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दैनिक जागरण, 22 मई 2016
दो संकट एक समाधान। पेयजल की गम्भीर स्थिति के बीच ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र के तल में वृद्धि। दुनिया भर में इन दोनों समस्याओं के एक ही समाधान के रूप में समुद्री खारे पानी को पीने लायक बनाने की दिशा में तेजी आई है। इसी क्रम में इजरायल अपने डीसेलिनेशन (खारे पानी को शुद्ध करने) प्लांट सोरेक को पूर्ण क्षमता पर संचालित करने लगा है।
इससे रोजाना 6.30 लाख घन मीटर समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जा रहा है। सोरेक से वहाँ की 40 फीसद पानी की जरूरत पूरी हो रही है। ऐसे ही प्लांट भारत में भी मौजूद हैं। वैज्ञानिक इस तरीके को दोनों समस्याओं की काट के रूप में देख रहे हैं।
इस तकनीक के जरिए समुद्र के खारे पानी से नमक और अन्य हानिकारक तत्व अलग किये जाते हैं। इन प्लांट में दो तकनीकों का प्रयोग होता है। एक है पारम्परिक वैक्यूम डिस्टिलेशन और दूसरी है रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ)। वैक्यूम डिस्टिलेशन में पानी को कम वायुमंडलीय दाब पर उबाला जाता है। वहीं रिवर्स ओस्मोसिस तकनीक में खास झिल्लियों की मदद से खारे पानी से नमक और अन्य हानिकारक तत्व अलग किये जाते हैं।
इजरायल, यरूशेलम और ब्राजील के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में दावा किया है कि आरओ तकनीक से शुद्ध किये गए पानी में आयोडीन समाप्त हो जाता है। इससे शरीर में आयोडीन की कमी हो सकती है।
डिसेलिनेशन प्लांट से समुद्री पानी को स्वच्छ बनाने के लिये ऊर्जा की अधिक खपत होती है। वैक्यूम डिस्टिलेशन तकनीक में एक घन मीटर समुद्री जल को शुद्ध करने के लिये तीन किलोवॉट ऊर्जा की खपत प्रति घंटे होती है। वहीं आरओ तकनीक में यह खपत दो किलोवाट है। वैज्ञानिक इसकी लागत को घटाने के रास्ते खोज रहे हैं।
भारत में दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा डिसेलिनेशन प्लांट है। मिंजुर नामक यह प्लांट चेन्नई के पास कट्टुपल्ली गाँव में है। 60 एकड़ का यह प्लांट आरओ तकनीक पर चल रहा है और प्रतिवर्ष तीन करोड़ घन मीटर समुद्री जल को पीने लायक बना रहा है। नेम्मेली में स्थित दूसरा प्लांट प्रतिदिन सौ लाख लीटर स्वच्छ पानी उपलब्ध करा रहा है। ऐसी ही कोशिशें महाराष्ट्र और गुजरात में भी हो रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे प्लांट लगाकर सूखे से काफी हद तक निपटा जा सकता है।
इससे रोजाना 6.30 लाख घन मीटर समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जा रहा है। सोरेक से वहाँ की 40 फीसद पानी की जरूरत पूरी हो रही है। ऐसे ही प्लांट भारत में भी मौजूद हैं। वैज्ञानिक इस तरीके को दोनों समस्याओं की काट के रूप में देख रहे हैं।
डिसेलिनेशन प्लांट
इस तकनीक के जरिए समुद्र के खारे पानी से नमक और अन्य हानिकारक तत्व अलग किये जाते हैं। इन प्लांट में दो तकनीकों का प्रयोग होता है। एक है पारम्परिक वैक्यूम डिस्टिलेशन और दूसरी है रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ)। वैक्यूम डिस्टिलेशन में पानी को कम वायुमंडलीय दाब पर उबाला जाता है। वहीं रिवर्स ओस्मोसिस तकनीक में खास झिल्लियों की मदद से खारे पानी से नमक और अन्य हानिकारक तत्व अलग किये जाते हैं।
आयोडीन की कमी
इजरायल, यरूशेलम और ब्राजील के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में दावा किया है कि आरओ तकनीक से शुद्ध किये गए पानी में आयोडीन समाप्त हो जाता है। इससे शरीर में आयोडीन की कमी हो सकती है।
ऊर्जा खपत अधिक
डिसेलिनेशन प्लांट से समुद्री पानी को स्वच्छ बनाने के लिये ऊर्जा की अधिक खपत होती है। वैक्यूम डिस्टिलेशन तकनीक में एक घन मीटर समुद्री जल को शुद्ध करने के लिये तीन किलोवॉट ऊर्जा की खपत प्रति घंटे होती है। वहीं आरओ तकनीक में यह खपत दो किलोवाट है। वैज्ञानिक इसकी लागत को घटाने के रास्ते खोज रहे हैं।
भारत में दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा डिसेलिनेशन प्लांट है। मिंजुर नामक यह प्लांट चेन्नई के पास कट्टुपल्ली गाँव में है। 60 एकड़ का यह प्लांट आरओ तकनीक पर चल रहा है और प्रतिवर्ष तीन करोड़ घन मीटर समुद्री जल को पीने लायक बना रहा है। नेम्मेली में स्थित दूसरा प्लांट प्रतिदिन सौ लाख लीटर स्वच्छ पानी उपलब्ध करा रहा है। ऐसी ही कोशिशें महाराष्ट्र और गुजरात में भी हो रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे प्लांट लगाकर सूखे से काफी हद तक निपटा जा सकता है।