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फैक्टरी से निकलने वाला गन्दा पानी, धुआँ, राख और केमिकल सीधे जलस्रोत को प्रभावित करते हैं। कई जगह भूजल में लेड की मात्रा भी पाई गई है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आँतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आँतों में पहुँचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का कैंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। छत्तीसगढ़ अपने खनिज सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों के लिये प्रसिद्ध है। राज्य में कोयला, लोहा, बाक्साइट और कई खनिज प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। छत्तीसगढ़ में कोयला की अधिकता है। जिसके कारण यहाँ पर कोयले से चलने वाले 28 बिजली संयंत्र है। जिसमें कोरबा में 15 और रायगढ़ में 13 बिजली संयंत्र हैं। बिजली घरों से हर साल दो करोड़ मीट्रिक टन राख निकलती है। 30 फीसदी भी इसका इस्तेमाल नहीं होता।
कोयला से निकलने वाले राख और धूल से राज्य के कई जिले सहित ऊर्जा नगरी कहलाने वाला शहर कोरबा में टीबी, अस्थमा, दमा जैसी गम्भीर बीमारियों के चपेट में है। सिर्फ बीमारी ही नहीं बल्कि राख के ढेर के चलते कृषि और बागवानी भी प्रभावित हो रही है। जिसके कारण रायगढ़ जिले में 31 लाख हेक्टेयर जमीन पर अब खेती नहीं होती है।
बस्तियाँ, गाँव और खेत के आस-पास राख के पहाड़ हैं। राख के ढेर में प्रदूषण की चिंगारी लोगों की साँसें भी दबाती आ रही हैं। प्रदेश में बढ़ते उद्योगों की वजह से जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण को लेकर सरकार पर जब दबाव बढ़ा तो राज्य सरकार ने उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण के लिये कार्ययोजना बनाने की घोषणा की। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हो सका है।
राज्य शासन की ओर से जहर उगलने वाले उद्योगों पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं होने पर हाईकोर्ट भी अपनी नाराजगी जता चुका है। कोर्ट ने पर्यावरण विभाग के सचिव को नोटिस जारी कर शपथ पत्र के साथ जवाब पेश करने का आदेश दिया है।
प्रदेश में औद्योगीकरण के साथ बढ़ते प्रदूषण को रोकने के उपाय नहीं किये जाने के खिलाफ सामाजिक संगठन हमर संगवारी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की है। इसमें कहा गया है कि प्रदेश में तेजी से पावर प्लांट, लोहा उद्योग समेत अन्य उद्योग स्थापित हो रहे हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण को रोकने ईएसपी ( इलेक्ट्रो स्टेटिक प्रेसिपिटेटर) अनिवार्य है। इसके अलावा केमिकल उद्योग का पानी नदी, नालों में नहीं बहाया जा सकता है।
केन्द्रीय पर्यावरण मंडल से उद्योग स्थापित करने के लिये अनुमति के दौरान प्रदूषण रोकने की शर्त लगाई जाती है लेकिन, इसका पालन नहीं किया जा रहा है। याचिका में कहा गया है कि प्रदेश में 188 ऐसे उद्योग हैं जहाँ से खतरनाक कचरा निकलता है। इन उद्योगों से प्रतिदिन लगभग 54900 टन कचरा निकता है जिसमें लगभग 16 हजार टन कचरे को दूसरे काम में उपयोग या नष्ट किया जा रहा है। लगभग 38 हजार टन कचरा डम्प हो रहा है। इसमें पावर प्लांट से निकलने वाला राख भी शामिल है।
कोरबा से गेवरा, लक्ष्मणपुर, कुसुमुडा या फिर दीपिका जाने के रास्ते में राख के पहाड़ पड़ते हैं। ये ऐसे पहाड़ हैं कि बारिश के पानी में घुलकर नदी नाले से होते हुए खेतों तक पहुँचते हैं। राख की इतनी अधिकता है कि आस पास के खेतों पर भी इसका असर पड़ा है। खेतों की उर्वरक क्षमता मर गई है।
इन बिजली संयंत्रों के काफी करीब बस्तियां हैं। खेत हैं। राख के ढेर को दबाने के लिये मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। ताकि गिर कर फैले नहीं। लेकिन हवा चलती है तो राख उड़ती है। घरों के अन्दर और आँगन में राख की परतें बिछ जाती हैं। कई गाँवों में बिजली घर के जहरीले राख के कण टीवी का कहर बनकर टूटे हैं। यही वजह है कि कोरबा और रायगढ़ में हर दसवाँ व्यक्ति राख के प्रदूषण का शिकार है।
कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि फ्लाई एश का डिस्पोजल नहीं होने के कारण मिट्टी की उर्वरक शक्ति कमजोर हो जाती हैं। इसके अलावा कोयले की राख की वजह से पौधे के स्टोमेटा ढँक जाते हैं। इससे उसका श्वसन तंत्र कमजोर होने की स्थिति में पौधों की वृद्धि रुक जाती है। राख मिट्टी की पोरोसिटी को भी कम कर देती है।
रायगढ़ जिले के खरसियाँ क्षेत्र में कारखानों से निकले अपशिष्ट एवं फ्लाई एश की वजह से क्षेत्र में निवासरत लोगों और स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इससे क्षेत्र की कृषि भूमि में फ्लाई एश बहकर जाने से खेतों की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है। खरसियाँ नगर में कोयला और फ्लाई एश डस्ट उड़ने से पीने का पानी दूषित हो रहा है।
'फैक्टरी से निकलने वाला गन्दा पानी, धुआँ, राख और केमिकल सीधे जलस्रोत को प्रभावित करते हैं। कई जगह भूजल में लेड की मात्रा भी पाई गई है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आँतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आँतों में पहुँचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का कैंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। प्रदूषित गैस कार्बन डाइॲाक्साइड तथा सल्फर डाइऑक्साइड जल में घुसकर जलस्रोत को अम्लीय बना देते हैं।
खनन मामलों के विशेषज्ञ श्रीधर राममूर्ति का मानना है कि कोयले की राख का रासायनिक परीक्षण किया जाना चाहिए। ताकि पता चल सके कि रेडिएशन कितना होता है। अच्छे किस्म के कोयले से प्रदूषण कम होगा लेकिन उसकी राख में रेडिएशन अधिक होता है। जाहिर सी बात है कि राखड़ में खतरनाक रेडिएशन तत्व होने की वजह से उसे प्लांट और आबादी से दूर रखा जाना चाहिए।
अक्सर प्लांट प्रबन्धन खुली खदानों में राखड़ डालने को कहता है, लेकिन यदि सही तरीके से निष्पादन नहीं हुआ तो भूजल प्रदूषित होने का खतरा ज्यादा रहता है। एनजीटी में राखड़ निष्पादन के मुद्दे पर याचिका डालने वाले लक्ष्मी चौहान कहते हैं, कोल इण्डिया देश की 20 फीसदी कोयले का उत्पादन छत्तीसगढ़ से करती है। इसलिये रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह कोयले के साथ यहाँ के बाशिन्दों का भी ध्यान रखे।
कोयला परिवहन के लिये प्रस्तावित रेल कॉरिडोर के तहत कोरबा और रायगढ़ में उत्सर्जित राख के उपयोग को भी सुनिश्चित किया जाये। कोरबा की तरह रायगढ़ जिला की भी स्थिति है। ज्यादातर कोयला खदान वन क्षेत्र में हैं। इस वजह से 40 फीसदी वन घट गया है। खेतो में हरियाली की जगह कोयले की राख जमी हुई है। यहाँ कई स्थानों से निकलने वाली राख इतना ज्यादा है कि जगह-जगह टीले बन गए हैं।
जिले में करीब 31 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती हुआ करती थी। लेकिन राख की वजह से अब किसानों की उस जमीन पर राखड़ डम्प किया जा रहा है जो इन्हें पट्टे पर मिली हुई है। एक रिपोर्ट के अनुसार यूपी महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल के मुकाबले छत्तीसगढ़ राख छोड़ने में सबको पीछे छोड़ दिया है।