जल सुरक्षा की भारतीय चुनौतियां

Submitted by Shivendra on Fri, 11/21/2014 - 12:56

.सुरक्षित जल हेतु जल सुरक्षा और जल सुरक्षा हेतु जल स्रोतों की सुरक्षा बेहद जरूरी है। दुर्योग से भारत में जल स्रोत, उनमें मौजूद जल की मात्रा और गुणवत्ता... तीनों की सुरक्षा पर खतरे का परिदृश्य स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। जल प्रबंधन की जो खामियां हैं, सो अलग। चुनौतियां कई हैं:

1. स्थानीय जल स्रोत का रकबा, योजना और जल सुरक्षा कानूनों के संबंध में जन जागृति का अभाव;
2. जल स्रोतों की भूमि के चिन्हीकरण और अधिसूचित करने की प्रक्रिया को न अपनाया जाना;
3. भूजल संचयन, पुनर्भरण तथा प्रदूषण नियंत्रण नियम-कानूनों की पालना में सख्ती का अभाव;
4.जल सुरक्षा संबंधी अच्छे फैसलों को लागू कराने में शासन-प्रशासन की दिलचस्पी का न होना;
5. शहरी नियोजन में जल नियोजन को प्राथमिकता पर रखने के दृष्टि का अभाव;
6. बांध-बैराज नीति और नदी नीति का न होना;
7. पानी का व्यावसायीकरण और उन्हें बढ़ावा देने वाली ताकतों की एकजुटता;
8. जलस्रोतों के रखरखाव में लापरवाही;
9. जल स्रोतों की मालिकी के बारे में अस्पष्टता;
10. जल स्रोतों पर व्यापक कब्जे;
11. कृषि और उद्योग में जलोपयोग में अनुशासन का अभाव;
12. वर्ष 2019 तक भारत में हर घर को शौचालय मुहैया कराने का सपना जल सुरक्षा के लिए भविष्य में एक ऐसी चुनौती बनने वाला है, जिसका निराकरण काफी मंहगा और नदियों को मलीन बनाने वाला साबित होगा।
13. इन सभी चुनौतियों के अतिरिक्त एक अन्य चुनौती ऐसी है, जिसे नजरअंदाज करना भारतीय जलसुरक्षा की दृष्टि से काफी मंहगी लापरवाही साबित हो रही है; वह है सरकारी/सार्वजनिक संपत्ति के प्रति जनमानस के मन में परायापन। जरूरी है कि ‘जनमंथन’ के दौरान देश के जल कार्यकर्ता और चिंतक इस पर चिंतन करें।

सबसे बड़ी चुनौती : जनदायित्व की अवहेलना


क्या यह सच नहीं है कि जल का उपयोग और उपभोग करने वालों ने यह समझ लिया है कि जल स्रोतों की सुरक्षा और समृद्धि का दायित्व उनका न होकर, शासन-प्रशासन का है? जबकि हकीकत यह है कि कोई भी शासन-प्रशासन कितने ही बड़े बजट और कितने ही बड़े लाव-लश्कर के साथ जल सुरक्षा सुनिश्चित करने में लगे, जन दायित्व का भाव लौटाए बगैर जल सुरक्षा संभव नहीं है।

यह गंभीर चूक व्यैक्तिक और सामुदायिक... दोनों स्तर पर हुई है। हालांकि लोगों के जनदायित्व पूर्ति से हट जाने कीवजह राजनैतिक, प्रशासनिक, संवैधानिक, सामाजिक, सांस्कृतिेक, नैतिक, आर्थिक... कई हैं। मसलन, राजस्थान का मछली कानून कहता है कि नदी की सभी मछलियों पर मछली विभाग का अधिकार है।

नदियां सरकार की हैं। कानूनन, नदियां राज्य का विषय हैं। संविधान की एंट्री संख्या 56 के मुताबिक, अंतरराज्यीय नदियों के मामले में दखल का पूरा अधिकार केन्द्र के पास है। लोगों को दखल का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। अतः लोगों इनके रखरखाव को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते। यह ठीक नहीं है।

प्राकृतिक संसाधनों के मामले में संविधान, सरकार को महज ट्रस्टी मानता है। ट्रस्टी सौंपी गई संपत्ति की ठीक से देखभाल न करे, तो उसे हटाने और हटाकर संपत्ति को किसे सौंपा जाए, इस बारे में संवैधानिक स्तर पर स्पष्टता का न होना भी नदियों के समक्ष पेश चुनौंतियों के समाधान में बाधक है। जनजुड़ाव के रास्ते में मालिकी की अस्पष्टता, अपने आप में एक बड़ी बाधा है। इसके दुष्परिणाम हमें चौतरफा दिखाई दे रहे हैं।

मनरेगा के तहत बने तालाब को ही लीजिए। वे सिर्फ इसलिए फेल हुए, चूंकि जगह के चयन और डिजायन ठीक नहीं थे। भारत जैसे भू सांस्कृतिक विविधता वाले देश में जलसंचयन ढांचों के डिजाजन में एकरूपता की कल्पना करना ही तकनीकी तौर पर गलत है; बावजूद इसके मनरेगा के तहत् पानी के ढांचे कमोबेश हर जगह एक से ही बने।

लोगों से न राय ली गई और न ही ग्रामसभाओं ने इसे अपना दायित्व समझकर राय दी। राजनेता मतदाताओं से कहते हैं - “तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे पानी दूंगा।’’

ऐसे कई उद्धहरणों का जिक्र किया जा सकता है। किंतु सिर्फ नेता, कानून अथवा नीति नियंताओं को दोष देकर मसले का हल ढूंढा नहीं जा सकता। हकीकत यह है कि अपने पारंपरिक ज्ञान और लोक संसाधनों के प्रति हम भारतीय के संस्कृति, संस्कार में कमी आई है।

पानी के संकट के रूप में दिखता संकट, वास्तव में हम भारतीयों की नैतिकता में गिरावट का संकट है। अपने बाप-दादाओं द्वारा संजोकर रखे गए संसाधनों को बेचकर ऐश करने की नीयत का संकट है।

भारतीय जल संस्कृति में पानी को वरूण, इन्द्र और मां कहा जाता है। भारत सरकार की जल नीति ने पानी को वस्तु कहा। हमने भी पानी को इसी रूप में स्वीकार लिया है।

पानी-नदी के साथ रिश्ते की बात झूठी है। हर हर गंगे की तान में अब कोई दम नहीं है। जहां समाज आज भी पानी-नदी के साथ रिश्ता रखता है. वहां आज भी कोई जल संकट नहीं है। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड समेत आज भी देश में कई इलाके इसकी मिसाल के रूप में विद्यमान है। स्पष्ट है कि जलसुरक्षा के लिए कानून से ज्यादा समग्र नीति और नीयत की जरूरत है।

इन तमाम चुनौतियों का समाधान पेश करने करने के लिए समाज और सरकार को कैसे बाध्य किया जाए? इस प्रश्न के उत्तर को व्यवहार में उतारना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। जल मंथन का एक विषय यह भी हो।