वैसे तो गोवा अपनी अनाज की जरूरतों के लिये एक हद तक बाहर से आये अनाज पर भी आश्रित है, पर खेती इस तटीय प्रदेश का सबसे मुख्य पेशा है। 12 लाख आबादी में से करीब 1.6 लाख लोग खेती करते हैं और यहाँ की करीब 35 फीसदी जमीन पर खेती होती है (1995 के आँकड़े)। सिर्फ धान की खेती ही 45,000 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर होती है।
राज्य सरकार के अनुमान के अनुसार, उसके सकल घरेलू उत्पादन में खेती का हिस्सा 125 करोड़ रुपए है। धान यहाँ की प्रमुख फसल है। धान के खेतों में भी पहाड़ों पर स्थित सीढ़ीदार खेत-जिन्हें स्थानीय लोग मोरोड कहते हैं- का क्षेत्रफल करीब 6,600 हेक्टेयर होगा। पानी निकासी की अच्छी व्यवस्था वाली रेतीली जमीन का विस्तार भी करीब 17,000 हेक्टेयर होगा। इसे स्थानीय लोग खेर कहते हैं। शेष करीब 18,000 हेक्टेयर जमीन खजाना कहलाती है।
खजाना शब्द पुर्तगाली के कसाना से आया माना जाता है, जिसका अर्थ होता है धान के बड़े खेत। गोवा के इतिहासकार जेसेफ बरोस बताते हैं कि लोक मान्यताओं के अनुसार, इस तरह की जमीन 4,000 वर्ष पूर्व समुद्र से निकाली गई थी। ये इस बात के गवाह भी हैं कि गोवा के लोगों को स्थानीय जलवायु, समुद्री ज्वार-भाटों के चक्रों, मिट्टी के गुणों, मछलियों और समुद्री जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों के बारे में कितनी विस्तृत जानकारी थी। पानी के बहाव को नियंत्रित करने के लिये जिन फाटकों का निर्माण उन्होंने किया था, उनसे भी तकनीकी कौशल झलकता है।
खजाना खेत राज्य की दो प्रमुख नदियों जुआरी और मांडोवी के बहाव वाले निचले हिस्से में स्थित हैं। नीचे इन नदियों से नहरें खुद भी निकली हैं और निकाली भी गई हैं। इनसे निकला पानी या समुद्री ज्वार का खारा पानी मछलियों और झींगों के लिये फलने-फूलने का अच्छा ठिकाना है। बरसात में जब पानी का खारापन कम हो जाता है तो इस जमीन पर धान की फसल लगाई जाती है। धान के खेतों तक जिन रास्तों से पानी जाता है, बाद में उनमें जमा पानी ही मछलियों और झींगों के लिये जन्मने-पलने-बढ़ने का घर बन जाता है।
ये दोनों नदियाँ लम्बे मैदानी और समतल इलाके को पार करके समुद्र में जा गिरती हैं। समुद्री ज्वार का पानी इनके अन्दर तक आ जाता है। इससे गर्मियों के मौसम में इन नदियों के पानी में भी खारापन आ जाता है। फिर यह खारापन अन्य सोतों और चश्मों में भी पहुँचता है।
इन नदियों से लगे निचली जमीन वाले खेतों की सिंचाई इनके पानी से होती है। इनसे निकली नालियों-नहरों पर बने फाटक इन खेतों की सिंचाई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि इनमें ही समुद्र ज्वार का पानी पाया जाता है। बाँस के एक खम्भे वाली सरल तकनीक से चलने वाले फाटक ही ज्वार को रोककर खेतों को डूबने और फसल को बर्बाद होने से बचाते हैं। अगर यह व्यवस्था न हो तो फसल के साथ ही जमीन भी बर्बाद होती है, क्योंकि खारापन खेतों की उर्वरता को भी नष्ट करता है।
जल मार्गों पर बने फाटक मछली पकड़ने के काम को भी व्यवस्थित करते हैं। स्थानीय ग्रामीण समुदाय कम्युनिडाडेस और शासन, दोनों ही बहुत ज्यादा मछलियाँ पकड़ने की अनुमति नहीं देते। इन फाटकों के आस-पास और छोटे ज्वारों के बीच ही मछली पकड़ने की अनुमति दी जाती है। जब ज्वार ऊँचा हो तब मछली मारने पर सख्त रोक रहती है, क्योंकि ऐसे में मछलियाँ भागकर और इलाके में चली जाती हैं।
पारम्परिक रूप से इन फाटकों के पास मछली मारने के हक की नीलामी की जाती थी और कम्युनिडाडेस यह इन्तजाम भी करता था कि पकड़ी गई मछलियों में गाँव वालों को सही हिस्सा भी मिल जाये। पानी को खारेपन से बचाने के लिये गाँव के लोग ही फाटकों का संचालन करते हैं। अगर फाटक खोलने और बन्द करने के नियमों का उल्लंघन किया जाता है तो उसके लिये जुर्माना लगता है।
बाँध
खजाना खेतों की हिफाजत का एक अन्य महत्त्वपूर्ण इन्तजाम स्थानीय सस्ते साधनों-मिट्टी, पुआल, बाँस, पत्थर और गरान की टहनियों से बने बाँध हैं। ये बाँध भी खेतों में खारे पानी का प्रवेश रोकते हैं। इसमें अन्दर वाला बाँध तो कम ऊँचा होता है और मिट्टी का बना होता है, पर बाहरी बाँध मखरला पत्थरों का होता है जो यहाँ खूब मिलते हैं। इन्हीं पर ज्वार को सम्भालने का असली बोझ आता है और ये पत्थर भी खारा पानी सह-सहकर और कठोर बन जाते हैं। फिर इनमें घोंघे या केंकड़े वगैरह बांबी नहीं बना पाते। ऐसे छेदों से भी बाँध खराब हो जाते हैं। पणजी स्थित राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक एस. ऊंटवले कहते हैं कि ये बाँध जमीन और समुद्र की पक्की जानकारियों के आधार पर बनाए जाते हैं।
बाँधों की लम्बाई करीब 2,000 किमी. होगी और ये गोवा की सबसे बड़ी सामुदायिक सम्पदा हैं। खेतों में पानी ले जाने और अतिरिक्त पानी निकालने वाली नालियाँ बनी हैं। इन तटबंधों पर उगने वाली गरान की झाड़ियाँ बाँधों को बचाने और ज्वार के जोर को थामने का काम करती हैं। किसानों ने सदियों से इन झाड़ियों को लगाने और सम्भालने का काम किया है।
खजाना के स्वामी
खजाना जमीन आमतौर पर निजी मिल्कियत वाली है, पर कहीं-कहीं कम्युनिडाडेस-सामूहिक मिल्कियत वाले भी खेत हैं। पहल काश्तकार-जिन्हें यहाँ बाटीकार कहा जाता है-खुद ही खेती करते थे। पर धीरे-धीरे बटाई पर खेती शुरू हुई। बटाईदारों को यहाँ मुंडकार कहा जाता है। पर जमीन पर चाहे जिसकी मिल्कियत हो, कम्युनिडाडेस द्वारा तय नियमों से ही इन खेतों में खेती और सिंचाई होती है। तटबंध के कटान को हर हाल में बोउस (किसानों के संगठन) द्वारा 24 घंटे के अन्दर-बन्द करना होता है। इस प्रणाली के रख-रखाव और आपातस्थिति से निपटने में किसानों की साझेदारी अनिवार्य है।
1882 में पुर्तगाली सरकार ने नियम बना दिया कि सभी बाटीकारों और मुंडकारों को बोउस का सदस्य होना ही पड़ेगा। सिंचाई प्रणालियों के रख-रखाव, मरम्मत और संचालन का जिम्मा बोउस का था। उसके काम की निगरानी गौंकार करते थे। गाँव का लेखा-जोखा कुलकर्णी के पास होता था। और पैनी बाँधों की रखवाली करते थे। बोउस का खर्च उसके सदस्य मिलजुलकर उठाते थे। गाँवों को पुराने कागजातों से स्पष्ट होता है कि किसानों को अपने खेतों से कटे धान का बोझ उठाने के पहले सारे बकाए का भुगतान करना होता था।
जरूरत पड़ने पर कई गाँवों के बोउस मिल-जुलकर काम करते थे और इस पूरी व्यवस्था का सबसे दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण पहलू खारे पानी को रोकना है। जो खेती और मछली पालन, सबके लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस बारे में बरता जाने वाला अनुशासन तोड़ने पर सख्त सजा और जेल भी हो जाती थी। सरकार भी सिर्फ कीड़े-मकोड़े, घोंघे, खरपतवार को मारने के नाम पर ही खारा पानी आने देेने की अनुमति देती थी। पर ऐसी अनुमति होने पर भी 20 सेंमी. से ज्यादा पानी नहीं रखा जा सकता था।
बाँधों पर खतरा
1950 के दशक में नौकाओं की आवाजाही बढ़ने से बाँधों पर पहली बार गम्भीर खतरा उत्पन्न हुआ। इनसे हुए नुकसानों की मरम्मत और रख-रखाव के लिये ज्यादा धन जुटाने वाले नए कानून बनाए गए।
1961 में एक नए कानून कोडिगो दास कम्युनिडाडेस के जरिए बोउस को पूरी तरह खत्म कर देने से बोउस और बाँधों, दोनों के लिये खतरा पैदा हो गया। इसके बाद से इन क्षेत्रों का प्रशासन सरकार का काम हो गया। गोवा की आजादी के बाद बने 1964 के काश्तकारी कानूम से कम्युनिडाडेस को खजाना खेतों के प्रबन्ध की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया।
नए कानून में यह प्रावधान भी था कि खेतों के संरक्षण वाले बाँध के रख-रखाव का आधा तक खर्च सरकार उठाएगी और खजाना क्षेत्र में पड़े खेतों के मालिकों को अनिवार्य रूप से अपना संगठन बनाना होगा। लेकिन जैसा कि 1992 में पेश अपनी रिपोर्ट में कृषि भूमि विकास पैनल ने कहा है, यह संगठन कम्युनिडाडेस वाली भूमिका नहीं निभा सका। इस रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि खजाना भूमि व्यवस्था की बदहाली कम्युनिडाडेस की समाप्ति के साथ ही जुड़ी है।
बर्बादी बढ़ी
सरकार और स्थानीय समुदाय की उपेक्षा शुरू होने के साथ ही खजाना भूमि के लिये खतरा बढ़ता गया। इसके साथ ही, गोवा में जिस रफ्तार से प्रवासी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है उससे भी यहाँ का ग्रामीण समुदाय संकट में पड़ा है। गोवा विश्वविद्यालय में अर्थशास्र के अध्यापक एरोल डिसूजा बताते हैं कि परिवारों के बँटने से जमीन भी बँटी है और जमीन का टुकड़ा जितना छोटा होता गया है उस पर खेती उतनी ही कम लाभकारी रह गई है। राज्य के काश्तकारी कानून किसी भी व्यक्ति को जमीन से बेदखल होने नहीं देते और जमींदार अपनी जमीन पर खास ध्यान नहीं दे पाते, क्योंकि उनसे अब कोई खास लाभ नहीं मिलता। छोटे मुंडकारों (बँटाईदारों) के पास इतनी अार्थिक ताकत नहीं रहती कि वे बाँध पर ध्यान देने की सोचें भी।
अगर कोई व्यक्ति खुद से श्रम नहीं करता तो मजदूर रखकर खेती करना और जमीन का रख-रखाव कराना भी आसान नहीं है, क्योंकि गोवा में दिहाड़ी मजदूरी की दर देश में सबसे ज्यादा है। पत्रकार मारियों कैब्रेल ऐसा बताते हैं कि इन्हीं सब बातों के चलते खजाना भूमि के चारों तरफ बनी सुरक्षा ‘कवच’ अक्सर जहाँ-तहाँ से दरकती है और सरकारी काम अपने खास अन्दाज में होता है। एक-एक दरार को पाटने में कई-कई दिन लग जाते हैं और परिणाम यह होता है कि खेतों में खारा पानी भरा रहता है।
झींगा भी झमेले का कारण
गोवा में खेती की आमदनी में गिरावट आने के साथ एक और डरावना बदलाव आया है। खारे पानी से भरे खजाना खेत कुछ खास किस्म की मछलियों और खासतौर से झींगा पालन के लिये बहुत ही अच्छा साबित हो रहे हैं। झींगों की बाजार में काफी ऊँची कीमत मिलती है। ऐसे मामले खूब हो रहे हैं जब बाटीकार या मुंडकार खुद ही तटबंध को काट देते हैं जिससे उनके खेतों में समुद्री पानी भर जाता है और वे इस पानी में मछलीपालन करते हैं, जो धान लगाने से ज्यादा लाभदायक है।
कृषि भूमि विकास पैनल की रिपोर्ट में बताया गया है कि अनेक खेतों में 15-15 वर्षों से पानी भरा पड़ा है और इनमें झींगा पालन हो रहा है। पैनल से ऐसे उदाहरण मिले हैं जब बाटीकार और मुंडकार ने मिलकर जमीन को बेच दिया है। धान लगाना छोड़कर मछली पालन शुरू करना कितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, इसका पता इस बात से भी चलता है कि 1991 में सरकार ने ऐसा करने पर कानूनी रोक लगा दी। सिर्फ पाँच साल से बिना खेती वाली जमीन पर ही मछलीपालन की अनुमति दी जाती है, पर झींगा पालने में लगे लोगों का धंधा इससे नहीं रुका है। हाँ, उन्हें जमीन के मालिक और गाँव के कर्मचारी से झूठा प्रमाणपत्र लेने की जरूरत भर हो गई है।
शहरीकरण का सिरदर्द
बढ़ते जनसंख्या घनत्व से भी खजाना भूमि पर दबाव बढ़ा है। गोवा में आबादी मुख्यतः जुआरी-मांडोवी के मैदानी इलाके में है और यहीं खजाना खेत भी हैं। शहरों का विस्तार और विकास तो पूरी तरह खेती वाली इसी जमीन को नष्ट करके हुआ है। गोवा के पूर्व विपक्षी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री रमाकांत खलप कहते हैं कि शहर के योजनाकारों और डेवलपरों ने खजाना को ही खाया है।
शहरों के विस्तार के साथ ही सड़कों का भी भारी विस्तार हुआ है और इनसे खजाना भूमि की जल विकासी व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। जैसे, कुछ वर्ष पहले बने पणजी बाईपास रोड ने काफी नुकसान पहुँचाया है। खलप कहते हैं, ‘शहरों के आस-पास विस्तार की जो भी योजनाएँ चलती हैं, सबकी मार इसी जमीन पर पड़ती है।’ वह बताते हैं कि मापुसा राजमार्ग, कदंब बस पड़ाव और पणजी की अनेक ऊँची इमारतें खजाना जमीन पर ही बनी हैं।
पर्यावरण में आ रही आम गिरावट का कुप्रभाव भी इन खेतों पर पड़ रहा है। नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जंगलों की कटाई और खनन के चलते उनके पानी में मिट्टी की मात्रा बढ़ गई है। यह मिट्टी आकर मुहाने वाले खेतों में बैठती है और मानसून के समय ज्यादा जमीन डूबी रहती है।
शहरों के पास नदियों में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है और काफी सारा कचरा बहकर खजाना खेतों में भी पहुँचता है। नौकाओं, ट्रालरों और टैंकरों से होने वाला पेट्रोलियम का रिसाव इस समस्या को और भी बढ़ाता है।
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताते हैं, ‘अब मुश्किल यह हो गई है कि गोवा में होने वाली विकास की हर गतिविधि की कीमत खजाना खेतों को देनी पड़ रही है। हम उन्हें बचाने की जितनी इच्छा रखें, जितना शोर मचाएँ, पर इस विकास से जिस पर अब हमारा भी वश नहीं रह गया है, उनकी बर्बादी हो रही है।’ पर कोंकण रेलवेे को लेकर पर्यावरणविदों के विरोेध से लोगों का ध्यान अपने इस खजाने की बर्बादी की तरफ भी गया है। यह चेतना क्या रंग लाती है, यह देखना अभी बाकी है।
(‘बूँदों की संस्कृति’ पुस्तक से साभार)
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