बाढ़, कम समय में हुई अतिवृष्टि का प्रतिफल है। कई बार गैर-प्राकृतिक कारणों से भी बाढ़ें आती हैं। लाखों करोड़ों सालों से दुनिया भर की नदियों में बाढ़ें आ रही हैं पर जबसे उसके असर से मनुष्य को परेशानी होने लगी है, बाढ़ नियंत्रण पर चर्चा और उसके असर को कम करने के लिये प्रयास होने लगे हैं।
बाढ़ से सारी दुनिया आक्रान्त है। सन् 1993 में मिसीसिपी-मिसौरी में आई बाढ़ को अमेरिका की सबसे अधिक भयंकर बाढ़ के रूप में याद किया जाता है। सन् 1995 में राइन नदी में आई भयंकर बाढ़ ने जर्मनी को लगभग दस खरब अमेरिकन डालर की हाकन पहुँचाई थी। अन्य प्रलयंकारी बाढ़ों में ब्राजील की अमेजान, म्यांमार की इरावती, कम्बोडिया की मेकांग, चीन की यंगत्से-तुंग और रुस की येनसी तथा लीना नदी की बाढ़ें उल्लेखनीय हैं।
ग़ौरतलब है कि दुनिया की प्रमुख नदियों के कैचमेंट से हर साल लगभग 800 करोड़ टन मलबा विस्थापित होता है। इस मलबे का लगभग 70 प्रतिशत ठोस तथा 30 प्रतिशत भाग घुलित रसायनों के रूप में होता है। नदी की मदद से, प्रकृति उसका निपटान समुद्र में करती है। जलवायु बदलाव का सम्भावित प्रभाव, जब बरसात के चरित्र को प्रभावित करेगा, तो अनुमान है कि उसकी मात्रा और प्रभाव क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होगी।
सारी दुनिया में बाढ़ नियंत्रण के लिये प्रयास जारी हैं जिन्हें निम्न तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. नदी की चौड़ाई बढ़ाकर बाढ़ के पानी की निकासी।
2. वैकल्पिक जलमार्ग पर जल संचय।
3. नदी मार्ग पर विशाल जलाशय बनाकर जल संचय।
उपर्युक्त प्रयास मूलतः इंजीनियरिंग समाधान हैं। उनका चुनाव स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रख किया जाता है। अब कुछ चर्चा उनके महत्त्वपूर्ण पक्षों की।
नदी की चौड़ाई बढ़ाकर बाढ़ के पानी की निकासी
यह विधि इंग्लैंड की टेम्स नदी में अपनाई गई है। ग़ौरतलब है कि सन् 1960 के अगस्त से नवम्बर माह के बीच की अवधि में अनेक बार बाढ़ें आई। उनके कारण इंग्लैंड में बाढ़ नियंत्रण के लिये पुख्ता इन्तज़ाम करने के लिये दबाव बना।
टेम्स नदी, इंग्लैंड की बेहद महत्त्वपूर्ण नदी है। उसका कैचमेंट केवल 896 वर्ग किलोमीटर और लम्बाई मात्र 346 किलोमीटर है। यह नदी, भारत की साबरमती नदी से थोड़ी छोटी किन्तु माउन्ट आबू से निकलने वाली 270 किलोमीटर लम्बी बनास नदी से थोड़ी बड़ी है। टेम्स नदी में हर साल लगभग तीन लाख टन मलबा प्रवाहित होता है। मुहाने पर टेम्स नदी की चौड़ाई 29 किलोमीटर है।
बाढ़ को अप्रभावी बनाने के लिये टेम्स नदी के पाट की चौड़ाई बढ़ाने का निर्णय लिया गया। सभी जानते हैं कि जब नदी के पाट की चौड़ाई बढ़ाई जाती है तो उसका क्रास सेक्सनल एरिया बढ़ जाता है। क्रास सेक्सनल एरिया बढ़ने से बाढ़ निकासी के लिये अधिक स्थान उपलब्ध हो जाता है।
लन्दन को बाढ़ मुक्त बनाने के लिये टेम्स कंजरवेन्सी ने लंदन और अपस्ट्रीम में स्थित टेडिंगटन (दूरी 19 किलोमीटर) के बीच नदी के पाट की चौड़ाई लगभग दो गुनी कर दी। इस तकनीकी समाधान से दो लाभ हुए। पहला- नदी का जलस्तर लगभग एक मीटर नीचा हो गया। दूसरा- जलस्तर उतरने से नदी की बाढ़ निकासी क्षमता बढ़ गई।
इस समाधान को सन् 1939 में क्रियान्वित किया गया था। उसके क्रियान्वित होने से नदी विज्ञान की अनदेखी हुई। टेम्स नदी के प्रवाह की गति घट गई। प्रवाह की गति कम होने से नदी तंत्र में अधिक गाद जमा होने लगी।
टेम्स नदी का उपयोग परिवहन तथा अन्य गतिविधियों में किया जाता है। उसके पानी की न्यूनतम गहराई बनाए रखने के लिये टेम्स कंजरवेन्सी को, हर साल टेम्स नदी के जल मार्ग से लगभग 250,000 टन मलबा और टेम्स की सहायक नदियों से लगभग 500,000 टन मलबा निकालकर उसका निपटान करना पड़ता है। यह खर्चीला काम है। गंगा जैसी विशाल नदियों के लिये अकल्पनीय है।
वैकल्पिक जलमार्ग पर जल संचय
इस विधि की मदद से इराक की टिगरिस नदी के बाढ़ के अतिरिक्त पानी को वैकल्पिक मार्ग से निकालकर बाढ़ की विभीषिका घटाई गई। सौभाग्यवश, बगदाद के उत्तर-पश्चिम में लगभग 65 किलोमीटर दूर, प्राकृतिक निचला इलाका मौजूद था। इराकी सरकार ने उस प्राकृतिक निचले इलाके में टिगरिस नदी की बाढ़ के अतिरिक्त पानी को जमा करने का फैसला लिया।
इस हेतु टिगरिस नदी से पृथक जलमार्ग निकाला। जलमार्ग से बाढ़ के अतिरिक्त पानी की वांछित मात्रा को 70 मीटर गहरे निचले इलाके (वर्तमान थरथार झील) में पहुँचाया। इसके अतिरिक्त, बगदाद, समरा, मोसुल, दियाला, और कुट नगरों पर बाढ़ के खतरों को कम करने के लिये अनेक तकनीकी समाधान भी लागू किये हैं।
इस समाधान में नदी के जल प्रवाह दो भागों में बँट जाने के कारण मुख्य नदी मार्ग पर गाद जमाव का खतरा अपेक्षाकृत कम हो गया। यह तकनीकी और नदी विज्ञान आधारित समाधान है। यह समाधान, तुलनात्मक रूप से, अधिक टिकाऊ है।
नदी मार्ग पर जल संचय
यह विधि भारत में बाढ़ नियंत्रण के लिये अपनाई जाती है और पिछले लगभग 250 सालों से मुख्य धारा में है। भारत में नदी घाटी प्लानिंग (नदी तंत्र की नदियों के समग्र दोहन की व्यवस्था) के आधार पर जल संसाधनों का विकास किया जाता है।
दामोदर नदी घाटी या नर्मदा कछार में बने जलाशय, उक्त प्लानिंग के उदाहरण हैं। भारत में बाढ़ नियंत्रण के लिये नदियों के जलाशयों में अतिरिक्त पानी संचित किया जाता है। यह व्यवस्था एक या एक से अधिक जलाशय बनाकर की जाती है। यह तकनीकी समाधान है। इसे अपनाने से नदी के कुदरती विज्ञान की अनदेखी होती है।
इस विधि को अपनाने से भारत को बाढ़ नियंत्रण में अच्छी सफलता मिली है। इस विधि में कुछ अन्तरनिहित कमियाँ भी हैं। उदाहरण के लिये यदि घाटी के अधिकांश जलाशय लबालब भरे हों, कैचमेंट में बरसात थम नहीं रही हो, तो बाँधों को बचाने के लिये पानी छोड़ना आवश्यक हो जाता है। पानी छोड़ने का मतलब है, निचले इलाकों में कृत्रिम बाढ़ पैदा करना। इसलिये यह विधि दुधारी तलवार की तरह है।
ग़ौरतलब है कि वैकल्पिक मार्ग वाली इराकी विधि अपेक्षाकृत बेहतर है। वह प्राकृतिक समाधान के करीब है। टेम्स पर अपनाई विधि में, नदी पर की छेड़छाड़ (पाट को चौड़ा करना) ने प्रवाह को धीमा कर, गाद को उसके प्राकृतिक लक्ष्य तक जाने में रोका है। तीसरे विकल्प में नदी मार्ग पर व्यवधान (जलाशय) पैदा कर नदी की प्राकृतिक भूमिका से छेड़छाड की गई है।
नदी मार्ग पर जलाशय बनाना, गाद जमाव को न्यौता देना होता है। कुछ सौ सालों बाद, जब बाँध अनुपयोगी हो जाता है, तब बाढ़ का खतरा लौट आता है। उसका निपटान (dam removal) गम्भीर चुनौती बन जाता है।
ऊपर वर्णित तीनों विधियों की समीक्षा से लगता है कि इराक में अपनाया समाधान, कुदरती समाधान के अधिक करीब है। कुछ लोग मानते हैं कि तकनीकी समाधानों और प्राकृतिक दायित्वों के बीच बेहतर तालमेल द्वारा ही बाढ़ नियंत्रण का निरापद और नदी विज्ञान आधारित टिकाऊ तथा कुदरती समाधान खोजा जा सकता है।
भारत के परम्परागत जल विज्ञान में भी बाढ़ नियंत्रण प्रयासों की झलक मिलती है। भारत की प्राचीन बाढ़ नियंत्रण प्रणालियों में पानी काे, छोटे-छोटे तालाबों, पोखरों और झीलों में रोका जाता था। दक्षिण भारत में तालाबों में पानी संचित करना, बाढ़ के पानी के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग और उसकी विभीषिका को कम करता था।
बुन्देलखण्ड और उदयपुर में निर्मित तालाबों का नेटवर्क, उस परम्परागत व्यवस्था को दर्शाता है जो बाढ़ प्रबन्ध को जल प्रबन्ध का अविभाज्य हिस्सा बनाता है। बाढ़ के पानी को वैकल्पिक मार्ग से निकालकर बाढ़ के असर को यथासम्भव कम करने का 2100 साल पुराना उदाहरण श्रृंगवेरपुरा (इलाहाबाद) में दिखाई देता है।
इसके द्वारा गंगा के बाढ़ का कुछ पानी वैकल्पिक मार्ग से निकाला गया था। भोजपुर (भोपाल) में राजा भोज द्वारा दसवीं सदी में बेतवा नदी पर बनवाया भीमकुण्ड (14वीं सदी में नष्ट) विदिशा की निचली बसाहटों को बाढ़ के प्रकोप से बचाता था। भारत में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। परम्परागत भारतीय प्रणालियाँ, प्रकारान्तर से ऐसी नायाब इंजीनियरिंग के उदाहरण हैं जो हमें प्रकृति के साथ मिलकर चलने का सन्देश देते हैं।
ग़ौरतलब है कि इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब कुदरत ने मानव सभ्यता को इतिहास बनाया है पर ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जो बताता हो कि मनुष्य ने कुदरत को इतिहास बनाया है।