वितस्ता का जन्मदिन

Submitted by admin on Sun, 12/01/2013 - 15:29
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काव्य संचय- (कविता नदी)
सूर्यास्त तक बाट जोहती नदी में
मछलियों की तरह
उछलती-तैरती रही बेसब्री
रेशे-रेशे में अंधेरा घुलते हुए भी
बराबर सोचती है नदी
कि कोई तो आएगा ही
उसके जन्मदिन पर
विसर्जित करेगा गेंदे के फूल
गुलाब और दिए उसमें
कोई तो जरूर ही आएगा
वह बहती है सबके भीतर से
दिन-रात
दुलारती
गुनगुनाती
मैल धोती और ढोती हुई
समय के कितने द्वारों से होकर
घाटों के सामने से
घोड़ों की टापों तले रौंदी जा रही
बस्तियों की कराहों के पास से
शहरों को जोड़ते पुलों के नीचे से
नहीं डरती अंधेरे से
गिरती हुई बर्फ में
बारिश में
धूप में
रुकती नहीं है किसी भी सम्मोहन से
बहती है उस समय भी जब याद नहीं होती किसी को भी नदी
सोचती है नदी
अपने जन्मदिन पर

अंधेरे की मांद में से बोलने लगते हैं
सियार
भौंकते हैं कुत्ते
डरावनी अंगड़ाइयां लेती है
चिनारों की छायाएं

चिंतित है नदी-
पता नहीं क्या बात है।