच ली थी। गोंतिया पर इस प्रणाली का काफी दायित्व था और उसे बदले में भोगरा जमीन मिलती थी जिस पर एक-चौथाई लगान लगता था।
(‘बूँदों की संस्कृति’ पुस्तक से साभार)
गोंडवाना का पहला उल्लेख चौदहवीं सदी के मुस्लिम अभिलेखों में मिलता है। चौदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र गोंड राजवंश के अधीन था। मुगलों के शासनकाल में यह क्षेत्र या तो स्वतंत्र था या सामंतों के राज्य की तरह कार्य करता था।
अठारहवीं सदी में इसे मराठों ने जीत लिया था और गोंडवाना का एक बहुत बड़ा क्षेत्र नागपुर के भोंसला राजा और हैदाराबाद के निजाम के अधीन हो गया। सन 1818 और 1853 के बीच अंग्रेजों ने इसे अपने अधीन कर लिया। हालांकि कुछ छोटे राज्यों में गोंड राजाओं का शासनकाल 1947 तक चला।
यहाँ जिक्र सम्बलपुर क्षेत्र का हो रहा है। गोंडों के इलाके बहुत ही उपजाऊ हैं और सिंचाई की व्यवस्था काफी अच्छी है। इस क्षेत्र के जलाशय अद्भुत इंजीनियरी तकनीकों को दर्शातें हैं। गोंडों ने नई सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने वालों को खेत उपलब्ध कराए, जिन पर राजस्व नहीं लगता था। गाँवों के प्रमुख पुराने जलाशयों के पुनर्निर्माण और नये जलाशयों के निर्माण के लिये कानूनी रूप से बाध्य थे।
गाँवों के अधिक उद्यमी प्रधानों का ओहदा सुरक्षित रखा जाता था। गोंडवाना की लाखाबाटा प्रणाली खेतों और पानी के स्रोतों पर सामूहिक स्वामित्व को दर्शाती थी। इससे प्राकृतिक साधनों के अच्छे उपयोग में काफी सहायता मिलती थी। हालांकि सन 1750 के आस-पास राजनीतिक अस्थिरता, जनजातियों के अधिकारों के उन्मूलन और अधिक राज्य की माँग के कारण स्थिति बहुत बिगड़ गई, जिसका सिंचाई की परियोजनाओं पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा।
एक समय में सम्बलपुर इलाका पश्चिम में रायपुर जिला (जो उत्तर-पश्चिम में पुराने मेखला राज्य का एक हिस्सा था), बिलासपुर जिला और उदेपुर और जशपुर जैसे सामन्ती राज्यों ( जो एक समय में दक्षिण कौशल साम्राज्य के अधीन था), पूर्व में बौद्ध और आठमल्लिक राज्यों और दक्षिण में सामन्ती कालाहांडी राज्य से घिरा हुआ था। पटना और सम्बलपुर राज्यों में उपनिवेशवाद से पहले के क्षेत्रों में सिंचाई के पुराने साधनों का ध्वंसावशेष मिलता है। जलाशयों का निर्माण ग्राम प्रधानों का सबसे मुख्य काम था।
गोंडों की एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार हुआ करती थी। इसमें राजा को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। अन्य छोटे प्रधानों को इनमें सम्मिलित किया जाता था। इसके अलावा अन्य क्षेत्रों को छोटे-छोटे भागों में बाँटा जाता था, जिन्हें कुन्त कहा जाता था। इन्हें इन भागों के संस्थापकों के अधीन कर दिया जाता था।
गाँवों को शुरू में ही स्वायत्त दर्जा दिया जाता था। इन क्षेत्रों में पंचायतों की भी परम्परा काफी दिनों से चली आ रही थी। मराठा हमलों के समय इसमें कुछ बाधा आई थी, पर साम्राज्यों की स्थापना के बाद भी इन क्षेत्रों की स्वायत्तता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रशासनिक व्यवस्था शुरू से ही लोकतांत्रिक थी। स्थानीय पंचायत प्रधानों के स्वेच्छाचारी अधिकारों को सीति करने का काम करती थी।
गाँव मूलतः किसानों की बस्ती थी और ग्राम सभा उनका संगठन। शासन और अपनी अर्थव्यवस्था के मामले में हर गाँव काफी हद तक आजाद था। इसकी समृद्धि अपनी जमीन और जल संसाधनों के व्यवस्थित संचालन पर ही निर्भर करती थी। पहली बरसात के बाद ही नहरों, तटबन्धों, तालाबों की मरम्मत का काम शुरू हो जाता था। अधिकांश लोग इसे धार्मिक कार्य जैसी श्रद्धा से करते थे। जरा भी गड़बड़ या ढील हुई कि अपने ही गाँव में नहीं, आस-पास के इलाकों में भी लोक निन्दा शुरू हो जाती थी।
गोंड राजाओं ने यह उल्लेखनीय चलन शुरू किया कि जो कोई तालाब बनवाता उसे तालाब से लगी निचली जमीन लगान मुक्त दे दी जाती थी। सम्बलपुर क्षेत्र में जब तक गोंड राजाओं का शासन चला, तालाब या खेती में सुधार सम्बन्धी कामों को इसी तरह प्रोत्साहित किया जाता रहा। उनके शासनकाल में खेती से समृद्धि आई और सम्बलपुर के निकट बना विशाल तालाब आज तक उस दौर की कहानी कहता है। तालाब निर्माण और रख-रखाव के जानकार कोडा लोगों को लगान मुक्त जमीन दी जाती थी। इस तरह के अनुदान को सागर रक्षा जागीर कहा जाता था।
गोंड शासन वाले इलाकों में सिंचाई की जो मुख्य तकनीकें अपनाई गईं उन्हें काटा, मुंडा और बंधा कहा जाता था। काटा का निर्माण गाँव का प्रधान, जिसे गोंतिया कहा जाता था, कराता था और बदले में उसे गोंड राजा से लगान मुक्त जमीन मिलती थी। बनावट के हिसाब से यहाँ जमीन को चार श्रेणियों में बाँटा गया है, आट (ऊँची जमीन), माल (ढलान), बेरना (बीच की जमीन) और बहल (निचली जमीन)।
काटा का निर्माण बाँध को पूरब से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण रखते हुए किया जाता है। बाँध बहुत मजबूत बनाया जाता है और इसके दोनों सिरे जरा मुड़े हुए रखे जाते हैं। फिर इनमें ढलता हुआ पानी रुकता है। अगर ऐसा निर्माण घाटी को घेरकर किया गया हो तो उससे माल और बहल, सभी तरह की जमीन सींच ली जाती है।
हर बाँध के सबसे ऊपर से पानी निकलने का एक रास्ता ही जाता है, जहाँ से निकलकर वह ऊँचाई पर स्थित तालाब में गिरता है या फिर पहले ऊपर और फिर उससे नीचे के खेतों को सींचता नीचे पहुँच जाता है। अगर बारिश सामान्य हो तो सिंचाई की जरूरत नहीं रहती, पानी का रिसाव ही इसके लिये पर्याप्त नमी बनाए रखता है। फिर पानी को नाले से निकाल दिया जाता है। कम बरसात वाले वर्षों में तालाब का बाँध बीच से काटा जाता है जिससे सबसे नीचे तक की जमीन सिंच जाए।
कोरापुट जिले के बड़े तालाबों में जयपुर का जगन्नाथ सागर, काटपद का दमयन्तीसागर तथा मलकानगिरी का बाली सागर शामिल है। बस्तर-कोरापुर क्षेत्र के चंद्रादित्य समुद्र का निर्माण 11वीं सदी में तथा तितिलगढ़ अनुमंडल का दस्माटीसागर का निर्माण चौथी से आठवीं सदी के दौरान हुआ। जिले के सानीसागर, दर्पणसागर, भानुसागर, रामसागर, भोजसागर और पटना राज का हीरासागर तथा मयूरभंज राज का कृष्णसागर भी बहुत पुराने तालाबों में शामिल हैं।
बरसात के समय काटा की तरफ जाने वाले रास्ते पर पशुओं के जाने पर रोक रहा करती है और उस पर फसल नहीं लगाई जाती। इससे काटा में पानी बिना किसी बाधा के प्रवेश करता है तथा किनारे से बने रास्ते पानी को ज्यादा जमा होने नहीं देते। व्यवस्थित ढंग से जल निकासी के चलते इसके कमांड क्षेत्र में आने वाले खेतों की समय पर सिंचाई हो जाती है। पानी का यह बँटवारा बराबर-बराबर होता है और इसमें माल, बेरना और बहल भूमि में भी कोई फर्क नहीं किया जाता।
मुंडा जल निकासी मार्ग पर बनने वाले छोटे बाँध को कहा जाता था। यह बहुत आम था और अकेला किसान भी अपने खेत के पास इसका निर्माण कर सकता था। मुंडा का लाभ सीमित था और इससे छोटी जमीन को ही पानी मिल पाता था। अगर थोड़ी-बहुत बरसात हुई हो तो इसमें रुका पानी बाद में फसल के काम आ जाता था। बंधा चारों तरफ बाँध वाला तालाब था और अक्सर काटा के नीचे बनता था। उसके रिसाव का पानी इसमें आता था। बंधा का निर्माण पेयजल के लिये ही किया जाता था। इसकी पूजा होती थी और देवता से उनकी शादी मानी जाती थी। सूखे या मुश्किल वाले वर्षों में इनका पानी सिंचाई के काम भी आता था।
इस व्यवस्थाओं के निर्माण के साथ ही इनके बाँधों के कटाव या अन्य नुकसानों को रोकने का इन्तजाम भी कर लिया जाता था। इसके संचालन के कामों में पानी निकालने का इन्तजाम करना, पानी की मात्रा पर नजर रखना, गाद निकलवाना और बाँधों की रखवाली करना शामिल था। मानसून की शुरुआती बरसात के वक्त यह खास ख्याल रखा जाता था कि इसका बाँध न टूटे। पानी का वितरण गाँव के पंच की देख-रेख में होता था।
अनेक पहाड़ी सोते नदियों की रेतीली पेटी में पहुँचकर गुम हो जाते हैं। गोंडों को इनका पानी हासिल करने का तरीका मालूम है। आमतौर पर किसान 10 मीटर लम्बा एक छिछला नाला खोदता है जिसे चाहल कहा जाता है और इसमें ढेंकुली या डोंगी लगाकर पानी को ऊपर स्थित खेतों में पहुँचाया जाता था। आज इसकी जगह पम्पसेटों ने ले ली है। यह व्यवस्था सूखे वाले महीनों में पानी के गोंडों के कौशल के बारे में काफी कुछ बता देती है। बलांगीर जिले के सरसाहली गाँव में तेल की सहायक सानगढ़ नदी की सूखी पेटी में कम-से-कम दस चाहल मिलते हैं।
जाने कब से सारंगढ़ गाँव को किसानों ने खेती और लगान के हिसाब से कई हिस्सों में बाँट लिया है जिसे खार कहा जाता है। लाखाबाटा नामक यह प्रणाली पहले छत्तीसगढ़ में भी आम थी। इस दिलचस्प प्रणाली की शुरुआत कब हुई, यह स्पष्ट नहीं है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गाँव के खेतों पर सभी किसानों का सामूहिक हक माना गया है। लाखाबाटा में समय-समय पर जमीन को फिर से बाँटा जाता है जिससे इस बीच पैदा हो गई असमानता को दूर किया जा सके।
कालाहांडी
बाँध और तालाब कालाहांडी जिले में बहुत आम थे। जमीन पहाड़ी है और घाटियों में सदानीरा सोते हैं। अक्सर प्राकृतिक साधनों की सिंचाई से ही खेती का काम होता है। सन 1900 के भयंकर अकाल के साल भी इस इलाके में सूखा नहीं पड़ा था।
कालाहांडी में यह आम प्रथा थी कि जब गाँव को किसी प्रधान (गोंतिया) को सौंपा जाता था तो उसके साथ ही तालाब खुदवाने, बाँध बनवाने की जिम्मेदारी भी उसी के ऊपर डाल दी जाती थी। पानी का बँटवारा पंचायत करती थी। काटा तथा मुंडा का निर्माण कराने वाले गोंतिया को हटाना आसान नहीं था। तालाब खुदवाना उसका वैधानिक दायित्व था। जिस जमीन पर तालाब बनता था उस पर लगान नहीं लगता था। पर ये सारी प्रथाएँ धीरे-धीरे विदा हो गईं।
बौध
‘फ्यूडेटरी ऑफ ओडिया’ के लेखक काबडेन रैमसे कहते हैं, “बौध इलाके की प्राकृतिक विशेषता यह थी कि यहाँ सिंचाई का अलग से इन्तजाम नहीं करना था। महानदी में समा जाने से पहले सोते यह काम करते हुए आगे बढ़ते थे। जमीन उपजाऊ थी और सिंचाई की छोटी व्यवस्थाओं तथा कुओं की भरमार थी।”
वह बताते हैं कि राज्य के काश्तकारी और लगान कानून भी सिंचाई साधनों के निर्माण तथा रख-रखाव को बढ़ावा देने वाले थे। इस बारे में बने कानूनों में जब बदलाव किया गया तो उसके विनाशकारी परिणाम निकले।
1937 में बन्दोबस्ती अधिकारी ने सिंचाई व्यवस्था की गिरावट पर चिन्ता प्रकट की थी- “कुल मिलाकर 2,259 बाँध और तालाब थे, पर धीरे-धीरे उन लोगों ने इनमें दिलचस्पी लेनी बन्द कर दी जिन्होंने इनको बनाया था। काश्तकार इनका पानी लेते थे। वे सूखे के समय इन पर ही आश्रित रहते थे पर इनकी सफाई और मरम्मत की जवाबदेही में मुँह चुराते थे। इस प्रकार बाँध और तालाब उपेक्षित पड़े थे और अगर यही स्थिति बनी रही तो वे सदा के लिये समाप्त हो जाएँगे। इसलिये यह सुझाव दिया जाता है कि या तो सरकार सक्रिय रूप से उन्हें अपने हाथों में ले या फिर गाँव के कुछ प्रभावशाली लोगों को इनकी देख-रेख सौंप दी जाए।”
पटना
भूतपूर्व पटना रियासत के गाँव समृद्ध थे। इनमें तालाबों से सिंचाई का इन्तजाम था। यहाँ 3,000 से ज्यादा तालाब थे। 1919 में इनमें 33,700 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। 1937 में यह क्षेत्र बढ़कर 53,356 हेक्टेयर हो गया। फौजी अधिकारी एच.ई. इम्पे ने 1863 में पुरानी सिंचाई व्यवस्था के अवशेष देखे। पटना शहर से एक से दो मील के दायरे में अनेक तालाबों के अवशेष दिखे।
शासन ने काश्तकारों को तालाब बनाने के लिये प्रोत्साहित किया और इसके बदले उन्हें लगान तथा जलकर से मुक्ति दे दी जाती थी। एक बार व्यवस्था जम जाए तो इस पर जलकर लगने लगता था। सिंचाई के लेखे-जोखे का खतियान भी रखा जाता था। 1937 की बन्दोबस्ती रिपोर्ट में कहा गया है कि गाँव के मुखिया और पंच की देख-रेख में वे सभी किसान जलाशयों की देख-रेख और मरम्मत का काम करेंगे जो उनके पानी से सिंचाई करते हैं।
बड़े सिंचाई प्रबन्ध
बोलांगीर जिले के लोइसिंघा और उत्तलबैसी (आज का बीजापुर) के गोंड जमींदारों तथा अम्मामुंडा के गोंड राजा ने 20वीं सदी के शुरुआत में चक्रधरसागर, 1821 में रानीसागर और 1856 में अम्मामुंडा के काटा का निर्माण कराया था। लोइसिंघा, जुजुमुड़ा और सम्बलपुर जिले के रैराखोल के सिंचाई साधनों का निर्माण भी गोंड सामन्तों ने कराया था। चक्रधरसागर का नाम गोंड जमींदार चक्रधर सिंह राय के नाम पर है। सम्बलपुर के बीजेपुर का विशाल रानीसागर भी गोंड राजा के इलाके में ही आता था। रानीसागर आज अपने पुराने रंग-रूप में रंच मात्र भी नहीं रह गया है। इसमें गाद और खरपतवार भर गए हैं।
सम्बलपुर जिले के रैराखोल अनुमंडल में कुल 269 तालाब हैं जिनमें से 197 तालाब 2511 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करते हैं। यहाँ अक्सर पत्थर और मिट्टी के बाँधों से सिंचाई साधन बने हैं। इसके लिये ज्यादा कौशल या धन की जरूरत नहीं होती। स्थानीय समुदाय ही इनके निर्माण, देख-रेख और मरम्मत का काम करता है।
इन पारम्परिक साधनों से सूखों की मार और अकाल का खतरा काफी हद तक टलता है। 1897 में जब पूरे देश में सूखा पड़ा तो सम्बलपुर के इस हिस्से पर खास असर नहीं हुआ। 1900 के भारी सूखे के समय भी यहाँ के किसानों ने काटाओं से अपनी आधी जमीन सींच ली थी। गोंतिया पर इस प्रणाली का काफी दायित्व था और उसे बदले में भोगरा जमीन मिलती थी जिस पर एक-चौथाई लगान लगता था।
(‘बूँदों की संस्कृति’ पुस्तक से साभार)
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