बरसे जल, सहेजो जन

Submitted by Hindi on Mon, 06/17/2013 - 15:01
इतिहास यह है कि जिनके पास नकद एक धेला नहीं था, हमारे ऐसे पुरखों ने भी बारिश के बाद देवउठनी एकादशी पर जागकर इस देश में लाखों-लाख तालाब बनाए। बारिश से पहले आखातीज पर पुराने पोखरों की पाल ठीक की। तालों की तलहटी से गाद निकाल बाहर करने की प्रक्रिया को कभी रुकने नहीं दिया। अपनी आय का दस फीसदी कुंआ, बावड़ी.. जोहड़ जैसे धर्मार्थ में लगाने के कारण हमारे सेठ-साहूकार कभी महाजन यानी ‘महान-जन’ कहलाये। लेकिन हम तो अपने पुरखों से भी गये बीते हैं। आलसी, कामचोर, मुनाफाखोर और परजीवी!! कोई आये.. हमारे पानी का इंतज़ाम कर दे। कोसने से यदि पानी की कमी दूर हो सकती हो, तो खूब कोसिए कि सरकारें बेईमान है; व्यवस्था खराब है... आदि आदि। रोने से पानी मिल सकता हो, तो गला फाड़कर रोइए.. चीखिए, चिल्लाइए! हकीक़त यह है कि पानी की कमी न कोसने से दूर हो सकती है, न रोने से और न चीखने-चिल्लाने से। दिवस मनाकर यदि पानी मिल पाता, तो हम हर बरस मनाते ही हैं जलदिवस-भूजल दिवस और भी जाने क्या...क्या! हम इस मुगालते में भी न रहें कि वोट या नोट कभी हमें पानी पिला सकते हैं। वोट पानी पिला सकता, तो सबसे ज्यादा वोट वाले उ. प्र. के बांदा-महोबा-हमीरपुर में पानी के लिए आत्महत्याएं कभी न होती। यदि नोट से पानी मिल पाता, तो पानी के नाम पर अब तक सबसे अधिक बांध व बजट खाने वाले महाराष्ट्र में पेशाब कर पानी मुहैया कराने वाला शर्मनाक बयान न आता। यदि कोई कहे कि कच्छ, चेन्नई और कलपक्कम की तरह करोड़ों फेंककर खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की मंहगी तकनीक के बूते सभी को पानी पिला देगा, तो यह हकीक़त से मुंह फेर लेना है।

हकीक़त यह है कि हमें हमारी जरूरत का कुल पानी न समुद्र पिला सकता है, न ग्लेशियर, न झीलें, न नदियां, न हवा.. न मिट्टी की नमी और न कोई अन्य प्राकृतिक जलस्रोत। पृथ्वी में मौजूद कुल पानी में इनसे प्राप्त मीठे जल की हिस्सेदारी मात्र 0.325 प्रतिशत ही है। आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भूजल के रूप में ही मौजूद है। आज भी यदि हमें कोई बेपानी मरने से रोक सकता है, तो वे हैं सिर्फ और सिर्फ - बारिश की बूंदें ! जब न नहरें थीं, न पानी प्रबंधन के भारी-भरकम संस्थान, न परियोजनाएं और न कोई पानी मंत्रालय, तब भी बूंदों को संजोने की संस्कृति के कारण पर्याप्त पानी था। पानी की कमी से आत्महत्या का कोई पुराना इतिहास दुनिया के किसी देश में शायद ही हो। महाराणा प्रताप के पास खाने को दाना भले ही नहीं था, लेकिन बेपानी वे भी नहीं मरे। आज महाराष्ट्र के गोदाम अनाज से भरे हैं, लेकिन बांध खाली हैं। इस विरोधाभास को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है?

इतिहास यह है कि जिनके पास नकद एक धेला नहीं था, हमारे ऐसे पुरखों ने भी बारिश के बाद देवउठनी एकादशी पर जागकर इस देश में लाखों-लाख तालाब बनाए। बारिश से पहले आखातीज पर पुराने पोखरों की पाल ठीक की। तालों की तलहटी से गाद निकाल बाहर करने की प्रक्रिया को कभी रुकने नहीं दिया। अपनी आय का दस फीसदी कुंआ, बावड़ी.. जोहड़ जैसे धर्मार्थ में लगाने के कारण हमारे सेठ-साहूकार कभी महाजन यानी ‘महान-जन’ कहलाये। लेकिन हम तो अपने पुरखों से भी गये बीते हैं। आलसी, कामचोर, मुनाफाखोर और परजीवी!! कोई आये.. हमारे पानी का इंतज़ाम कर दे। यदि हम सचमुच अपने पुरखों की संतानें हैं, तो इस बारिश से पहले आइये! उठायें फावड़ा, खोलें तिजोरी, निकालें जलकुंभी; गाद हटायें; पोखर-पाइन-पाल बचायें; घर में वर्षा जल इकट्ठा करने की इकाई बनायें। सच मानिए ! हमारी बनाई एक इकाई निश्चित ही कल दहाई, सैकड़ा हजार और लाखों में बदल जाएगी और साथ में हमारी तकदीर भी। ..तब कोई बेपानी नहीं मरेगा!