शुद्ध जल संकट का निदान अनदेखी का शिकार है। उस अनदेखी के कारण शुद्ध जल की उपलब्धता लगातार घट रही है। उसे उपलब्ध कराने की लागत तथा चुनौती लगातार बढ़ रही है। इस अनदेखी का हम पर जो कुप्रभाव पडेगा, भले ही हम उसे संभवतः झेल लें पर हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए वह बहुत अधिक भारी पडेगा। इस संकट का जलवायु परिवर्तन या उसके प्रभावों से बहुत सीधा सम्बन्ध नही हैं। उसका सम्बन्ध पानी को जहरीली बनाती केमिस्ट्री से है। यह केमिस्ट्री, नगरीय या ग्रामीण इलाके के इलाकों के प्रशासनिक विभाजन पर निर्भर नहीं है। वह धरती पर पानी की यात्रा जिसे वैज्ञानिक कुदरती जलचक्र कहते हैं, पर निर्भर होती है। लेकिन सबसे अधिक उसे मानवीय गतिविधियां प्रभावित करती हैं। पानी की बिगडती गुणवत्ता, महानगरों और नगरों तथा ग्रामीण इलाकों के सतही और भूजल को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित कर रही है। यह कुप्रभाव लगातार बढ़ रहा है। उसकी की अनदेखी चिन्तनीय है। वह धरती पर जीवन की निरापद निरन्तरता के लिए लगातार बढ़ता गंभीर खतरा है। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक हमारे सभी जल स्रोत (कुदरती और मानव निर्मित) निरापद थे। अपवादों को छोडकर, बाकी सभी जल स्रोतों में उपलब्ध जल, शुद्ध होता था। उसकी अशुद्धियों में मिट्टी के कण या सामान्य वानस्पतिक कचरा होता था। उसे छान कर दूर कर दिया जाता था। उस कालखंड में हमारी विकासजनित गतिविधियों का पानी की शुद्धता पर असर लक्ष्मण रेखा के अन्दर था। बीसवीं सदी के तीसरे दशक के बाद सेन्ट्रीफ्यूगल पम्पों का चलन बढ़ा। परिणामस्वरुप, नदी, तालाबों और कुओं से पानी का उठाव बढ़ा, जल स्रोतों की संख्या बढ़ने लगी पर वह विकास कुदरती जल चक्र को प्रभावित तो कर रहा था लेकिन, अधिकांश स्थानों पर एक सीमा तक सन्तुलित था। कहीं कहीं उसे कुदरत सन्तुलित कर लेती थी। जल स्रोतों में मौजूद अधिकांश गन्दगी का निपटान जलीय जीव-जन्तुओं द्वारा कर लिया जाता था। खेती भी कुदरती थी। उसके अपशिष्टों के कारण पानी की केमिस्ट्री पर प्रतिकूल असर नहीं पडता था। नगरीय अपशिष्टों का निपटान भी खतरे के निशान के नीचे था। यह पानी की निरापद केमिस्ट्री का सुरक्षित दौर था।
पानी के अशुद्ध होने की कहानी बीसवीं सदी के पचास के दशक से प्रारंभ हुई और साठ के दशक से परवान चढ़ी। बीसवीं सदी के साठ के दशक में खेती का परम्परागत माडल बदला। रासायनिक खेती मुख्यधारा में आई। खेती में प्रयुक्त हानिकारक कीटनाशकों इत्यादि ने भूजल की गुणवत्ता को खराब किया। नए नए कल-कारखानों का विस्तार हुआ। उनके अपशिष्टों के निपटान का कारगर इन्तजाम नही होने के कारण पानी की गुणवत्ता खराब होने लगी। उसमें हानिकारक रसायनों की मात्रा बढ़ने लगी। गहरे नलकूपों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। गहराई से पानी खींचने के कारण, कतिपय इलाकों के पानी में आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे हानिकारक घटकों की उपस्थिति नजर आने लगी। अनुपचारित सीवर, औद्योगिक गंदगी और आईटी सेक्टर का अपशिष्ट, नदियों तथा भूजल को प्रदूषित करने लगा। इसी दौर में बरसात के बाद पानी की कमी का लगातार बढ़ता संकट सामने आने लगा जो बरसात के बाद पनपता है, गर्मी के मौसम में पीक पर पहुँचता है और बरसात प्रारंभ होते ही समाप्त हो जाता है। इस संकट का असर उन इलाके में अपेक्षाकृत कम है जहाँ पानी की पूर्ति ग्लेशियरों के पिघलने से मिलने वाले पानी से भी होती है लेकिन वह पानी भी केमिस्ट्री परिवर्तन से पूरी तरह मुक्त नहीं है। संकट उस पर भी है। यह मौजूदा स्थिति है। संक्षेप में, शुद्ध जल की सर्वकालिक उपलब्धता पर संकट के बादल हैं। इन बादलों का प्रभाव गरीबों पर अधिक और धनाढ़यों पर कम है।
आगे बढ़ने के पहले हमें शुद्ध जल की उपलब्धता के संकट की अनदेखी को समझना होगा। अभी हम केवल जल उपलब्धता सुनिश्चित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाने की रणनीति अर्थात बरसाती पानी के संचय (Rain water harvesting) पर काम कर रहे हैं। इसके अन्तर्गत मुख्यतः नदी-नालों पर बांध बनाने का काम हो रहा है। गौरतलब है कि यह काम धरती पर शुद्ध जल की उपलब्धता के बढ़ते संकट को कम नहीं करता वरन उनमें ठहरा पानी कालान्तर मे रासायनिक घटकों के संचय तथा पर्यावरणी दुष्परिणाम देता है।
शुद्ध जल की बारहमासी उपलब्धता के लिए भारत में बरसात के पानी का संचय ही कारगर उपाय है लेकिन मौजूदा तरीका सही नहीं है। गौरतलब है कि शुद्ध जल की बारहमासी उपलब्धता की अवधारणा, तकनीक तथा संरचना निर्माण, जल संचय के मौजूदा तौर-तरीकों से एकदम अलग है। इस बात को अच्छी तरह समझना होगा।
बहुत से लोगों का अभिमत है कि ग्रामीण क्षेत्रों के धरती के नीचे के पानी की अशुद्धता का मुख्य कारण रासायनिक खेती के हानिकारक घटक हैं। कहीं कहीं ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित शुगर फैक्टरी या अन्य कारखानों का नालों में प्रवाहित अनुपचारित अपशिष्ट जिम्मेदार है। वहीं नगरों के पानी की अशुद्धता के लिए आधुनिक जीवनशैली, आधा-अधूरा उपचारित सीवर तथा कल-कारखानों का अपशिष्ट, भूजल के हानिकारक घटक इत्यादि जिम्मेदार हैं। यह पूरा सच नहीं है। यदि हम कुदरती जलचक्र के भूजल घटक को देखें तो समझ में आता है कि भूजल का प्रवाह ऊँचे इलाके से नीचे के इलाके की ओर होता है। नदी घाटियों में वह जल विभाजक रेखा से नदी की ओर बहता है। धरती का ढ़ाल उसकी गति नियंत्रित करता है। संक्षेप में, भूजल डायनिमिक सम्पदा है। इसलिए जब भूजल यात्रा करता है तो रास्ते में मिलने वाले घुलनशील रसायनों को अपने में समेटते हुए आगे बढ़ता है और अन्ततः समुद्र के खारे पानी के सामने खडा हो जाता है।
आसमान से बरसा बरसाती पानी, अपवाद छोड़कर मुख्यतः शुद्ध जल होता है। धरती पर आने के बाद उसकी यात्रा प्रारंभ होती है। यह यात्रा धरती के ऊपर और धरती के नीचे सम्पन्न होती रहती है। उसका नियन्ता कुदरत है। इसलिए कहा जा सकता है कि पानी की यात्रा जितनी छोटी होगी, पानी की शुद्धता की संभावना उतनी बेहतर होगी। इसलिए सतही जल और भूजल से शुद्धता की अपेक्षा करना बहुत सही नहीं है। पानी की शुद्धता को रास्ते में मिलने वाले घुलनशील रसायन तय करते हैं। उनका वितरण और उसकी मात्रा तय करते हैं। उस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है।
प्रथम चरण में, हमें शुद्ध पानी का उपयोग पीने और भोजन पकाने तक सीमित करना होगा। उसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कालजयी विधि जो राजस्थान के अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में व्यवहार में लाई गई थी, ही कारगर है। वह है छत पर बरसे बरसाती पानी को भूमिगत टांकों में आवश्यकतानुसार संचित किया जाए। बरसात का पानी अगस्त माह में जमा किया जाए ताकि वायुमंडल की अशुद्धियों से बचा जा सके। टांकों में जमा पानी की शुद्धता को बरकरार रखने के लिए वही उपाय प्रयोग में लाए जाएं जिन्हें परम्परागत समाज ने राजस्थान में अपनाया था। द्वितीय चरण में वे कदम उठाए जाएं जो स्रोत पर ही पानी को गन्दा होने से बचाते हैं। तीसरे चरण में वे कदम उठाए जावें जो जलचक्र के कारण पानी की केमिस्ट्री में आए प्रतिकूल प्रभावों को ठीक करते हैं। यही निदान की दिशा है।