सरयू

Submitted by admin on Thu, 09/26/2013 - 13:52
Source
काव्य संचय- (कविता नदी)
(जन्म : 1884)
तरल-धार सरयू अलौकिक छटा से,
सुबह की सुनहरी गुलाबी घटा से,
झलक रंग लेती चली बुदबुदाती,
प्रभाकर की जगमग में जादू जगाती।
किस कंदरे से समीकरण हो उन्मन,
उठा मानों करता मधुप का-सा गुंजन,
प्रसूनों की गंधों को तन में लगाकर,
विपिन के गवैयों को सोते जगाकर,
मृदुल मस्त सीटी एकाएक सुनाकर,
सनासन चला ओर सरयू की धाकर,

चली जाती सरयू अलौकिक छटा से,
कनक रंग लेकर गुलाबी घटा से,
कभी सिर बढ़ाकर तरंगें उठाती,
कभी बुदबुदाकर के है मुस्कराती,
कभी बुलबुले कोटि पथ में बनाती,
उन्हें तोड़कर फिर प्रभा-राग गाती,
सगुन रंग यों ही दिखाती है सरयू,
अगम भेद हरि का सुनाती है सरयू।

घट गया पानी नदी में लौटती है बाढ़धूम से गंदी हवाएँ चिमनियों का देश
प्रेत-सी कालिख जहाँ मँडरा रही है
छाँह बादल की नदी के नीर में है
व्योम में काली घटाएँ छा रही हैं
दिन गए हैं बीत आतप के बहुत से
दीर्घ निःश्वासों सरीखे दीर्घ वे दिन
और सावन, और बरसा और बरसा
है यहाँ तक, बाढ़ से उफना गई गंगा हमारी।

(अपूर्ण)