उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2017 को जनहित याचिका पर संविधान में वर्णित प्रावधानों के अन्तर्गत फैसला दिया है। पहला प्रावधान 48 (ए) है। इस प्रावधान का सम्बन्ध राज्य की नीति के निदेशक तत्वों से है। इस प्रावधान में कहा है कि राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। दूसरा प्रावधान 51 ए (जी) है। इस प्रावधान का सम्बन्ध नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों से है। इस प्रावधान में कहा है कि प्रत्येक नागरिक प्राकृतिक पर्यावरण को, जिसके अर्न्तगत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखे।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि ग्लेशियर, वन, नदियों इत्यादि के अधिकार जीवित व्यक्ति के अधिकारों की ही तरह हैं। इस कारण प्रदूषण से उनको मुक्त रखा जाना उनका सहज अधिकार (Intrinsic right) है। उन घटकों को प्रदूषित करना, किसी नागरिक को नुकसान पहुँचाना, क्षति पहुँचाना तथा चोटिल करने जैसा अपराध है।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के फैसले में राज्य और नागरिकों की जिम्मेदारियों का उल्लेख है। यह जिम्मेदारी नागरिकों और राज्यों के लिये इसलिये बन्धनकारी है क्योंकि वह संविधान के अनुसार है। इस कारण भारत के सभी राज्यों की जिम्मेदारी है कि वे बिना समय खोए इस फैसले को तत्काल प्रभाव से अपने-अपने राज्य में लागू करें ताकि उनके नागरिकों को जनहित याचिका दायर करने की आवश्यकता ही नहीं पड़े। न्यायालयों को भी स्वतः संज्ञान लेकर आदेश पारित नहीं कराना पड़े। यह कल्याणकारी राज्य की संविधान के प्रति सम्मान की नजीर और विनाशमुक्त विकास के लिये आदर्श स्थिति बनेगी। विश्वास है समाज और राज्य मिलकर आदर्श प्रस्तुत करेंगे।
सबसे पहले चर्चा राज्य की नीति के निदेशक तत्वों अर्थात संविधान के आर्टिकल 48(ए) की। इस फैसले के कारण नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा मिला है इसलिये राज्यों को उनकी सेहत से जुड़े सभी पक्षों पर ध्यान देना होगा। उन्हें अपने-अपने राज्य की नदियों को पुराने दृष्टिबोध को त्यागकर पर्यावरण की दृष्टि से समझना होगा क्योंकि पर्यावरण की दृष्टि में नदी का अर्थ केवल बहता पानी नहीं होता।
नदी का अर्थ जीवित इको सिस्टम होता है। उसका भौतिक और जैविक पक्ष होता है। इस आधार पर नदी शब्द में समाहित है - नदी का तल, उसका बाढ़ क्षेत्र और दोनों किनारे तथा उसके राईपेरियन इलाके की वनस्पतियाँ, उसमें प्रवाहित एवं कुदरती जिम्मेदारियाँ निभाता प्रवाह, रेत की कुदरती भूमिका और उससे प्रवाहित पानी, आश्रय पाता निरापद जीवन, उसका कैचमेंट, कैचमेंट का भूमि उपयोग तथा प्रवाह को प्रभावित करने वाली गतिविधियाँ, प्रवाह की निरन्तरता, बढ़ता दृश्य तथा अदृश्य प्रदूषण और भी बहुत कुछ। अब कुछ चर्चा राज्यों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों की।
राज्यों को सबसे पहले नदी के जीवन्त इको-सिस्टम को समझना होगा। नदी के जीवन्त इको-सिस्टम की पहली आवश्यकता प्रवाह की अविरलता तथा निर्मलता है। भूजल के बढ़ते दोहन, नदियों से सीधे पानी उठाने, प्रवाह को मार्ग में अवरुद्ध करने, अविरलता तथा निर्मलता को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने, रेत के अवैज्ञानिक खनन, कैचमेंट से पानी की आवक घटने और समानुपातिक भूजल रीचार्ज की अनदेखी जैसे कारणों से सूखे दिनों में नदियों का प्रवाह तेजी से कम हो रहा है। फैसले के बाद राज्यों को नदी की सेहत को ध्यान में रख काम करना होगा। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का फैसला तात्कालिक विकास या स्थायी विनाश के बीच मार्ग चुनने का अवसर देता है।
नदी, जलस्रोतों, हवा और मिट्टी जैसे लगभग सभी पर्यावरणीय घटकों की गुणवत्ता जाँचने के लिये पूरी दुनिया में पर्याप्त मात्रा में वैज्ञानिक विधियाँ मौजूद हैं। उनकी गुणवत्ता के मानक तय हैं। उपकरण भी उपलब्ध हैं पर हम सब जानते हैं कि मौसम के अनुसार उनकी गुणवत्ता लगातार बदलती रहती है।
हर दिन कुछ घटकों में बदलाव भी आता है। अलग-अलग स्थानों पर तथा सैम्पल लेने के तरीके से भी गुणवत्ता में अन्तर आता है। यह सही है कि उपर्युक्त बदलावों को सामान्य माना जाता है। इस कारण अनेक बार वस्तुस्थिति के तेजी से बदलने के कारण उसके आधार पर सही या कारगर कदम उठाना काफी कठिन हो जाता है।
इस स्थिति से बचने के लिये सम्भवतः नए रास्ते खोजने होंगे क्योंकि 24 घंटे मानीटरिंग सम्भव ही नहीं होती। लगातार बदलती स्थिति, अनेक बार, व्यावहारिक कठिनाई पैदा करती है पर गुणवत्ता को खराब करने वाली व्यवस्था को दुरुस्त करना अधिक सहज तथा सरल होता है। उत्तराखण्ड के फैसले के उपरान्त प्रदूषण के हाट-स्पाटों द्वारा हानि पहुँचाना चन्द घंटों में नियंत्रित हो सकता है। इसके लिये राज्यों के पास चाक-चौबन्द व्यवस्था मौजूद है। कानून उपलब्ध हैं। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी का क्षेत्र है। उम्मीद है, कारगर कदम उठेंगे।
कई स्थानों पर जलस्रोतों के पानी की गुणवत्ता हमारे कामों का प्रतिबिम्ब होती है। रासायनिक, भौतिक या बायोलॉजिकल विधियों के साथ-साथ, कुछ स्थानों पर, समाज के सहयोग से, पानी की स्वच्छता मापने के लिये स्थानीय प्रजाति के जलचर यथा मछली, कछुआ, केकड़ा इत्यादि जैविक पैरामीटर भी कारगर संकेतक हो सकते हैं। चूँकि स्थानीय समाज उनसे बखूबी परिचित होता है इसलिये उन्हें अपना कर स्थानीय समाज को भी व्यवस्था में भागीदार बनाया जा सकता है।
कैचमेंट वास्तव में, नदी को पानी उपलब्ध कर जिन्दगी बख्शता है। कैचमेंट का यही योगदान प्रवाह को निरन्तरता प्रदान करता है। कुदरती जिम्मेदारी के लिए पानी उपलब्ध कराता है। कैचमेंट के उपर्युक्त योगदान को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने वाली गतिविधियों में मुख्य हैं वानस्पतिक आवरण को हानि पहुँचाना, प्रतिकूल भूमि उपयोग को बढ़ावा देना, मिट्टी का अनियंत्रित कटाव, रासायनिक खेती और प्रवाह में व्यवधान। इस फैसले के बाद, कैचमेंट के उपर्युक्त योगदान को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने वाली अनेक गतिविधियाँ निश्चय ही समाधान माँगेंगी।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के फैसले के बाद रेत के खनन के उपेक्षित पर्यावरणी पक्षों पर ध्यान देना होगा। अभी तक नदी के प्रवाह और उसकी बायोडायवर्सिटी जैसे भौतिक तथा जैविक कारकों को रेत की भूमिका से समग्रता में जोड़ कर नहीं देखा गया है। अब उसे समग्रता में समझना होगा। नदी के इको सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाले अवैज्ञानिक खनन को अधिक-से-अधिक निरापद बनाने को ध्यान में रखकर फैसले लेने होंगे। ये फैसले निरापद एवं टिकाऊ विकास की राह में मील के पत्थर सिद्ध होंगे।
अब कुछ चर्चा संविधान के आर्टिकल 51ए (जी) की। इसका सम्बन्ध नागरिक के मूल कर्त्तव्यों से है। नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों में सम्मिलित सभी बिन्दु बहुसंख्य भारतीय नागरिकों के जीवन मूल्यों तथा संस्कारों के अभिन्न अंग हैं। उन पर मौजूदा माहौल की धूल जमा हो गई है। सरकारों के प्रयास से उस धूल को साफ करने में मदद मिलेगी।
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