जल संरक्षण और कृषि के विविधीकरण से सुधरेगी किसानों की दशा

Submitted by Hindi on Sat, 07/02/2016 - 15:29

कृषि के विविधीकरण और कृषि आधारित उद्योगों जैसे कि खाद्य प्रसंस्करण, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, बांस आधारित उद्योगों इत्यादि में नवाचार की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि अपशिष्ट सहित स्थानीय रूप से उपलब्ध उत्पादों का सबसे अच्छा उपयोग सुनिश्चित करने के लिये अभिनव प्रौद्योगिकी लाने हेतु अनुसंधान से जुड़े प्रयास किए जाने चाहिए।

देश कृषि संकट के दौर से गुजर रहा है। खेती घाटे का सौदा हो गई है। कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यह किसी एक राज्य या क्षेत्र की बात नहीं है। पूरे देश में किसान कर्ज के जाल में फंस गया है। महाराष्ट्र का विदर्भ, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बुन्देलखण्ड, आंध्रप्रदेश, पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल से किसान पलायन कर रहे हैं। इसका कारण कुछ क्षेत्र सिंचाई के लिये पानी की कमी है तो कुछ क्षेत्र में बाढ़ की समस्या है। फिलहाल खेती के लिये जल संकट प्रमुख समस्या बन गई है। कई क्षेत्र में जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। लोगों को पीने के लिये पानी नहीं मिल पा रहा है।

भारत सदियों से कृषि प्रधान देश रहा है। पहले भी बाढ़ एवं सूखा आती रही है। लेकिन कृषि इतने संकट में कभी नहीं थी। क्योंकि हमारा समाज परम्परा के अनुसार प्रकृति के साथ जीने वाला समाज रहा है। लेकिन हरित क्रांति और सिंचाई परियोजनाओं ने परम्परागत कृषि की परिभाषा को उलट दिया। लोग वर्षा के पानी को संचय करने के बजाए नहरों, ट्यूबवेलों के पानी पर आश्रित हो गए। तालाब, पोखर सब उपेक्षित हो गए। जिससे भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से पानी की समस्या सामने दैत्य बन कर आ गया।

किसानों की यह दशा क्यों और कैसे हुई अब सरकारी तंत्र भी इस पर सोचने को मजबूर है। सिंचाई परियोजनाओं और देश में वर्तमान कृषि के स्वरूप में कोई गड़बड़ी है, यह अब सरकार भी मानने लगी है। कृषि संकट को उबारने के लिये केवल सिंचाई के लिये बाँध और नहरें बना देने से ही समस्या का समाधान नहीं होगा। ऐसी बात होने लगी है। केंद्र सरकार के मंत्री यह मानने लगे हैं कि कृषि संकट से निजात पाने के लिये जल संरक्षण और कृषि का विविधीकरण जरूरी है। सरकारी नीतियों और बाजार के दबाव में हमारे देश से कृषि विविधीकरण लगातार कम होता जा रहा है। किसान वही फसल उगा रहे हैं जिसकी मांग बाजार में अधिक है या जिसका बाजार भाव ज्यादा है। ऐसे में अब किसान मोटा आनाज उपजाना बंद कर दिए हैं। जबकि सच्चाई यह भी है कि मोटे आनाज कम लागत में अधिक फायदा देते हैं।

देर से ही सही देश की सरकार का ध्यान अब कृषि के बुनियादी संकट की तरफ गया है। अब वे इस पर सोचने और बोलने को मजबूर हुए हैं। अभी हाल ही में नई दिल्ली में ‘किसानों को कर्ज के जाल से मुक्ति दिलाना : भारत में नीतिगत सुधारों की चुनौतियाँ’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग एवं शिपिंग में नितिन गडकरी ने कहा कि, “देश में किसानों की खराब आर्थिक स्थिति के लिये पानी की भारी कमी और खेती एवं अन्य सम्बंधित गतिविधियों में नए प्रयोग का न होना और विविधीकरण का अभाव मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। किसान वर्षाजल का संरक्षण और कई तरह के फसल बोकर इस समस्या को सुलझा सकते हैं।”

देश के सिंचाई की सुविधाओं पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा कि देश में सिंचाई से जुड़ा बुनियादी ढाँचा निहायत ही अपर्याप्त है। फिलहाल अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने देश के विभिन्न भागों में लंबे समय से सुस्त पड़े सिंचाई योजनाओं को ज्यादा धन दिया है। ऐसी 89 योजनाओं का नाम तो त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम है। लेकिन ये योजनाएं लंबे समय से मंद गति से काम कर रही थीं। वैसे तो उन्होंने सुस्त पड़े 89 एआईबीपी (त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम) और अन्य सिंचाई योजनाओं के लिये ज्यादा धनराशि दिए जाने का स्वागत किया है। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अगर हम अपने पास उपलब्ध जल संरक्षण एवं उपयोग करना सीख लें, तो काफी हद तक पानी की समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। इस सम्बंध में उन्होंने नदियों और धाराओं के तलछट को बनाए रखने के लिये मिट्टीरोधी बाँधों (चेक डैम) का निर्माण करने की जरूरत पर विशेष बल दिया। उन्होंने राज्य सरकारों का आह्वान किया कि वे सिंचाई के लिये अपने धन आवंटन में वृद्धि करें और इसके साथ ही उन्होंने मध्य प्रदेश का उदाहरण दिया जहाँ सिंचाई खर्च में की गई बढ़ोतरी की बदौलत उत्पादकता भी बढ़ गई है।

जल संरक्षण का उल्लेख करते हुए नितिन गडकरी ने यह भी कहा कि गंगा नदी पर जल मार्ग विकास परियोजना और हाल ही में घोषित 111 अन्य राष्ट्रीय जलमार्गों के विकास से जल सतह को ऊपर उठाने और सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध कराने में काफी मदद मिलेगी। लेकिन इसके साथ ही हमें एक बार अपने अतीत और परम्परा की तरफ भी देखना चाहिए। हमारे देश में एक ही समय किसान कई फसलें बोते थे। यहाँ तक की एक खेत में भी कई तरह के अन्न बोया जाता था। जैसे चने के साथ अलसी, मटर में सरसों, गन्ने के साथ प्याज आदि बोने की परम्परा रही है। किसान एक ही अन्न की खेती करने के साथ अपने जरूरत की हर चीज उपजाते थे। इस प्रक्रिया में जहाँ किसानों की हर जरूरत खेती से हो जाया करती थी वहीं पर अलग-अलग खेती से पानी भी कम लगता था। अब हरित क्रांति के चलते किसान वही फसल उगाना चाहते हैं जो उनको ज्यादा मुनाफा दे। इसके चलते वे बागवानी, पशुपालन आदि छोड़ दिए। देश में ऐसी धारणा बन गई है कि कृषि के विविधीकरण से किसानों को नुकसान होगा। यह गलत धारणा है।

हर राज्य में वहाँ की जमीनी सच्चाई को देखते हुए कृषि विविधीकरण अपनाया जा सकता है। विविधीकरण के माध्यम से नकदी फसलों की खेती को बढ़ावा देने के बुनियादी ढाँचे में अपेक्षित बदलाव की भी जरूरत है। सटीक खेती अपनाने के लिये और सिंचाई, सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपनाने के लिये किसानों को प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए। किसानों को फसलों के लिये पानी की कमी के कारण नुकसान, मौसम की अनियमितता के कारण भी कृषि में बदलाव की आवश्यकता है।

कृषि के विविधीकरण और कृषि आधारित उद्योगों जैसे कि खाद्य प्रसंस्करण, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, बांस आधारित उद्योगों इत्यादि में नवाचार की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि अपशिष्ट सहित स्थानीय रूप से उपलब्ध उत्पादों का सबसे अच्छा उपयोग सुनिश्चित करने के लिये अभिनव प्रौद्योगिकी लाने हेतु अनुसंधान से जुड़े प्रयास किए जाने चाहिए। इस सम्बंध में नितिन गडकरी ने मानव बाल से अमीनो एसिड उर्वरकों और कृषि एवं नगर निगम के कचरे से दूसरी पीढ़ी के एथनॉल के उत्पादन का उदाहरण दिया। उन्होंने बताया कि हरित राजमार्ग कार्यक्रम से भी गाँवों में रहने वाले युवाओं के लिये रोजगार उत्पन्न होंगे और इसके साथ ही उनकी वित्तीय स्थिति सुधारने में भी मदद मिलेगी।