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फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से देश में लगभग 60 लाख लोगों के प्रभावित होने का अनुमान बहुत पहले लगाया गया था। पहले चुनाव के दौरान राजनीतिक दल गंगा और यमुना नदियों की सफाई को लेकर खूब हो हल्ला करते हैं। लेकिन इस चुनाव में गंगा और यमुना का प्रदूषण भी चुनावी मुद्दा नहीं है। जीवन के लिये अतिआवश्यक पानी के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की उपेक्षा यह दर्शाता है कि अभी भी हमारे समाज में पानी को लेकर पारम्परिक सोच ही काम कर रही है। आमतौर पर पानी को लेकर यह धारणा है कि यह कभी खत्म नहीं होगा। लेकिन सच्चाई इसके उलट है।उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दल एक दूसरे को पानी पी-पीकर कर कोस रहे हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। लेकिन पानी उनके एजेंडे में नहीं है। बिजली और सड़क के साथ वे पानी की बात तो करते हैं। लेकिन पानी की इस समय स्थिति क्या है, अधिकांश राजनीतिक दल अनजान हैं। पेयजल से लेकर सिंचाई तक के पानी के संरक्षण उनके एजेंडे में शामिल नहीं है। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जिसमें तराई से लेकर बुन्देलखण्ड जैसे क्षेत्र शामिल है। जहाँ पर सूखा और बाढ़ किसानों को परेशान करता रहा है। कई क्षेत्रों में पानी में आर्सेनिक और खतरनाक रसायनों के कारण पेयजल की कमी हो गयी है। ऐसे क्षेत्रों में दूषित पानी पीने के कारण तरह-तरह के रोग फैल रहे हैं। लेकिन हर आदमी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराना और पानी के रख-रखाव पर ध्यान देना हमारे राजनीतिक दलों के चिंता का विषय नहीं बना है। उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से चार बड़े राजनीतिक दलों के साथ एक दर्जन छोटे राजनीतिक दल चुनावी मैदान में है। लेकिन किसी भी दल के घोषणापत्र प्रदेश में जल संकट और राज्य के नदियों, तालाबों और जलाशयों के संरक्षण का जिक्र तक नहीं है। पानी के संरक्षण और उसकी जरूरत को लेकर हर दल अनजान हैं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी उत्तर प्रदेश को लेकर तरह-तरह के वादे कर रहे हैं। वे प्रदेश के विकास की बात करते हैं। रोजगार और कृषि के विकास की बात करते हैं। सांप्रदायिकता पर वे खूब बोलते हैं। लेकिन पानी पर वे मौन हैं। जबकि सच्चाई यह है कि राज्य में पानी की कामी से वे पूरी तरह परिचित हैं। यूपीए शासन काल में उनके प्रयासों से बुन्देलखण्ड को स्पेशल पैकेज भी मिला था। तब वे बुन्देलखण्ड के लिये घड़ियाली आँसू बहा रहे थे। लेकिन अब पानी उनके लिये मुद्दा नहीं है। मायावती बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों के लिये वे खूब वादे और दावे कर रही हैं। कानून-व्यवस्था के प्रश्न पर भी वे अपना नजरिया रखती है। प्राकृतिक संसाधनों पर वे दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के हक की बात करती रही है। लेकिन पानी को लेकर उनका विजन स्पष्ट नहीं है।
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में पूरे सूबे के लिये पानी की उपलब्धता का कहीं उल्लेख नहीं है। लेकिन सूखे की मार से जूझने वाले बुन्देलखण्ड में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करना उनके एजेंडे में शामिल है। शायद,समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश के जमीनी हकीकत से अपरिचित है। तभी तो उसकी नजर में पानी की जरूरत सिर्फ बुन्देलखण्ड को है। भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में अपनी सरकार आने पर हर खेत को पानी देने का वादा किया है। इसके लिये वह 20 हज़ार करोड़ से 'मुख्यमंत्री कृषि सिंचाई फंड' बनाने का ऐलान किया है। भाजपा का कहना है कि सिंचाई और बाढ़ से बचने के लिये नदियों और बाँधों की डी-सिल्टिंग होगी। भाजपा सरकार आने पर नए बाँध बनेंगे। इसके साथ ही भाजपा अपनी सरकार आने पर मत्स्य पालन को बढ़ावा देने और उससे जुड़े लोगों के कल्याण के लिये 100 करोड़ का कोष और एक मत्स्य पालक कल्याण फंड बनाने का वादा कर रही है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये जैविक प्रमाणीकरण संस्था गठित करने की घोषणा भी की है।
ऐसे में यह बात साफ जाहिर है कि पानी को लेकर राजनीतिक दलों की सोच एकांगी और अदूरदर्शी है। आज भी पानी उनके चिंता का विषय नहीं है। इसका साफ अर्थ यह है कि पानी की स्थिति की सही जानकारी उनको नहीं है। जबकि विश्व स्तर पर पेयजल की उपलब्ध्ता बहुत सीमित है।
पानी के मामले में आज भी हम परम्परागत तरीके से उपयोग के आदी हैं। जिसके कारण हमारा शरीर कई रोगों का शिकार बनता है। आज अधिकांश विकसित देशों में घरों, व्यवसायों और उद्योगों में जिस पानी की आपूर्ति की जाती है वह पूरी तरह से पीने के पानी के स्तर का होता है, लेकिन हमारे यहाँ लगातार स्वच्छ जल की उपलब्धता कम होती जा रही है।
दुनिया के ज्यादातर बड़े हिस्सों में पीने योग्य पानी तक लोगों की पहुँच अपर्याप्त होती है और वे बीमारी के कारकों, रोगाणुओं या विषैले तत्वों के या ठोस पदार्थों से संदूषित स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह का पानी पीने योग्य नहीं होता है और पीने या भोजन तैयार करने में इस तरह के पानी का उपयोग बड़े पैमाने पर त्वरित और दीर्घकालिक बीमारियों का कारण बनता है, साथ ही कई देशों में यह मौत और विपत्ति का एक प्रमुख कारण है। जिसके कारण विकासशील देशों में जलजनित रोगों को कम करना सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये एक चुनौती बना हुआ है।
मनुष्यों के लिये पानी हमेशा से एक महत्त्वपूर्ण और जीवन-दायक पेय रहा है और यह सभी जीवों के जीवित रहने के लिये अनिवार्य है। हमारे शरीर में वसा को छोड़कर मात्रा के हिसाब से शरीर का लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा पानी है। अधिकांश पानी को उपयोग करने से पहले किसी प्रकार से उपचारित करने की आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि गहरे कुँओं या झरनों के पानी को भी परिष्कृत करने की जरूरत होती है। लेकिन हमारे देश में आज भी पानी को लेकर एक आम समझौता नहीं बन पायी है। आज भी सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में साफ पानी पीने वालों की संख्या आधे से भी कम है।
ग्रामीण समुदाय 2015 एमडीजी पीने के पानी के लक्ष्य को अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है। दुनिया भर में ग्रामीण जनसंख्या के केवल 27 फीसदी घरों में सीधे तौर पर पाइप के जरिये पीने का पानी पहुँचाया जाता है और 24 फीसदी आबादी असंशोधित स्रोतों पर निर्भर करती है।
कुछ दिन पहले तक यह आम धारणा थी कि भूजल स्वाभाविक रूप से नदियों, तालाबों और नहरों के पानी से कहीं अधिक सुरक्षित है। लेकिन ऐसे पानी के उपयोग से ही हैजा, टाइफाइड और दस्त की घटनाएँ सामने आती हैं। देश के कई हिस्सों में ग्रेनाइट चट्टानों से निकलकर आने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है। ऐसा पानी कुएँ के माध्यम से निकलता है। फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से देश में लगभग 60 लाख लोगों के प्रभावित होने का अनुमान बहुत पहले लगाया गया था। पहले चुनाव के दौरान राजनीतिक दल गंगा और यमुना नदियों की सफाई को लेकर खूब हो हल्ला करते हैं। लेकिन इस चुनाव में गंगा और यमुना का प्रदूषण भी चुनावी मुद्दा नहीं है। जीवन के लिये अतिआवश्यक पानी के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की उपेक्षा यह दर्शाता है कि अभी भी हमारे समाज में पानी को लेकर पारम्परिक सोच ही काम कर रही है। आमतौर पर पानी को लेकर यह धारणा है कि यह कभी खत्म नहीं होगा। लेकिन सच्चाई इसके उलट है।