पानी की शुद्धता जांचने के लिए ऐसे किट मुहैया कराये हैं जिनका केमिकल पानी में डालते ही रंग काला हो जाता है। मतलब पानी में भी कुछ काला है। इस कालेपन का थोड़ा पता अभी सोनभद्र, मिर्जापुर और बलिया सरीखे चुनिंदा जिलों में ही लग पाया है। नलों के जरिये पापी पेट में एईएस के पोषकों के अलावा आर्सेनिक और फ्लोराइड भी 5 से 30 फीसद तक जा रहा है। पैमाने पर यह मात्रा 2 फीसद तय है। फ्लोराइड के ज्यादा इस्तेमाल से कैल्शियम कम हो जाती है जिससे हड्डियों, दांतों और मांसपेशियों की कार्यक्षमता घट जाती है। देश एका-एक उछल कर आर्थिक महाशक्ति बनने को बेकरार है। पर यह इतनी आसानी से कैसे सम्भव है।
दिसम्बर 2010 के दूसरे हफ्ते में बुद्ध की धरती कुशीनगर में राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण की एक संगोष्ठी में स्वास्थ्य महानिदेशक, विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रतिनिधि और बाकी आला स्वास्थ्य अधिकारियों और विशेषज्ञों के करीब 3 घंटे के तिलिस्मी कार्यक्रम में इतनी रहस्यमयी चर्चा हुई कि खजाने लुटने के डर से अंदरखाने से पत्रकारों को बेदलखल कर दिया गया। महज फोटोग्राफरों पर कृपा कर उन्हें सूटवाले नूरेचश्मों की मेज पर रखी ब्रांडेड शुद्ध पेयजल की बोतलों के साथ तस्वीरें खींचने की इजाजत दी गयी।
मंथन का निष्कर्ष यह रहा कि इंसेफेलाइटिस मच्छरों की तुलना में ज्यादा मौतें अशुद्ध जल से पनपे एईएस रोग से हो रही हैं। इसके अलावा बच्चे कई दूसरी संक्रामक बीमारियों की भी चपेट में आ रहे हैं। असल में उस दौरान सभी 80 फीसद तक जेई टीकाकरण अभियान के लिए माहौल बनाने में लगे रहे। लेकिन इन विशेषज्ञों की उसी बैठक स्थली कुशीनगर के बावजूद टीके लगने के 8 और 9 जनवरी, 2011 को एक ही गांव के 6 बच्चों में से 3 का एईएस ने गला घोंट दिया। स्वास्थ्य अधिकारियों और बाल रोग विशेषज्ञों के फौरी दौरे में गांव के इंडिया मार्का 14 हैंडपम्पों में से 11 खराब मिले। बाकी बचे 3 पर गंदगी का अम्बार दिखा तो वायरोलॉजी के डॉक्टरों से जांच की सिफारिश की गयी।
एक अनुमान के मुताबिक राज्य के एक लाख से ऊपर सरकारी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक, करीब 2000 हो चले इंदिरा गांधी आवासीय बालिका विद्यालयों में लगे इंडिया मार्क हैंडपम्पों में से कम से कम 80 फीसद सालों से खराब हैं या फिर बदबूदार पानी देते हैं। इसके अलावा हजारों मान्यता प्राप्त, सहायता प्राप्त और दूसरे निजी स्कूल भी हैं जिनमें नल तो ठीक हैं लेकिन वे महज 40 से 50 फुट गहरे ही गड़े हैं। खासकर सरकारी करीब 80 फीसद खराब नलों वाले स्कूलों के 4 करोड़ से ऊपर बच्चे खुद और अपने 4 लाख से ऊपर शिक्षकों व एक लाख, 70 हजार शिक्षामित्रों के लिए भी अपने घर-गांव से पानी लाते या एमडीएम खाकर कर प्यास बुझाने के बहाने घर भाग जाते हैं। बाकी 20 फीसद स्कूलों में सभी वही खराब पानी पीते हैं। भले ही बच्चे पानी पीने के बहाने स्कूल से घर भाग जाएं लेकिन अब सरकार का हर 300 की आबादी पर एक प्राथमिक और 800 पर एक उच्च प्राथमिक स्कूल खोल देने का इरादा है।
इन स्कूलों में सरकार ने पानी की शुद्धता जांचने के लिए ऐसे किट मुहैया कराये हैं जिनका केमिकल पानी में डालते ही रंग काला हो जाता है। मतलब पानी में भी कुछ काला है। इस कालेपन का थोड़ा पता अभी सोनभद्र, मिर्जापुर और बलिया सरीखे चुनिंदा जिलों में ही लग पाया है। नलों के जरिये पापी पेट में एईएस के पोषकों के अलावा आर्सेनिक और फ्लोराइड भी 5 से 30 फीसद तक जा रहा है। पैमाने पर यह मात्रा 2 फीसद तय है। फ्लोराइड के ज्यादा इस्तेमाल से कैल्शियम कम हो जाती है जिससे हड्डियों, दांतों और मांसपेशियों की कार्यक्षमता घट जाती है। खबरों के मुताबिक केंद्र सरकार ने इन रोगों के मुतल्लिक अपना पैमाना, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से 5 गुना अधिक का रखा है। खतरनाक यह कि ये रोग लाइलाज हैं और इनसे बचाने में कम से कम 160 फुट गहरे हैंडपम्पों का पानी ही सक्षम है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बीते बरस राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने स्वास्थ्य अधिकारियों-कर्मचारियों के सम्मेलन में कबूल किया कि एईएस पर निष्कर्ष नहीं, अभी भी शोध चल रहा है जिसकी बलि सबसे ज्यादा बच्चे चढ़ते हैं।
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समय लाइव, 7 फरवरी 2011