वर्तमान समय में खेती में रसायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं सीमित उपलब्धता को देखते हुये अन्य पर्याय भी उपयोग में लाना आवश्यक हो गया है तभी हम खेती की लागत को कम कर फसलों की प्रति एकड़ उपज को भी बढ़ा सकते हैं, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी अगली पीढ़ी के लिये बरकरार रख सकेंगे। रसायनिक उर्वरकों के पर्याय के रूप में हम जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद आदि को उपयोग कर सकते हैं। इनमें हरी खाद सबसे सरल व अच्छा प्रयोग है। इसमें पशु धन में आई कमी के कारण गोबर की उपलब्धता पर भी हमें निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। अतः हमें हरी खाद के यथासंभव उपयोग पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वयन करना चाहिये। हरी खाद, मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये एवं फसल उत्पादन हेतु जैविक माध्यम से तत्वों की पूर्ति का वह साधन है जिसमें हरी वानस्पतिक सामग्री को उसी खेत में उगाकर या कहीं से लाकर खेत में मिला दिया जाता है। इस प्रक्रिया को ही हरी खाद देना कहते हैं। भारत वर्ष में हरी खाद देने की प्रक्रिया पर लम्बे समय से चल रहे प्रयोगों व शोध कार्यों से सिद्ध हो चुका है कि हरी खाद का प्रयोग अच्छे फसल उत्पादन के लिये बहुत लाभकारी है।
हरी खाद का वर्गीकरण:
हरी खाद को प्रयोग करने के आधार पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है.
1. उसी स्थान पर उगाई जाने वाली हरी खाद:
भारत अधिकतर क्षेत्र में यह विधि अधिक लोकप्रिय है इसमें जिस खेत में हरी खाद का उपयोग करना है उसी खेत में फसल को उगाकर एक निश्चित समय पश्चात पाटा चलाकर मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर मिट्टी में सड़ने को छोड़ दिया जाता है। वर्तमान समय में पाटा चलाने व हल से पलटाई करने के बजाय रोटा वेटर का उपयोग करने से खड़ी फसल को मिट्टी में मिला देने से हरे पदार्थ का विघटन शीघ्र व आसानी से हो जाता है।
2. अपने स्थान से दूर उगाई जाने वाली हरी खाद की फसलें:
यह विधि भारत में अधिक प्रचिलित नहीं है, परन्तु दक्षिण भारत में हरी खाद की फसल अन्य खेत में उगाई जाती है और उसे उचित समय पर काटकर जिस खेत में हरी खाद देना रहता है उसमें जोत कर मिला दिया जाता है इस विधि में जंगलों या अन्य स्थानों पर पेड़ पौधों, झाडियों आदि की पत्तियों, टहनियों आदि को इकट्ठा करके खेत में मिला दिया जाता है। हमारे देश में आमतौर पर हरी खाद के उपयोग के लिये दलहनी फसलें उगाई जाती हैं। दलहनी फसलो की जड़ों में गांठे पाई जाती है तथा इन ग्रन्थियों में विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु रहते है। जो कि वायुमंडल में पाई जाने वाली नाइट्रोजन का स्थरीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन की पूर्ति का कार्य भी करते हैं अतः यह स्पष्ट है कि दलहनी फसलें मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने के साथ साथ जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन की भी पूर्ति भी करते है। जबकि बिना फलीवाली फसलों में वायुमंडल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता नहीं होती है।
हरी खाद के लिए प्रयुक्त होने वाली मुख्य फसलों का विवरण |
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क्र. |
साधारण नाम |
वानस्पतिक नाम |
आकार व वृद्धि |
सूखा के प्रति |
जलाक्रान्ति में |
1. |
सनई |
क्रोटोलेरिया जुन्शिया |
सीधा व तीव्र वृद्धि |
सहनशील |
संवेदनशील |
2. |
ढैंचा |
सेस्बेनिया एक्यूलिएटा |
सीधा व लम्बा |
सहनशील |
सहनशील |
3. |
ग्वार |
साइमोप्सिस सोरेलाइडीज |
सीधा |
अत्यधिक |
संवेदनशील |
4. |
लोबिया |
विग्ना कैटजंग |
सीधा, तीव्र वृद्धि |
संवेदनशील |
संवेदनशील |
5. |
मूंग |
फैजिओलस रेडियएट्स |
सीधा, तीव्र वृद्धि |
सहनशील |
अध्यधिक संवेदन |
6. |
उड़द |
फैजियोलस मूंगो |
सीधा, तीव्र वृद्धि |
सहनशील |
संवेदनशील |
7. |
जंगली नील |
टेफ्रोसिया परप्यूरिया |
सीधा |
सहनशील |
साधारण |
उपरोक्त सारिणी में दी गई फसलों के अतिरिक्त भी कई फसलों का प्रयोग हरी खाद के लिये किया जाता है जिनमें दलहनी व बिना दलहनी फसलें शामिल हैं। जब हरी खाद के लिये फसल किसी विशेष कारण की वजह से उस खेत में उगाना संभव न हो तो वृक्षों और झाड़ियों की पत्तियों और टहनियों को हरी खाद के लिये उपयोग किया जा सकता है। परन्तु उपरोक्त सभी फसलों में दलहनी फसलें और दलहनी फसलों में सनई व ढेंचा आदि फसलें ही विशेष रूप से हरी खाद के लिये प्रयोग की जाती हैं।
भारत के विभिन्न राज्यों में हरी खाद के लिए उपयोग की जाने वाली फसलें |
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क्रमांक |
राज्य |
उपयोग की जाने वाली फसलें |
1. |
केरल |
सनई एवं ढैंचा |
2. |
मध्यप्रदेश |
सनई, ढैंचा, कोदोगिरि |
3. |
महाराष्ट्र |
कुल्थी, नाइजर, ढैंचा, जंगली नील, सनई |
4. |
उत्तर प्रदेश |
सनई, ढैंचा, लोबिया, मूंग |
5. |
पंजाब |
ग्वार, क्लस्टरबीन, ढैंचा, बरसीम, सनई, सैंजी, मटर |
6. |
राजस्थान |
ग्वार, ढैंचा |
7. |
बिहार |
सनई, ढैंचा |
8. |
पश्चिम बंगाल |
ढैंचा, सनई, उर्द, लोबिया |
9. |
कश्मीर |
मटर, मसूर, सरसो |
10. |
कर्नाटक |
बैलबेट बीन, सनई |
हरी खाद की फसलों का प्रयोग मुख्य फसल के रूप में बोकर लवणीय क्षारीय भूमि के सुधार या बिल्कुल बलुई भूमि के सुधार के लिये भी प्रयोग किया जाता है। हरी खाद के लिये एक उपयुक्त फसल की निम्न विशेषताये होनी चाहिये।
1. फसल ऐसी हो जिसमें शीघ्र वृद्धि करने की क्षमता हो जिससे न्यूनतम समय में कार्य पूर्ण हो सके।
2. चयन की गई दलहनी फसल में अधिकतम वायुमंडलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता होनी चाहिये जिससे जमीन को अधिक से अधिक नाइट्रोजन उपलब्ध हो सके।
3. फसल की वृद्धि होने पर अतिशीघ्र अधिक से अधिक मात्रा में पत्तियां व कोमल शाखायें निकल सकें जिससे कि प्रति इकाई क्षेत्र से अत्यधिक हरा पदार्थ मिल सके तथा आसानी से सड़ सके।
4. फसल गहरी जड़ वाली हो जिससे वह जमीन में गहराई तक जाकर अधिक से अधिक पोषक तत्वों को खींच सके। हरी खाद की फसल के सड़ने पर उसमें उपलब्ध सारे पोषक तत्व मिट्टी की ऊपरी सतह पर रह जाते है जिनका उपयोग बाद में बोई जाने वाली मुख्य फसल के द्वारा किया जाता है।
5. फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम होने चाहिये।
6. फसल की जल व पोषक तत्वों की मांग कम से कम होनी चाहिये।
हरी खाद की बुवाई का समय
हमारे देश में विभिन्न प्रकार जलवायु पाई जाती है अत: सभी क्षेत्रों के लिये हरी खाद की फसलों की बुवाई का एक समय निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु फिर भी यह कह सकते है कि उपरोक्त सारिणी के अनुसार अपने क्षेत्र के लिये अनुकूल फसल का चयन करके, बुवाई वर्षा प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद कर देना चाहिये तथा यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो हरी खाद की बुवाई वर्षा शुरू होने के पूर्व ही कर देना चाहिये। हरी खाद के लिये फसल की बुवाई करते समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है। बीज दर: हरी खाद वाली फसलों की बुवाई हेतु बीज की मात्रा बीज के आकार पर निर्भर करती है जिन फसलो के बीज छोटे होते है उनमे बीज दर 25-30 किग्रा तथा बडे आकार वाली किस्मों की बीज दर 40-50 किग्रा/हैक्टर तक पर्याप्त होता है।
उर्वरक की आवश्यकता
यद्यपि हरी खाद की फसल को उर्वरकों की आवश्यकता बहुत कम मात्रा में होती है परन्तु फसल को शीघ्र बढ़ाने हेतु, जिससे कि मिट्टी को अधिक से अधिक हरा पदार्थ मिल सके व आगे की फसल की उपज को बढ़ाने हेतु, 50-60 किग्रा फास्फोरस की मात्रा देना पर्याप्त होता है। यदि हरी खाद के लिये किसी बिना दाल वाली फसल जैसे . सरसों, मक्का या सूर्य मुखी का चयन किया गया हो तो उसमें नाइट्रोजन की मात्रा भी 40-50 किग्रा/हैक्टर देना लाभप्रद होता है।
फसल की पलटाई का समय .
फसल को एक विशेष अवस्था पर ही खेत में पलटने से भूमि को अधिकतम नाइट्रोजन एवं जीवांश पदार्थ की मात्रा प्राप्त होती है। इस अवस्था से पहले या बाद में फसल पलटने से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है। यह विशेष अवस्था उस समय होती है जब फसल कुछ अपरिपक्व अवस्था में हो तथा फूल निकलना प्रारम्भ हो गये हों। इस समय वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा पौधों की शाखायें व पत्तियां मुलायम होती हैं तथा फसल का कार्बनः नाइट्रोजन अनुपात भी कम होता है। सनई की फसल में 50 दिन बाद तथा ढेंचा में 40 दिन बाद यह अवस्था आती है। बरसीम की फसल में 3.4 कटाई के बाद फसल को पलटना लाभप्रद रहता है। फसल को पलटने के लिये पुरानी पद्धति में पाटा चलाकर फिर मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को मिट्टी में दबा दिया जाता है। परन्तु अब रोटावेटर की उपलब्धता व प्रयोग से यह कार्य अधिक बेहतर तरीके से किया जा सकता है क्योंकि इसमें फसल को सीधे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया एक बार में ही पूर्ण कर दी जाती है। जिससे समय की बचत के साथ-साथ हरे पदार्थ का सड़ाव जल्दी पूर्ण होता है। मृदा एवं जलवायु की विभिन्न दशाओं के अनुसार हरी खाद की फसलों की औसत उत्पादकता एवं उनके उपयोग से मृदा में निम्नानुसार जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन का योगदान संभावित होता है
हरी खाद की फसलों की औसत उत्पादकता एवं उनके उपयोग से मृदा में जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन का संभावित योगदान |
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क्र. |
फसल का नाम |
हरे पदार्थ की उपज क्वींटल/हेक्टेयर |
जल की मात्रा (प्रतिशत) |
जीवांश पदार्थ की मात्रा (प्रतिशत) |
नाइट्रोजन की मात्रा किग्रा/हेक्टेयर |
1. |
सनई |
212.0 |
75.0 |
0.43 |
83.8 |
2. |
ढैंचा |
200.0 |
75.0 |
0.43 |
83.8 |
3. |
उर्द |
120.0 |
83.0 |
0.43 |
77.5 |
4. |
पिल्ली पसेरा |
180.0 |
70.0 |
0.40 |
42.7 |
5. |
मूंग |
80.0 |
75.0 |
0.53 |
50.0 |
6. |
ज्वार |
200.0 |
54.0 |
0.34 |
38.0 |
7. |
लोबिया |
150.0 |
86.4 |
0.49 |
56.7 |
8. |
मसूर |
56.0 |
65.0 |
0.70 |
36.9 |
9. |
मटर |
210.0 |
83 |
0.36 |
67.1 |
10. |
सैंजी |
286.0 |
82.0 |
0.51 |
135.0 |
11. |
बरसीम |
155.0 |
87.0 |
0.43 |
60.0 |
12. |
नील |
100.0 |
44.7 |
0.78 |
67.3 |
यदि हम उपरोक्त तथ्यों पर विचार कर हरी खाद की उपयोगिता व महत्त्व को समझ कर कुछ हद तक ही इसका प्रयोग करना प्रारम्भ करे तो हमें मुख्य रूप से निम्न लाभ होगें।1. मृदा में जीवांश पदार्थ एवं उपलब्ध नाइट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होती है।
2. मृदा सतह में पोषक तत्वों का संरक्षण होता है तथा अगली फसल को तत्व पुनः प्राप्त हो जाते हैं।
3. पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है एवं मुख्य फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
4. जीवांश पदार्थ हरी खाद द्वारा मिट्टी में मिलकर रेतीली व चिकनी मिट्टी की संरचना को सुधारता है।
5. हरी खाद में कार्बनिक अम्ल बनने से पी,एच को कम करके मृदा की क्षारीयता को कम करता है।
Authors:
R.K.S.RATHAUR
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